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यह नपु.लि. का द्योतक विभक्ति प्रत्यय है। देशीनाममाला के सज्ञा और विगेपण पदों में यह दो रूपो मे व्यवहृत है। एक तो संस्कृत (फलम् आदि) के अनुकरण पर विभक्ति प्रत्यय (प्रए व ) के रूप मे और दूसरे स्वार्थिक श्र (सस्कृत 'क') और कृदनी 'त' (प्र) प्रत्यय के स्थानी रूप मे । स्वार्थिक 'अ' के स्थानी रूप में यह र विशेषरण पदो में व्यवहृत हुआ है। क्रमश दोनो के उदाहरण इस प्रकार है
प्रवक्त-ग्रानान्तम्, अण्णमय-पुनरुक्तम, अवगूढ-व्यलीकम्, इदग्गिधूमंतुहिनम् गुन-चुम्बनम्, गोड-काननम, झमुर-ताम्बूलम् इत्यादि । म्यायिक 'क' प्रौर कृदन्ती 'त' का स्थानी यं--
ज्नु भिप्र-रद्धगलगेदन (उन मुम्भितम), प्रौअग्घियं-घात (अव-अाघ्रात), कडन्नि बारितम् ('न'), भलुमिग्र -दग्ध ('न') णिहुन-
निर्व्यापार (निभृत) इत्यादि।
दनिय-निरिगतान (दलिक), बन्ध-इक्षसदृश तणम् (क), वेप्युअ-निशुत्व (क), हलिग्र -शीन (लघुक ) । म्वाधिक 'क' प्रत्यत्य के स्थानी 'अ' और तज्जन्य 'प्र' प्रत्यय मयुक्त म्प, 'त' के न्यानी रुपो की तुलना मे, अत्यल्प हैं । देनी--
अन्यानेक देमी पन्दी में यह विभक्ति प्रत्यय न होकर पूरे प्रातिपदिक का ही प्रग वाकर ग्रगा। ऐसे शब्द नम्वन ने अव्युत्पाद्य है। इस कोटि के कुछ प्रयोग दादन ?
___ मालिप्र-गृहम, मलिन -नयक्षेत्रम्, ग्ढुग्र-रज्जु इत्यादि । परन्तु प्राचार्य गचन्द न एन मनी शन्दी में निपचन ही मानकर मकानित किया है। उदाहरण सो गामामो न ना प्रयोग विभवन्यन्न नपु नि० गन्दी के रूप में ही किया गया है। (ज) निविरित शून्य प्रयोग