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[ 237 ऐसा नहीं है जिसका प्रारम्भवर्ती 'ड' प्रा भा पा 'घ' का स्थानीय हो । मध्यवर्ती स्थिति में कही-बाही यह 'ठ' का स्वानीय होकर पाया है । इस दृष्टि से सभी शब्द निश्चित रूप से 'देश्य' प्रकृति के हैं। प्रारम्भवती स्थिति में 'द' प्रा. भा. प्रा. और मा. भा. पा का ही अनुगमन है
-उपरी-वीणा भेद (4-14), ढढरो-पिशाच 14-16), ढढो
पड गु. (4-16) मध्यवर्ती स्थिति में 'ड' ग्रीन 'इ' की स्थिति इस प्रकार है
- वाडिय-इटम् (1-74), कणगढत्ती-दत्तक (2-22),
गुडव-घुल्ली {2-63) - प्रड्ड अक्कली- फट्याहस्तनिवेश (1-45), इदड्ढलो-इन्द्रो
स्थापनं (1-82), उड्ढलो-उल्लास (1-91)। मध्यवर्ती-'युद्ध'- प्रतिनिहित हैपा मा प्रा.-ध-प्रोटड्ढ रक्तम् । प्रवदग्ध (1-156),
उड्ढाडी-दवमार्ग:दग्ध (4-8), प्रा. मा. प्रा--- घं-पटइनो चर्मकार (वर्षक (6.44),
वड्ढइयो, वड्ढवण-वस्नाहरण.वर्धापन (7-87) । उपान्त से 'ढ' और 'ढ' के प्रयोग के उदाहरण इस प्रकार हैं
-ढ- उबाढ विस्तीर्ण (1-129), उव्वीढ उत्खातम् (1-100),
कगढो-दधिकलशी (2-55) । -ढ-प्रोवडढी पारिधानकदेशः (1-151) ढड्ढो-भेरी (4-13),
वेगड्ढ भल्लातकम् (7-66)।
___यह मूर्धन्य, नाद, घोप, महाप्राण, सानुनासिक स्पर्शवर्ण है । मा भा. श्रा. की 'नोरणः सर्वन' (प्रा प्र 2-42) मान्यता के आधार पर देशीनामाला की शब्दावली मे भी सर्वत्र 'न' के स्थान पर 'रण' का ही व्यवहार किया गया है। इसके कुछ अपवाद श्रार्ण प्राकृत (अर्धमागधी) तथा सरह के दोहा-कोश मे मिलते हैं। इन अपवादो के अतिरिक्त सर्वत्र 'न' को 'रण' ही मिलता है। उत्तरी पश्चिमी और दक्षिणी पश्चिमी प्राकृत मे तो निश्चित रूप से 'न' का 'गत्व' विधान है । देशीनाममाला के शब्दो का सम्बन्ध प्रकृत्या इन्ही प्राकृतो और अपभ्र शो से है । पश्चिपी
1. म भा मा में 17ढ के अनेकों उदाहरण दढे जा सकते हैं जैसे पृष्टाढीठ । दे ना मा
सी कमढोकमठ. (2-55) ।