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[ 91 कुमारपाल के प्राक्रमण से भयभीत उसके कुछ शत्रु घर छोडकर भाग रहे हैं
गिरिगडहरे उत्तरिय डग्गला डडएण तुह रिउणा । डड्ढाडिडम्बरिल्ले जन्ति वणे डभिनव्व जखसणा ।। 418181।
"अपने भवनो से उतरकर बच्चो को लिये हुए-धूप मे तपती हुई सडक से जीरगंशीणं वस्त्रधारी तुम्हारे शत्रु वन की ओर जा रहे है ।" वन मे शुको द्वारा प्राधा खाकर जोड दिये गये फलो से वे गुजारा करते है। इसी प्राशय का एक अन्य पद्य भी द्रप्टव्य है
तुह बाणवक्कडे बद्दलेव हमो रिऊ चइन सभर ।
वकिय सुग्र वलि ग्रफलो सुमरइ वयड गयो वायवणे ।।712913511
"तुम्हारे द्वारा की गयी निरन्तर बाणवृष्टि रूपी दुर्दिन के कारण हस रूपी शत्र समर छोडकर व्याधाकुल वन मे सुक-भक्षित फलो का पाहार करते हुए वाटिका (?) का स्मरण कर रहे हैं।"
युद्ध से भयभीत शो की तो ये दशाएं हैं। उनकी पत्नियो के त्रास का वर्णन भी हेमचन्द्र ने कई स्थलो पर किया है। कुमारपाल के शत्रुओ की वे ही पलिया जो कभी तरह-तरह के विलास के प्रसाधनो का प्रयोग करती थी, सभी कुछ छोड जगलो मे भटक रही हैं
घुसिणाहिवण्णिग्रामो अज्झोल्लिअ भूसिआउ जाउ पुरा ।
तुह रिउवहूउतानो भमन्ति चइग्र अर्द्ध जघिपाउ वणे ।।2131133॥
"पहले जो पीले और काल रग के केशर से लिप्त रहती थी तथा जिनके वक्ष - स्थल के आभूपण मोतियो की रचना से युक्त रहते थे-तुम्हारे शत्रुप्रो की वे ही वधुए पदत्राण को भी छोडकर (नगे पाव ही) वन मे घूम रही हैं ।" प्राचार्य हेमचन्द्र की ये पक्तिया हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भूपण के प्रसिद्ध कवित्त की याद दिलाती हैं । भूपण ने भी शिवाजी के शौर्यवर्णन के बीच उनकी शत्रु-पलियो की दशा का वर्णन लगभग इसी प्रकार किया है । द्रष्टव्य है, भूषण का निम्न कवित्त
ऊ चे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,
ऊचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
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दे० ना0 मा05121126