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[ 251 औष्टय 'व' के स्थानीय 'व', इन तीन रूपो मे हृया है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि म भा पा काल मे पश्चिमी भाषायो मे 'वकार' बहुलता पायी जाती है । दे ना मा के शब्द इसी क्षेत्र की भापामो से सबद्ध लगते हैं । इन शब्दो मे 'ब' व्यजन ग्राम अपनी प्रघं स्वरता से परे शुद्ध व्यञ्जन ध्वनिग्राम के रूप मे व्यवहृत है जो प्रकृति की दृष्टि से दन्त्योट्य, नाद, घोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक तथा अन्त स्थ वर्ण है । ' देशीनाममाला मे 'व' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सख्या 327 है । इमकी विभिन्न स्थितियो के उदाहरण इस प्रकार हैं -
प्रारम्भवर्ती स्थिति मे व म भा पा के 'व' का ही अनुगमन करता है जसमे प्रतिनिहित है प्रा भा प्रा 'प' 'व' तथा 'वृ' प्रादि । -- व - वगेब-यूकर (7-42), वणवो-दवाग्नि (7-37) 'वणसवाई-कलकठी
(7-52) । प्रा मा आ-47व वइरोडो-जार पति-रोट् (7.42),
, वाव बफाउल वाप्पाकुलम् (6-92), वफिन-भुक्तम्वप्सित । ., वृ7व- वाडी वृत्ति (वृत्तिः (7-43), बट्टा-पन्था. वृत् (7-31) । , वाव विलिन लज्जा/वीडित । , व्याव-वावडय विपरीतरतम्। व्यावृतक (7-58), वाविन-विस्तारि
तम् व्यापित ( 7-57)। मध्यवर्ती स्थिति मे व और व्व पूर्णतया म भा श्रा• का ही अनुगमन करते हैं ।
अग्गवेप्रो-नदीपूर (1-29) प्रवरिक्को-क्षणरहित . (1-20), प्रोवरो
निकर (1-157)। - व्व- उव्वत्त-नीरागम् (129), कव्वाडो दक्षिणहस्त (2-10), कव्वाल
कर्मम्थानम् (2-52)। मध्यवर्ती-व-मे प्रतिनिहित हैप्रा भा पा +व - उव्वाहियो-उत्क्षिप्त ८ उत् + वह (1-106)। प्रा मा पा द्व-उन्नुण्ण उद्विग्नम् (1-123)
-व-तिब्व-दुविषहम्।तीव्र (5-11) | उपान्त मे 'व' और 'व्व' के प्रयोग के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं~ व-कावी-नीलवर्णा (2-36), कूवो हृतानुगमनम् (2-62), खेवो-वामकरः
(2-77)।
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दे ना मा के शब्दो मे अननासिक व (4) का बिल्कुल ही प्रयोग नहीं है । यह प्रयोग अपभ्र श मे अनादिसयक्त मकार के स्थान पर प्राय पाया जाता है-जैसे-कवल/कमल । उपान्त मे व' के अधिकाश प्रयोग 'श्र ति' के रूप में देखे जा सकते हैं। ऊपर के उदाहरणों मे 'वो', 'खेवो' आदि ऐसे ही प्रयोग हैं।