Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/007650/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो सुयदेवस्स ( पंचम गणधर भगवत् सुधर्मा स्वामि-प्रणीत षष्ट आगम अंग) सचित्र ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र प्रथम भाग) (मूल पाठ-हिन्दी, अंग्रेजी अनुवाद सहित) प्रधान सम्पादक उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक पद्म प्रकाशन पद्मधाम, नरेला, दिल्ली-११0 0४0 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DT उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की तिरेसठवीं पावन दीक्षा जयन्ती पर प्रकाशित सचित्र आगम माला का चतुर्थ पुष्प सचित्र ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (प्रथम भाग) प्रधान सम्पादक: उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि सम्पादक: श्रीचन्द सुराना 'सरस' अंग्रेजी अनुवादक : सुरेन्द्र बोथरा Phristy bris babas -:* Prix bissa 2: 35A :A PAPA ka fix : : चित्रकार : सरदार पुरुषोत्तमसिंह प्रकाशक: पद्म प्रकाशन पद्मधाम, नरेला मण्डी, दिल्ली-११0 0४० दिवाकर प्रकाशन ए-७, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-२८२ 00२ फोन : ३५११६५ * प्रथम आवृत्ति : वि. सं. २०५३ चैत्र ईस्वी सन् १९९६, मार्च hrs * मूल्य : मात्र पाँच सौ रुपया मा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAMO SUYADEVASSA THE SIXTH AGAM-ANGA BY THE FIFTH GANADHAR, BHAGAVAT SUDHARMA SWAMI ILLUSTRATED JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA FIRST PART) (ORIGINAL TEXT WITH HINDI AND ENGLISH TRANSLATIONS) Editor-in-Chief UP-PRAVARTAK SHRI AMAR MUNI Editor SRICHAND SURANA "SARAS' PUBLISHERS PADMA PRAKASHAN PADMADHAM, NARELA, DELHI-110 040 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tcha cha cha cha cha cha cha W*4 DIENIEM had high beaIELICA DEL Lak Published on the occasion of the sixty third anniversary of the pious Diksha ceremony of Uttar Bharatiya Pravartak Gurudev Bhandari Shri Padmachandra ji Maharaj THE FOURTH NUMBER OF THE ILLUSTRATED AGAM SERIES * * Illustrated Jnätä Dharma Kathänga Sūtra (First Part) Editor-in-Chief: Up-Pravartak Shri Amar Muni * Editor : Srichand Surana 'Saras' * Translator: Surendra Bothara * Illustrator: Sardar Purushottam Singh * Publishers: PADMA PRAKASHAN Padmadham, Narela Mandi, Delhi-110 040 * DIWAKAR PRAKASHAN A-7, Awagarh House, M. G. Road, Agra-282 002 Phone: 351165 *First Edition: Chaitra, 2053 Vikram March, 1996 * Price : Rupees Five Hundred only ELL Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय इस संसार में बुद्धिमान् और विद्वान् तो हजारों-लाखों मिलेंगे, परन्तु ज्ञानी बहुत कम मिलेंगे। ज्ञानी होने का मतलब है-जीव और जगत् के प्रति संतुलित ज्ञान तथा आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन, अध्यात्म और विज्ञान की सही समझ और सही वर्तना। वही संतुलित जीवन जी सकता है और दूसरों को भी जीवन की संतुलित शैली सिखा सकता है। धर्मशास्त्र ज्ञान देता है, जीवन जीने की कला सिखाता है। इसलिए हम धर्मशास्त्र को कोरी पुस्तक या ग्रन्थ नहीं कह सकते, वह शास्त्र है और शास्त्र जीवन पर, मन पर शासन करने वाला होता है। इसलिए वह मानव का तृतीय नेत्र है। आज की भाषा में शास्त्र इंसान का ज़मीर है, आत्मा का विवेक है। और इसीलिए शास्त्र-स्वाध्याय का अपना खास महत्त्व है। उ. भा. प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज सतत शास्त्र-स्वाध्याय की प्रेरणा देते रहते हैं। धर्मशास्त्र घर-घर में पहुँचें, पढ़े जायें उनका स्वाध्याय हो-यही उनकी हार्दिक इच्छा है, जीवन की बहुत बड़ी अभिलाषा है। इसलिए वे पिछले तीस वर्षों से सतत प्रेरणा एवं प्रचार करते रहे हैं। शास्त्र प्रकाशन के क्षेत्र में उनकी प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से लगभग ३० लाख रुपए से अधिक का साहित्य अब तक प्रकाशित/प्रचारित भी हो चुका है। यह हमारे लिए गौरव और प्रेरणा की बात है। गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य, विद्वदल और प्रबल धर्म प्रचारक प्रवचन भूषण उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि जी महाराज इस दिशा में बड़े उत्साह और निष्ठा के साथ प्रयत्न कर रहे हैं। आपश्री के प्रयत्नों से पहले श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र (दो भाग), श्री सूत्रकृतांगसूत्र (दो भाग), भगवतीसूत्र (चार भाग) हिन्दी व्याख्या सहित प्रकाशित हुए। फिर आपश्री ने आगमों के सचित्र प्रकाशन की योजना पर कार्यारम्भ किया, जिसके अन्तर्गत अब तक अन्तकृद्दशासूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, कल्पसूत्र एवं तीर्थंकर चरित्र (चित्रमय) प्रकाशित हो चुके हैं। अब ज्ञातासूत्र पाठकों के हाथों में है। हम चाहते हैं चित्रों में रुचि लेकर पाठक इन शास्त्रों का स्वाध्याय करें। चित्रों के कारण कठिन विषय भी सरल बन जाने के कारण उन्हें समझने में भी सुविधा रहेगी। सचित्र आगम प्रकाशन के क्षेत्र में गुरुदेवश्री के आशीर्वाद तथा उपप्रवर्तकश्री की सबल प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से प्रसिद्ध विद्वान् श्रीचन्द जी सुराना इस शास्त्र-सेवा के कार्य में निष्ठापूर्वक संलग्न हैं और उनके सत्प्रयासों से यह कार्य सुचारु रूप में आगे बढ़ रहा है। शास्त्र-सेवा के इस बहुत ही खर्चीले कार्य में गुरुदेवश्री के अनेक श्रद्धालु भक्तजनों ने अपनी अन्तःकरण की प्रेरणा से उदारतापूर्वक सहयोग किया है और कर रहे हैं। अनेक विदुषी श्रमणियों ने भी इस कार्य में सदगृहस्थों को प्रेरणा प्रदान कर सहयोग का हाथ-बढ़ाया है और हमारी योजना को बल प्रदान किया है। हम आप सभी के सहयोग, सद्भाव का स्वागत करते हैं और आशा करते हैं भविष्य में भी इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा। __ हम अपने पाठकों से भी अपेक्षा करते हैं कि वे स्वयं इन शास्त्रों को पढ़ें, दूसरों को पढ़ने की प्रेरणा देवें तथा विभिन्न ज्ञान भण्डारों, पुस्तकालयों आदि में भेंट करें ताकि अन्य लोग भी लाभ उठा सकें। विदेशों में बसे अपने प्रिय मित्रों को भी अमूल्य उपहार रूप में भेंट भेजें। इसी शुभभावना के साथ महेन्द्रकुमार जैन (5) पान Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUBLISHERS NOTE One may find thousands of intelligent and scholarly individuals in this world but it is hard to find even a few truly wise and sagacious ones. Balanced knowledge of life and matter; right understanding of soul, supersoul (the God), living and non-living, spiritualism and science, and other such concepts, and moulding ones life accordingly makes a person truly wise or sagacious. Only such an individual can lead a balanced life and inspire and guide others towards a balanced life style. Religious texts provide knowledge and teach the art of living. As such, religious texts are not mere books, they are Shastras or that which rules over life and soul. It is for this reason that they are known as the third eye of the humans. In modern idiom Shastra is the morality and rationality of man. That is why the study of Shastras is given so much importance. D U. B. Pravartak Gurudev Bhandari Shri Padmachandra ji Maharaj always inspires his followers to study Shastras. It is his earnest desire that religious texts reach every house and, more and more people read and study them. In fact it is like an important ambition to him. He has been working whole heartedly towards this goal for last thirty years. Thanks to his inspiration and guidance that in the field of publication alone, a large sum of three million rupees has been spent till date. These publications are not just dumped in godowns, as is generally done, but are widely distributed. This is a matter of pride as well as encouragement for us. The principle disciple of Gurudev Shri, Up-pravartak Shri Amar Muni ji Maharaj, who himself is a great scholar, strong propagator, and eloquent orator, is working hard in this direction with all sincerity and enthusiasm. It was with his efforts that Shri Prashna-vyakaran Sutra (two volumes), Shri Sutra-kritanga Sutra (two volumes), and Shri Bhagavati Sutra (four volumes) were published. After this, he launched the project of publishing illustrated Agam literature. Under this project the already published works are--Illustrated Antakritdasha Sutra, Illustrated Uttaradhyayan Sutra, Illustrated Kalpa Sutra and Illustrated Tirthankar Charitra. We are now pleased to present the Jnata Dharma Katha Sutra to our readers. (6) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ It is our earnest desire that the reader studies these texts with the help of the illustrations. Even difficult and hard subjects are made simple and easy to comprehend with the help of illustrations. Blessings of Gurudev Shri and continued inspiration by Up-pravartak Shri have drawn the famous scholar Srichand ji Surana and his team into this project and with his earnest efforts it is progressing satisfactorily. In this high cost project, many of Gurudev Shri's devotees have generously contributed and continue to do so. Many scholarly Shraman's have extended a helping hand by inspiring devotees to contribute and thus bolstered our involvement in this project. We gratefully welcome your good wishes and contributions and hope that it would continue in the future. We expect from our readers that they read, inspire others to read these attractive and informative publications, and send these as gift to various libraries and other such centres so that many others may be benefitted. These books may also be sent to friends living abroad. With the hope that you will respond Mahendra Kumar Jain President, Padma Prakashan (7) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-कथ्य आत्मा को पवित्र और विशुद्ध बनाने वाला साधन है-धर्म। शुद्धि (उपादान-) की दृष्टि से धर्म का आधार है--आत्मा। किन्तु आत्म-शुद्धि के लिए साधना तप-जप आदि की क्रियाओं का सम्यक् ज्ञान होना भी जरूरी है, और उस ज्ञान का निमित्त कारण है-शास्त्र। धर्म ग्रन्थ। प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थों का पठन-पाठन-स्वाध्याय-श्रवण इसलिए किया जाता है कि उनसे साध्य का, साधनों का ज्ञान भी होता है और जिन महापुरुषों व सत्पुरुषों ने धर्माचरण द्वारा अपना कल्याण किया है उनका प्रेरक पवित्र जीवन दर्पण की भाँति हमारे सामने उपस्थित हो जाता है, जिससे धर्माचरण की क्रिया सुविधाजनक हो जाती है। भगवान महावीर ने जो धर्मोपदेश दिया, आत्म-शुद्धि की साधना का मार्ग बताया, उन धर्म-वचनों का संकलित रूप आगम है। आगम वाणी उस समय की लोक-भाषा प्राकृत-अर्द्धमागधी में है। किसी समय अर्द्धमागधी जनता की बोलचाल की भाषा थी, परन्तु आज वह अनजान और कठिन भाषा बन गई है। इसलिए शास्त्र पढ़ने से लोग कतराते हैं और केवल उनका अनुवाद अपनी भाषा में पढ़कर ही संतोष कर लेते हैं। भगवान महावीर के उपदेशों व तत्त्वज्ञान को विषयक्रम के अनुसार चार अनुयोगों में बाँटा गया है, जिनमें एक अनुयोग है--धर्म-कथानुयोग। कथा, उदाहरण, दृष्टान्त व रूपक के द्वारा उपदेश देना और धर्म का तत्त्व समझाना एक सरल और रोचक शैली है। इसलिए कथानुयोग की शैली सबसे अधिक रुचिकर व लोकप्रिय बनी है। कथानुयोग में जिन शास्त्रों/आगमों का नाम आता है उनमें ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र सबसे अधिक प्रसिद्ध, और सबसे अधिक रोचक तथा सबसे बड़ा है। यों तो अन्तकृदशासूत्र, उपासकदशांग, अनुत्तरोपपातिक, निरयावलिका, राजप्रश्नीय, विपाकसूत्र आदि भी कथा-प्रधान होने से कथानुयोग में ही गिने जाते हैं किन्तु ज्ञाताधर्मकथा सूत्र का स्थान कुछ विशेषता रखता है। इस सूत्र की भाषा अन्य आगमों की अपेक्षा अधिक प्रौढ़, साहित्यिक और लालित्यपूर्ण है। अन्य कथाओं की अपेक्षा इसकी कथाएँ भी अधिक रोचक और विश्वस्तर की हैं। ज्ञातासूत्र की कुछ कथाएँ तो बौद्ध साहित्य में, वैदिक ग्रन्थों व विदेशी कथा साहित्य में भी मिलती हैं। जैसे मेघकुमार की कथा जातक के नन्द की कथा से, दो कछुओं की कथा गीता की टीकाओं में तथा रोहिणी ज्ञात की कथा बाइबिल की मेथ्यू और लूक की कथा से काफी समानता रखती है। इससे यह प्रतीत होता है कि "ज्ञातासूत्र की सैकड़ों कथाएँ धीरे-धीरे सम्पूर्ण विश्व साहित्य में रूपान्तरित हो गई हैं। (8) OTE Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरंग परिचय इस सूत्र का नाम ज्ञाता-धर्म-कथा है। जिस पर टीका करते हुए आचार्य श्री अभयदेवसूरि ने लिखा है-ज्ञात का अर्थ है उदाहरण और धर्मकथा से तात्पर्य है प्रसिद्ध धर्म कथाएँ। दोनों शब्द मिलकर बनता है-ज्ञात-धर्म कथा। किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यहाँ 'ज्ञात' शब्द प्राकृत शब्द 'नाय' से बना है। भगवान महावीर का एक नाम है ज्ञातपुत्र। नायपुत्त। यहाँ 'ज्ञात' शब्द भगवान महावीर की ओर संकेत करता है और तब इसका अर्थ होता है-ज्ञात-धर्म कथाएँ अर्थात् भगवान महावीर द्वारा कथित धर्म कथाएँ। यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। ज्ञाताधर्मकथा का सरल अर्थ यह भी कर सकते हैं कि ज्ञाता अर्थात् सर्वज्ञ, भगवान महावीर। उनकी कही हुई धर्म कथाएँ। ज्ञातासूत्र के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में १९ अध्ययन हैं जबकि दूसरे श्रुतस्कंध के १0 वर्ग हैं। प्रथम श्रुतस्कंध की सभी कथाएँ स्वयं उदाहरण हैं, और फिर उपनय के साथ विषय को अधिक संगति देती हैं। इन कथाओं के माध्यम से अनेक प्रकार की शिक्षाएँ, तत्त्वज्ञान, प्रेरणा और साधक के लिए मार्गदर्शन मिलता है। सचित्र आगम प्रकाशन माला तीन वर्ष पूर्व हमने पूज्य गुरुदेव उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की साठवीं दीक्षा जयन्ती मनाई थी। तब मेरे मन में सचित्र आगम प्रकाशन की भावना मूर्तरूप ले रही थी। उसी वर्ष मैंने प्रयोग के रूप में भगवान महावीर की अन्तिम वाणी उत्तराध्ययनसूत्र का सचित्र सम्पादन प्रकाशन किया था। वह प्रयोग बहुत सफल रहा। सर्वत्र प्रशंसित हुआ और आगम के अध्ययन से दूर रहने वाले भी चित्रमय आगम होने से रुचिपूर्वक पढ़ने लगे। मेरे पास अनेक विद्वानों के विज्ञ मुनिवरों के तथा अनेकानेक धर्म-प्रेमियों के पत्र आये और सभी ने इस प्रयास की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। युग की इस आवश्यकता और उपयोगिता को देखकर हमने इस योजना को और आगे बढ़ाने का संकल्प किया। जिसके अन्तर्गत सचित्र अन्तकृद्दशासूत्र, सचित्र कल्पसूत्र, सचित्र तीर्थंकर चरित्र प्रकाशित हुआ। और अब सचित्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। ज्ञातासूत्र काफी बड़ा होने से उसे दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रथम भाग में आठ अध्ययन लिए गये हैं। शेष दूसरे भाग में प्रकाशित होंगे। इस सूत्र की सम्पादन शैली में थोड़ा परिवर्तन भी किया है। आमुख में सर्वप्रथम अध्ययन के शीर्षक का स्पष्टीकरण किया है जिससे अध्ययन का विषय ज्ञात हो सके तथा इसी के साथ कथा-सार भी दिया है। मूल पाठ में सूत्र संख्या की कोई निश्चित परम्परा प्राचीन प्रतियों में नहीं अपनाई गई है अतः इस संस्करण में सूत्र संख्या कथा-प्रवाह की सुविधानुसार रखी गई है। मूल पाठ में अपेक्षाकृत लम्बे तथा संयुक्त शब्दों में संधि स्थलों पर विराम चिह्न (डैश) दिये हैं जिससे पठन तथा उच्चारण में नुविधा हो। (9) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ में वर्णनात्मक तथा विवरणात्मक अंशों को अनेकानेक बार दोहराए जाने की शैली का प्रयोग - हुआ है। अनुवाद में इन्हें यथासंभव संक्षिप्त किया है तथा 'पूर्वसम' आदि इंगितों का प्रयोग किया गया है। चित्रों को अधिक सुगमता से बोधगम्य बनाने के लिए चित्र-शीर्षक के स्थान पर प्रत्येक चित्र के पीछे तत्संबंधित कथा प्रसंग संक्षेप में दिया गया है। अध्ययन के अन्त में विशेष शब्दों का स्पष्टीकरण एवं उपसंहार तथा टीका में आई हुई उपनय गाथाएँ भी ले ली हैं। इस प्रकार सम्पादन में सर्वांगता लाने का प्रयास किया है। टिप्पण एवं परिशिष्ट की शैली मुझे कम पसन्द है, क्योंकि उससे पाठक को इधर-उधर पृष्ठ उलटने पड़ते हैं। अतः प्रत्येक अध्ययन से सम्बन्धित सभी सामग्री वहीं एक स्थान पर देने का प्रयास किया है। आशा है पाठकों को यह शैली अधिक सुन्दर व रुचिकर लगेगी। कृतज्ञता प्रदर्शन ___ परम पूज्य गुरुदेव उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज के असीम आशीर्वाद से सचित्र आगम प्रकाशन का यह कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से गति पकड़ रहा है यह मेरे लिए परम प्रसन्नता का विषय है। इस प्रकाशन में महासती जी तपचक्रेश्वरी उपप्रवर्तिनी श्री मोहनमाला जी म., उपप्रवर्तिनी डॉ. सरिता जी म. तथा अनेक गुरुभक्त उदार सद्गृहस्थों ने अपना सहयोग करके गुरुभक्ति और श्रुतभक्ति का परिचय दिया है। साथ ही शास्त्र-सेवा का पुण्य उपार्जन किया है। यह सभी के लिए अनुकरणीय है। साहित्यकार श्रीचन्द जी सुराना ने सदा की भाँति इसके सम्पादन, मुद्रण में अपनी सम्पूर्ण बौद्धिक-चेतना को नियोजित किया है तथा श्रीयुत सुरेन्द्र जी बोथरा ने सुन्दर सटीक अंग्रेजी अनुवाद के साथ संपादन सहयोग करके इसकी उपयोगिता में चार चाँद लगाये हैं। मैं सभी के प्रति हार्दिक भाव से कृतज्ञ हूँ। -अमर मुनि (10) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTE FROM THE EDITOR-IN-CHIEF The means of making the soul pious and pure is Dharma. The subjective basis of Dharma is soul. But in order to achieve the goal of purification it is essential to have the proper and working knowledge of the processes like penance, chanting, meditation, and other such practices. The source of this knowledge are Shastra or religious scriptures. In every religious tradition the reading, teaching, listening, and study of religious books is done for the purpose of acquiring knowledge about the means of upliftment and the goal; they also give us vivid description of the inspiring lives of great and pious souls who have attained high status with the help of religious conduct. All this helps us follow the right path or proper conduct. The religious teachings of Bhagavan Mahavir and the path of purification shown by him are compiled as Agams. These scriptures are in the then prevailing language of the common man, Ardhamagadhi--Pra Some time in the past, Ardhamagadhi was the most popular language of the masses, but today it has become a lesser known and so a difficult language. That is why people avoid reading original texts and are content with reading translations in the language they know. The teachings of Bhagavan Mahavir have been divided subject-wise into four categories titled Anuyog. The first Anuyog or category is Dharma Kathanuyog or the category of religious stories. To preach religion and explain its fundamentals with the help of stories, examples, instances, and metaphors is a simple and absorbing style. As such, this category has proved to be the most accepted and popular one. Of the works listed in this category the most famous, interesting, and largest is Jnata Dharma Kathanga. Although Antakritdasha Sutra, Upasakdashang, Anuttaropapatik, Niriyavalika, Rajprashniya, Vipak Sutra etc. are listed in this category, Jnata Dharma Katha Sutra occupies a very special 7 place. The language of this scripture is mature, refined, and flowery. As OTTE ( 11 ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ compared to the stories from other works those in this work are much more interesting and conforming to international standards. Some of the stories from Jnata Sutra have parallels in Buddhist, Vedic as well as foreign literature. For example the story of Megh Kumar has a parallel in the story of Nand from the Jatak literature; the story of two tortoises has parallels in commentaries on Gita; the story of Rohini has similarities with stories of Methew and Luke from the Bible. All this points toward the fact that many stories from Jnata Sutra have slowly spread all around the world and have been adapted and absorbed in the world literature. INTRODUCTION TO THE TEXT There are two sections in the Jnata Sutra. The first section contains nineteen chapters and the second has ten sub-sections. The name of this work is Jnata Dharma Katha. Acharya Abhaya Dev Suri has commented on this term-Jnata means example and Dharma Katha means popular religious tales. Both these combined mean-examples and religious tales. Some scholars say that the word Jnata has been derived from the Prakrit word Naya. One of the names of Bhagavan Mahavir is Naya-putta or Jnataputra. Here the word Jnata points towards Bhagavan Mahavir. So according to this theory Jnata Dharma Katha means the religious stories told by Bhagavan Mahavir. This interpretation appears to be more appropriate. Another meaning is religious tales told by Jnata (omniscient or Bhagavan Mahavir). All the stories in the first section are based on examples. The verses drawing conclusion at the end of each story make it easy to grasp the lesson contained. These stories impart moral values, knowledge of the fundamentals, inspiration, and guidance for spiritual practices. THE ILLUSTRATED AGAM SERIES Three years back we had celebrated the sixtieth anniversary of the Diksha ceremony of revered Gurudev U. B. Pravartak Bhandari Shri Padma Chandra ji Maharaj. At that time the plan for publication of illustrated Agams was taking shape in my mind. The very same year I launched and concluded the editing and publication of the last sermon of Bhagavan Mahavir, Illustrated Uttaradhyayan Sutra. ( 12 ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The experiment proved to be highly successful. It was widely acclaimed and even the unwilling started studying the illustrated Agam with interest. I received numerous letters from scholars, scholarly ascetics, and devotees freely praising this effort. I resolved to further this project looking at prevailing need and usefulness of such works. Illustrated Antakritdasha Sutra, Illustrated Kalpa Sutra, and Illustrated Tirthankar Charitra have already been published under this scheme. Now this Illustrated Jnata Dharma Kathanga Sutra is being released. As the Jnata Sutra is a voluminous work, it is being published in two parts. First part contains eight chapters. The remaining shall come in the second part. Some changes have been incorporated in the style of editing. A section has been added before every chapter. This contains explanation about the title and topic of the chapter and, gist of the story. In the old copies of the original text no established rule has been followed regarding the numbering of the paragraphs or Sutras. As such, freedom has been taken in numbering the paragraphs according to the flow of the story. In the Prakrit text dash has been given to break the long combined words to facilitate reciting. In the original text the descriptive and elaborative passages are repeated verbatim again and again. This appears to be the writing style of that period. However, in the translation such passages have been made as brief as possible using the indicators like (etc.), (as mentioned earlier), etc. To make the illustration easily understandable relevant brief excerpts from the stories have been given