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(151) रुन्दो - विपुल – (विशेषण) दे. ना मा 7-14 - श्रवबी मे 'रिन्द' - पद हट्टे-कट्टे तन्दुरुस्त व्यक्ति के विशेषण रूप मे व्यवहृत होता है । ग्रत्यल्प ध्वनिपरिवर्तन ( उ का ड) के साथ इस शब्द का सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से जोडा जा सकता है ।
(152) रूत्र - तूल ( सज्ञा ) दे ना मा 7-9 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'रुई' शब्द इसी का विकमित रूप माना जा सकता है ।
(153) रोट्ट - तन्दुलपिष्टम् ( चावल का घाटा ) (सज्ञा) दे ना मा 7-11 हिन्दी 'रोटी' शब्द इसी का विकसित रूप होगा । पहले चावल के आटे का वाचक यह शब्द अपनी विकसितावस्था मे उससे बनी हुई 'रोटी' शब्द का वाचक हो गया होगा | अवधी के कुछ क्षेत्रो मे 'रोट' शब्द भी प्रचलित है । तमलि मे भी 'रोट्टि ' शब्द मिलता है | पी० वी० रामानुजस्वामी ' रोट्ट को तद्भव मानते हुए इसे संस्कृत के ‘रुच्य’ शब्द से व्युत्पन्न करते है, पर यह व्युत्पत्ति उपयुक्त नही है ।
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(154) वक्खारय - रतिगृहम् (सज्ञा) दे. ना मा. 7-45 – अवधी मे 'बखरी' शब्द घनी लोगो के घर के लिए प्रयुक्त होता है । यह शब्द निश्चित ही 'वक्खारय' का ही विकसित रूप है । अवधी मे ही 'वखार' शब्द 'अनाज' रखने को कोठरी के अर्थ मे भी ग्राता है । इसका भी सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से जोडा जा सकता है |
(155) वड्डी - महान (विशेषण) दे ना. मा 7-29 - व्रजभापा 'बडो' हिन्दी 'वढा' श्रववी 'वड' श्रादि शब्द 'वड्डों' के ही विकसित रूप हैं । श्रर्थ भी वही है । व्रजभाषा सूर कोप मे इसकी व्युत्पत्ति सस्कृत के 'वर्द्धन' शब्द से दी गयी है । इससे हिन्दी का 'वहना' क्रिया पद निप्पन्न किया जा सकता है (वर्द्धन 7 वढ्ढरण = 7 वटना ) पर 'वडा' पद किसी प्रकार भी नही वन सकता ।
(156) वड्ढइग्रो - चर्मकार (सज्ञा) दे ना मा 7-44 - हिन्दी का जातिवाची 'बढई' शब्द का विकसित रूप माना जा सकता है । यद्यपि यहा 'वढई' का अर्थ 'चर्मकार' न होकर 'लक्डी' का कार्य करने वाली जाति विशेष है फिर भी इसमे कोई अन्तर नही पडता । भारत की जाति व्यवस्था प्राय कर्म के श्राधार पर ही की गयी है । कर्म की उच्चता श्रोर नीचता के आधार पर ही जाति की
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देना मानमरी, पु 73
को 1180