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होये आने के कारण इनका अर्थ मात्र ज्ञात होता है । ऐसे शब्दो को अज्ञातव्युत्पत्तिक शब्दो की कोटि मे रखा जा सकता है।
प्राकृत भापा मे संस्कृत के अकारान्त शब्द की प्रथमा विभक्ति के ब. व मे विसर्गयुक्त प्राकारान्त से, विसर्ग का लोप कर केवल 'या' के प्रयोग की प्रवृत्ति भी रही है-जैसे वच्चा-वत्सा । देशीनाममाला के कुछ प्राकारान्त शब्दो मे यह प्रवृत्ति देखी जा सकती हैं
उवलभत्ता-वलयानि, खड्डा-मौक्तिकानि, गुन्दा, गुपा-बिन्दव , चाउलातण्डुला ।
उपर्युक्त नीन विशेषताग्रो के अन्तर्गत देशीनाममाला के समस्त प्राकारान्त पद समाहित किये जा सकते है । विशुद्ध देश्य प्रकृति के शब्दो मे इसे शून्यविभक्तिक प्रयोग भी कहा जा सकता है ।
प्राकारान्त पदो की भाति ईकारान्त पद भो तद्भव और देश्य दो प्रकार के हैं । ऐसे शब्द कही तो विभक्त्यन्त हैं और कही निविक्तिक । विभक्त्यन्त पदो मे 'ई' स्त्रीलिंगवाची विभक्ति प्रत्यय है । ऐसे शब्दो मे यह सस्कृत के स्त्रीलिंगवाची 'डीप' प्रत्यय का ही विकास है । तद्भव शब्दो से अलग 'ई' प्रत्यय लघुतावाचक भी हैं। दोनो के उदाहरण द्रष्टव्य हैस्त्रीलिंगवाची 'ई' ~~
खोट्टी-दासी, गड्डरी-छागी, गत्ताडी-गायिका, गदीणी-चक्षु स्थगन-क्रीडा, मल्लारणी-मामी, महावल्ली, नलिनी, माणसी-मायाविनी,मामी-मातु-लानी,मायदीश्वेताबरासन्यासिनी मेठी-पीलवान की स्त्री इत्यादि । लघुतावाचक 'ई'
यह प्रा 'डी' और 'री' व्युत्पादक परप्रत्ययो के साथ मिलकर प्रयुक्त है । इसका विस्तृत विवरण व्युत्पादक प्रत्ययो के प्रसग मे दिया जायेगा। खडक्की-खिडकी, गोजी-मजरी आदि इसके उदाहरण है । शून्यविभक्तिक 'इ' प्रत्यय
जैसे-अणुसुत्तो-अनुकूल , ई दग्गी-तुहिनम्, उत्तु रिद्धी-दृप्त', उद्धच्छवी, उररी__ पशु., खुल्लिरी सकेत: घुग्घुरी.,-मण्डूक., छछुई-कपिकच्छू इत्यादि ।