on the back of every illustration. At the end of the chapter a glossary, conclusion and the verses indicating the message of the story have been given. Thus effort has been made to use an all enveloping editing style. I do not like much the use of foot notes and appendices unless it becomes essential. This is because in that style of editing the reader has to suffer breaks while reading, by repeatedly referring to foot notes and turning pages to look for appendices. As such, effort has been made to provide all possible reference material with the chapter itself. I hope that the readers would appreciate and like this style. ( 13 ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACKNOWLEDGEMENTS It is a matter of extreme pleasure for me that with the blessings of revered Gurudev U. B. Pravartak Bhandari Shri Padma Chandra ji Maharaj the project of publication of illustrated Agam literature is gathering speed. By extending whole hearted support to this publication Mahasati ji Tap-Chakreshwari, Up-Pravartini Shri Mohanmala ji M., UpPravartini Dr. Sarita ji M. and many devoted and generous followers have revealed their devotion for the Guru and the word of the Lord. Such gesture is exemplary and should be emulated by all. As always, Srichand ji Surana, an author and scholar in his own right, has incorporated all his acumen in editing and printing this work. Shri Surendra Bothara has added to its utility by providing a comprehensive free flowing English translation as well as assistance in editing. I express my sincere gratitude to them all. -Amar Muni EEJ (14) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम CONTENTS प्रथम अध्ययन : उक्षिप्त ज्ञात १-१५८ First Chapter : Utkshipta Jnat 1-158 - . - . - . - . - . आमुख प्रारम्भ आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी की जिज्ञासा सुधर्मा स्वामी का समाधान कथारम्भ शयनागार-वर्णन स्वप्न श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-कथन राजगृह की सजावट राजा श्रेणिक की तैयारी स्वप्न-पाठक स्वप्न-पाठकों द्वारा फलादेश स्वप्न-पाठकों का सम्मान धारिणी का दोहद धारिणी की उदासी दोहद-निवेदन अभयकुमार का आगमन अभय का आश्वासन अभय की देवाराधना सौधर्म देव का आगमन अकाल-मेघ विक्रिया दोहद पूर्ति देव का विसर्जन पुत्र-जन्म जन्म-संस्कार कर्म नामकरण-संस्कार मेघकुमार का लालन-पालन कला-शिक्षण गृहस्थाश्रम विवाह और प्रीतिदान भगवान महावीर का आगमन भगवान महावीर के दर्शन व देशना ३ Introduction ७ The Beginning u Arya Sudharma Swami 90 Curiosity of Jambu Swami 99 Reply by Sudharma Swami 93 The Story १५ The Bedroom १६ The Dream २० Interpretation by Shrenik २२ Decorating Rajagriha २४ Preparations by King Shrenik २८ The Dream-Diviners ३१ Interpretation by Dream-Diviners 38 Felicitation of Dream-Diviners 34 Dharini's Dohad ४१ Worried Dharini ४५ Dohad Revealed ४६ Arrival of Abhay Kumar ४९ Assurance by Abhay Evocation of God by Abhay 49 Arrival of Saudharma God ५६. Creation of Untimely Rain Clouds 449 Dohad Fulfilment Farewell to the God ६३ Birth of the Son ६६ Ritual Birth-Ceremonies ६७ Naming-Ceremony &C Bringing up of Megh Kumar ६९ Education ७३ Family Life ७६ Marriage and Gifts ७८ Arrival of Bhagavan Mahavir ८0 Mahavir's Discourse ६१ Fan (15) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य जागरण शोकाकुल माता मेघकुमार का माता-पिता से संवाद राज्याभिषेक संयमोपकरण की माँग दीक्षा की तैयारी महाभिनिष्क्रमण प्रव्रज्या ग्रहण मेघ अनगार का ऊहापोह प्रतिबोध : पूर्वभव कथन 113 ८२ Detachment ८५ Mother's Grief ८६ Dialogue with Parents ९३ Coronation ९६ Demand for Ascetic Equipment gue Preparations for Initiation 909 The Great Renunciation १०९ Initiation ११२ Ascetic Megh's Dilemma ११४ Enlightenment : Reminding of the Earlier Lives ११७ Forest Fire १२१ King Elephant Meruprabh 972 Memory of the Earlier Birth 978 Clearing the Jungle १२५ The Conflageration १२८ Unprecedented Compassion १३१ End of the Dilemma १३२ Re-Initiation Harsh Penances by Megh १३६ Relentless Practices 989 Resolve of a Pious Death १४७ Re-Birth १४९ At Last, Liberation 940 Conclusion 940 The Message 949 Appendix 115 118 122 123 125 126 129 दावानल यूथपति मेरुप्रभ हस्ती-भव में जातिस्मरण मंडल निर्माण दावाग्नि अपूर्व अनुकम्पा मेघ के ऊहापोह का अन्त पुनः प्रव्रज्या मेघ की उत्कट तपस्या अथक साधना समाधिभरण का संकल्प पुनर्जन्म निरूपण अन्त में सिद्धि उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट 137 142 147 149 150 151 155 द्वितीय अध्ययन : संघाट १५९-१९८ Second Chapter : Sanghat 159-198 आमुख उजाड़ उद्यान धन्य व भद्रा विजय चोर भद्रा की पीड़ सन्तान के लिए मन्नत १५९ Introduction १६२ Desolate Garden १६४ Dhanya and Bhadra १६५ Thief Vijaya १६८ Bhadra's Distress 999 Worship for Offspring १७३ Pregnancy-Desire 160 163 164 167 169 172 दोहद 174 (16) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AL AD 175177 178 181 183 184 185 पुत्र-प्रसव देवदत्त का अपहरण बालक की हत्या बालक की खोज विजय चोर का निग्रह धन्य सार्थवाह का निग्रह विजय की क्षुधा विजय चोर को भोजन में हिस्सा धन्य का छुटकारा भद्रा के कोप का उपशमन विजय चोर की अधम गति धन्य की दीक्षा व देवलोक गमन उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट १७५ Birth of a Son १७६ Kidnapping of Devdutt १७७ Kill the Child 900 Search for the Child १८२ Punishment to Vijaya १८४ Dhanya in Prison १८५ Vijaya's Desire for Food १८७ Sharing the Food to Vijaya १८९ Dhanya Released 980 Appeasement of Bhadra १९२ End of Vijaya १९३ Dhanya turns Ascetic 9919 Conclusion १९७ The Message १९७ Appendix 187 189 190 192 194 198 198 198 - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . - . तृतीय अध्ययन : अंडे १९९-२१७ Third Chapter : Andak 199-217 . . - . - . 199 202 204 205 206 208 आमुख मयूरी के अंडे गणिका का देवदत्ता उद्यान-भ्रमण की तैयारी उद्यान-भ्रमण मयूरी का उद्वेग अंडों का अपहरण शंकाशील सागरदत्त पुत्र दुविधा का फल नाचता मोर उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट १९९ Introduction २०१ Pea-Hen Eggs २०३ Devdatta, the Courtesan २०४ Preparations for an Outing २०६ The Outing ROC Disturbed Pea-Hen २०९ Picking up the Eggs २११ Skeptic Son of Sagardatta २१२ Consequence of Doubt २१३ Dancing Peacock २१६ Conclusion २१६ The Message २१७ Appendix 210 211 217 217 चतुर्थ अध्ययन : कूर्म २१८-२२९ Fourth Chapter : Kurma 218-229 आमुख कछुओं का आगमन -शृंगालों की चालाकी २१८ Introduction २२१ The Turtles २२३ Cunning Jackals 219 222 223 (17) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 घपल स्वभाव का फल निष्कर्ष : उपनय शांत स्वभाव का फल उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट २२३ The Rash Turtle २२५ The Lesson २२५ The Patient Turtle २२७ Conclusion २२७ The Message २२८ Appendix 225 225 228 228 229 पंचम अध्ययन : शैलक. २३०-२८१ Fifth Chapter :Shailak 230-281 . - . - . - . 231 235 237 238 आमुख कृष्ण वासुदेव अर्हत् अरिष्टनेमि का आगमन कृष्ण की उपासना थावच्चापुत्र का वैराग्य कृष्ण-थावच्चापुत्र संवाद कृष्ण द्वारा शिष्य-भिक्षा थावच्चापुत्र का विहार राजा शैलक का श्रावक बनना शुक परिव्राजक शुक की धर्मदेशना थावच्चापुत्र-सुदर्शन संवाद २३० २३५ २३६ २३७ २३९ २४१ २४५ २४७ २४८ २४९ २५१ २५२ 240 242 245 247 248 250 251 सुदर्शन का धर्म-परिवर्तन शुक का पुनरागमन शुक-थावच्चापुत्र संवाद २५४ २५६ २५८ Introduction Krishna Vasudev Arrival of Arhat Arishtanemi Worship of Krishna Detachment of Thavacchaputra Test by Krishna-Thavacchaputra Disciple Donation by Krishna Wanderings of Thavacchaputra King Shailak becomes a Follower Shuk Parivrajak The Preaching of Shuk Dialogue between Thavacchaputra and Sudarshan Conversion of Sudarshan Return of Shuk Dialogue between Shuk and Thavacchaputra Initiation of Shuk King Shailak gets Detached Diksha of Shailak Ailing Shailak Lethargy of Shailak Breaking of the Trap Reawakening of Shailak Conclusion The Message Appendix 253 254 256 259 266 267 270 शुक की प्रव्रज्या राजा शैलक का वैराग्य शैलक की दीक्षा शैलक मुनि की रुग्णता शैलक का प्रमाद प्रमाद भंग शैलक का पुनर्जागरण उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट 271 274 २६५ २६७ २६९ २७१ २७४ २७५ २७७ २७९ RCO २८0 276 278 280 280 281 (18) lain Education International Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छठा अध्ययन : तुम्बक २८२-२८८ Sixth Chapter : Tumbak 282-288 - . आमुख गुरुता का कारण लघुता का कारण उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट २८२ Introduction २८४ The Heavy State २८५ The Light State २८७ Conclusion २८७ The Message २८८ Appendix 282. 285 286 287 287 288 - . - . - . - . सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात २८९-३१२ Seventh Chapter : Rohini Jnat 289-312 . - . - . - . - . - . - 290 294 आमुख पुत्र-वधू परीक्षा दूरदर्शी रोहिणी अक्षत संवर्धन परीक्षा परिणाम उज्झिका : बाह्य सेविका भोगवती : गृह-सेविका रक्षिका : गृह-संरक्षिका रोहिणी : मुखिया उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट २८९ Introduction २९३ Testing the Daughters-in-Law २९६ Far-sighted Rohini २९८ The Rice Multiplied २९९ Result of the Test 309 Ujjhika; The Outer Servant ३०३ Bhogvati : The Cook ३०४ Rakshika : The Protector ३०६ Rohini : The Chief ३०८ Conclusion ३०९ The Message ३१२ Appendix 296 299 300 301 303 304 306 311 311 312 . - . - . -. - . - . आठवाँ अध्ययन : मल्ली ३१३-४१९ Eighth Chapter : Malli 313 - आमुख महाबल का जन्म महाबल की दीक्षा महाबल का मायाचार महाबल आदि की तपस्या समाधिमरण तीर्थंकर अवतरण पुत्र-दोहद जन्म व नामकरण उत्सव मोहनगृह का निर्माण राजा प्रतिबुद्धि पुष्प-मण्डप ३१३ Introduction ३१८ Birth of Mahabal ३२० Initiation of Mahabal ३२२ Cheating by Mahabal ३२४ Penances of Mahabal and Friends ३२८ Heditation unto Death 330 The Descent of the Tirthankar ३३२ Dohad of Flowers 333 Birth and Naming Ceremonies 334 Constructions of the House of Illusion ३३७ King Pratibuddhi 380 The Floral Pavilion 315 319 321 323 324 328 330 332 334 335 337 341 (19) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लीकुमारी की प्रशंसा राजा चन्द्रच्छाय समुद्र- यात्रा भयावह आकृति क्षमायाचना एवं कुण्डलों की भेंट राजा रुक्मि काशीराज शंख सुनारों को देश निकाला राजा अदीनशत्रु मल्लीकुमारी का चित्र मल्ली नहीं ! चित्र निर्वासित चित्रकार राजा जितशत्रु चोक्खा का पराभव जितशत्रु के पास चोक्खा कूपमंडूक दूतों का संदेश - निवेदन युद्ध की तैयारी कुम्भ की पराजय मिथिला का घेराव मल्ली की योजना राजाओं का मन परिवर्तन राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान दीक्षा का संकल्प वर्षी दान कुंभ की भोजनशालाएँ देवों का कर्तव्य पालन अभिषेक समारोह पालकी महाभिनिष्क्रमण दीक्षा केवलज्ञान संघ वर्णन निर्वाण उपसंहार उपनय गाथा परिशिष्ट ३४२ ३४४ ३४५ ३४८ ३५५ ३६१ ३६४ ३६६ ३६८ ३७० ३९१ ३९४ ३७२ ३७३ Exiled Painter ३७६ King Jitshatru ૩૬ Defeat of Chokkha ३८० Chokkha with Jitshatru A Well-Frog ३८१ ३८४ Emissaries in Mithila ३८५ War Preparations ३८७ Defeat of Kumbh ३८८ The Siege of Mithila ३८९ Malli's Plan ३९५ ३९८ ४०० Praise of Princess Malli King Chandracchaya The Sea-Voyage Horrific Apparition Gift of Earrings King Rukmi King Shankh of Kashi Exile of Goldsmiths. King Adinshatru The Portrait of Malli A Portrait Not Malli ! ४०९ 899 ४१३ ४१५ ४१७ ४१७ ४१८ Mind Change of the Kings Jatismaran Jnan of the Kings Resolve to Renounce the World The Great Charity Food Distribution by Kumbh Gods Perform their Duty ४०२ ४०४ Annointing Ceremony ४०६ The Palanquin ४०७ The Great Renunciation Initiation Omniscience Details of the Organization Liberation Conclusion The Message Appendix *** (20) 342 344 346 348 355 361 365 366 369 370 372 374 376 378 380 382 384 386 388 389 390 392 394 396 398 401 403 405 406 407 409 411 414 415 417 418 419 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMMAR CARU कारवर ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (प्रथम भाग) Jnātā Dharma Kathānga Sútra (FIRST VOLUME) DETA Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) AR प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात : आमुख शीर्षक-उक्खित्ते-उत्क्षिप्त/उत्स्थित अर्थात् उठाया हुआ या उठा हुआ। यह एक स्थिति का नाम है जिसमें कोई वस्तु अपनी सामान्य स्थिति से उठ, किसी उच्च स्थिति में पहुंचकर स्थिर हो जाय। वह स्थिति पार्थिव भी हो सकती है, मानसिक भी तथा आत्मिक भी। इस कथा में ये सभी स्थितियाँ समन्वित हैं और उनका आधार है अन्तःप्रेरित करुणा। प्रत्येक आयाम में किसी उच्च स्थिति पर पहुँचना और उस स्थिति को बनाये रखना, इस भागीरथ प्रयत्न में करुणा की अनोखी महत्ता का बेजोड़ उदाहरण इस कथा में प्रस्तुत किया गया है। कथासार-राजगृह (मगध) के राजा श्रेणिक के नंदा नामक रानी से अभयकुमार नाम का पुत्र था। वह अतीव बुद्धिमान् व मेधावी था तथा समस्त राज-काज का संचालन उसी के हाथ में था। राजा श्रेणिक के एक अन्य रानी थी जिसका नाम धारिणी था। वह एक रात अपने मुँह में एक श्वेत हाथी को प्रवेश करने का स्वप्न देख जाग पड़ी। राजा श्रेणिक तथा स्वप्नवेत्ता पण्डितों ने इस स्वप्न को एक तेजस्वी पुत्र-प्राप्ति का संकेत बताया। धारिणी गर्भवती हुई और तीसरे महीने में उसे असमय मेघ तथा वर्षाकाल में वन-उद्यानादि में भ्रमण का आनन्द लेने का दोहद उत्पन्न हुआ। धारिणी ने श्रेणिक राजा से दोहद की बात कही। असमय में वर्षाकाल की संभावना न होने से चिन्तित राजा ने अपने मेधावी पुत्र अभयकुमार से सारी बात कही। अभयकुमार ने पिता को आश्वस्त किया और अपने पूर्व-जन्म के मित्र एक देव का आह्वान कर उससे सहायता माँगी। देव ने अकाल मेघ तथा वर्षाऋतु की दैवी रचना कर धारिणीदेवी का दोहद पूरा करवाया। ___यथा समय धारिणीदेवी ने पुत्र प्रसव किया और अकाल मेघ के दोहद से सूचित होने के कारण राजा ने उसका नाम मेघकुमार रखा। कुमार धीरे-धीरे बढ़ने लगा। यथा समय उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई और युवा होने पर आठ सुन्दर राज-कन्याओं के साथ विवाह कर दिया गया। एक बार श्रमण भगवान महावीर राजगह पधारे। जन-समह उनका उपदेश सनने उमड पडा। मेघकमार भी सचना प्राप्त होने पर उनका उपदेश सनने गया। भगवान के वचन सन मेघ को को वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा लेने का निर्णय लिया। मेघ अपने माता-पिता से अनुमति लेने गया तो उन्होंने उसे बहुत समझाने की चेष्टा की कि गृहस्थ जीवन के सभी आनन्द भोगने के बाद दीक्षा लेने का विचार करे। पर मेघ अपने निर्णय पर अटल रहा और अन्ततः दीक्षा ले ली। श्रमण जीवन के प्रथम दिन ही मेघ असुविधाओं के कारण विचलित हो गया। रात्रि को उसकी शय्या द्वार के निकट लगी थी और अपने-अपने कार्य से आते-जाते अन्य श्रमणों के पाँव आदि छू जाने से उसे रात भर नीद नहीं आई। विचलित मेघकुमार भगवान महावीर के पास आया। उसकी चंचल मनोदशा देखकर भगवान महावीर ने स्वयं ही उसकी समस्या बताई और साथ ही उसके पूर्व-जन्म की कथा सुनाई। Care T Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CORN ( ४ ) इस भव से तीसरे पूर्व भव में मेघकुमार ने हाथी के रूप में जन्म लिया था। भयंकर दावानल से त्रसित अपनी प्यास बुझाने वह गजराज तालाब में उतरा तो उसमें रहे दलदल में फँस गया। ऐसी स्थिति में उसे एक तरुण शत्रु हाथी ने अपने पैने दाँतों से छेद दिया । मृत्यु पश्चात् वह जीव पुनः एक- गजराज के रूप में जन्मा । एक बार दावानल को देख उसे पूर्व जन्म के अनुभव का आभास हुआ और उसने अपने दल सहित नदी के तट पर एक विशाल क्षेत्र को वृक्ष व घास-फूस आदि जलने वाले पदार्थों से विहीन कर सुरक्षित मंडल तैयार कर लिया। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र एक बार जब पुनः भीषण दावानल प्रज्वलित हुआ तो भयभीत गजराज अपने दल सहित उस क्षेत्र की ओर भागा। वहाँ पहले से ही भयभीत वन-चर ठसाठस भरे पड़े थे। गजराज भी जैसे-तैसे उस भीड़ में घुसा और जहाँ स्थान पाया वहीं खड़ा हो गया। कुछ देर बाद उसने शरीर खुजाने को अपना एक पैर उठाया तो उस स्थान पर एक भयभीत खरगोश दुबक गया। गजराज ने यह देखा तो उसके हृदय में करुणा / अनुकम्पा का भाव उमड़ पड़ा। अनुकम्पावश उसने अपना पैर उठाये ही रखा। वह दावानल अढाई दिन में शांत हुआ और तब सारे पशु उस सुरक्षित स्थान से बाहर चलें गये । गजराज ने भी वहाँ से प्रस्थान के लिये जब अपने उठे हुए पैर को धरती पर टिकाने की चेष्टा की तो थकान और जकड़न के मारे वह धरती पर गिर पड़ा। तीन दिन तक असह्य वेदना भोगने के पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हुआ । करुणा से पवित्र हुई शुद्ध भावनाओं द्वारा जो कर्म बन्धन हुआ उसके फलस्वरूप वह जीव मेघकुमार के रूप में जन्मा । Doomoo पूर्व जन्मों की यह कथा सुनाकर भगवान ने मेघकुमार से कहा कि जब पशु के रूप में करुणा से प्रेरित हो एक नन्हे-से खरगोश की असुविधा का भी ध्यान रखने की सामर्थ्य उभरी थी तो आज क्या हुआ है? ज्ञानवान, बुद्धिमान् तथा गुणवान मनुष्य रूप में भी क्या श्रमणों द्वारा प्राप्त तनिक सी असुविधा से विचलित हो जाना उसे शोभा देता है? सज्ञान तितिक्षा से कर्म निर्जरा करना महान फलदायी होता है। प्रभु के इस उलाहने ने मेघकुमार की आँखें खोल दीं। उसे पश्चात्ताप हुआ और अतीत के ऊहापोह में लीन उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । पूर्व-भव की सभी बातें चलचित्र की भाँति स्पष्ट हो गईं। उसने अपने आपको संयम में स्थिर किया तथा यह व्रत लिया कि अपने नेत्रों के अतिरिक्त समस्त शरीर को श्रमणों की सेवा में अर्पित कर देगा। इसके बाद मेघकुमार ने सभी अंग-शास्त्रों का अध्ययन किया की आयु पूर्ण कर और तीव्र तपस्या करते हुए आयुष्य पूर्ण कर अनुत्तर देव लोक में जन्म लिया। वहाँ महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वह जीव मोक्ष प्राप्त करेगा। FIRST CHAPTER: UTKSHIPTA JNATA: INTRODUCTION Title-Utkshipta Jnata or "the tale of the elevated". The word Utkshipta means elevated or raised. It indicates a condition where a thing rises from its normal state to a higher state and remains there. The context may be physical, mental or spiritual. This story includes this elevated state in all these three contexts and the JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (4) e ES inspiring cause is inherent compassion. In the herculean task of rising and remaining in that elevated state this feeling of compassion plays a unique and important role. This story vividly highlights that role. Gist of the Story-King Shrenik and queen Nanda of Rajagriha (Magadh) had a son named Abhay Kumar. He was extremely intelligent and worldly wise. On behalf of King Shrenik he managed all the affairs of the state. King Shrenik had another beautiful queen whose name was Dharini. One night she saw a dream of a giant white elephant entering her mouth, and got up. King Shrenik and the dreamdiviners interpreted that Queen Dharini will give birth to a brilliant son. Queen Dharini became pregnant and during the third month of pregnancy she had a desire to enjoy untimely monsoon. She informed King Shrenik. When the king could not come up with any solution he was frustrated and worried. He told everything to his able son Abhay Kumar, who assured the king, invoked a friendly god and sought his help. This god created an enchanting atmosphere of untimely monsoon and fulfilled the queen's desire. In due course Dharini gave birth to a child who grew into a healthy and intelligent youth. After proper education he was married to eight beautiful princesses. Shraman Bhagavan Mahavir once arrived in Rajagriha city. Finding about the arrival of Shraman Bhagavan Mahavir, throngs of people came to pay homage to him and listen to his discourse. Megh Kumar also came there. The profound and inspiring discourse of Bhagavan Mahavir evoked feelings of detachment in Megh Kumar. He decided to get initiated into Mahavir's order. King Shrenik and Megh Kumar's mother tried instilling fear and antipathy for ascetic discipline. But the awakened spirit is never afraid of any hurdle or pain. Accepting his request Shraman Bhagavan Mahavir initiated Megh Kumar into the order. On the very first night, being the junior most, Megh Kumar was allotted the last place, near the gate, to sleep. During the night, for their essential duties, many ascetics kept on going out and coming back. Disturbed by all the commotion of this perambulation Megh Kumar could not sleep a wink throughout the night. Next morning he went to Shraman Bhagavan Mahavir who became aware of Megh's problem without his telling. To pacify his inner turmoil Bhagavan narrated a story "Megh! Once upon a time in the valley of the Vaitadhya mountain there lived a giant elephant named Sumeruprabh, Once, driven by a forest-fire and, in search of water it entered a large pond and was caught in the swamp. Just at that moment another strong and young elephant arrived and driven by a feeling of animosity from the past, it pierced Sumeruprabh's back with its sharp tusks. The elephant died suffering xa hawa CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Orego (E) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र In the next life it was born a red elephant named Meruprabh in the valley of the Vindhyas. Once, seeing a forest fire it recalled the experience from its last birth. It marked a large area of one Yojan and with the help of the herd cleared it of all combustible things like dry leaves, logs, etc. in order to take refuge in some such contingency. During the next summer once again a terrible forest-fire started. To save itself, the red elephant rushed towards the arena that it had cleared. In that arena numerous animals had already taken refuge. When the red elephant reached there it also squeezed in and stood where it found a little space. "After some time it lifted one of its legs to scratch some itching part of its body. At that instant a small rabbit crept in and occupied that space. When the elephant wanted to put back its leg on the ground it found that a tiny rabbit is occupying that space. The realization that its leg would crush the rabbit to death overwhelmed it with compassion. Instead of putting its feet back on the ground the elephant kept it lifted. As a result of its pure feeling of compassion it reduced the period of the cycle of rebirths and also earned a human-life-span. Doggade "The forest fire burned for two and a half days. By then the elephant was completely exhausted. With the desire to rush away from that place, as soon as it stretched its cramped leg it toppled and fell on the ground. It suffered excruciating agony for three days and died. From there it descended into the womb of queen Dharini in this town of Rajagriha. Megh! You were that elephant in your earlier life. "Megh! Just consider this that in the life you spent as an animal you were still inspired by the compassion