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(40) फतवारो तथा कयारो - तृणाद्य त्कर . (सनापद) दे ना मा 2111 - हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे प्रचलित 'कतवार' तथा 'कवाड' पद इन्ही दोनो शब्दो से विकमित होंगे । हेमचन्द्र इनका अर्थ तृणममूह देते हैं-विकसित रूप में 'क्तवार' तथा 'कवाड' पद भी 'घास तथा कूडे कचरे के ढेर' का अर्थ देते हैं । 'कतवार' शब्द तो ज्यो का त्यो विना किसी ध्वन्यात्मक परिवर्तन के प्रचलित है, परन्तु कयार' पद अपनी विकसित अवस्था तक कुछ ध्वन्यात्मक परिवर्तनो से युक्त होकर पहुंचा है। 'कयार' के 'य' का 'व' फिर 'व' का 'व' तथा 'र' का 'ड' होकर 'कवाड' पद बना है। प्राकृतो से हिन्दी मे विकसित गब्दो में ये ध्वनि परिवर्तन अति सामान्य है।
(41) करिल्लं - वशाहकुरम् (सनापद) दे ना मा 2-10 - हिन्दी भाषा-भापी गावो मे आज भी वास के फूटते हुए अकुर को 'कर ल' या 'करइल' (अवधी) कहा जाता है । यह शब्द 'करिल्ल' का ही विकसित रूप है।
(42) कल्ला- मद्यम्, (संजापद) दे ना. मा - 2-2 - 'हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे प्रचलित जाति विशेप का बोधक 'कलार' या 'कलवार' पद इसी शब्द से मबद्ध माना जा सकता है। ऐसी प्रसिद्धि है कि 'कलावार' नाम की एक जाति विशेष पहले मदिरा बनाती और उसका व्यवसाय भी करती थी। कल्ला (मदिरा) के व्यवसाय के आधार पर ही इस जाति का नाम 'कलार' या 'कलवार' पडा होगा।
(43) कल्होडी - वत्सतरी - (सज्ञापद) दे ना मा 2-9 - हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी वोलियो मे गाय की वछिया के अर्थ मे 'कलोर' या 'कलोरी' पद का व्यवहार होता है । ये पद उपर्युक्त 'देश्य' शब्द 'कल्होडी' के ही विकसित रूप होंगे।
(44) काहारो - जलादिवाही कर्मकर (सज्ञापद) दे ना मा -2-27मानक हिन्दी ब्रजभापा-अवर्ग तथा अन्य वोलियो मे भी 'कहार' शब्दो उत्सवो या
'कल्ला' पद देश्य न होपर तद्भव है और मस्कृत 'कल्या' शब्द का विकृत रूप है । यह भी कुछ विद्वानों का मत है। हेमचन्द्र स्वय भी लिखते हैं -“पल्ला शब्द क्ल्या शन्द भवोsप्वस्ति । मत क्वीना नाति प्रमिद्ध ।" वे इस शब्द को मम्कृत में होते हए भी कवियो मे प्रमिद्ध न होने के कारण 'देश्य' मानते है। यह तो कामचलाऊ तक हवा । मेरी दृष्टि में यह मन्द दे' ही है क्यो कि' 'तमिल' में भी 'कल्' शब्द मदिरा के वयं मे प्रयक्त हबा है। इन प्रसार में आर्येतर तत्त्व माना जाना चाहिए । मूर ग्रनमाषा कोष में 'कहार' गान्द को तदभव माना गया है और टमकी दो व्यत्पत्तिया पी गयी हैं (1) म्क धमार (2) क - जन, हार - लाने वाला। जहा तक कहार शब्द पो 'म्य चमार' मन्द में भ्युत्पन्न करने की बात है वह किमी हद तक ठीक भी मानी जा गनी है - इसका सम्बघवघे पर पानकी ढोने वाले नौकरों से दिखाया जा सकता है। परन्तु दूसरी व्युत्पत्ति तो अत्यन्त हाम्यास्पद है। प्रत्येक शब्द को सस्कृत तक घमीट ले जाने पा विद्वानों का यह मोह पता नहीं कब छूटेगा।