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घर की देहरी के लिए उम्मरो 1-95, छन के लिए डग्गल 4-8, झोपडियो मे लगने वाले पर्दे को टट्टइमा • टटिया या पर्दा कहा गया है। प्रागन के लिए चउक्क 3-2 पाया है । ये सभी शब्द साधारण लोगो के जीवन क्रम को व्यक्त करने वाले हैं। वेषभूषा और आभूषण
'देशीनाममाला' के शब्द समाज में प्रचलित विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूपणो भी उल्लेख करते हैं। इन उल्लेखो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन नागरिक जीवन अत्यन्त सम्पन्न और विलसितापूर्ण था। नागरिक जीवन के अतिरिक्त ग्रामीण जीवन भी इस क्षेत्र मे बहुत आगे बढा चढा था। उदाहरण के लिए केश रचना को लीजिए । इसके लिए इस कोश मे कई शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इन शब्दो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उस समय केश विन्यास के कई तरीके प्रचलित थे । सामान्य केश रचना के लिए बब्बरी (6-90). रूखे केशवध के लिए फुटा (6-84), केशो का जूडा वाघने के लिए प्रोअग्गिन (1-172), सीमात पर सुन्दर ढग से सजाये गये केश को कु मी (2-34), रूखे को साधारण ढग से लपेटने के अर्थ मे ढुमतो (5-47), सिर पर रगीन कपडा लपेटने के अर्थ मे अणराहो (1-24), एवं किसी लसदार पदार्थ को लगाकर सिर के अवगु ठन के अर्थ मे रणीरगी (5-31) शब्द पाया है । ऐठ कर वावे गये वालो के जूडे के लिए मउडी (6-117), स्वाभाविक रीति से खुले वालो के लिए लम्बा (7-26), वालो को लपेटकर वावे गये कलात्मक जूड के लिए पामेल (1-62), प्रोडल (1-150) छोटे घु घराले वालो के लिए झटी (3-53) अादि शब्द आये है। इन शब्दो को देखकर उस युग मे प्रचलित रहन-सहन का स्वय ही आभास हो जाता है । केश-रचना मे फूल की मालाओ का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। कई शब्द इस आशय को प्रकट करते हैं । सिर मे बाधी जाने वाली माला के लिए इस कोश मे आये हुए शब्द इस प्रकार हैं – चु चुअ , चु भल (3-16), रसरो? (4-1), माई (6-115), बसी (7-30), वुप्फ (6-74) आदि। इन शब्दो को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे समाज रहन-सहन की दृष्टि से अत्यत उच्च स्तरीय रहा हो । आज भी मद्रास मे केशो मे पुष्पमालाए वाधना माघारण रिवाज है । उत्तर भारत मे भी इसके उदाहरण दुर्लभ नही हैं।
वस्त्र-वस्त्रो मे मोटे और पतले दोनो ही प्रकार के वस्त्रो का उल्लेख हुआ है। साधारण रहन-सहन के लोग मोटे वस्त्र तण उच्च रहन-सहन के लोग पतले और 1 'खजुराहो आर्ट' उमिला अग्रवाल, इस पुस्तक मे दिये गये चित्रो मे केश-विन्यास के उपयुक्त
रूपो को खोजा जा सकता है।