for living beings. In this life as a human being though you have disciplined your senses, the very first night you have failed to tolerate even the slightest of inconveniences. The good deed from the life as an animal has pushed you towards spiritual light; do not be driven back to darkness by the infirm mundane attitude. Wake up, and know that tolerance inspired by purity of purpose leads to great achievements." The inspiring rebuke by Shraman Bhagavan Mahavir shook him to the core and ascetic Megh's desire for spiritual upliftment redoubled. He fell at the feet of Shraman Bhagavan Mahavir and said, "Bhante! Since this moment I commit every part of my body excepting my eyes to the service of the ascetics." He then commenced a strictly disciplined ascetic life absorbing all the knowledge of the Canons and indulging in most vigorous of penances. After observing the ascetic conduct for almost twelve years, Megh finally met his end. As a result of his great penance and purity of feelings, after death his soul has taken birth as a god in the Anuttar dimension of gods. He will be born as a human being in the Mahavideh area and attain Nirvana. JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) पढम अज्झयणं : उक्खित्तणाए प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात FIRST CHAPTER : UTKSHIPTA JNATA प्रारम्भ सूत्र १ : तेणं कालेणं तेणं समए णं चंपा नामं नयरी होत्था, वण्णओ। तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था, वण्णओ। तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिओ नामं राया होत्था, वण्णओ। सूत्र १ : ऐसा वर्णन है (औपपातिक आदि सूत्रों में) कि काल के उस भाग व उस समय (चौथे आरे के अन्तिम समय) में चम्पा नाम की एक रमणीय नगरी थी। उसके बाहर ईशानकोण की दिशा (उत्तर-पूर्व) में पूर्णभद्र नाम का एक चैत्य था। चम्पा नगरी में तब कुणिक नामक राजा राज्य करता था। इन सबका विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र में है। THE BEGINNING 1. It is said that during that period of time (the last part of the fourth section of the current cycle of time) there was a beautiful town named Champa. Just outside the town, in the north-east direction, there was a temple complex known as Purnabhadra Chaitya. The ruler of Champa, then, was king Kunik. (All these details are mentioned in the Aupapatik Sutra.) आर्य सुधर्मा स्वामी __सूत्र २ : तेणं कालेणं तेणं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम थेरे जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बल-रूप-विणय-णाण-दंसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिहे, जियपरिसहे, जीवियास-मरण-भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-अज्जव-मद्दव-लाघव-खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभवेय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दंसण-चरित्तप्पहाणे, ओराले, घोरे, घोरव्वए घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्त-विउल-तेउलेस्से, चोद्दसपुब्बी, चउनाणोवगए। Our.. - छापा E Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्माणे, सुहं- सुहेणं विहरमाणे, जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणामेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ; ओगिरिहत्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । सूत्र २ : काल के उस भाग में अथवा उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य (पंचम गणधर ) आर्य सुधर्मा नामक स्थविर विद्यमान थे । वे उच्च कुल व जाति सम्पन्न थे। बलवान, रूपवान और विनयवान होने के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन व चारित्र सम्पन्न भी थे । इन सभी गुणों से युक्त होते हुए भी वे अहंकार तथा परिग्रह से मुक्त थे; अर्थात् लाघव संपन्न थे। ओज, तेज, वचन - पटुता और यश से वे परिपूर्ण थे। क्रोध, मान, माया, लोभ पर ही नहीं, वे तो इन्द्रियों पर, नींद पर और परिषहों पर भी विजय प्राप्त कर चुके थे। जीने की इच्छा और मृत्यु की आशंका- भय, इन दोनों से रहित हो गये थे वे । वे तपप्रधान और गुणप्रधान थे। करण (करणसत्तरी - पिण्ड विशुद्धि, ग्रहणैषणा आदि आचार के मर्मज्ञ), चरण ( चरणसत्तरी - पंच महाव्रत आदि के पालन में निपुण), निग्रह, निश्चय, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, वेद, नय, नियम, सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों के सर्वश्रेष्ठ धारक थे। वे उदार थे और सदाचार के कठोर पालक । व्रत, तपस्या और ब्रह्मचर्य में वे दृढ़तया उत्कृष्ट थे और शरीर से अलिप्त । विपुल - तेजोलेश्या को अपने आप में समेट लिया था उन्होंने । वे चौदह पूर्वों के जानकार और चार ज्ञान के धारक थे। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ऐसे सुधर्मा स्वामी अपने पाँच सौ शिष्यों सहित एक के बाद दूसरे गाँव में विचरते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा नगरी में जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आये । यथानियम आज्ञा अवग्रह प्राप्त कर वे उस चैत्य में ठहरे और आत्मा को संयम एवं तप में भावित करते, रमाते हुए रहने लगे। ARYA SUDHARMA SWAMI 2. During that period of time the fifth chief-disciple of Shraman Bhagavan Mahavir, Arya Sudharma, was living. He belonged to a prominent family and caste. Besides being strong, handsome, and humble he was also endowed with right-knowledge, right-perception, and right-conduct. In spite of having all these rare virtues he was free of conceit and greed; in other words, he had the virtue termed as Laghav or extreme brevity of ego and desire for possessions. He was rich in qualities like power, aura, eloquence and the resultant fame. He (8) CHINE JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (8) or o had conquered anger, conceit, illusion, and greed and, at the same time, he had also won over the senses, sleep, and afflictions. The desire to live and the fear of death, both had no place in his mind. Penance and virtues occupied most prominent place in his life. He had profound knowledge of the rules of ascetic conduct (Karan-sattari), and at the same time he also immaculately followed those rules (Charan-sattari). He was ideally endowed with virtues like Nigraha (self-control), Nishchaya (determination), Arjava (simplicity), Mardava (humility), Laghav (extreme brevity of ego and desire for possessions), Kshama (forgiveness), Gupti (discipline of attitude and behaviour), Mukti (freedom), Vidya (esoteric skills), Mantra, Brahmacharya (celibacy), Veda (scriptures), Naya (logic), Niyam (discipline), Satya (truth), Shauch (cleansing), Jnana (knowledge), Darshan (perception), and Charitra (conduct). He was benevolent as well as strict adherent of right conduct. He was extremely resolute in observation of vows, penance, and celibacy. He had no attachment for his body. He had acquired the hyper-potent Tejoleshya (fire power). He had the complete knowledge of all the fourteen Purvas (sublime scriptures). And finally, he possessed all the four branches of knowledge. Wandering from one village to another along with his five hundred disciples, Sudharma Swami arrived at the Purnabhadra Chaitya in the town of Champa. After seeking formal permission he camped there and started his spiritual activities related to inner discipline and penance. सूत्र ३ : तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। कोणिओ निग्गओ। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसं पाउब्भूआ, तामेव दिसिं पडिगया। सूत्र ३ : इसके बाद चम्पा नगरी से निकलकर जनसमूह और राजा कुणिक भी पूर्णभद्र चैत्य में आये। इस जनसमूह को सुधर्मा स्वामी ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनने के बाद सभी अपने-अपने स्थान को लौट गए। 3. After that, throngs of people as also king Kunik came out of the town and went to the temple. Sudharma Swami gave a discourse and the masses returned home. PO ANG CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUAE SMS (१०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र AAD aanti सूत्र ४ : तेणं कालेणं तेणं समए णं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेटे अंतेवासी अज्जजंबूणामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव....... अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढं जाणू अहोसिरे झाण-कोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। __सूत्र ४ : उस समय आर्य सुधर्मा अनगार के प्रधान शिष्य थे काश्यप गोत्र के आर्य जम्बू अनगार। वे सात हाथ ऊँचे और पूर्वोक्त (कनक समान गौरवर्ण वाले तपस्वी, ब्रह्मचर्य में लीन आदि) गुणों से संपन्न थे। वे आर्य सुधर्मा से न अधिक दूर न अधिक पास रहते थे। वे उचित स्थान पर, घुटना ऊपर और मस्तक नीचा किये ध्यान के उपयुक्त आसन में बैठ तप और संयम में सतत लीन रहते थे। 4. Arya Jambu of the Kashyap clan was the senior disciple of Sudharma Swami. He was seven feet tall and had all the virtues detailed above. He always remained in proximity of Sudharma Swami, neither very far nor very near. All the time he used to sit at a proper place in a proper posture suitable for meditation, with raised knee and bent head, absorbed in practices of discipline and penance. जम्बू स्वामी की जिज्ञासा __ सूत्र ५ : तए णं से अज्जजंबूणामे अणगारे जायसड्ढे, जायसंसए, जायकोउहल्ले, संजातसड्ढे, संजातसंसए, संजातकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले उट्ठाए उडेति। उट्ठाए उद्वित्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थेरस्स णच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं, आइगरेणं, तित्थयरेणं, जाव सासय ठाणमुवगए णं, पंचमस्स अंगस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! अंगस्स णायाधम्मकहाणं के अटे पण्णत्ते ? सूत्र ५ : आर्य जम्बू अनगार के मन में एक कुतूहल उत्पन्न हुआ जो क्रमशः गहरा होते-होते संशय में परिणत हो गया और फिर जिज्ञासा बन गया। वे उठ खड़े हुए और आर्य सुधर्मा स्थविर के निकट आये। आर्य सुधर्मा स्थविर की दक्षिण दिशा से आरम्भ कर (10) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA DEB in Education International Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात तीन बार प्रदक्षिणा कर उन्होंने वाणी से स्तुति और शरीर झुकाकर वन्दना की। फिर वे आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर न बहुत पास उचित स्थान पर उनके सम्मुख बैठ गये और उत्तर की अपेक्षा लिये दोनों हाथ जोड़ विनय एवं भक्तिपूर्वक बोले " हे भंते ! श्रमण भगवान महावीर ने, जो धर्म के आदि पुरुष तीर्थंकर थे, ( शक्रेन्द्र स्तुति के समान गुण वर्णन) और सिद्ध गति रूप शाश्वत स्थान को प्राप्त हो चुके हैं, पाँचवें अंग का आपके कथनानुसार अर्थ बताया है तो छठे अंग, ज्ञाताधर्मकथा, का क्या अर्थ बताया है ?" ( ११ ) CURIOSITY OF JAMBU SWAMI 5. A curiosity sparked in the mind of ascetic Arya Jambu and it slowly grew into a doubt and then a query. He got up and approached Sudharma Swami. He circum-ambulated Sudharma Swami three times clockwise, uttered a panegyric, and bowed before him. He sat down near Sudharma Swami and joining his palms humbly and respectfully put forth his question "Bhante! If according to you this is the text of the fifth Anga (Jain canon) as given by Shraman Bhagavan Mahavir, the Tirthankar and propagator of religion (as detailed in the panegyric by Shakrendra, the king of gods) who has attained the eternal abode of the Siddha-state, what is the text and meaning of the sixth Anga, Jnata Dharma Katha, as given by him?” सुधर्मा स्वामी का समाधान सूत्र ६ : जंबुत्ति, तए णं अज्जसुहम्मे तेरे अज्जजंबूणामं अणगारं एवं वयासी- एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्टस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तं जहा - १. णायाणि य २. धम्मकहाओ य सूत्र ६ : आर्य सुधर्मा ने आर्य जम्बू को उत्तर दिया- “हे जम्बू ! उन श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्धों का उपदेश दिया है । वे १. ज्ञात और २. धर्मकथा नाम से प्रसिद्ध हैं । " REPLY BY SUDHARMA SWAMI 6. Sudharma Swami replied, “O Jambu! Shraman Bhagavan Mahavir has preached the sixth Anga in two parts that are popularly known as - 1. Jnata and 2. Dharma Katha." CHAPTER - 1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - सूत्र ७ : जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तं जहा-णायाणि य धम्मकहाओ य, पढमस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? ___ सूत्र ७ : भंते ! उन भगवान महावीर ने छठे अंग के जो ज्ञात और धर्मकथा नामक दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं उनमें से ज्ञात नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के कितने अध्ययन बताये हैं ? 7. Bhante! Of these two parts, how many chapters are there in the first part of the text known as Jnata? __सूत्र ८ : एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं-अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा उक्खित्तणाए, संघाडे, अंडे कुम्मे य, सेलगे। तुंबे य, रोहिणी, मल्ली, माइंदी, चंदिमाइ य॥१॥ दावद्दवे, उदगणाए, मंडुक्के, तेयली, वि य। णंदिफले, अमरकंका, आइण्णे, सुसमाइ य॥२॥ अवरे य पुंडरीए, णामा एगूणवीसइमे। सूत्र ८ : हे जम्बू ! उन श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात नामक श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों का उपदेश दिया है। वे इस प्रकार हैं : १. उत्क्षिप्त ज्ञात, २. संघाट, ३. अंडक, ४. कूर्म, ५. शैलक, ६. तुम्ब ७. रोहिणी, ८: मल्ली, ९. माकंदी, १०. चन्द्र, ११. दावद्रव वृक्ष, १२. उदक, १३. मंडूक, १४. तेतलीपुत्र, १५. नन्दीफल, १६. अमरकंका, १७. आकीर्ण, १८. सुषमा और १९. पुण्डरीक-कुण्डरीक।। ____8. Jambu! Shraman Bhagavan Mahavir has preached nineteen chapters of this Jnata section. They are- 1. Utkshipta Jnata, 2. Sanghata, 3. Andak, 4. Kurma, 5. Shailak, 6. Tumba, 7. Rohini, 8. Malli, 9. Makandi, 10. Chandra, 11. Davadrava Vriksha, 12. Udaka, 13. Mandook, 14. Tetaliputra, 15. Nandiphal, 16. Amarkanka, 17. Akirna, 18. Sushama, and 19. Pundarik-kundarik.. सूत्र ९ : जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-उक्खित्तणाए जाव पुंडरीए य, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ट पण्णत्ते ? ause RANI JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA ein Education International Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१३) Cw HINDO सूत्र ९ : भंते ! उन भगवान महावीर ने यह जो उत्क्षिप्त ज्ञात से पुण्डरीक पर्यन्त उन्नीस अध्ययनों का उपदेश दिया है उनमें से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? 9. Bhante! Out of these nineteen chapters what is the text and meaning of the first chapter as preached by Shraman Bhagavan Mahavir. कथारम्भ ___ सूत्र १0 : एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं इहेव जंबुद्दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे रायगिहे णामं नयरे होत्था, वण्णओ। गुणसीले चेइए वण्णओ। तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए णामं राया होत्था महया हिमवंत. वण्णओ। तस्स णं सेणियस्स रण्णो णंदा णामं देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया वण्णओ।। सूत्र १0 : हे जम्बू ! समय के उस भाग में जम्बू द्वीप के भारतवर्ष के दक्षिण भरत नामक क्षेत्र में राजगृह नामक नगर था। इस नगर के बाहर गुणशील नामक चैत्य था (इस नगर और चैत्य का वर्णन औपपातिक सूत्र में उपलब्ध है)। राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था। ऐसा वर्णन है (औपपातिक सूत्र में) कि वह राजा महाहिमवंत पर्वत के समान गुण वाला था। श्रेणिक राजा की नन्दा नामक रानी थी जो सुकुमार अंगों वाली थी। THE STORY 10. Jambu! During that period of time there was a town named Rajagriha in the south Bharat area of Bharatvarsh in the Jambu continent. Outside this town was a temple named Gunashil Chaitya. King Shrenik was the ruler of Rajagriha. It is said that the virtues he possessed were as lofty as the Himalayas. King Shrenik had a beautiful queen named Nanda. (as detailed in the Aupapatik Sutra) सूत्र ११ : तस्स णं सेणियस्स पुत्ते णंदादेवीए अत्तए अभए णामं कुमारे होत्था; अहीण जाव साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-णीति-सुप्पउत्तणय-विहण्णू, ईहा-वूह-मग्गणगवेसण-अत्थ-सत्थमई, विसारए, उप्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मयाए, पारिणामियाए चउव्विहाए बुद्धीए उववेए, सेणियस्स रण्णो बहुसु कज्जेसु य, कुडुंबेसु य, मंतेसु य, गुज्झसु य, रहस्सेसु य, णिच्छएसु य, आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणभूए, पमाणभूए, आहारभूए, चक्खुभूए, सव्वकज्जेसु य, सव्वभूमियासु ANING GANA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (13) A | Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) रट्टं य -लद्धपच्चए, विइण्णवियारे, रज्जधुरचिंतए यावि होत्था सेणियस्स रण्णो रज्जं च, य, कोसं च, कोट्ठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च, अंतेउरं च, सयमेव समुपेक्खमाणे समुपेक्खमाणे विहरइ । सूत्र ११ : श्रेणिक राजा और नंदा रानी के अभयकुमार नाम का एक पुत्र था । अभयकुमार शरीर से परिपूर्ण, गुण सम्पन्न सुन्दर स्वरूप वाले थे। वह राजनीति, व्यवसायनीति तथा न्यायनीति में निष्णात थे और चतुरंग अर्थनीति के ज्ञाता थे। चारों बुद्धियों के धारक अभयकुमार विभिन्न कार्यों तथा विषयों में राजा श्रेणिक के सलाहकार थे। पारिवारिक कार्यों में, मंत्रणा, रहस्यमय तथा गुप्त कार्यों में तथा कोई भी निर्णय करने में राजा श्रेणिक उनसे समय-समय पर सलाह लेते रहते थे। सबके लिये धुरी, आधार और सहारा बनने वाले अभयकुमार स्वयं प्रमाण रूप थे, आधार रूप थे और पथ-प्रदर्शक थे। वे राजा श्रेणिक के राज्य, राष्ट्र, कोष, भंडार, सेना, वाहन, नगर व महल तथा अन्तःपुर, सभी की व्यवस्था देखते थे। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 11. King Shrenik and queen Nanda had a son named Abhay Kumar. He had a perfectly proportioned, highly endowed and beautifully formed body. He was a master of politics, business management, and law. He had also studied all the four branches of economics. Endowed with four types of wisdom, Abhay Kumar was the advisor of King Shrenik in various fields and subjects. King Shrenik used to take his advise from time to time before taking any decision in the matters of family, state, and secrecy. Acting as an axis, base, and support for others Abhay Kumar himself was the embodiment of authenticity, the symbol of support, and the source of path-finding light. On behalf of King Shrenik he managed all the affairs of the state, nation, exchequer, store, defense, transport, town, palace, and family. 3 सूत्र १२ : तस्स णं सेणियस्स रण्णो धारिणीणामं देवी होत्था सुकुमालपाणि-पाया अहीण पंचिंदियसरीरा सेणिएणं रण्णा सद्धिं विउलाई भोगभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरइ । सूत्र १२. श्रेणिक राजा के धारिणी नाम की एक और रानी थी जो अत्यन्त रूपवान और गुण सम्पन्न थी। 14) 12. King Shrenik had another highly endowed and beautiful queen whose name was Dharini. For Private Personal Use Only JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Q Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात शयनागार - वर्णन सूत्र १३ : तए णं सा धारिणी देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि छक्कट्ठकलट्ठे-मट्ठ-संठिय-खंभुग्गयं पवरवरसालभंजिय-उज्जलमणिकणगरयण - थूभियविडंगजालद्धचंद-णिज्जूहकंतर- कणयालि-चंदसालिया - विभत्तिकलिए, वण्णरइए, बाहिरओ दूमियघट्टमट्ठे, अब्भितरओ पसत्त-सुइलिहियचित्त-कम्मे, णाणाविहपंचवण्ण-मणि-रयणकोट्टिमतले, पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुप्फजाइ सरसच्छधाऊवल GRETC OMO उल्लोयचित्तियतले, चंदणवर- कणगकलस- - सुविणिम्मिय-पडिपुंजिय- सरसपउमसोहंतदारभाए, पयरग्गालंबंतमणि-मुत्तदाम-सुविरइयदारसोहे, सुगंध-वरकुसुम-मउयपम्हलसयणोवयारे, मणहिययनिव्वुइकरे, कप्पूर- लवंग-मलय- चंदण - कालागुरु-पवरकुंदुरुक्कतुरुक्क-धूवडज्झंतसुरभिमघमघंत गंधुद्धयाभिरामे, सुगंधवर - गंधिए गंध-वट्टिभूए, मणिकिरणपणासियंधयारे, किं बहुणा ? जुइगुणेहिं सुरवरविमाण-वेलंबियवरघरए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि, सालिंगणवट्टिए उभओ विब्बोयणे, दुहओ उन्नए, मज्झेण य गंभीरे, गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए, ओयवियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छिन्ने, अत्थरय-मलय-नवतय-कुसत्त-लिंब - सीहकेसरपच्चुत्थए, सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आइणग- रूय- बूर - णवणीय-तुल्लफासे; पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्त - जागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी एगं महं सत्तुस्सेहं - रययकूडसन्निहं, नहयलंसि सोमं सोमाकारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमइगयं गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा । सूत्र १३ : धारिणी देवी एक अत्यन्त मनोहारी महल में रहती थी। उस महल में स्थिरता और विशालता के लिये उचित स्थान पर उचित रीति से छः-छः काष्ठ खंडों से विशिष्ट आकार के सुन्दर खंभे बने हुए थे। इन घिसकर चिकने किये खंभों पर जीवन्त लगती सुन्दर पुतलियाँ उकेरी हुई थीं। इस महल पर चमकती मणिरत्नों की तथा सोने की छोटी-छोटी छतरियाँ बनी हुई थीं। सुन्दर छज्जे, मनोहारी जाली- झरोखे, अर्द्धचन्द्राकार सीढ़ियाँ और रत्नजड़ित द्वार - घोडले उस महल की शोभा बढ़ा रहे थे। स्थान-स्थान पर सुन्दर आकार की नालियाँ बनी थीं। भवन के ऊपरी भाग में चन्द्रशाला बनी हुई थी । भवन के शयन कक्ष में चूने और स्वच्छ गेरू का रंग किया हुआ था। बाहर से सफेदी की हुई थी और चिकने पत्थर से घिसाई होने के कारण वह चमक रहा था। शयनागार की भीतरी दीवारों पर पशु, पक्षी, मनुष्य आदि के सुन्दर मनोहारी चित्र बने हुए थे । आगार के आँगन में पंचरंगे मणिरत्न जड़े हुए थे और छत की दीवार पर कमल के आकार की, फूलों से भरी, मालती आदि की बेलों के चित्र बने हुए थे। द्वार भाग पर सोने के मांगलिक कलश रखे थे जिनके मुख खिले हुए कमल से ढँके थे। दरवाजे पर सोने के तार में पिरोई मणियों ( १५ ) _CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (15) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / MAHAMAA OURadiwenty और मोतियों की मालाएँ लटक रही थीं। उस शयनागार में बिछी शय्या को सुगंधित, रंग-बिरंगे, कोमल और रोएँदार फूलों से सजाया गया था। वह कक्ष मन को अतीव आनन्द देने वाला था। कपूर, लौंग, मलय-चन्दन, काला अगर, उत्तम चीड़ा, लोबान आदि की धूप की सुगन्ध से वह कक्ष भरपूर सुवासित था। अन्य तरह-तरह की सुगन्धों से महकता वह कक्ष ऐसा लग रहा था जैसे असंख्य फूलों की गन्ध से महकती वाटिका। अनेक मणि-रत्नों से बिखरते प्रकाश के कारण वहाँ से अंधकार का लोप हो गया था। इस शयनागार के विषय में इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है कि वह अपनी शोभा से श्रष्ठतम देव विमान को भी लज्जित कर रहा था। ऐसे अपूर्व शयनागार में एक शय्या बिछी हुई है। उस पर शरीर की लम्बाई जितना गद्दा बिछा हुआ है जिसके दोनों छोरों पर सिर तथा पैरों की ओर दो तकिये रखे हैं। यह शय्या दोनों ओर उठी हुई और बीच में गहरी है। गंगा नदी की बालू में जैसे पाँव फँस जाते हैं वैसे ही इस शय्या में भार रखने से यह नीचे फँस जाती है। इस पर रंग-बिरंगी कशीदा कढ़ी रेशम की महीन चादर बिछी हुई है। इस पर मलय, नवतक, कुशक्त, लिम्ब