SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 154 ] "प्रथम प्राकृत"1 से व्युत्पन्न किये जा सकते हैं । उनका कथन है कि इन शब्दो का उम प्रायमिक प्राकृत जिसमे कि सस्कृत का विकास हुआ, मे अलग हटकर तत्कालीन जनमापा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । ये वास्तविक "तद्भव" शब्द है तथापि यहा तद्भव का अर्थ वह नही है जो प्राकृत व्याकरणकारो ने लिया है । ये देश्य शब्द लोक मे बोली जाने वाली जनमापा के शव्द होगे क्योकि ऐसे शब्द प्रायः ‘गुजरात" यादि प्रदेशो मे लिखे गये साहित्य मे पाये गये हैं और गुजरात पार्यों के प्रमुख विद्यास्थान मध्यदेश से बहुत दूर भी पड़ जाता है ।"2 इस प्रकार जार्ज ग्रियर्सन “देशी" शब्दो का सम्बन्ध पार्यों द्वारा वैदिक काल के पहले ही बोली जाने वाली जनमापायो से बताते हैं। इन वोलियो मे से एक का विकास वैदिक और माहित्यिक सस्कृत के रूप मे हुया था। इसके अतिरिक्त वे देशी शब्दो का सम्बन्ध प्रान्तीय वोलियो से, बताते हैं-विशेपत गुजरात इत्यादि प्रदेशो की वोलियो से जो कि सस्कृत के उद्भव स्थान मध्यदेश से बहुत दूर पड़ जाती है । शुद्धता पर अधिक वल देने के कारण सस्कृत के विद्वानो ने इन शब्दो को प्रश्रय न दिया होगा परन्तु जनमापायो के आधार पर विकसित होने वाली साहित्यिक मापात्रो मे ये शब्द स्वय ही पाते गये । ग्रियर्सन की यह मान्यता बहुत कुछ उचित भी है। उनके द्वारा किये गये प्राकृतो के विमाजन प्रादि विषयो पर चाहे जो विवाद हो परन्तु 'देश्य' शब्दो के बारे मे दिये गये तथ्य कुछ हद तक मान्य हैं । उनका देशी, शब्दो का 'तद्भव' कहना भी व्याख्या की अपेक्षा रखता है । यहा 'तत्' का अर्थ सस्कृत से न होकर 'प्रथम प्राकृत' से है। प्रथम प्राकृत से उदभूत होने के कारण ही ग्रियर्सन 'देशी' शब्दो को 'तद्भव' कहते हैं । ये देशी शब्दो को पार्यो और प्रार्येतर जातियो के प्रापसी प्रादान-प्रदान से विकसित शब्द मानते हैं । परन्तु यह आदान-प्रदान मस्कृत के विकास के पूर्व ही हो चुका था । सस्कृत में ये तत्व पाणिनि जमे वैयाकरण के हाथ से छाटकर बाहर कर दिये गये और जो बचे भी उनका मंस्कृतीकरण कर लिया गया । पाणिनि की अष्टाध्यायी मे कितने ही ऐसे शब्द खोजे जा सकते हैं जो निश्चित रूप से सस्कृत की 1. जाज नियसन ने प्राकृतो के तीन विभाग किये हैं (1) प्रथस प्राकृत इमसे वैदिक और माहित्यिक नस्कृत का विकास हुआ इसका मूल माहित्य न मिलने में यह ममाप्त प्राय, है (2) द्वितीय प्राकृत-इसके अन्तर्गत पालि, जैन बघमागधी, अशोक के लेख (प्राथमिक नवन्या) सम्कृत नाटकों की प्राकृत महाराष्ट्री ता साहित्यिक अपत्र श (द्वितीय अवस्था) बातो है (3) 10 वी सदी के बाद विकसित ग्रामीण अपनश सम्मत आ या भा को उन्होंने तृतीय प्राकृत के अन्तगत रखा है। 2 मे पर रिपोर्ट याफ इण्डिया, 1901, प्रियमन, 159-60 तया निग्विस्टिक सर्वे बॉफ डिया' जिल्द प्रथम, प 125-28
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy