________________
222 } प्रोई- कुड्डगिलोई-गृहोघा (2-19), घम्मोई-गंडुत्संज्ञकतुणम् (2-106), नोई
विद्युत (3-49) प्रोड-कोटा-करीयाग्नि (2-48)। प्रोप्रो-जोरो-चन्द्र (3 48), ढोग्रौ-दान्हस्तः (लकडी का चम्मच) (6-11),
योयो-रजकः (5-32), दुरालोमो-निमिरम् (5-46), पोयो-धववृक्षः (6-81)
दो स्वरो के प्रापसी संयोग के अतिरिक्त देशीनाममाला की शब्दावली मे तीन-तीन और क्ही-कही चार-चार म्बरो का एक संयोग मिलता है । ऐसे शब्दों को देखकर आश्चर्य मे पड जाना होता है। दो स्वरों का एक साथ किया गया उच्चारण ही अत्यन्त कठिन होता है फिर तीन-तीन या चार-चार स्वरो का एक साथ उच्चारण कठिन नहीं, असम्भव मा लगता है । ऐसे स्वर सयोगो को देखते हुए, एक मभावना की जा सकती है- मध्यकालीन भारतीय प्राय भागो मे व्यजनों के स्गन पर न्वर के उच्चारण की प्रवृत्ति जोर पकटती जा रही थी, इस प्रवृत्ति को लगभग सभी वैय्याकरणो ने लोक मापा का प्रभाव बताया है। नव लोक भाषा के प्रभाव से ग्रस्त तत्सम शब्दो मे व्यजनो के उच्चारण की प्रवृत्ति नही रही तो म्वय लोकमायायो मे व्यजनी का उच्चारण बनाये रन्वना कहाँ तक उपयुक्त होता । मभवत प्राकृतीकरण की इसी प्रक्रिया में कुछ देशी शब्दो के व्यजन-उच्चारण को समाप्न ही कर दिया गया होगा । ऐसे शब्दो का निश्चित ही प्राकृतीकरण किया गया है, क्योकि ऐसे शब्द मामान्य जनता के बोलचाल के शब्द नहीं हो सकते । इस गेटि के कुछ वर-मयोगो के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं
अअग्र - मग्र-शिला (8-46) प्रयाई - मनाई-शिगेमाला (6-115 1 अडग्र - कडगंको-निकर (2-13) 1 अइया - पोग्रडया निद्राकरीलता (6-63) । प्रहर - काटल्ल-स्तोक (2-24)। अडग्रो - वडग्रो-पीत (6-34)। प्रटन - कटन-प्रधानम् (2-56)। मायग्रो - पाणाअग्रो-श्वपचः (6-38)। पाटन -- पवहाइग्र-पागे बढा हृया (6-34), पाइअवदन विस्तार
(6-38)