तथा सिंह केसर से बने कपड़ों की स्वच्छ चद्दरें एक के ऊपर एक बिछी हुई हैं। इन सबकी धूल से रक्षा करने के लिये एक और सादी चद्दर ऊपर ढकी हुई है। इस शय्या पर एक लाल रंग की मच्छरदानी भी तनी हुई है। ऐसी सजी हुई यह शय्या बड़ी सुरम्य है। छूने में यह शय्या कोमल चमड़े, धुनी रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और आक की रूई के समान कोमल और स्निग्ध है। स्वप्न ___ रात का पहला पहर बीतने के बाद इस सुन्दर शय्या पर रानी धारिणी सोई हुई थी। अर्द्धनिद्रित अवस्था में, जब रह-रहकर नींद के झोंके आ रहे थे, उन्होंने एक अत्यन्त विशाल, चाँदी के पर्वत-शिखर जैसे सफेद, सात हाथ ऊँचे प्रशस्त और सर्वांग सुन्दर हाथी को क्रीड़ा करते जम्हाई लेते आकाश से उतर अपने मुँह में प्रवेश करते देखा। यह स्वप्न । देखते ही वे जाग पड़ी। THE BEDROOM 13. Queen Dharini lived in a beautiful palace. Large wooden pillars, beautifully made in a unique shape with six blocks of wood, were erected at proper spots to add to the grandeur and stability of the palace. Lovely and life like figures were chiseled on these polished pillars. Small decorative canopies made of gold and gem stones could be seen at the roof top. Beautiful balustrades, attractive grills and M anstha QALIRANA (16) JNĀTA DHARMA KATHANGA SŪTRA in Education International Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERE 27 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र PRE Avhim UPEidio चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED शुभ स्वप्न दर्शन यित्र : १ एक रात महाराज श्रेणिक की रानी धारिणी ने अपने भव्य शयनागार में सोते हुए शुभ स्वप्न देखा। एक उज्ज्वल वर्ण का चार दाँत वाला विशालकाय हाथी आकाश मार्ग से उतरता हुआ मुख मार्ग द्वारा उसके उदर में प्रवेश कर रहा है। यह शुभ स्वप्न देखकर रानी जाग उठी। वह उठकर महाराज श्रेणिक के कक्ष में आई। महाराज को जगाकर उसने अपना स्वप्न सुनाकर इस विचित्र शुभ स्वप्न का फल पूछा। ___ महाराज ने बताया-देवी ! आप शीघ्र ही एक पुण्यशाली पुत्र की माता बनेंगी। (अध्ययन १) SEEING THE AUSPICIOUS DREAM ILLUSTRATION:I One night King Shrenik's queen, Dharini, sleeping in her gorgeous bedroom sees a dream. A great white elephant having four tusks descends from the sky, enters her mouth, and reaches into her womb. The queen is awakened by this auspicious dream. She goes into the room of king Shrenik and asks for the meaning of this strange auspicious dream after waking him up. The king replies that she shall soon give birth to a brilliant son. (CHAPTER-1) MA000 JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA ain Education International Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( 96 ) ce over-hangs, semi-circular steps, and gem-studded door-tops enhanced the beauty of this palace. Drainage pipes in attractive shapes were fitted at appropriate places. On the top floor of the palace was a Chandrashala (an attic to watch and enjoy the moon). The bedroom-walls of this palace were white-washed. The outer walls of this room were also white-washed and polished with smooth stones. The inner walls of this chamber were adorned with frescoes of animal, bird, human, and other such attractive motifs. Multi-coloured gem stones were studded on the floor, and the ceiling was decorated with floral motifs. Near the door were placed auspicious golden urns covered with blooming lotus flowers. Beads and pearls strung in gold wire were decoratively suspended over the door. The bed in this room was decorated with fragrant, colourful, soft and velvety flowers. It had a pleasing appearance and was filled with aroma of a variety of burning incenses including Kapur, cloves, sandal wood, black agar, good quality Cheed, and Loban. The added fragrance of other aromatic substances had made the room redolent like a bouquet of flowers. The glow from the decorated jewels was dispelling the darkness in the room. It would not be an exaggeration to state that in grandeur this bedroom surpassed the best of the abodes of gods. In such exquisite room was placed a bed. It was made to the measure of the queen. There were pillows lying at both ends. It was raised on both sides and sunken in the middle. On this bed, soft and pliant like the beach sand of the Ganges, was laid out a bed spread of colourfully embroidered silk. It was further covered with bed-sheets woven from fibers of Malaya, Navatak, Kushakt, Limb, and lion-mane Over and above all these was spread a plain white bed sheet for protection from dust. A red coloured mosquito-net was put around it This decorated and inviting bed was as soft to touch as chamois leather, softest cotton, Bura plant, fresh butter, or Aak fiber. THE DREAM During the second quarter of the night Queen Dharini was sleeping in this beautiful bed. Dozing and lying half asleep in the bed she saw a dream. A giant seven feet tall, grand, and ideally beautiful elephant, or CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (17) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DO ( १८ ) white like a heap of silver, yawning and playfully descending from the sky, entered her mouth. She got up immediately after this dream. सूत्र १४. तए णं सा धारिणी देवी अयमेयारूवं उरालं, कल्लाणं सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्टा चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस-विसप्पमाणहियया धाराहय-कलंबपुप्फगंपिव समूससियरोमकूवा तं सुमिणं ओगिण्हइ । ओगिण्हइत्ता सयणिज्जाओ उट्ठेति, उट्ठेइत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए हंससरिसीए गई जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता सेणिय रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं, हिययगमणिज्जाहिं, हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर - सस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहे | पडिबोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी णाणामणि कणग-रयण-भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसीया । निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु, सेणियं रायं एवं वयासी ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र एवं खलु अहं देवाप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । तं एयरस णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स जाव सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? सूत्र १४. ऐसे उदारादि फलयुक्त महास्वप्न को देखकर जागी धारिणी देवी आनन्दमग्न हो गई । उसका मन हर्ष विभोर हो उठा । वर्षा से भीगे कदम्ब के फूल की तरह उसका रोम-रोम पुलक उठा। उसने सपने को याद किया और तब शय्या से उठ पाद- पीठ पर होती हुई धरती पर उतरी। वह पूर्ण जाग्रत हो तत्काल मन्द मन्द चपलतारहित राजहंस जैसी चाल से राजा श्रेणिक के कमरे में गई । इष्टादि गुणों से संपन्न (इष्ट = अच्छी लगने वाली, प्रिय, मन को मुग्ध करने वाली, हृदय को प्रसन्न करने वाली, मधुर उदार शिष्टतायुक्त, सुन्दर शब्दावली से मंगलकारक बनाने वाली ) वाणी का उच्चारण कर उसने श्रेणिक राजा को जगाया और उनकी अनुमति लेकर वह सोने के रत्नजड़ित और चित्रित भद्रासन पर बैठीं। आश्वस्त होकर दोनों हाथ जोड़, मस्तक के ऊपर घुमा, ललाट से छुआकर मधुर स्वर में श्रेणिक राजा से कहा "हे देवानुप्रिय ! आज जब मैं अपनी शय्या पर सो रही थी तब सपने में एक भव्य हाथी को अपने मुँह में प्रवेश करते देखकर जाग पड़ी। हे देवानुप्रिय ! इस उदारादि गुण संपन्न स्वप्न का भविष्य में क्या कल्याणकारी फल मिलेगा ?" (18) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १९) a Opno Palpa 49 14. Waking up after this radiant (etc.) dream, Queen Dharini was filled with joy. Her heart was brimming over with happiness. As a Kadamba flower blossoms at the touch of rain drops, every pore of Queen Dharini's body became alive with a sensation of ecstasy. She brooded over the vivid dream and got up from the bed. She moved away from the bed and drifting with the grace of a swan approached the bed of King Shrenik with unhurried gait and steady steps. She gently woke him up uttering loving, touching, and appropriate words in her soft, sweet, pleasing and melodious voice with gracious, clear, warm, and polite accent. Seeking permission from King Shrenik she made herself comfortable on a golden and gem studded seat. Controlling her excitement and regaining her composure she greeted the king with folded hands and uttered in her sweet voice “Beloved of gods! Today while I was sleeping in my bed I saw in my dream a gorgeous elephant enter my mouth. This dream broke my slumber. I feel that this great dream is a precursor of some auspicious incident in the near future. Is it not?" सूत्र १५. तए णं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए धाराहय-नीव-सुरभिकुसुम-चंचुमालइयतणू ऊससियरोमकूवे तं सुमिणं उग्गिण्हइ। उग्गिण्हित्ता ईहं पविसति, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ। करित्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिउमहुररिभियगंभीरसस्सिरियाहिं वग्गूहिं अणुवूहेमाणे अणुवूहेमाणे एवं वयासी। सूत्र १५. श्रेणिक राजा धारिणी देवी की बात सुन-समझकर प्रसन्न हुआ और उसके मन को संतोष प्राप्त हुआ। उसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई। उसे परम सौम्यता (शांति) और आह्लाद मिले। वह हर्ष-विभोर हो उठा। वर्षा की बूंदों में भीगे सुगन्धित कदम्ब वृक्ष की तरह उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने स्वप्न को समझा और उसके फल का चिन्तन किया। अपनी स्वाभाविक प्रज्ञा और विज्ञान-बुद्धि द्वारा उसने स्वप्न के विशिष्ट अर्थ व फल का निश्चय किया। फिर वह बारंबार प्रशंसा करते हुए हृदय को सुख देने वाली अपनी मधुर गंभीर वाणी में कहने लगा 15. Queen Dharini's words filled King Shrenik with joy. Like Queen Dharini his heart also brimmed over with delightful ecstasy. He शा UAE CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (19) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / DO - - ruminated over the dream and pondered what it augured. With the help of his inborn intelligence and discerning mind, he interpreted the dream and what it forebode. He then conveyed sweetly to Queen Dharini, श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-कथन सूत्र १६. उराले णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिखे, कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए । सुमिणे दिवे, सिवे धन्ने मंगल्ले-सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिवे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्ल-कारए णं तुमे देवी सुमिणे दिढे। अत्थलाभो ते देवाणुप्पिए, पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए रज्जलाभो भोगलाभो सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए ! ___ एवं खलु तुम देवाणुप्पिए नवण्हं मासाणं बहुपडिपुत्राणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं विइक्वंताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकर, कुलणंदिकर, कुलजसकरं, कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं । सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं पयाहिसि। से वि य णं दारए उम्मक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते सरे वीरे विक्कंते वित्थिन्नविपुलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सइ। तं उराले णं तुमे देवीए सुमणे । दिढे जाव आरोग्गतुट्टिदीहाउ-कल्लाणकारए णं तुमे देवी ! सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो । भुज्जो अणुबूहेइ। ___ सूत्र १६. “हे देवानुप्रिये ! तुमने उदार, श्रेष्ठ व कल्याणकारी स्वप्न देखा है। हे। देवानुप्रिये ! तुमने शिव-सुखदायक, मंगल रूपादि गुणों वाला स्वप्न देखा है। जिसके ! फलस्वरूप अर्थ, भोग, पुत्र, सुख व राज्य लाभ होगा। निश्चित ही तुम नौ महीने और साढ़े । सात दिन पूरे होने पर एक पुत्र रत्न को जन्म दोगी। तुम्हारा यह पुत्र हमारे कुल के लिए। ध्वजा, दीपक, पर्वत, भूषण, तिलक आदि के समान कीर्ति बढ़ाने वाला होगा। वह कुल का | सूर्य, आधार व पादप-वृक्ष होगा। वह कुल का निर्वाह करने वाला, यश बढ़ाने वाला, और विशेष वृद्धि करने वाला होगा। वह सुकोमल हाथ-पैर वाला, किसी भी प्रकार की हीनता से। रहित सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर वाला होगा। उसका शरीर मान, उन्मान और परिमाण से पूर्ण । व सर्वांग सुन्दर होगा! वह शुभ लक्षण, व्यंजन आदि गुणों से युक्त होगा। वह शोभावान, ! चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला, कान्त, मनोज्ञ और प्रियदर्शी होगा। __“वह बचपन बीतने पर कला, विज्ञान आदि सभी विषयों में पारंगत होकर यौवन प्राप्त ! करेगा। तब वह शूरवीर, तेजस्वी, विशाल, बलशाली, तथा वाहन, सेना, राज्य आदि का - Mam (20) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( २१) GMO ICHARIT R ARENCEmaoneemwesomwaresminenawwarthiseason APN9NEINEMAINEEMATAMITR NEPALI स्वामी राजा होगा। अतः देवी ! तुमने जो महास्वप्न देखा है वह अत्युत्तम है।" श्रेणिक राजा ने अनेक बार स्वप्न की प्रशंसा की। - INTERPRETATION BY SHRENIK ___16. “O beloved of gods! You have seen bountiful dream that is harbinger of well being and good fortune. You will gain wealth, grandeur, a son, joy, and expansion of kingdom. It is certain that you will give birth to a son after nine months and seven and a half days from today. This son of yours will bring glory to our clan, as do a flag, a lamp, a mountain, a crown, and an auspicious mark on the forehead. For our clan he will be like the sun, a support, and a shade giving tree. He will have delicate limbs, faultless and acute senses, and a perfectly formed body. His body will have all the auspicious marks and signs, and it will be ideally proportioned in terms of shape height and weight. Like a divine child he will be absolutely beautiful, charming, and handsome. Like the moon he will be soothingly radiant. “As he passes the age of infancy he will grow into a youth of mature intelligence and having perfect knowledge of all subjects including arts and sciences. He will then be a king having courage, bravery, glory, benevolence, power, vehicles, army, and kingdom. Thus you have seen the best of all dreams." King Shrenik praised the dream over and again. सूत्र १७. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी हद्वतुट्ट जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाव सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी__ एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं, सच्चे णं एसमढे जं णं तुब्भे वयह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ। पडिच्छित्ता सेणिएणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिकणगरयण-भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अभुढेइ, अब्भुटेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयंसि सयणिज्जंसि निसीअइ। निसीइत्ता एवं वयासी मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिहि त्ति कटु देवय-गुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी - विहरइ। IADHANUMA RITESTANTamentarawasaTEMNRNam a some - -- - - - - - CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (21) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र BALI छा सूत्र १७. धारिणी रानी श्रेणिक राजा से स्वप्न का अर्थ सुन-समझकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और दोनों हाथ जोड़ अंजलि को ललाट पर लगाकर बोली___ "हे देवानुप्रिय ! निःसन्देह आपकी बात सत्य है। यह आशानुरूप, अभीष्ट और इच्छित है। यह स्वप्न-फल प्रमाणित है।" स्वप्न के अर्थ को मन से स्वीकार कर श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर वह स्वर्ण-रजत-मणिरत्नों से मण्डित भद्रासन से उठी और अपनी स्वाभाविक चाल से चलती हुई अपने शयनागार में वापस आई। शय्या पर बैठकर वह सोचने लगी “मेरा ये मंगलमय स्वप्न अन्य दुःस्वप्नों से कहीं निष्फल न हो जाये इसलिये मुझे देव और गुरुजन विषयक उच्च, मांगलिक और धर्मरस भरी कथाओं की सहायता से जागते रहना चाहिये।" यह सोचकर वह उस रात जागती रही। 17. These words of King Shrenik made Queen Dharini happy and contented. She greeted King Shrenik courteously and with joined palms and exclaimed, “Undoubtedly, beloved of Gods, what you say is true. Your statement is not just desirable, it is also the indicator of the fulfillment of our cherished desires. Your interpretation is absolutely correct." Sincerely accepting the interpretation, she took leave of King Shrenik, got up from her seat and returned to her bedroom with her natural graceful gait. Sitting on her bed she started thinking “Lest this dream lose its auspicious effect due to later bad dreams, let me keep awake with the help of pious, auspicious, and religious tales about gods and elders." Guided by these thoughts she did not sleep during the rest of the night. राजगृह की सजावट सूत्र १८. तए णं सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्तसुइय-संमज्जिवलित्तं पंचवन्न-सरस-सुरभि-मुक्क-पुष्फपुंजोवयारकलियं कालागरु-पवरकंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-मघमघंतगंधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह कारवेह य; करित्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोकुंबियपुरिसा सेणिए णं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव पच्चप्पिणंति। (22) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ouro प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( २३ ) Ong CMS RAIHINA पछता PENSE सूत्र १८. उधर प्रातःकाल होने पर श्रेणिक राजा ने कुटुम्बियों (सेवकों) को बुलाया और कहा-“हे देवानुप्रियो ! आज बाहरी सभा मंडप (उपस्थान शाला) में जल्दी ही उत्तम सुगन्धित जल छिड़को, उसकी सफाई करो और वहाँ चन्दन का लेप करो। पाँच रंग के श्रेष्ठ सुगन्धित फूलों से उसे सजाओ। तरह-तरह की सुगन्धित धूप जलाकर उसे सुवासित करो और रमणीय बनाओ। इधर-उधर सुगन्धित चूर्ण बिखराकर उसे सुगन्ध के पिटारे जैसा बना दो। ये सब काम तुम स्वयं तथा अन्यों की सहायता से पूरा कर मुझे सूचित करो।" श्रेणिक राजा की यह आज्ञा सुन वे लोग प्रसन्न हुए और आज्ञा पालन करने चले गए। कार्य पूर्ण करके लौटे और राजा को सूचना दी। DECORATING RAJAGRIHA ___ 18. As the dawn approached, King Shrenik summoned the members of his staff and said, “O beloved of gods! Hurry up and get the outer assembly hall cleaned, anointed and sprinkled with good fragrant water. Decorate it with enchanting, fragrant and multicoloured flowers. Burn a variety of incenses to make it redolent and pleasant. Turn it into a chamber of perfume by sprinkling aromatic powders. Do all this yourself, and with the help of others, and report back.” Hearing the king's order they happily left and after completing the entrusted work they returned and informed the king. __ सूत्र १९. तए णं सेणिए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, अह पंडुरे पभाए, रत्तासोगपगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धरागबंधुजीवग-पारावयचलण-नयण-परहुय-सुरत्तलोयण-जासुमिणकुसुम-जलियजलणतवणिज्जकलस-हिंगुलयनियर-रूवाइरेगरेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहकमेण उदिए, तस्स दिणकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे, बालातवकुंकुमेणं खइएव्व जीवलोए, लोयणविसआणुआस-विगसंत-विसददसियम्मि लोए, कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूर सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सयणिज्जाओ उठेति। सूत्र १९. रात बीतने पर, उषाकाल में पौ फटने पर मृग-नयनों के समान कमल की कलियाँ खिलने लगी थीं और सुनहरी आभा छिटक रही थी। लाल अशोक, टेसू, तोते की चोंच, चिर्मी का अधोभाग, रक्त पुष्प, कबूतर के पंजे व आँख, जवा कुसुम के फूलों का ढंर, धधकती अग्नि, सिंदूर, आदि के लाल रंग से भी अधिक चमकता और शोभामय सूर्य CHUDA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (23) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र (२४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 16 CHAR धीरे-धीरे उग रहा था। उसकी किरणों के प्रभाव से अंधकार का नाश हो गया था। उसकी प्रथम किरणों के तेज से समस्त संसार कुंकुम (गुलाल) जैसे लाल रंग में नहा गया था। प्रकाश के इस विस्तार से धीरे-धीरे समस्त संसार स्पष्ट दिखाई देने लगा था। ऐसे तेजोमय हज़ारों किरणों वाले जाज्वल्यमान सूर्य के उगने पर राजा श्रेणिक अपनी शय्या से उठे। 19. At the hour of dawn buds of Utpal lotuses started blossoming and a golden glow started spreading with the slowly rising sun. Brighter and more beautiful then the colour of red Ashoka flower, Tesu flower, beak of a parrot, Gunja seed, Rakta flower, talons and eyes of a pigeon, a heap of Javakusum flowers, vermilion, etc., the morning sun was slowly rising on the horizon. The onslaught of its rays had destroyed darkness. Its first rays had coloured everything with a red hue, as if the world was drenched in a solution of vermilion. With the dawning of such a scintillating sun, having infinite rays, King Shrenik got up from his bed. रांजा श्रेणिक की तैयारी उहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेगवायाम-जोग-वग्गण-वामद्दण-मल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्सन्ते, सयपागेहिं सहस्सपागेहिं सुगंधवरतेल्लमाइएहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं मदणिज्जेहिं विंहणिज्जेहिं, सव्विदियगायपल्हायणिज्जेहिं अब्भंगएहिं अब्भंगिए समाणे, तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपाय-सुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पट्टेहिं कुसलेहिं मेहावीहि निउणेहिं निउणसिप्पोवगएहिं जियपरिस्समेहिं अब्भंगण-परिमद्दणुव्वट्ठणकरणगुणनिम्माएहिं अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विहाए संवाहणाए संबाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालाओ पडिणिक्खमइ। ___ शय्या से उठकर राजा श्रेणिक व्यायामशाला की तरफ गए। उसमें प्रवेश कर उन्होंने शस्त्राभ्यास, कूद, अंगों को मोड़ना, कुश्ती, आसन आदि कई प्रकार के व्यायाम किए। व्यायाम से थक जाने पर उन्होंने सुगन्धित शतपाक, सहस्रपाक तेलों से मालिश करवाई। यह मालिश रस-रक्त आदि सप्त धातु को बढ़ाने वाली है, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाली, शुक्रवर्धक और बलवर्धक है, तथा अंग-प्रत्यंग को आनन्द देने वाली है। मालिश करने वाले अनुचर कोमल हथेलियों और पगथलियों वाले तथा बलिष्ठ थे। वे तेल लगाने, मालिश करने, पसीना बाहर निकालने आदि मर्दन-कला के विभिन्न अंगों के विशेषज्ञ थे। वे अपने कार्य में प्रवीण (देश-काल के अनुरूप कार्य करने वाले), चतुर और मेहनती थे। इन लोगों RA (24) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात " ने राजा श्रेणिक के शरीर को सुख और स्वास्थ्य प्रदान करने वाली चार तरह की, अस्थि-सुखकारक, माँस-सुखकारक, त्वचा - सुखकारक और रोम - सुखकारक मालिश भली प्रकार से की। मालिश द्वारा थकान मिटाकर स्फूर्तिवान राजा श्रेणिक व्यायामशाला से बाहर निकले। PREPARATIONS BY KING SHRENIK Leaving the bed King Shrenik went to his gymnasium. There he completed various routines including the practice of weapons, jumping, gymnastics, wrestling, and yogic postures. After these tiring routines, he went for a massage with medicated and flavoured oils like Shatapak and Sahastra-pak ( cooked, refined, and medicated hundred and thousand times). ( २५ ) This massage was nourishing and refreshing for the seven constituents (Dhatu) of the body including blood, juices, and marrow. It increased the potency and strength of the body and, at the same time, gave pleasure and exhilaration to every part. The masseurs were strong and well-built but with soft palms and heels. They were experts of all aspects of massaging including the rubbing of oil, kneading, and making one sweat. They expertly gave king Siddhartha four types of pleasant and healthy massage-bone stimulating, muscle stimulating, skin stimulating, and hair stimulating. King Shrenik came out of the gymnasium after removing fatigue and getting refreshed. पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ । अणुपविसित्ता समंतजालाभिरामे विचित्तमणि - रयणकोट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहनिसन्ने, सुहोदगेहिं फुप्फोदगेहिं गंधोदएहिं सुद्धोदएहिं य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवर मज्जणावसाणे पम्हल - सुकुमालगंधकासाइयलूहियंगे अहत-सुमहग्घ- दूसरयणसुसंवुए सरससुरभि गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणि- सुवण्णे कप्पियहारद्धहार-तिसर- पालंब - पलंबमाणकत्ति - सुकसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलेज्जग-ललियंग - ललियकयाभरणे णाणामणिकडग- तुडय-थंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जोइयाणणे मउडदित्त - सिरए CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA ( 25 ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 4NDIA हारोत्थयसुकय-रइयवच्छे पालंब-पलंबमाण-सुकय-पडउत्तरिज्जे मुद्दियापिंगलंगुलीए णाणामणि-कणग-रयण-विमलमहरिह-निउणोविय-मिसिमिसंत-विरइय-सुसिलिट्ठ-विसिट्टलट्ठ-संठिय-पसत्थ-आविद्ध-वीरवलए, किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगलजयसद्दकयालोए ___ अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-मंति-महामंति-गणगदोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाइ-दूय-संधिवालसद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेह-निग्गए विव गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ। पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाण-साला तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे संनिसन्ने। फिर वे स्नानगृह में गए, जिसमें मोतियों की झालर और सुन्दर जालियों वाला तथा आँगन में रत्न जड़ा मनोहर स्नान मण्डप था। वहाँ पहुँचकर कई मणिरत्नों से बनी अनोखी चौकी पर वे आराम से बैठे और गुनगुने पुष्पोदक, गन्धोदक, उष्णोदक, शुभोदक और शुद्धोदक से अच्छी तरह स्नान किया। स्नान करते समय उन्होंने अनेक कौतुक क्रीड़ाएँ भी की। स्वच्छता और आनन्द प्रदान करने वाले स्नान के बाद उन्होंने पक्षियों के पंखों जैसे नरम, रोएँदार और सुगन्धित तौलियों से शरीर पोंछा, सरस व सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का लेप किया और अंगराग लगाया। कोरे (नये) और बहुमूल्य वस्त्र धारण किये। फिर उन्होंने पवित्र माला, मणियों से जड़े सोने के हार, अर्द्ध हार, तथा त्रिशर हार और कंठे गले में पहने, जिनसे उनका वक्षस्थल दर्शनीय बन गया। कमर में लम्बे झूमकेदार करधनी और हाथों में रत्न जड़े कड़े और भुजबन्ध पहने। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं जिनकी पीत आभा से वे चमकने लगीं। कानों में कुंडल पहने जिनसे उनका मुखमण्डल चमकने लगा। मुकुट धारण करने से उनका मस्तक आलोकित हो उठा। इस प्रकार इन आभूषणों से उनका सारा शरीर दमक उठा। फिर उन्होंने कंधे पर लम्बा लटकता हुआ दुपट्टा डाला। श्रेष्ठ कारीगरों द्वारा बनाया गया, मणिरत्न तथा सोना जड़ा, सुन्दर, बहुमूल्य, चमकीला, दृढ़ साँधों वाला वीर-वलय पहना। शब्दों में उनका वर्णन कैसे किया जाय ? श्रेणिक राजा मानो साक्षात् कल्पवृक्ष लग रहे थे। सेवकों ने उनके मस्तक के ऊपर कोरंट फूलों की माला लटके छत्र की छाया की हुई थी। अन्य सेवक श्रेष्ठ सफेद चामर ढुला रहे थे। उन्हें देखते ही लोग जय-जयकार करने लगे। HONEAREDDanieshisarawadHISHERamaARNIMANSIBan (C ) (26) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (26) 2 . www . HARDW A RDENS . . DETTO YUSUKE इस तरह सजकर राजा श्रेणिक स्नानागार से बाहर निकले। जैसे बादलों से चन्द्रमा निकलकर ग्रह, नक्षत्र और तारों के बीच शोभित होता है, वैसे ही राजा श्रेणिक स्नानागार से निकल अनेक गणनायकों, दण्डनायकों, युवराजों, पट्टधारियों (राज्य सम्मान प्राप्त व्यक्ति), जमींदारों, चौधरियों, मन्त्रियों, महामन्त्रियों, ज्योतिषियों, द्वारपालों, आमात्यों, दासों, पीठमर्दकों, प्रतिष्ठित नागरिकों, व्यापारियों, श्रेष्ठियों, सेनापतियों, सार्थवाहों, दूतों, सन्धिपालों आदि के बीच शोभित होने लगे। फिर वे बाहरी सभा मण्डप में आए और पूर्व दिशा की ओर मुख कर सिंहासन पर बैठ गए। He then went into the bathroom where there was a bath chamber with a floor inlaid with gemstones and a ceiling decorated with a hanging net and laces made of pearls. King Shrenik made himself comfortable on a gem studded stool and took his bath with pure, clean, warm, and perfumed water. He made this bath all the more enjoyable by playful activities. After this cleansing and refreshing bath he rubbed his body dry with a flossy, soft, and perfumed towel. He then got his body anointed with a creamy paste made fragrant with sandal wood and Goshirsha. His whole body was then adorned with auspicious garlands. Gem studded golden necklaces like Haar, Ardhahaar, Trishar-haar, Kantha, etc., adorned his neck and chest. A girdle with dangling chains was on his waist; gem studded armlets and bracelets on his arms; glittering golden rings on his fingers; shiny earrings dangled near his face; and a radiant crown was placed on his head. All these glittering ornaments added a radiance to the graceful presence of King Shrenik. The king flung an exquisite long shawl over his shoulders, under this was a gorgeous upper garment made by expert artisans using gems, brocade, and other costly, shiny and elegant materials. It was also strong and protective. It is hard to describe his grace and elegance in words. It was as if King Shrenik looked like the wish-fulfilling tree (Kalpavriksha). Attendants held over his head a regal parasol from which garlands of Korant flowers dangled. Other attendants fanned him with best quality white whisks (Chamar). The moment he appeared on the threshold, people greeted him with hails of victory. V ROPTED . oper .. na Sre CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA ( 27 ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल है ज्ञाताधर्मकथांग (२८) NARSAATMAS ALMAayaRAMATKamin -JIANDERatammnadaaNaamkatanAardkiatasainantsasiaNLOAM Adorned thus, King Shrenik came out of the bathroom and joined the attending luminaries including numerous chieftains, administrators, princes, knights of honour, landlords, village-heads, ministers, chief ministers, astrologers, guards, secretaries, personal servants, senior citizens, businessmen, merchants, commanders, caravan chiefs, ambassadors, diplomats, etc. It appeared as if coming out of the cover of dark clouds, the moon was perched in the midst of stars and planets with all its grandeur and beauty. The king then came to the outer assembly hall and sat down on the throne facing the east. स्वप्न-पाठक सूत्र २0. तए णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चुत्थुयाइं सिद्धत्थमंगलोवयारकयसंतिकम्माइं रयावेइ। रयावित्ता णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जवं महग्धवरपट्टणुग्गयं सहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामिय-उसभ-तुरय-णर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलयपउमलय-भत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवर-पेरंत-देसभागं अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता अच्छरग-मउअमसूरग-उत्थइयं धवलवत्थ-पच्चत्थुयं विसिटुं अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावेइ। रयावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ। सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए विविहसत्थ-कुसले सुविणपाढए सद्दावेह, सहावेत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह। ___ सूत्र २0. राजा श्रेणिक ने अपने निकट ईशानकोण की ओर उचित स्थान पर आठ भद्रासन लगवाए जो सफेद वस्त्र से ढंके थे तथा उन पर मांगलिक उपचार हेतु सफेद सरसों के दाने रखे गये थे। बैठक के भीतर उपयुक्त स्थान पर मणिरत्नों से शोभित एक बहुमूल्य, उत्तम और दर्शनीय पर्दा लगवाया। किसी प्रसिद्ध नगर में बने मुलायम कपड़े से तैयार किये इस पर्दे (यवनिका) पर ईहामृग (भेड़िया), वृषभ, अश्व, मकर, पक्षी, किन्नर, चमरी गाय, हाथी, पद्मलता आदि के सुन्दर चित्र बने थे और सोने की ज़री का काम किया हुआ था। इस पर्दे के पीछे धारिणी देवी के लिए एक सुन्दर, कोमल सफेद वस्त्र (खोल-कवर) से ढका शरीर के लिए सुखद स्पर्श वाला भद्रासन लगवाया। फिर राजा ने सेवकों (कौटुम्बिक) को बुलाया और कहा-“हे देवानप्रियो ! शीघ्र ही अष्टांग महानिमित्त के सूत्र व अर्थ के पारंगत, विविध शास्त्रों के ज्ञाता और स्वप्न-फल समझने-बताने वालों (पंडितों) को बुलाकर लाओ। rakasariWANILaikistaur...Anima.mahiARKI. KAREKKALM AMRIMERIALSINAINAao in (28) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात THE DREAM-DIVINERS 20. King Shrenik got eight chairs with white covers installed in the area north-east of his throne and for auspicious treatment got white mustard seeds placed on them. A gorgeous, rich and gem studded screen-partition was placed on the inner side of this throne platform. This screen was made of soft imported cloth with exquisite illustrations of Iha-mrig (wolf), bull, horse, crocodile, birds, Kinnars (lower gods), yak, elephant, lotus creeper, etc. embroidered and enriched with brocade. A beautiful gem studded throne with soft, comfortable cushions and pillows with clean white cotton covers was placed behind the screen for Queen Dharini. After making all these arrangements King Shrenik summoned his attendants and said, "Beloved of gods! call the scholars of the eight-fold scripture of augury and various other scriptures, and also the dream diviners, as soon as possible. सूत्र २१. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिए णं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु ' एवं देवो तह त्ति' आणाए विणणं वयणं पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सुमिणपाढए सावेंति । ( २९ ) सूत्र २१. राजा के इस कथन पर सेवक आनन्दित हुए। दोनों हाथों को जोड़ अँगुलियों की पोरों को मिलाकर अंजलिबद्ध किया और मस्तक के पास घुमाकर बोले, "हे देव ! ऐसा ही हो ।” विनयपूर्वक आज्ञा शिरोधार्य कर वे राजगृह नगर के बीच होते हुए उस भाग पहुँचे जहाँ स्वप्न फल वेत्ता पण्डित रहते थे। वहाँ पहुँचकर पण्डितों को राजसभा में आने का निमन्त्रण दिया। 21. The attendants happily and humbly accepted the king's order. Crossing the crowded streets of Rajagriha they reached the area where the scholars of augury and allied subjects lived and, extended the king's invitation to them for attending the assembly. सूत्र २२. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा तुट्ठ जाव हियया हाया कयबलिकम्मा जाव कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता Tweet CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 29 ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) अप्प-महग्घाभरणालंकिय-सरीरा हरियालिय-सिद्धत्थकयमुद्धाणा सएहिं सएहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिहस्स मज्झमज्झेण जेणेव सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता एगयओ मिलन्ति, मिलित्ता सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारेणं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव वाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव सेणिये राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति। सेणिएणं रन्ना अच्चिय-वंदिय - पूइय-माणिय-सक्कारिय सम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुव्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति । सूत्र २२. यह निमन्त्रण पाकर वे पण्डित हर्षित हुए और स्नान व बलिकर्म - कुल देवता का पूजन आदि कर उन्होंने तिलक आदि लगाये। सभी मांगलिक और प्रायश्चित्त अनुष्ठान (दही, अक्षत, सरसों, दूब आदि मांगलिक वस्तुओं से अशुभ स्वप्न, शकुन आदि के दोष दूर करना) पूरे कर वे तैयार हुए। राजसभा में जाने योग्य शुद्ध, मांगलिक वस्त्र तथा भार में हल्के परन्तु मूल्यवान गहने धारण किये और मंगल हेतु सरसों, दूब आदि मस्तक पर रखकर अपने घरों से बाहर निकले। राजगृह नगर के बीच होते हुए वे राजा श्रेणिक के विशाल भवन के द्वार पर आए। वहाँ एकत्र होकर वे सब साथ मिलकर बाहरी सभा मण्डप में राजा श्रेणिक के पास आए और हाथ जोड़ जय-जयकार कर राजा को बधाई दी। राजा श्रेणिक ने उन पंडितों को नमस्कार किया; चन्दन तिलक आदि लगाकर उनकी अर्चना की तथा आदर-सत्कारपूर्वक मधुर स्वर में उनका बहुमान किया। फिर वे सब अपने लिए नियत भद्रासनों पर क्रमशः बैठ गए। राजा ने पुष्प, फल, वस्त्र आदि भेंटकर उनका सम्मान किया। 9 22. The scholars felt pleased and honoured getting the invitation. After taking there bath they completed their ritual routines of awakening protective spirits, repentance for mistakes, offerings to gods, using auspicious things like curd, rice, mustard, grass, etc. Putting auspicious marks on their foreheads, they dressed themselves in clean and sober costumes suitable for the king's assembly. They embellished themselves with light but rich ornaments. As an auspicious ritual they put mustard and grass on their heads and came out of their houses. Passing through the town they approached the gate of the great palace of King Shrenik. After assembling at the gate they entered the hall in a group and went near the king. Joining their palms they greeted the king, wishing him success and victory, and blessed him. King Shrenik, folding his hands, greeted the pundits sweetly giving them due respect and recognition. The scholars took the ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( 30 ) For Private JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ३१) Maan - seats offered to them and the king honoured them by offering flowers, fruits, and garments. सूत्र २३. तए णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारिणिं ठवेइ, ठवेत्ता पुप्फ-फल-पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा। तं एयस्स णं देवाणुप्पिया ! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? सूत्र २३. श्रेणिक राजा ने धारिणी रानी को पर्दे के पीछे बिठाया और हाथ में फल-फूल लेकर विनयपूर्वक उन पंडितों से कहा-“हे देवानुप्रियो ! आज रात्रि में धारिणी रानी ने (पूर्व वर्णन के अनुसार) एक महास्वप्न देखा और जाग पड़ीं। हे देवानुप्रियो ! मेरा अनुमान है कि इस उदार महास्वप्न का कोई विशेष कल्याणकारी फल होना चाहिए।" 23. Queen Dharini took her seat behind the screen. King Shrenik took flowers and fruits in hand and addressed the scholars, "O beloved of gods! Queen Dharini saw a dream last night and got up (he gave details as mentioned earlier). I assume that this great and auspicious dream is an indication of some special achievement in the future.” स्वप्न-पाठकों द्वारा फलादेश सूत्र २४. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया तं सुमिणं ओगिण्हंति। ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संचालेंति, संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रण्णो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी सूत्र २४. श्रेणिक राजा का यह कथन सुन स्वप्न पाठक संतुष्ट व प्रसन्न हुए। पहले उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य रूप से विचार किया और फिर अर्थ पर विशेष रूप से चिन्तन किया। परस्पर विचार-विमर्श कर, एक-दूसरे का अभिप्राय समझ स्वप्न के साथ ही उसके अर्थ की गहराई तक पहुँचे। जब वे इस विषय में एकमत हो गए तब श्रेणिक राजा से स्वप्नशास्त्र के नियमानुसार अपना मंतव्य कहने लगे - - INTERPRETATION BY DREAM-DIVINERS 24. The dream diviners were happy to hear the words of King Shrenik. They first gave a cursory thought to the dream and then a C SHARA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (31) CB Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 (३२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / deep and evaluative contemplation. They consulted with each other in an in-depth discussion about the meaning and indications of the dream. When they reached a unanimous agreement about the meaning of the dream they conveyed their opinion, based on the relevant scriptures, to King Shrenik सूत्र २५. एवं खलु अम्हं सामी ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा। तत्थं णं सामी ! अरहंतमायरो वा, चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतंसि वा चक्कवट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चोद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झन्तितं जहा गय-उसम-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुंभं। पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोइसण्हं महासुमिणाणं अन्नतरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झन्ति। बलदेवमायरो वा बलदेवंसि-गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुमिणे पसित्ता णं पडिबुझंति। मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भं वक्कमणाणंसि एएसिं चोइसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं एगं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झन्ति। सूत्र २५. “हे स्वामी ! हमारे स्वप्न शास्त्र के अनुसार बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न, यों कुल बहत्तर स्वप्न बताए गये हैं। हे स्वामी ! जब अरहंत अथवा चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तब उनकी माताएँ तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं १. हाथी, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. लक्ष्मी-अभिषेक, ५. पुष्पमाला, ६. चन्द्र, ७. सूर्य, ८. ध्वजा, ९. पूर्ण कुंभ, १०. पद्म सरोवर, ११. क्षीर सागर, १२. देव-विमान (अथवा भवन), १३. रत्न-राशि, तथा १४. निधूम अग्नि। ___ जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब उनकी माताएँ इन चौदह स्वप्नों में से कोई भी सात स्वप्न देखकर जागती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं तब उनकी माताएँ इन महास्वप्नों में से कोई भी चार स्वप्न देखकर जागती हैं। (32) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (३३) माण्डलिक राजा के गर्भ में आने पर उनकी माताएँ इनमें से कोई भी एक महास्वप्न देखकर जागती हैं। 25. "Sire! According to the science of dreams there are seventy two types of dreams, out of which forty two are known as common dreams and the remaining thirty as great dreams. Sire! When an Arihant or a Chakravarti is conceived, his mother sees fourteen of the thirty great dreams; they are-1. An elephant, 2. a bull, 3. a lion, 4. the annointing of goddess Laxmi, 5. a garland, 6. the moon, 7. the sun, 8. a flag, 9. an urn, 10. lotus pond, 11. the sea, 12. a space vehicle (Viman), 13. a heap of jewels, and 14. a smokeless fire. When a Vasudev is conceived his mother sees any seven out of these fourteen dreams. When it is a Baldev in the womb the mother sees any four of these fourteen dreams. When it is a Mandalik Raja (regional sovereign) in the womb the mother sees any one of these fourteen dreams. सूत्र २६. इमे य णं सामी ! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिटे। तं उराले णं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिटे। जाव आरोग्गतुट्टिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारए णं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिटे। अत्थलाभो सामी ! सोखलाभो सामी ! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो सामी ! रज्जलाभो सामी ! एवं खलु सामी ! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं पयाहिसि। __ से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकंते वित्थिन्नविउलबल-वाहणे रज्जवती राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा। तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्गतुट्ठि जाव दिढे त्ति कटु भुज्जो भुज्जो अणुव्हेंति। __सूत्र २६. “हे स्वामी ! धारिणी देवी ने इनमें से एक आरोग्य, तुष्टि व दीर्घायु दायक तथा मंगल व कल्याणकारक महास्वप्न देखा है। हे स्वामी ! यह अर्थ, भोग, पुत्र व राज्य लाभ प्रदान करने वाला है। अतः धारिणी देवी पूरे नौ महीने बीतने पर एक पुत्ररत्न को जन्म देंगी। आपका वह पुत्र बाल्यावस्था पार करने पर शूरवीर और पराक्रमी होगा, विशाल सेना का स्वामी होगा, अनेक जागीरदारों का अधिपति राजा होगा अथवा एक आत्मसंयमी CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (33) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अणगार। अतः हे स्वामी ! धारिणी देवी ने यह जो स्वप्न देखा है वह उत्तम फलदायक है।" स्वप्न-पाठकों ने इन शब्दों में बारंबार स्वप्न की सराहना की। 26. "Sire! Queen Dharini has seen one of these fourteen dreams that are harbingers of good fortune. You will gain wealth, grandeur, a son, and expansion of your kingdom. After nine months Queen Dharini will give birth to a son. "As your son passes the age of infancy he will either be a brave and courageous king having a large army and knights, or a self disciplined ascetic. As such, Sire! Queen Dharini has indeed seen a bountiful and auspicious dream.” With these words the dream diviners praised the dream again and again. स्वप्न-पाठकों का सम्मान __ सूत्र २७. तए णं सेणिए राया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठ तुट्ठ जाव हियए करयल जाव एवं वयासी___ एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव जन्नं तुब्भे वदह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ। पडिच्छित्ता ते सुमिणपाढए विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ संमाणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयइ। दलइत्ता पडिविसज्जेइ। सूत्र २७. श्रेणिक राजा उन स्वप्न-पाठकों के मुख से यह स्वप्न-फल सुन-समझकर प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर उनसे बोले___“हे देवानुप्रियो ! आप लोगों का कथन यथार्थ है, सत्य है।" इस कथन के साथ राजा ने स्वप्न-फल को मान्य कर लिया और उन स्वप्न-पाठकों का अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सामग्री तथा वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकार से सत्कार, सम्मान किया। उन्हें जीवन-निर्वाह योग्य प्रीतिदान (मानधन) देकर विदा किया। FELICITATION OF DREAM-DIVINERS 27. Hearing about the interpretation of the dream, King Shrenik became very pleased and with folded hands addressed the dream diviners "O beloved of gods! You have indeed revealed the truth and reality," with these words he accepted the interpretation with full faith : (34) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (३५) respect. He felicitated the scholars by presenting them food, flowers, cloth, incense, garlands, ornaments, etc. He donated these things in sufficient quantity to fulfill their needs for life and, bid them farewell. सूत्र २८. तए णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा जाव एगं महासुमिणं जाव भुज्जो भुज्जो अणुवूहइ। ___ सूत्र २८. श्रेणिक राजा तब सिंहासन पर से उठे, धारिणी देवी के निकट गए और बोले-“हे देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न बताये गये हैं। आपने उनमें से एक महास्वप्न देखा है.' इस प्रकार उन्होंने स्वप्न-पाठकों द्वारा बतायी बातें कहीं और बार-बार उनका अनुमोदन किया। 