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6 शर जोटिकरु, टिणी 4-30, हककय - 4-14 इत्यादि । इन सभी शब्दो के प्रतिग्निा पति विशेष या उसकी जाति के परिचय के लिए कुछ विशिष्ट वेए प्रनलिन । गिने देते ही उस व्यक्ति की जाति में परिचय मिल जाता था। पुलिन्द नाम की निमातम कही जाने वाली जानि से सम्बन्धिन व्यक्ति अपने सिर पर हो पनो का पोना पाहिन कर बनता था। इस पत्ते के बने दोनो के लिए कई शब्द प्रना -नी, पनामारमा तथा पत्तपिनालग 6-2 यादि ।
भानूपरा.-गकोण ने प्रगुप्त प्राभूपरणवाची शब्दो को देखते हुए जिस समाज । निरनना वा अत्यन्त पनी पोर उच्च रहन सहन वाला रहा होगा । कोश में प्राये हुए प्राभूपण वाची पद गोर के पनो के प्राचार पर इस प्रकार विवेचित फिले पा सरते हैं।
सिर के प्रारूपए -चकन -3.20, मालयामो 3-5 ये शब्द मिर पर धारण किये जाने याने प्राभूषणो के अर्थ में पाये है। मस्तक पर धारण किये जाने वाले प्राभूपगो के लिए नीमन्तय 8-35 पद पाया है। इसका प्राशय मस्तक पर धारण की जाने वानी वेदी मे है । यह सोने और चाटी दोनो ही की बनती रही होगी । प्राज भी या उन्ही दो घातयो की बनती है । गोठाली - 4-43 आन्द भी सिर पर धारण किये जाने वाले भूपमा केही प्रर्य में प्रयुक हग्रा है परन्तु कोश में प्राप्त विवरण के प्राचार पर इनके स्वस्प और किस धातु से बनता है इस बात का निर्देश प्राप्त नहीं होना । वानवालो 7-59 भी इमी लार्थ में प्रयुक्त हुग्रा है ।
फानो का प्रानुपरण
कानो मे पहने जाने वाले विविध प्राभूषणो से सम्बन्धित कई शब्द इस कोण मे प्राप्त होते हैं जैसे उपआली 1-90 इस भूपण की तुलना आधुनिक हिन्दी की यामीण बोलियो मे कान के प्राभूपण के अर्थ में प्रचलित वाली शब्द से की जा सकती है । दोनो मे मिलने वाला ध्वन्यात्मक साम्य भी इस बात का द्योतन करता है । उग्घट्टी 1-90 शब्द भी इमी अर्थ में आया है। इन दोनो शब्दो का सस्कृत पर्यायवाची शब्द अवतस है। कण्णवाल, कण्णाइन्वण और कण्णग्रास 2-23 शब्द कान मे धारण किये जाने वाले कुण्डल के अर्थ मे पाये हैं। उदाहरण के रूप मे दी गयी कारिका से स्पष्ट है कि इन्हें प्राय पुरुपवर्ग धारण क्यिा करता था । इसी प्रकार और भी कई शब्द कान के प्राभूपण के अर्थ मे आये है- जैसे तलवत्तो 5-21, बद्धयो 6-89 अपुट्ट नामक कर्णाभरण विशेष, वीलयो 6-93 - ताटङ्क नामक कान का पाभूपण, वक्कडवध 7-51 । इन शब्दो के अतिरिक्त शख के बने हुए एक कान के आभूषण का उल्लेख है । इसके लिए सखली 8-7 शब्द प्रयुक्त हुग्रा है।