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ध्वनियां भी।" दे ना मा. की मूर्धन्य ध्वनिया विशेपत ट, ठ, 3, 8, भा प्रा. भा. की निसर्ग मूर्वच व्वनियो के अविक ममीप है, उस कोटि के शब्दो मे से अधिकाश शब्दो का सम्बन्ध द्रविड भापायी ने न होकर सामान्य रूप से विकसित परम्परित ध्वनियो ने है । इस मदर्भ में डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव का अभिमत उपयुक्त है।
मूर्धन्य, श्वान, बाघोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्णवनि है । दे. ना मा. में इससे प्रारम्भ होने वाले 21 शब्द है। इनमे एक भी शब्द ऐमा नही है जिसे 'तदभव' की कोटि में रखा जा सके । इन शब्दो का प्रारम्भवर्ती 'ट' ध्वनिग्राम प्रा. मा प्रा. के निमर्ग पिड मधन्य 'ट्' का ही अनुगमन करता है। प्रारम्भर्ती म्यिनि- टम्हारी-अरणिकुममम् (4-2), टमरो केशचय (4-1), वारो,-अवमग्न (4-2), टिप्पी-तिलकम् (4-3)। मध्यवर्ती स्थिति तय उपान्त में यह '' और 8' दो रूपो मे म भा. पा के ही 'ह' और 'ट्ट' का अनुसरण करता हैमध्यवर्ती ''-काली-कण्टकारिका ( 2-4), कटोल-ककोड (एक वृक्ष) (2-7), छिटटरमरणम्- व स्थगन क्रीडा (3-30)। मव्यवर्ती 'टे' मे प्रतिनिहित हैमा मा अा. 'ई'-अट्टयो-यात (1-10), कुट्टयरी-चण्डी (2-35), दृश्यातिरस्
कन्णिी (4-1) प्रा मा प्रा--तं-कट्टारी-क्षुरिका कत्तंगे (2-4), वूलीवट्टी-अश्व (धुरीयवर्तः
15-61), पट्टियो-प्रवर्तित [प्रवर्तित (6-26) 1 प्रा मा पा ----योट्टो-अपमृन अपहृतः (1-66), वोसट्ट-मतोल्लुठित विक
मित सि. है 4-256 (6-81)। प्रा. भा पा.-४-भट्टियो-विष्णु। भट्टेक (6-100)। प्रा ना पा ~च्च-रोट तन्दुलपिटाच्य (6-11) । उपान्त में 'ट'-टुटो-छिनकर (4-3), टेंटा- तम्थान (43), कुटी पोटल
(2-34)। - ~टमगेट-मेयरः (4-1), झोटी-अर्वमहिपी (3-59), कदाट___ नीलोत्पल (2-9)।
यह मृन्य, प्रवास, अघोप, महाप्राण, निरनुनामिक स्पर्ण ध्वनि है । प्रा मा प्रा.में उगसे प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सस्था अत्यल्प है । ठक्कुर, ठार,