28. After this, King Shrenik got up from his throne, approached Queen Dharini and said, “O beloved of gods! Of the forty two common and thirty great dreams described in the scriptures about dreams, you have seen one of the great dreams..." he repeated the words of the dream diviners and affirmed again and again. सूत्र २९. तए णं धारिणी देवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छई। पडिच्छित्ता जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता ण्हाया कायबलिकम्मा जाव विपुलाहिं जाव विहरइ। सूत्र २९. धारिणी देवी राजा श्रेणिक की बातें सुन-समझकर हर्ष विभोर हो उठीं। उन्होंने उस स्वप्न को हितकारक रूप में स्वीकार किया और अपने महल में आईं। स्नानादि कर मांगलिक अनुष्ठान किये और सुख-शांति से समय व्यतीत करने लगीं। 29. Hearing and understanding the statement of King Shrenik, the queen effused with joy. She accepted the dream as beneficial and returned to her chamber. She took her bath and performed various auspicious rituals. She lived in peace and happiness thereafter. धारिणी का दोहद सूत्र ३0. तए णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्वतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भवित्था सूत्र ३0. इस घटना के बाद तीसरे महीने में जब गर्भवती माता का दोहद काल होता है, धारिणी देवी को अकाल-मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ। उसका वर्णन इस प्रकार है D.. LEBAR CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (35) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) DHARINI'S DOHAD 30. The third month of pregnancy is the period of Dohad (desires of a pregnant mother). During this period Queen Dharini had a desire of enjoyment of untimely monsoon. The description of her desire is as follows सूत्र ३१. धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, तयत्थाओ णं ताओ कयपुन्नाओ, कयलक्खणाओ, कयविहवाओ, सुलद्धे तासिं माणुस्सए जम्म-जीवियफले, जाओ णं मेहेसु अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अब्भुन्नएस अब्भुट्ठिएसु सज्जिए सविज्जुए सफुसिएस सथणि सु धंतधोतरुप्पपट्ट-अंक-संख-चंद - कुंद- सालि पिट्ठरासि-समप्पभेसु चिउर- हरियालभेय-चंपग - सण - कोरंट - सरिसय पउमरय-समप्पभेसु लक्खारस-सरसरत्तकिंसुय-जासुमण-रत्तबंधुजीवग-जातिहिंगुलय- सरसकुंकुम - उरब्भ ससरुहिर-इंदगोवगसमप्पभेसु, णवसद्दल-समप्पभेसु, THII6 बरहिण-नीलगुलिय-सुग-चास-पिच्छ-भिंगपत्त-सासग-नीलुप्पलनियर-नवसिरीस-कुसुम जच्चंजण-भिंगभेय-रिट्ठग-भमरावलि - गवल - गुलिय-कज्जल-समप्पभेसु, फुरंतविज्जय-सगज्जिएसु वायवस-विपुलगगंणचवलपरिसक्किरेसु निम्मलवरवारिधारापगलिय-पयंडमारुयसमाहय-समोत्थरंत - उवरि उवरि तुरियवासं पवासिएसु, धारापहकरणिवाय-निव्वावियमे-इणितले हरियगणकंचु पल्लवियपायवगणेसु, वल्लिवियाणेसु पसरिए, उन्नसु सोभग्गमुवागएसु, नगेसु नएसु वा, वेभारगिरिप्पवायतड-कडगविमुक्केसु उज्झरेसु, तुरियपहाविय - पलोट्टफेणाउलं सकलुसं जलं, वहंतीसु गिरिनदीसु, सज्ज-ज्जुण - नीव - कुंडय - कंदल - सिलिंधकलिएसु उववणेसु, मेहरसिय-हट्ठतुट्ठ- चिट्ठिय-हरिसवसपमुक्ककंठकेकारवं मुयंतेसु बरहिणेसु, उउ-वस-मयजणियतरुणसहयरि-पणच्चिएसुसु, नवसुरभिसिलिंध-कुडयकंदल-कलंबगंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु परहुयरुयरिभितसंकुलेसु ओणयतणमंडिएस दद्दुरपयंपिए संपिंडिय-दरिय- भमर-महुकरिपहकर-परिलिंतमत्तछप्पय-कुसुमा-सवलोलमधुरगुंजंतदेसभा सु उववणेसु, परिसामियचंद - सूर-गहगणपणट्ठनक्खत्त-तारगपहे इंदाउह- बद्धचिंधपट्टसि अंबरतले उड्डीणबलागपंतिसोभंतमेहविंदे, कारंडगचक्कवाय-कलहंस-उस्सुयकरे संपत्ते पाउसम्म काले, ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल- पायच्छित्ताओ, किं ते ? उद्दायंतरत्तइंद-गोवयथोवयकारुन्नविलवितेसु ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( 36 ) · JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only Reg OVO Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ३७ ) - वरपायपत्त-णेउर-मणिमेहल-हार-रइय-उचिय-कडग-खुड्डय-विचित्तवरवलयर्थभियभयाओ, कुंडलउज्जोयियाणणाओ, रयणभूसियंगाओ, नासानीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलाला-पेलवाइरेयं धवलकणयखचियन्तकम्मं आगासफलिहसरिसप्प अंसुअं पवरपरिहियाओ, दुगुल्ल-सुकुमालउत्तरिज़्जाओ, सव्वोउयसुरभिकुसुम-पवरमल्लसोभितसिराओ, कालागरु-धूवधूवियाओ, सिरिस-माणवेसाओ, सेयणगगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ समाणीओ, सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चंदप्पभ-वइर-वेरुलियविमलदंडसंख-कुंद-दगरय-अमयमहिय-फेणपुंजसंनिगा-सचउचामर-वालवीजियंगीओ, सेणिए णं रन्ना सद्धिं हत्थिखंध-वरगए णं, पिट्ठओ समणुगच्छमाणीओ चउरंगिणीए सेणाए, महया हयाणीए णं, गयाणीए णं रहाणीए णं, पायत्ताणीए णं, सव्विड्ढीए सव्वज्जुईए जाव निघोसणादियरवेणं रायगिहं नगरं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्तसुचिय-संमज्जिओवलित्तं जाव पंचवण्ण-सरससुरभिमुक्क-पुष्फपुजोवयारकलियं कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभिमघमघंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं अवलोएमाणीओ, नागरजणेणं अभिणंदिज्जमाणीओ, गुच्छ-लया-रुक्ख-गुम्म-वल्लि-गुच्छ-ओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सव्वओ समंता आलोएमाणीओ आलोएमाणीओ आहिँडेमाणीओ आहिँडेमाणीओ दोहलं विणियंति। तं जइ णं अहमवि मेहेसु अब्भुवगएसु जाव दोहलं विणिज्जामि। सूत्र ३१. धारिणी देवी के मन में विचार उठे-“वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं; उन्होंने पूर्व जन्म में पुण्य कर्म सँजोया है; उनके शुभ लक्षण फलित हैं, वैभव सफल है, मनुष्य-जीवन सफल है जो अपने मन में उठे अकाल-मेघ का दोहद पूर्ण कर पाती हैं। आकाश में उत्पन्न ऊँचे, गहराते, फैलते, गरजते, छोटी-छोटी बूंदों से भरे, चमकती बिजली से भरे और बरसने को उद्यत मेंघों में विचरण कर अपना दोहद पूर्ण करती माताएँ धन्य हैं। ___ “आग में तपाकर शुद्ध किये चाँदी के पतरे, अंक-मणि, शंख, चन्द्रमा, कुन्द फूल और चावल के आटे के जैसे सफेद; “चिकुर, हरताल के टुकड़े, चम्पा के फूल, सन के फूल, कोरंट के फूल, सरसों के फूल और कमल-केसर के जैसे पीले; ___ “लाख, गहरे लाल पलाश के फूल, जवाकुसुम, मधुरी फूल, श्रेष्ठ हींगलू, घोली हुई कुंकुम, मेंढे और खरगोश के खून तथा बीर-बहूटी जैसे लाल; ___“मोर, नीलम, नीली गोली, तोते और नीलकंठ के पंख, भँवरे के पंख, सासक के पेड़, नील कमल के झुण्ड, शिरीष के नए पौधे के फूल और नई घास के जैसे नीले; LAND EM CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (37) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) " सौवीर के श्रेष्ठ अंजन, भृंगभेद - भंवरा या कोयले के चूरे, श्याम - रत्न, भँवरों की पंक्ति, भैंस के सींग और काजल के जैसे काले ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र "ऐसे पाँच रंग के बादल जिनमें बिजली चमक रही हो, जो गरज रहे हों, पवन के प्रवाह से जो आकाश में तेजी से चारों दिशाओं में घूम रहे हों और जो समस्त पृथ्वी को आच्छादित करने वाली प्रचंड वायु के झोंकों से बौछार बनकर निरन्तर गिरती, धरती को भिगोती निर्मल जलधार बरसा रहे हों, ऐसे मेघों में विचरण करती हुई अपना दोहद पूरा करती माताएँ धन्य हैं। "ऐसे वातावरण में ऐसी जलधार गिरने से शीतल बनी धरती, जिसने हरियाली के अंकुरों की कांचली पहन ली हो। जिसके पेड़ों के झुण्ड पत्तों से हरे-भरे हो गये हों और बेलों के झुण्ड फैल गये हों। जिसके पहाड़ - पहाड़ियाँ -टीले आदि ऊँचे भाग धुलकर सुहावने लगने लगे हों, वैभारगिरि के तटों और घाटियों से झरने बहने लगे हों, और पहाड़ी नदियों में ऊँचाई से गिरते झरनों के उछलते पानी से उत्पन्न फेनिल बहाव वेगवान हो गया हो । बाग-बगीचे सरस, अर्जुन, नीम और कुटज के पेड़ों के अंकुरों से और कुकुरमुत्तों से भर गये हों। बादलों की गरज से प्रफुल्ल हो मोर पूरे उत्साह से कूकने लगे हों, और वर्षा ऋतु के प्रभाव से मदोन्मत्त युवा मोरनियों के साथ नाचने लगे हों। उपवनों में रहे शिलिंघ्र, कुटज, कंदल और कदंब के पेड़ों से नव- पल्लवित फूलों की तृप्त करने वाली महक उठ रही हो । कोयलों के मीठे स्वर गूँज रहे हों। हरियाली लाल रंग की बीर बहूटियों से शोभित हो रही हो। पपीहों की करुण पी-पी चारों ओर गूंज रही हो तथा लम्बी और झुकी घास से शोभा बढ़ रही हो । मेंढक ऊँचे स्वर में टर्रा रहे हों, फूलों का पराग चूसते चंचल मदोन्मत्त भँवरों की गुँजार फैल रही हो । गहरे काले बादलों के घटाटोप अंधकार में सूरज, चाँद और तारों की आभा विलीन हो गई हो, इन्द्र धनुषरूपी ध्वजा आकाश में फहराने लगी हो, उड़ते हुए बगुलों की कतार बादलों की सजावट बन गई हो, और कारंडक, चक्रवाक तथा राजहंस नाम के पक्षी मानस सरोवर की ओर जाने को तत्पर हो उठे हों। ऐसे वर्षा काल में जो माताएँ स्नान करके बलिकर्म, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त कर्मों का अनुष्ठान कर ऐसे प्रदेशों में विहार करती हैं वे धन्य हैं। "धन्य हैं वे माताएँ जो पैरों में नूपुर, कमर में करधनी, गले में हार, हाथों में कड़े - कंगन, अंगुलियों में अंगूठियाँ और बाहों में अद्भुत भुजबंध पहनती हैं। जिनके मुखमण्डल पर कुण्डलों की आभा फैल रही हो और जिनका अंग-अंग रत्न जड़े आभूषणों से सजा हुआ हो । जिन्होंने ऐसे वस्त्र पहन रखे हों जो निःश्वास से उड़ जायें इतने महीन हों, आकर्षक हों, सुन्दर रंग और स्निग्ध स्पर्श वाले हों, घोड़े के मुँह के फेन० से भी हल्के और कोमल हों, जिनके सुनहरी जरी की स्फटिक-सी सफेद कोर हो। जिनका मस्तक ( 38 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ३९ ) OO ago सर्व-ऋतु फूलों की सुगंधित मालाओं से सजा हो और शरीर उत्तम धूप से सुगन्धित हो। जो साक्षात् लक्ष्मी जैसी लग रही हों। जो सेचनक नाम के गन्धहस्ति पर चढ़ी हो और जिनके सिर पर कोरंट फूलों की माला से सजा छत्र हो। जिन पर शंखादि जैसे सफेद बालों वाले और चन्द्रप्रभ, लसनिया और हीरा जड़े मूठों वाले. चामर दुलाए जा रहे हों। जो हाथी की पीठ पर राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों। जिनके पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो। जिनके साथ छत्रादि राजचिह्नों सहित समस्त वैभव चल रहा हो। जो उत्सव पर सजाये राजगृह नगर को देखती राजमार्ग से गुजर रही हों। जिनका समस्त नागरिक अभिनन्दन कर रहे हों और जो पेड़-पौधों, झाड़ियों बेलों के झुण्डों से भरी वैभारगिरि की तराई में चारों ओर घूमती अपना दोहद पूर्ण कर रही हों। मैं भी इसी प्रकार अपना दोहद पूर्ण करने की कामना रखती हूँ।" 31. Queen Dharini thought, “Blessed, pious and contented are the mothers whose desire of untimely monsoon is fulfilled. The pious signs and glory of the good deeds of their past life are proved to be meaningful and their present life is successful. Blessed, indeed, are the mothers whose desire of enjoying high, darkening, spreading, and thundering clouds, filled with lightening, saturated with droplets of water, and ready to rain, is fulfilled. "The sky is filled with clouds of five colours White-like a fire-refined silver sheet, the white Anka bead, conchshell, the moon, Kunda flower, and rice flour. ___Yellow-like Chikur, a piece of Hartal, flowers of Champa, hessian, Korant, and mustard, and pollen of the lotus flower. Red-like shellac, deep red Palash flowers, Javakusum flowers, Madhuri flowers, best quality vermilion, red oxide solution, blood of ram or rabbit, and red beetle. Blue—like peacock, blue sapphire, blue glass bead, feathers of parrot or nightingale, bumble bee, Sasak plant, heap of blue lotus flowers, flowers of a Sirish plant, and grass sprouts. ___Black-like soot from Sauvir (a state in ancient India), a species of bumble bee, coal dust, black stone, buffalo-horn, and graphite powder. "These clouds are full of lightening and thunder, drifting with great speed in all directions pushed by the maddening force of winds, and Ce. CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (39) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र drenching the earth with a forceful and continuous downpour of pure water slanted by the tremendous force of the gale. Blessed are the mothers who fulfill their Dohad by enjoying such weather. "In such weather the land becomes cool due to the water pouring from the sky. It becomes clad in the green garment of sprouting leaves. The clusters of trees become greener with newly sprouting leaves. The tangle of creepers starts spreading. The higher parts of the land, like hills, hillocks, and dunes, are washed and appear pleasant. From the clefts and ravines of the Vaibhar-giri mountain streams start flowing. The frothy flow of the mountain rivers gathers speed due to the added water from the high waterfalls. “The gardens and orchards are filled with freshly sprouting trees like Surj, Arjun, Neem, Kutaj, etc. and a variety of mushrooms. Inspired by the thundering of clouds, the peacocks cuckoo in ecstasy and start their courtship dance to attract peahens. In parks the flowering trees like Shilindhra, Kutaj, Kandal and Kadamb start emitting aroma of newly blossoming flowers. The unending green expanse, made wavy by long and bending grass, is enchantingly embroidered with crawling red beetles. "The atmosphere is filled with sweet melodious cuckooing of Koyal (Indian cuckoo), touching cry of Papiha, resonant humming of pollen sucking intoxicated bumble-bees, and cacophony of croaking frogs. The dark black clouds cover the glowing sun, moon and stars. The flag like rainbow flutters in the sky decorated by the rows of cranes flying in formation. Migratory birds like Karandak, Charavak, and swan get ready to commence their flight to lake Mansarovar (in the Himalayas). “Blessed are the mothers who, after taking their bath and performing cleansing and auspicious ritual, wander enjoying such enchanting places during such monsoon season. "Blessed are the mothers who adorn themselves with Nupurs on the toes, girdle on the waist, bracelets on the forearms, rings on the fingers, and armlets on arms. Whose faces are resplendent with the glow of earrings and every part of their bodies is embellished with gem studded ornaments. Their enchanting and colourful dresses with a ( 40 ) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (४१) - - dA golden brocade border are made of material that is so light and delicate that it is swept away by mere exhalation, and is as soft as the froth from a horses mouth. Their bodies are made fragrant with perfumes and hairdo enriched with all season fragrant flowers. They look like Laxmi, the goddess of wealth. "Blessed are the mothers who ride the great elephant named Sechanak with king Shrenik and having a canopy made of Korant flowers over their head. Who are being fanned with whisks having snow-white fibers and handles studded with gem stones like moonstone, cats-eye, and diamond. Who are accompanied by the four pronged army and all the regal signs and grandeur. Who pass the decorated streets of Rajagriha filled with greeting and cheering crowds and reach the base of mountain Vaibharagiri. Reaching there they roam around the lush green valley and fulfill their pregnancy-desire. I also wish to satisfy my pregnancy desire in this manner.” धारिणी की उदासी सूत्र ३२. तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुनदोहला असंमाणियदोहला सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयणकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला णित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचियपुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हार अणभिलसमाणी कीडारमणकिरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ। सूत्र ३२. असमय में ऐसा दोहद उत्पन्न होने पर, उस दोहद के पूरा न होने पर, वर्षा ऋतु न होने से घ आदि की संभावना न होने पर धारिणी देवी को मानसिक संताप हुआ। उनका रक्त सूखने लगा, वे कृशकाय हो गईं और भूखे व्यक्ति के समान दुर्बल हो गईं। शरीर से जीर्ण हो गईं। स्नान न करने से मलिन हो गईं। भोजन से उन्हें अरुचि हो गई। उनका शरीर और मुखमण्डल कान्तिविहीन हो गया। मसले हुए चम्पा के फूलों की माला के समान वे निस्तेज हो गईं। उनका मुख दीन और विवर्ण हो गया। फूल, गंध, माला, गहने आदि सभी शृंगार साधनों के प्रति उन्हें अरुचि हो गई। खेल, क्रीड़ा और मनोरंजन का भी उन्होंने त्याग कर दिया। दुःखी मन से वे धरती की ओर देखती रहतीं। मन का सारा उत्साह और दृढ़ता विलीन हो गये और वे आर्तध्यान में डूब.गईं। CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (41) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAORNDA ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र dot ANDROICE - winnaries-- RAMPREMpsaraswamwapwyearwaKINNE R VARIK4dawuniahyamantatulamrAVINAAKAVACANMaKAVITTEOSANIB a tminema kinancaresamayerORNAMEGWANUARWiAlinavYAEERIABAR WORRIED DHARINI 32. As it was not the monsoon season and there was hardly any chance of rain clouds or any other indications of that season, Queen Dharini was in a state of mental agony because of this impossible Dohad. She lost her appetite and became anaemic, emaciated, and weak like a famished person. Signs of aging appeared on her body. As she stopped taking her bath she had a sloppy look. Her face and body lost the natural freshness and glow, like a crushed garland of Champa flowers. The healthy pink of her face was replaced by a sick gloom. She became apathetic to any and all sorts of cosmetics and adornments including flowers, perfumes, garlands, and ornaments. She abandoned games and all other entertainment activities. In this sad state she sat gazing at the earth all the time. Loosing all her enthusiasm and determination she plunged into a deep melancholy. सूत्र ३३. तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडीयाओ धारिणिं देविं ओलुग्गं जाव झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी"किं णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?' तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणी णो आढाति, णो य परियाणाति, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्टइ। ___ तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-"किं णं तुमे देवाणुप्पिये ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?" तए णं धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभिंतरियाहिं दासचेडियाहिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ, णो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ। सूत्र ३३. धारिणी देवी के अंतःपुर की दासियाँ तथा अंग परिचारिकाएँ उनके उदास मन और जीर्ण शरीर को देखकर पूछने लगीं-“हे देवानुप्रिये ! आप इतनी दुर्बल और उदास क्यों हो रही हैं ? आर्तध्यान में क्यों डूबी रहती हैं ?" धारिणी देवी दासियों की बातों पर ध्यान नहीं देतीं, सुना-अनसुना कर कोई उत्तर नहीं देतीं। TRENESIRAMMARRIORSMORamanam INDE a n (42) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ४३ ) S H TRATIONINGBIRMIRINNI RamanaDKISANEKACADURAILERIAMANEEPROINOMARWAMIRNGANAGAR इस पर वे दासियाँ कई बार यही प्रश्न दोहराती हैं और हर बार धारिणी देवी वैसे ही मौन रहती हैं। 33. Observing the sad and emaciated appearance of Queen Dharini her personal maids and attendants started inquiring, “O beloved of gods! Why have you become so weak and sad? What is the cause of your gloom?" Queen Dharini offered no reply, in fact she hardly paid any attention to these questions from her maids. The maids inquired again and again but Queen Dharini maintained a continued silence. सूत्र ३४. तए णं ताओ अंगपिडयारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिज्जमाणीओ. तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कटु जए णं विजएणं वद्धावेन्ति। वद्धावइत्ता एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! किं पि अज्ज धारिणी देवी ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायति।" सूत्र ३४. धारिणी देवी की उदासीनता व अरुचि देखकर तथा उनके द्वारा अनादर और अवहेलना से दुःखी हो वे दासियाँ रानी के महल से निकलकर श्रेणिक राजा के पास गईं। दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर ले जाकर जय-जयकार कर राजा का अभिनन्दन किया और बोलीं-“हे स्वामिन् ! धारिणी देवी आज रुग्ण- जीर्ण शरीर और मन से उदास तथा चिन्तित बैठी हैं।" 34. Peeved by this gloomy silence and nonchalance of Queen Dharini the maids left the queen's chamber and went to King Shrenik. Formally greeting him with hails of victory they said, “Sire! Today Queen Dharini is in an emaciated state of body and a gloomy state of - mind." सूत्र ३५. तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपिडयारियाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरिअं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धारिणिं देविं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणिं पासइ। पासित्ता एवं वयासी-"किं णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि ?" । Ham CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (43) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ago ४४) ORD तए णं सा धारिणी देवी सेणिए णं रण्णा एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ, जाव तुसिणीया संचिट्ठति। तए णं से सेणिए राया धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदासी-“किं णं तुम देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियायसि ?" __ तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाति, णो परिजाणाति, तुसिणीया संचिट्ठइ। तए णं सेणिए राया धारिणिं देविं सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-“किं णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए ? ता णं तुमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि ?" __सूत्र ३५. दासियों से यह बात सुन-समझकर राजा श्रेणिक बहुत व्याकुल हो उठे। वे बिना देर किये तेज चाल से धारिणी देवी के पास आये और देखा कि वे सच ही उदास और चिन्तित बैठी आर्तध्यान कर रही हैं। राजा श्रेणिक बोले-“देवानुप्रिये ! आप इतनी उदास और शरीर से दुर्बल तथा आर्तमन से किस चिन्ता में डूबी हुई हैं ?" धारिणी देवी ने राजा की बात सुनी-अनसुनी कर दी और मौन रहीं। इस पर राजा श्रेणिक ने दो-तीन बार पुनः वही प्रश्न किया परन्तु धारिणी देवी का मौन नहीं टूटा। वह उसी प्रकार उदास बैठी रहीं। इस पर राजा श्रेणिक ने शपथ दिलाते हुए कहा-“देवानुप्रिये ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के योग्य नहीं हूँ ? क्या इसीलिये तुम मुझसे अपने मन के दुःख को छुपा रही हो ?" 