________________
[ 55 परम्परा में प्रचलित अर्थ ही उन्हें व्यारयायित कर सके, ऐसे रूढ शब्दो को "देशी" कहा गया, जसे अगय =दैत्य, पाकामिम=पर्याप्त, इराव हस्ति, पलविल =धनाढ्य, चो= बिल्व यादि । "देशीनाममाला" ऐसे ही देशी शब्दो का सकलन ग्रन्थ है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने परम्परा में प्रचलित एव प्रसिद्ध 3978 शब्दो का समाहार इस आय में किया है।' उनमे सकलित शब्दो का स्वरूप निर्धारण करते हुए स्वय ही प्राचार्य निमते हैं
जे नकवणे ण सिद्वा पगिद्धा साकयाहिहाणेसु ।
ण य गउण लक्षणा सत्तिमभवा ते इह णिवद्धा ।।1.3.2 जो पब्द न व्याकरण से व्युत्पन्न हैं और न सस्कृत कोशो मे निबद्ध है तथा लक्षणागति के द्वारा भी जिनका प्रर्य मम्भव नही है, ऐसे शब्द इस कोश मे निबद्ध किये गए है । वे प्रागे और भी स्पष्ट करते हए कहते है कि देशी शब्दो से विभिन्न प्रान्तो मे बोले जाने वाले (नाहित्येतर या ग्रामीण) शब्दो का अर्थ नही लगा लेना चाहिए।
देस विसे मपसिद्धीइ भण्ण माणा अरगन्तया हुन्ति ।
तम्हा अगाइपाइअपयट्ट भामाविमेमग्रो देसी 11 4 3. देशी शब्दो से यहा महाराष्ट्र विदर्भ, पाभीर प्रादि देशो मे प्रचलित शब्दो का मंकलन भी नहीं समझ लेना चाहिए । क्योकि देण विशेप मे प्रसिद्ध शब्द अनन्न हैं । श्रत उनका सकलन सम्भव नहीं है । ग्रनादिकाल से प्रचलित भापा ही देशी है ।
इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वय ही अपने द्वारा सकलित तथा देशी कहे जाने वाले शब्दो की व्यात्या स्पष्ट रूप से कर दी है । परन्तु यदि व्यान से देखा जाये तो इस
कोश के सभी शब्द देशी नही है। देशी शब्दो के भ्रम मे या फिर पूर्व प्राचार्यों की ___ मान्यता के कारण उन्होने देशी शब्दो के साथ ही अनेको तत्सम और तद्भव शब्दो का
सकलन भी कर दिया है । यद्यपि उन्होने जगह-जगह "पूर्वाचार्यानुरोधात्" और "अप्रमिद्वत्वात्" जैसे वाक्यो का सहारा लिया है फिर भी कही-कही वे ऐसी भूले कर जाते हैं जो स्वय ही उनकी पूर्वमान्यतानो का खण्डन करती है । अनेको ५,ब्द ऐसे पाये है जिन्हे उन्होने अपने शब्दानुशासन (व्याकरण ग्रन्थ) मे तत्सम और तद्भव बताते हुए भी इम कोश मे "देशी शब्द के रूप मे सकलित कर दिया है । अब तक हुई सोजो के आधार पर 'देशीनाममाला' मे सकलित तत्सम तद्भव और देशी शब्दो की सख्या निम्न प्रकार से दी जा सकती है ।
1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' डा0 नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ0 539 2 'अपघ्र श' प्राकृतो की ही अन्तिम कडी है 3 पिशेल, वनर्जी रामानुजस्वामी आदि का यही मन्तव्य है।