35. Hearing this news from the maids King Shrenik became disturbed and worried. He immediately rushed to Queen Dharini and saw that she was, in fact, sad and gloomy. The king asked, “O beloved of gods! Why have you become so weak and sad? What is the cause of your gloom?" Queen Dharini remained silent giving no heed to the inquiry by the king. King Shrenik repeated the question again but in vain. The queen remained silent and sad. Adjuring, the king asked, “O beloved of gods! Am I not fit to be your confidant? Is that why you are not revealing the cause of your sorrow to me?" AAO (44) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (४५) mo क aaina ला दोहद-निवेदन सूत्र ३६. तए णं सा धारिणी देवी सेणिए णं रण्णा सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी-‘एवं खलु सामी ! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भूए-“धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाव वेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ दोहलं विणिन्ति। तं जइ णं अहमवि जाव दोहलं विणिज्जामि। तए णं हं सामी ! अयमेयारूवंसि अकाल-दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि। एएणं अहं कारणेणं सामी ! ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि। सूत्र ३६. राजा श्रेणिक द्वारा शपथ दिलाने पर धारिणी देवी बोलीं-“हे स्वामी ! मुझे वह महास्वप्न देखे लगभग तीन महीने बीत चले हैं। इधर मुझे अकाल-मेघ और वर्षाकाल में विचरण का दोहद उत्पन्न हुआ है (विस्तृत विवरण पूर्व समान)। मेरे मन में उठता है कि जो माताएँ यह दोहद पूर्ण करती हैं वे धन्य हैं, अतः मेरा भी यह दोहद पूर्ण हो तो मैं धन्य हो उढूँ। मेरी उदासी, दुर्बलता, चिन्ता और आर्तध्यान का यही कारण है।" DOHAD REVEALED 36. After being put to an oath by King Shrenik, Queen Dharini said, “My Lord! Almost three months have passed since I saw the great dream. Recently I got a Dohad of seeing untimely clouds and roaming around enjoying the monsoon season (details as mentioned above). I have a feeling that those mothers who get such Dohad fulfilled are the blessed ones and, as such, if my Dohad is fulfilled I too will become one of them. This is the reason of my sadness, weakness, worry, and gloom." सूत्र ३७. तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म धारिणिं देविं एवं वदासी-“मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुब्भं अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ' त्ति कटु धारिणिं देविं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहि समासासेइ। __ समासासित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाहिमुहे सन्निसन्ने। धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिँ आएहिं य उवाएहिं य उप्पत्तियाहिं य वेणइयाहिं य कम्मियाहिं य पारिणामियाहिं य चउव्विहाहिं ORATO CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (45) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म (४६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Mitho - -- - - REJawanSUSNEPARA MATIMESSERRRRENTINETRAATMacanamaANESHemasmeen a war बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणे अणुचिंतेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्ति वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ। ___ सूत्र ३७. धारिणी देवी की यह बात सुन-समझकर राजा श्रेणिक बोले-“देवानुप्रिये ! तुम उदासीनता और चिन्ता यह सब छोड़ो और शरीर को जीर्ण मत करो। मैं ऐसे उपाय करूँगा जिससे तुम्हारा यह अकाल-मेघ का दोहद पूरा होगा।" उन्होंने रानी धारिणी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और चित्ताकर्षक वचनों से आश्वस्त किया। महल से बाहर निकलकर वे अपने सभा मण्डप में गये और पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गये। धारिणी देवी के इस अकाल दोहद को पूरा करने के सम्बन्ध में वे अनेक प्रकार के उपाय खोजने लगे। उन्होंने तरह-तरह की युक्तियों के सम्बन्ध में औत्पत्तिकी, वैनयिक, कार्मिक तथा पारिणामिक-चारों प्रकार की बुद्धि का उपयोग कर बार-बार विचार किया। बहुत विचार करने पर भी जब उन्हें कोई राह नहीं सूझी तो वे स्वयं भी हतोत्साह हो चिन्ता में डूब गये। 37. Hearing about and understanding the problem of Queen Dharini, King Shrenik said, “O beloved of gods! Stop worrying and torturing your body. I will do something and ensure that you are able to fulfill your Dohad of untimely-clouds." He assured her with his affectionate and encouraging words. Leaving his palace he went into the assembly hall and sat on his throne facing east. He started contemplating about the possible ways and means to fulfill this Dohad of untimely-clouds of Queen Dharini. He applied his four types of wisdom and considered a variety of ways to achieve the desired: When he could not come up with any solution in spite of all his efforts, he became frustrated and worried. अभयकुमार का आगमन -सूत्र ३८. तयाणंतरं अभए कुमारे पहाए कयबलिकम्मे जाव सव्वालंकारविभूसिए पायवंदए पहारेत्थ गमणाए। सूत्र ३८. इधर प्रातःकाल होने पर अभयकुमार ने स्नान आदि कार्यों से निवृत्त होकर, सुन्दर वस्त्र-अलंकार धारण किये और अपने पिता राजा श्रेणिक की चरण वन्दना करने चल पड़े। D OLA AAMAR लाan uaMNIORNBHArman / (46) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (४७) DEC e - minimummmmmmamaemonanesammer At IRTMummaommaraneawanRNAMNIWAIRMIRMAamasaaMERICORRIDHUNDRAINMatermarwaRAISIGNINISHIRSANOHOROSINDINA- S im NIPPINEnema । - Gailenawanekiinaaaaaasan ARRIVAL OF ABHAY KUMAR 38. In the morning Abhay Kumar got ready and donning a beautiful dress and ornaments he proceeded to pay his respect to his father, King Shrenik. सूत्र ३९. तए णं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ। पासइत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए (पत्थिए) मणोगते संकप्पे समुप्पज्जित्था। ___सूत्र ३९. अभय कुमार राजा श्रेणिक के महल में पहुंचे। वहाँ पर उन्होंने राजा श्रेणिक | को जब चिन्ताग्रस्त देखा तो उनके मन को चोट पहुँची। उनके मन में आध्यात्मिक (आन्तरिक) चिन्ता सहित, वांछा सहित और स्वाभाविक रूप से विचार उठे 39. On reaching the palace of King Shrenik Abhay Kumar was shocked when he saw the king in a state of gloom. With genuine anxiety and a desire to do something he immediately thought सूत्र ४0. अन्नया य ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासति, पासइत्ता आढाति, परिजाणाति, सक्कारेइ, सम्माणेइ, आलवति, संलवति, अद्धासणेणं उवणिमंतेति मत्थयंसि अग्घाति, इयाणिं ममं सेणिए राया णो आढाति, णो परियाणाइ णो सक्कारेइ, णो समामाणेइ, णो इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णहिं ओरालाहिं वग्गूहिं आलवति, संलवति, णो अद्धासणेणं उवणिमंतेति, णो मत्थयंसि अग्घाति य, किं पि ओहयमणसंकप्पे झियायति। तं भवियव्वं णं एत्थ कारणेणं। तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमट्ठ पुच्छित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जए णं विजए णं वद्धावेइ, वद्धावइत्ता एवं वयासी__ तुब्भे णं ताओ ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता आढाह, परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्धायह, आसणेणं उवणिमंतेह, इयाणिं ताओ ! तुब्भे ममं णो आढाइ जाव णो आसणेणं उवणिमंतेह। किं पि ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह। तं भवियव्वं ताओ ! एत्थ कारणेणं। तओ तुब्भे मम ताओ ! एयं कारणं अगूहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्ट-माइक्खह। तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि। सूत्र ४0. “सामान्यतया राजा श्रेणिक मुझे आता देखकर अभिवादन करते थे; आदर, सत्कार व सम्मान करते थे; बातचीत करते थे और आधे आसन पर बैठने को कहकर - - -- - - AyDE M ore CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (47) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAIR (४८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SALTOL स्नेह से माथा सूंघते थे। पर आज तो यह सब कुछ नहीं कर रहे हैं। लगता है उनके किसी संकल्प को ठेस पहुंची है और वे चिन्तित हैं। इसका जो भी कारण हो उसका पता करना मेरा कर्तव्य है।" यह विचार कर अभयकुमार राजा श्रेणिक के पास आये और यथाविधि अभिवादन कर कहा___ “हे तात ! मेरे उपस्थित होने पर आप मेरा अभिवादनादि करते थे किन्तु आज वह सब कुछ नहीं कर रहे हैं। लगता है आप किसी कारणवश चिन्ताग्रस्त हैं। अतः हे तात ! आप मुझसे वह कारण गोपनीय न रखें, निःसंकोच, बिना लाग-लपेट और किसी शंका के ज्यों का त्यों स्पष्ट और सत्य बता दीजिये। मैं उसे जानकर, उसका निवारण कर आपकी चिन्ता दूर करूँगा।" 40. "Normally, when I arrived King Shrenik used to welcome me, greet me with due respect and regard, talk to me, offer me to share his seat, and kiss my forehead affectionately. But today he is doing nothing of that sort. It seems that some of his desires has been frustrated and he is worried. Whatever be the cause, it is my duty to find out.” With these thoughts Abhay Kumar approached King Shrenik and after formal greetings inquired “Father ! In past you used to receive me affectionately (etc.) but today you are not extending that normal welcome to me. It seems that something is worrying you. Please father! do not hide anything from me. Without any hesitation, doubt, or reservation kindly reveal the truth candidly. Once I know about it I will solve the problem and rid you of your anxiety." सूत्र ४१. तए णं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे अभयं कुमारं एव वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गब्भस्स दोसु मासेसु अइक्तेसु तइयमासे वट्टमाणे दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे दोहले पाउब्भवित्थाधन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव विणिंति। तए णं अहं पुत्ता ! धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहिं य उवाएहिं जाव उप्पत्तिं अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायामि, तुमं आगयं पि न याणामि। तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ! ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि। सूत्र ४१. राजा श्रेणिक ने उत्तर दिया-“पुत्र ! तुम्हारी छोटी माता, धारिणी देवी, को गर्भवती हुए दो माह बीत चुके हैं और तीसरा माह चल रहा है। उन्हें अपने इस दोहद काल CORRC opard - (48) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (४९) PXSE में अकाल-मेघ के समय विचरण का दोहद उत्पन्न हुआ है (विस्तृत विवरण पूर्व सम)। मुझे उनके इस दोहद को पूर्ण करने के उपाय नहीं सूझ रहे हैं। इसी कारण मेरे मन को ठेस पहुँची है, मैं उत्साहहीन और चिन्तातुर हूँ। इस अनमनेपन के कारण ही मुझे तुम्हारे आने का आभास भी नहीं हुआ। हे पुत्र ! यही मेरी चिन्ता है।" ___41. King Shrenik replied, “Son! Your step-mother, Queen Dharini, is in the third month of her pregnancy. This is the period of the pregnancy-desire and she has got a Dohad of roaming around and enjoying untimely rain-clouds (details as mentioned earlier). I am unable to think of some way to fulfill her desire. This hurts me and makes me disconcerted and anxious. As I was absorbed in these thoughts I was not aware of your arrival. Son! this is what plagues me." अभय का आश्वासन सूत्र ४२. तए णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियए सेणियं रायं एवं वयासी-'मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह। अहं णं तहा करिस्सामि, जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ" त्ति कटु सेणियं रायं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं जाव समासासेइ। _सूत्र ४२. राजा श्रेणिक की बात सुन-समझकर अभयकुमार को संतोष हुआ। पिता उस पर भरोसा करते हैं यह जानकर उन्हें हर्ष हुआ। वे राजा श्रेणिक से बोले-“हे तात ! आप निराश हो चिन्ता न करें। मैं ऐसा कुछ करूँगा जिससे मेरी छोटी माता, धारिणी देवी का यह दोहद पूरा होगा।" यह कह कर उचित शब्दों व वाणी से उन्होंने राजा श्रेणिक को आश्वस्त किया। ASSURANCE BY ABHAY 42. When Abhay Kumar heard about the problem from King Shrenik he became pleased and contented by this expression of confidence in him by the king. With all confidence and in forceful words he assured the king, "Father! please get rid of your anxiety and do not loose hope. I will do something and ensure that my step-mother, Queen Dharini, is able to fulfill her Dohad." CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (49) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र TUDIO AARVA MA सूत्र ४३. तए णं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुढे जाव अभयकुमारं सक्कारेति संमाणेति, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेति। सूत्र ४३. राजा श्रेणिक अभयकुमार के ये वचन सुनकर प्रसन्न और तुष्ट हुए और सत्कार-सम्मान सहित उन्हें विदा किया। ____43. King Shrenik was pleased and satisfied hearing these encouraging words from Abhay Kumar and bid him farewell with due honour. अभय की देवाराधना सूत्र ४४. तए णं से अभयकुमारे सक्कारिय-सम्माणिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रनो अंतियाओ पडिनिक्खमइ। पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे निसन्ने। तए णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्तिं करेत्तए, णन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगतिए देवे महिड्डीए जाव सहासोक्खे। तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवण्णस्स ववगयमाला-वन्नग-विलेवणस्स निक्खत्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगयस्स अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए। तते णं पुव्वसंगतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहलं विणिहिइ। सूत्र ४४. अभयकुमार तब श्रेणिक राजा से विदा ले अपने भवन में गये और सिंहासन पर बैठ कर चिन्तन करने लगे-“ऐसा लगता है कि दैवी उपाय के बिना केवल मानवोचित उपाय से छोटी माता के अकाल-दोहद की पूर्ति होना संभव नहीं है। ऐसे में अपने पूर्व भव के मित्र, महान् ऋद्धिधारक सौधर्मकल्प वासी देव का आह्वान करना होगा। अतः उचित होगा कि मैं ब्रह्मचर्य धारण कर सोने व रत्नों के आभूषणों का; माला, लेप आदि का तथा शस्त्रों का त्याग करके, एकाकी और सेवकविहीन हो पौषधशाला में जाकर (सूखी घास के) आसन पर बैठ तेले (अष्टम भक्त) की तपस्या सहित पौषध व्रत ग्रहण करूँ और अपने उस मित्र देव के चिन्तन में एकाग्र हो जाऊँ। ऐसा करने से वह देव आकर छोटी माता का दोहद पूर्ण कर देगा।" (50) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (५१) EVOCATION OF GOD BY ABHAY 44. Taking leave of King Shrenik Abhay Kumar went to his own palace and taking his seat he started thinking, “It appears that without some divine help it would not be possible to fulfill the strange Dohad of my step-mother irrespective of all possible human efforts. Under these circumstances I will need to evoke the great and powerful god from the Saudharma Kalpa (a specific dimension of gods) who happened to be my friend during my earlier birth. As such, it is required of me to abandon all gold and ornaments; garlands and other adorations, and weapons. After doing this I should go to the Paushadhashala ( a community hall for religious activities) leaving my house and servants. There, I should take a vow of celibacy, partial asceticism and a three day fast. Then, sitting on hay in a suitable posture I should meditate and concentrate on evoking that friendly god. This would bring forth the desired result.” __ सूत्र ४५. एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जति, पमज्जित्ता उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता देब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ, परिगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्टइ। __सूत्र ४५. इन विचारों के आते ही अभयकुमार बिना किसी विलम्ब के पौषधशाला में गये और पौषधशाला में उचित स्थान स्थिर किया। फिर उन्होंने मल-मूत्र त्यागने के स्थान का और कुश-आसन का यथाविधि निरीक्षण किया। तब वे अपने चिन्तन के अनुरूप तेले सहित पौषध व्रत ले मित्र देव के चिंतन में ध्यानमग्न हो गये। ___45. As soon as he conceived this idea Abhay Kumar went to the Paushadhashala without any delay. He selected a proper place within it and inspected the coir mattress as well as the area meant for defecation. When he was satisfied, as per his planning he took the vows and commenced the invocation of the friendly god. सौधर्म देव का आगमन __ सूत्र ४६. तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्टमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति। तते णं पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासति, CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (51) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORO se - पासित्ता ओहिं पउंजति। तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु मम पुव्वसंगतिए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठति। __ तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउब्भवित्तए।'' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निसिरति। तं जहा रयणाणं १ वइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगब्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८ जोइरसाणं ९ अंकाणं १0 अंजणाणं ११ रयणाणं १२ जायसवाणं १३ अंजणपुलयाणं १४ फलिहाणं १५ रिट्ठाणं १६ अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परिगिण्हति, परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणियनेह-पीइ-बहुमाण-जायसोगे, तओ विमाणवरपुण्डरियाओ रयणुत्तमाओ धरणियल-गमणतुरियसंजणित-गयणपयारो वाघुण्णित-विमल-कणग-पयरगवडिंसग-मउडुक्कडाडो-वदंसणिज्जो, अणेगमणि-कणग-रयण-पहकरपरि-मंडित-भत्तिचित्तविणिउत्तमणुगुणजणियहरिसे, पिंखोलमाण-वरललित-कुंडलुज्जलियवयणगुणजनितसोमरूवे, उदितो विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगार-उज्जलियमज्झभागत्थे णयणाणंदो, सरयचंदो, दिव्योसहिपज्जलुज्जलिय-दंसणाभिरामो उउलच्छिसमत्तजायसोहो पइट्टगंधुद्धयाभिरामो मेरुरिव नगवरो, विगुव्वियविचित्तवेसो, दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्झंकारेणं वीइवयमाणो, उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोगं, रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य पासं ओवयति दिव्वरूवधारी। सूत्र ४६. जब अभयकुमार का तेले का तप पूरा होने को आया तब उनके पूर्व भव के मित्र सौधर्म देव का आसन डोलने लगा। इस पर उस देव ने अवधिज्ञान से सब कुछ जाना और विचार किया-“मेरे पूर्व भव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के दक्षिणार्ध भरत की राजगृह नगरी की पौषधशाला में तेले का व्रत कर रहा है और बार-बार मुझे स्मरण कर रहा है। उचित होगा कि मैं उसके पास जाऊँ।" इस प्रकार विचार कर वह देव ईशानकोण की ओर जाता है और वैक्रिय समुद्घात की क्रिया करता है। उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर संख्यात योजन का दण्ड बनाता है। फिर उनमें से स्थूल पुद्गलों का त्याग करता है और सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है। यह क्रिया उसी प्रकार होती है जैसे निम्न रत्नों - RAMA (52) JNATA DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . VA 26 el XI KO AA XINI R WW AAA Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Orients & ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED वसन्त ऋतु में देव आराधना चित्र: २ गर्भ के तीसरे मास में रानी धारिणी को एक विचित्र दोहद ( डोहला ) उत्पन्न हुआ। उस विचि असंभव दोहद की पूर्ति के लिए राजा श्रेणिक चिन्तित हो उठे। अभयकुमार ने इसकी पूर्ति के लिए अपने मित्र देव की सहायता लेने का निर्णय किया। उसने तीन दिन का उपवास (अट्टम तप) करके मित्र देव का आह्वान किया और बताया- मेरी छोटी माता को ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि आकाश में काली घटाएँ छायीं हों, बिजलियाँ चमक रही हों, रिमझिम फुहारें बरस रही हों, मोर पिउ-पिउ कर रहे हों, धरती पर चारो तरफ हरियाली छाई हो। ऐसे सुहावने मौसम में मैं राज- हस्ती पर बैठकर वन विहार के लिए निकलूं। मेरे पीछे महाराज श्रेणिक की सवारी चल रही हो । अभयकुमार ने मित्रदेव से प्रार्थना की, आप अपनी दिव्य शक्ति से मेरी छोटी माता की यह मनोकामना पूर्ण करें। देवता ने प्रसन्न होकर उसी प्रकार की अनुकूल ऋतु की सर्जना करने का आश्वासन दिया। ( अध्ययन १ ) INVOKING THE GOD DURING SPRING SEASON ILLUSTRATION : 2 During the third month of her pregnancy Queen Dharini had a strange Dohad (pregnancy desire). Not being able to fulfill this desire, King Shrenik became gloomy. Abhay Kumar decided to seek help from a friendly god. He invoked the god by observing a three day fast and requested him to arrange fulfill his step-mother's Dohad using his divine powers. The desire being--The sky is filled with dark clouds and lightning. Droplets of rain are falling. Peacocks are cooing. Fields all around are lush green with vegetation. In such enchanting weather I go out riding an elephant and enjoy scenic beauty. King Shrenik follows me riding another elephant. The god is pleased to give assurance to create desired weather conditions. JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only (CHAPTER-1) Outso Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ope प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात की जाज्वल्यमान मणियाँ बनाने के लिए उनके स्थूल पुद्गलों का त्याग कर केवल सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है - ( १ ) कर्केतन, (२) हीरा - वज्ररत्न, (३) वैडूर्यलसनिया, (४) लोहिताक्ष, (५) मसारगल्ल, (६) हंसगर्भ, (७) पुलक, (८) सौगंधिक, (९) ज्योतिरस, (१०) अंक, (११) अंजन, (१२) रजत, (१३) जातरूप, (१४) अंजन पुलक, (१५) स्फटिक, और (१६) रिष्ट । बैक्रिय शरीर बनाने पर उसे पुनः पूर्व भव की स्मृति से अभयकुमार पर प्रीति, अनुराग और अनुकम्पा जाग उठी और विषाद (वियोग होने के कारण) उत्पन्न हुआ। वह अपने उत्तम रत्न से बने विमान को छोड़ तीव्र गति से पृथ्वी की ओर चल पड़ा। उसने कानों में शुद्ध सोने के कर्णफूल पहने हुए थे जो इधर-उधर हिल रहे थे । माथे पर मुकुट पहन रखा था। कमर में कटिसूत्र पहना हुआ था जिसमें अनेक रत्न जड़े थे। कानों के हिलते कुंडलों से उसका मुखमंडल आभामय हो रहा था और उसकी मुख मुद्रा प्रसन्नतामय थी। ऐसा लग रहा था मानो पूर्णिमा की रात में शनि और मंगल ग्रहों के बीच शारदीय चन्द्र का उदय हुआ हो। जैसे कोई पर्वत शृंग दिव्य औषधियों के प्रकाश से मनोहर लगता है वैसे ही वह मुकुट आदि की चमक से प्रभासित हो रहा था। समस्त ऋतुओं के वनस्पति भण्डार की वर्द्धमान शोभा और सुगन्ध से मनोहर बने मेरु पर्वत के समान वह देव नयनाभिराम लग रहा था, ऐसी विचित्र थी उसकी वेश-भूषा । अनेकानेक द्वीपों और समुद्रों के बीच से होता हुआ, अपने दिव्य प्रकाश से भूमण्डल और राजगृह नगर को प्रकाशित करता वह देव अभयकुमार के सामने प्रकट हुआ और बोला ( ५३ ) [ अन्य पाठ-तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाइं सखिंखिणियाई पवरवत्थाइं परिहिए - ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उद्धयाए जइणाए छेयाए दिव्वाए देवगतीए जेणामेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, जेणामेव दाहिणड्ढभरए रायगिहे नगरे पोसहसालाए अभय कुमारे तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छिता अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सखिंखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए - अभयं कुमारं एवं वयासी-] | अन्य पाठ इस प्रकार भी है - वह देव उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, सिंह सम, उद्धत, दुर्धर्ष, निपुण तथा दिव्य गति से राजगृह की पौषधशाला में अभयकुमार के निकट आ आकाश में स्थित हो मधुरवाणी में बोला - ] ARRIVAL OF SAUDHARMA GOD 46. At the end of the three day fast the seat of the friendly god, Saudharma, started trembling. The god came to know about all this CHAPTER-1 UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 53 ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (48) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ve through his divine perception and thought, “Abhay Kumar, my friend from the earlier birth, is observing a three day fast in a Paushadhashala in Rajagriha town in the south Bharat area of the Jambu continent and doing invocations for me. I should respond and pay him a visit." With these thoughts the god proceeded toward the North-east direction and commenced the process of Vaikriya Samudghat. In order to create an alternate vital-dynamic body (Uttar Vaikriya Sharir) he imparted fluidity to the constituent particles of his body and the microsections of the soul and expanding them he transformed his body into remely long rod (this process is known as Vaikriya Samudghat). Then separating the subtle vital molecules from the gross physical molecules of his normal body he created the alternate vital-dynamic body (Uttar Vaikriya Sharir). The process is similar to that of making gems like 1. perridot, 2. diamond, 3. cats-eye, 4. ruby, 5. emerald, 6. pearl, 7. agate, 8. spinal, 9. Jyotiras, 10. Anka, 11. Anjan, 12. silver, 13. Jata-rupa, 14. black agate, 15. crystal-quartz, and 16. Rishtha that are made by slicing and grinding away the gross superficial matter and selecting fine and radiant portion. As soon as he formed the dynamic body feelings of love, attachment, and compassion for Abhay Kumar arose in him because of the memories from the earlier birth. The separation from his friend made him sad and leaving his bejeweled space vehicle he launched himself towards the earth with great speed. Earrings made of pure gold were dangling from his ears. Over his head was placed a crown. His waist was adorned with a gem studded girdle. His happy and smiling face was glowing in the light reflected from the dangling earrings. It appeared as if the winter full-moon was rising between the planets mars and saturn. As the summit of a hill looks enchanting due to the glowing plants of divine herbs, this god appeared scintillating due to the glowing crown and other ornaments on his body. He was as strangely and gorgeously attired as the Meru mountain covered with its ever రామం var DA ( 54 ) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात changing, fragrant and beautiful cover of all season vegetation. Crossing numerous land masses and water bodies and throwing his divine light over the earth and the town of Rajagriha, that god appeared before Abhay Kumar and said [Another text : With a speed that was superlative, fast, quick, tremendous, lion-like, sharp, over-powering, controlled and divine, that god arrived at the Paushadhashala in Rajagriha and hovering in the sky near Abhay Kumar he uttered sweetly-] ( ५५ ) सूत्र ४७. “अहं णं देवाणुप्पिया ! पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्ढिए, जं णं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं परिहित्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिट्ठसि तं एस णं देवाणुप्पिया ! अहं इहं हव्वमागए । संदिसाहि णं देवाणुप्पिया ! किं करोमि किं दामि ? किं पयच्छामि ? किं वा ते हिय इच्छितं ? " सूत्र ४७. "हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे पूर्व भव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महाऋद्धि धारक देव हूँ। तुमने पौषधशाला में तपस्या कर मेरा आह्वान किया इसलिए मैं तत्काल यहाँ आया हूँ। हे देवानुप्रिय ! बताओ मैं तुम्हारा क्या काम करूँ ? तुम्हें अथवा तुम्हारे किसी प्रिय व्यक्ति को क्या दूँ ? क्या हित इच्छित है ? अपनी इच्छा प्रकट करो। " 47. “O beloved of gods! I am the all powerful god from the Saudharma Kalpa, your friend from an earlier birth. In response to your ritual invocation I have appeared here without any delay. O beloved of gods! Tell me what can I do for you? What is the benefit that you seek? Please express your desire." सूत्र ४८. तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवन्नं पास | पासित्ता हट्ठतुट्ठ पोसहं पारेइ, पारित्ता करयल. अंजलिं कट्टु एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउब्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ ! तहेव पुव्वगमेणं जाव विणिज्जामि । तं णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए अयमेयारूवं अकालदोहलं वहि। सूत्र ४८. यह देववाणी सुन, आकाश में रहे अपने मित्र देव को देख अभयकुमार प्रसन्न हुए और अपना पौषध पूर्ण किया। दोनों हाथ जोड़कर बोले - "हे देवानुप्रिय ! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को अकाल- मेघ का दोहद ( पूर्व वर्णित ) उत्पन्न हुआ है। मेरी अभिलाषा है कि आप उस अकाल दोहद को पूरा करें।" CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (55) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ommRO - - - - - - - - Ramaumary- LRBROTHER - - HNOWornwrotamarawaseeroca reer 48. Hearing this divine voice of his friend, hovering in the sky, Abhay Kumar was pleased. Concluding his ritual practice and joining his palms in greeting he said, “O beloved of gods! My step-mother Queen Dharini is obsessed with the Dohad of untimely-clouds (as described above). It is my wish that you help her fulfill her Dohad." अकाल-मेघ विक्रिया सूत्र ४९. तए णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुढे अभयकुमारं एवं वयासी-“तुमं णं देवाणुप्पिया ! सुणिव्यवीसत्थे अच्छाहि। अहं णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं डोहलं विणेमीति' कटु अभयस्स कुमारस्स अंतियायो पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपव्वए वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समोहण्णइत्ता संखेज्जाइं जोयणाइं दंडं निसिरति, जाव दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समोहण्णित्ता खिप्मामेव सगज्जियं सविज्जुयं सफुसियं तं पंचवण्णमेहणिणाओवसोहियं दिव्यं पाउससिरिं विउव्वेइ। विउव्वेइत्ता जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभयं कुमारं एवं वयासी___ एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तव पियट्टयाए सगज्जिया सफुसिया सविज्जुया दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेउ णं देवाणुप्पिया ! तव चुल्लमाउया धारिणी देवी अयमेयारूवं अकालडोहलं। सूत्र ४९. अभयकुमार की बात सुन देव प्रसन्न हुआ और बोला-“देवानुप्रिय ! तुम चिंता छोड़ आश्वस्त हो जाओ, मैं तुम्हारी छोटी माता के दोहद के पूर्ण होने का प्रबन्ध कर देता हूँ।" इस प्रकार कहकर वह देव उत्तर-पूर्व दिशा में वैभारगिरि के ऊपर जाता है और वैक्रिय समुद्घात (पूर्व वर्णित विधि से) करके गरजते हुए, बिजली भरे, पानी की बूंदों से भरे पंचरंगे बादलों सहित मनोरम वर्षा ऋतु के वातावरण की रचना करता है। तत्पश्चात् अभयकुमार के पास लौटकर कहता है "हे देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिए सभी वांछित गुणों सहित दिव्य वर्षा ऋतु की रचना कर दी है। अब तुम्हारी छोटी माता अपना दोहद पूर्ण करें।" CREATION OF UNTIMELY RAIN CLOUDS ___49. The god was pleased to hear Abhay Kumar's desire. He said, “O beloved of gods! Stop worrying. Rest assured, I shall make all arrangements for the fulfillment of your step-mother's Dohad of untimely-clouds.” The god, then, proceeded in the north-west direction. CHAN. DOMINARY RamaamaAMUNDERBOARANTrmeramera m an a waANNANORTERuwanwaasamIII E (56) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ५७ ) Cur CHm BE He reached over the Vaibharagiri mountain. There, with the help of the divine process of Vaikriya Samudghat (as described above), he created an enchanting atmosphere of monsoon with thundering and lightening multi-coloured monsoon clouds. He returned to Abhay Kumar and said "O beloved of gods! I have created the divine monsoon season with all necessary attributes. Your step-mother may fulfill her Dohad now." दोहद पूर्ति सूत्र ५0. तए णं से अभयकुमारे तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हतुढे सयाओ भवणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल. अंजलिं कटु एवं वयासी “एवं खलु ताओ ! मम पुव्वसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया पंचवन्न-मेहनिनाओवसोहिआ दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेउ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं।" ___ सूत्र ५0. सौधर्मदेव की यह बात सुनकर अभयकुमार प्रसन्न हुए। अपने महल से निकल वे राजा श्रेणिक के पास गये और हाथ जोड़कर बोले “हे तात ! मेरे पूर्व भव के मित्र सौधर्मकल्प के निवासी देव ने सभी वांछित गुणों सहित दिव्य वर्षा ऋतु की रचना कर दी है। अतः छोटी माता अपना अकाल-दोहद पूर्ण करें।" DOHAD FULFILLMENT 50. Abhay Kumar was pleased to get this information from the Saudharma-god. Leaving his palace he went to King Shrenik and joining his palms he said “Father! A friend from my earlier birth, the god from the Saudharma Kalp, has created the divine monsoon season with all necessary attributes. As such, my step-mother may fulfill her Dohad now." सूत्र ५१. तए णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एयम8 सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ट जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव भो - CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (57) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र AMITA Scheme heck देवाणुप्पिया ! रायगिहं नयरं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह। करित्ता य मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' तते णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणन्ति। सूत्र ५१. राजा श्रेणिक यह सुनकर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी, "देवानुप्रियो ! राजगृह नगर के शृंगारकादि (पूर्व सम) सभी स्थानों की सफाई आदि करवाकर गंधमय कर दो (पूर्व सम)। यह काम पूरा करके तत्काल मुझे सूचित करो।" सेवकगण शीघ्र ही राजाज्ञा का पालन कर सूचित करते हैं। ___51. King Shrenik was very much pleased to hear this. He called his attendants and ordered, “O beloved of gods! Go, arrange for immediate cleaning of all the areas (as detailed earlier) of Rajagriha and fill the town with fragrant aromas, and report back.” The attendants completed the assignment quickly and reported back. सूत्र ५२. तए णं से सेणिए राया दोच्चं पि कोइंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हय-गय-रह-जोहपवरकलितं चाउरंगिणिं सेन्नं सन्नाहेह, सेयणयं च गंधहत्थिं परिकप्पेह।" ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति। सूत्र ५२. श्रेणिक राजा पुनः आज्ञा देते हैं, “देवानुप्रियो ! जल्दी से घोड़े, हाथी, रथ व सैनिकों सहित चतुरंगिनी सेना सजाओ और सेचनक नाम के गंध-हस्ति को भी तैयार करो।" सेवक राजाज्ञा का पालन कर लौटकर सूचित करते हैं। 52. King Shrenik further ordered, “O beloved of gods! Go and prepare the four pronged army to march and also the Sechanak elephant for a ride.” The attendants completed the assignment quickly and reported back. सूत्र ५३. तए णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पिए ! सगज्जिया जाव पाउससिरी पाउब्भूता, तं णं तुम देवाणुप्पिए। एयं अकालदोहलं विणेहि।" सूत्र ५३. तब राजा श्रेणिक धारिणी देवी के पास गये और कहा-“हे देवानुप्रिये ! तुम्हारी अभिलाषा के अनुरूप सभी मनोरम चिह्नों सहित दिव्य वर्षा ऋतु की छटा छा गई है। अतः हे देवानुप्रिये ! तुम अपना अकाल-दोहद सम्पन्न करो।" MHINA / (58) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (५९) 53. King Shrenik, then, went to Queen Dharini and said, “O beloved of gods! As per your desire the monsoon season has arrived with all its enchanting attributes. As such, O beloved of gods! you may now satisfy your Dohad." __सूत्र ५४. तए णं सा धारिणी देवी सेणिए णं रण्णा एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठ, जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागछिता मज्जणघरं अणुपविसइ। अणुपविसित्ता अंतो अंतेउरंसि ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता किं ते वरपायपत्तणेउर जाव आगासफलिहसमप्पभं अंसुयं नियत्था, सेयणयं गंधहत्थि दुरूढा समाणी अमयमहिय-फेणपुंजसण्णिगासाहिं सेयचामरवालवीयणीहिं वीइज्जमाणी वीइज्जमाणी संपत्थिया। तए णं से सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे जाव सस्सिरीए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणे धारिणिं देविं पिट्ठओ अणुगच्छइ। सूत्र ५४. धारिणी देवी राजा की बात सुनकर प्रफुल्लित हुई और उन्होंने अपने म्नानगृह में प्रवेश किया। उन्होंने यथोचित रूप से स्नानादि नित्यकर्म (पूर्व सम) किया, नख-शिख पर्यन्त विविध आभूषण धारण किये (नूपुर, हार, अंगूठियाँ आदि) और स्फटिक मणि जैसे श्वेत चमकते वस्त्र धारण किये। इस प्रकार तैयार हो सेचनक हस्ती पर चढीं और अमृत मंथन से उत्पन्न सफेद फेन जैसे सफेद चामर ढुलवाती हुई रवाना हुईं। राजा श्रेणिक ने भी स्नानादि कर्म से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहने। फिर वे भी कोरंट फूलों की माला वाले छत्र और श्रेष्ठ चामर लिए सेवकों सहित एक श्रेष्ठ गंध हस्ती पर चढ़े और धारिणी देवी के हाथी के पीछे-पीछे चले। 54. Pleased to hear this news from King Shrenik, Queen Dharini immediately entered her bathroom. She took a proper bath and completed all other daily chores. She adorned herself in a white as shining as a crystal-quartz bead and embellished every part of her body with a variety of ornaments (listed earlier). When she got ready she set out riding the great elephant, Sechanak, with attendants fanning her with whisks as white as sea-foam. King Shrenik also took his bath and adorned himself with his regalia. He also rode a great elephant along with attendants carrying a canopy of Korant flowers and good quality whisks. His elephant followed that of Queen Dharini. Oamme CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (59) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Auth सूत्र ५५. तए णं सा धारिणी देवी सेणिए णं रण्णा हत्थिखंधवरगए णं पिट्ठतो पिट्ठतो समणुगम्म-माणमरगा, हय-गय-रह-जोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा महया भड-चडगर-वंदपरिक्खित्ता सव्विड्ढीए सव्वजुईए जाव दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर जाव महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणा अभिनंदिज्जमाणा जेणामेव वेभारगिरिपव्यए तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उज्जाणेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, रुक्खेसु य, गुच्छेसु य, गुम्मेसु य, लयासु य, वल्लीसु य, कंदरासु य, दरीसु य, चुंढीसु य, दहेसु य, कच्छेसु य, नदीसु य, संगमेस य, विवरएसु य, अच्छमाणी य, पेच्छमाणी य, मज्जमाणी य, पत्ताणि य, पुष्पाणि य, फलाणि य, पल्लवाणि य, गिण्हमाणी य, माणेमाणी य, अग्घायमाणी य, परिभुंजमाणी य, परिभाएमाणी य, वेभारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सव्वओ समंता आहिंडति। तए णं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नदोहला जाया यावि होत्था। सूत्र- ५५. रानी और राजा चारों ओर अश्व, हाथी आदि चतुरंगिनी सेना और महान योद्धाओं के समूह से घिरे हुए थे। वे अपने सम्पूर्ण राजवैभव तथा समृद्धि के साथ राजगृह नगर के शृंगारकों आदि (पूर्व सम) से होकर राज मार्ग से गुजरे। राजगृह के नागरिकों ने उनका बारंबार अभिनन्दन किया। अन्त में उनकी सवारी वैभारगिरि पर्वत के तले आ पहुँची। धारिणी देवी राजा सहित कटक तट में उतरीं और फिर वैभारगिरि की तलहटी-तराई में रहे विभिन्न क्रीड़ास्थलों में, उद्यानों में, काननों में, वनों में, और वनखण्डों में; वृक्षों, झुरमुटों, झाड़ियों, लताओं आदि के बीच; गुफाओं, गह्वरों, तालाबों, तलैया, हौद आदि जलाशयों के पास; नदियों, नालों, तटों और संगमों के निकट विचरने लगीं। वे इन सबके पास जा खड़ी होती, दृश्यों को निहारतीं, स्नान करतीं, पत्तों, फूलों, फलों, कोंपलों आदि को स्नेह से छूती, फूल सूंघती, फल खातीं और दूसरों को बाँटतीं अनेक प्रकार की क्रीड़ा करतीं प्रसन्नचित्त हो अपना अकाल-दोहद पूर्ण व सम्पन्न करने लगीं। __55. The royal couple was surrounded by elephants, horses and groups of great warriors of the four pronged army. With all pomp and show the royal couple passed through various parts of the city of Rajagriha (described earlier). The citizens of Rajagriha greeted them with enthusiasm. At last they arrived at the base of the Vaibharagiri mountain. Queen Dharini got down from the elephant and with King Shrenik commenced her sojourn in the beautiful valley. She moved about in (60) JNĀTA DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA TODDocs a de PT arba Sla Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED वर्षा ऋतु का विहार चित्र : ३ देव ने विक्रिया करके अपनी दिव्य शक्ति से रानी जैसा चाहती थी, वैसी ही वर्षा ऋतु की सुहावनी छटा उपस्थित कर दी। तब रानी धारिणी एक श्वेत पट्ट हस्ती पर बैठी है। दासियाँ चँवर ढुला रही हैं। पीछे एक हाथी पर महाराज श्रेणिक की सवारी है। सैनिक साथ चल रहे हैं। नागरिकजन रानी की विशेष शोभा यात्रा देखने आये हैं और राजा रानी का अभिवादन कर रहे हैं। इस 'प्रकार देव-सहायता से अभयकुमार ने रानी का दोहद पूर्ण किया। ( अध्ययन १ ) ENJOYING THE MONSOON SEASON ILLUSTRATION: 3 With his divine power the god has created the conditions of monsoon season exactly as the queen desired. Now queen Dharini is riding a great white elephant. Attendants are plying whisks. King Shrenik is following on another elephant. Soldiers are marching along. Citizens have assembled around to watch the royal procession as well as greet the royal couple. Thus, with divine help Abhay Kumar arranged for the fulfillment of the queens Dohad. (CHAPTER-1) JNĀTA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात various entertainment centres, gardens, parks, jungles, forests; amidst trees, shrubs, shrubberies, creepers, etc. ; and near caves, gorges, lakes, ponds, pools, rivers, streams, banks, junctions, etc. She would go and stand at such enchanting spots; take bath; touch leaves, flowers, fruits, and sprouts tenderly; smell the flowers; and eat and distribute fruits. Indulging happily in such playful activities she started satisfying her pregnancy desire. सूत्र ५६. तए णं सा धारिणी देवी सेयणगगंधहत्थिं दुरूढा समाणी सेणिए णं हत्थखंधवरगए णं पिट्टओ पिट्टओ समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाव रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणामेव स भवणे तेणामेव उवागच्छति । उवागच्छित्ता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाई जाव विहरति । सूत्र ५६. दोहद पूर्ण होने के बाद धारिणी देवी पुनः अपने सेचनक हाथी पर सवार हुईं। राजा श्रेणिक भी अपने हाथी पर सवार हुए और जैसे आये थे वैसे ही सेना व वैभव से राजगृह नगर के बीच होते हुए अपने महलों में लौटे और सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। ( ६१ ) 56. After fulfilling her Dohad Queen Dharini and King Shrenik rode their respective elephants and returned back to Rajagriha with all the usual pomp and show. Returning to their palace they resumed their normal happy routine of life. देव का विसर्जन सूत्र ५७. तए णं से अभयकुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ । उवागच्छत्ता पुव्वसंगतियं देवं सक्कारेइ, सम्माणेइ । सक्कारित्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेति । तणं से देवे सगज्जियं पंचवण्णं महोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए । सूत्र ५७. यह कार्य सम्पन्न हुआ जान अभयकुमार पौषधशाला में लौटे और उस देव को सत्कार-सम्मान सहित कृतज्ञ भाव से विदा किया । उस देव ने अभयकुमार से विदा लेने के बाद अपनी दिव्य शक्ति द्वारा प्रकट की वर्षा ऋतु को वापस समेट लिया और अपने स्थान को प्रस्थान किया । CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (61) Oran Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eart (६२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र FAREWELL TO THE GOD 57. When this work was concluded, Abhay Kumar returned to the Paushadhashala and bid farewell to the god with due respect, regard, and gratitude. Taking his leave from Abhay Kumar the god withdrew his divine influence and the weather returned to normal. He then left for his abode. सूत्र ५८. तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि संमाणियदोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठति, जयं आसयति, जयं सुवति, आहारं पि य णं आहारेमाणी णाइतित्तं णातिकडुयं णातिकसायं णातिअंबिलं णातिमहुरं जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाइचिंतं, णाइसोगं, णाइदेण्णं, णाइमोहं, णाइभयं, णाइपरित्तासं, ववगयचिंता-सोय-मोह-भय-परित्तासा-उदु-भज्जमाणसुहेहिं भोयण-च्छायण-गंध-मल्लालंकारेहिं तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहति। तए णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण राइंदियाणं विइक्कंताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव सव्यंगसुंदरंगं दारयं पयाया। सूत्र ५८. उधर धारिणी देवी ने सम्मानित दोहद वाली होने के पश्चात अपने गर्भ की सुरक्षा की और ध्यान दिया। गर्भ को किसी प्रकार का आघात न लगे इसलिए वे बड़े यत्न से उठती, बैठती और सोती थीं। वे ऐसा आहार करती थीं जो अधिक तीखा, कटु, कसैला, खट्टा या मीठा न हो; देश और काल के (वातावरण व ऋतु) अनुसार गर्भ के लिए लाभदायक हो, अल्प मात्रा में हो, और आरोग्यदायक हो। वे मनोभावनाओं, मानसिक आवेशों पर भी नियन्त्रण रखती थीं। चिन्ता, शोक, दीनता, मोह, भय और त्रास आदि से बचकर रहती थीं। इस प्रकार संयत हो सभी ऋतुओं में सुखदायक भोजन, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार आदि भोग करतीं उस गर्भ का वहन-पालन करने लगीं। __नौ महीने और साढ़े सात दिन बीत जाने पर अर्धरात्रि के समय में उन्होंने एक अत्यन्त कोमल और स्वस्थ परिपूर्ण इन्द्रियादि (पूर्व सम) वाले शिशु को जन्म दिया। __58. Once Queen Dharini became the blessed mother' with a fulfilled Dohad, she started taking proper care required during pregnancy. She would get up, sit down, or sleep carefully so as to avoid any harm to the fetus she carried. She stopped eating excessively hot, cold, pungent, bitter, acrid, sour, sweet, greasy, non-greasy, juicy, or dry food. She would eat food that suited the place and the conditions and, DAMAG (62) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SÜTRA Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात . was prescribed during pregnancy (limited, nutritious and healthy). She avoided excitement and remained composed by avoiding feelings like anxiety, sorrow, humility, fondness, fear, and horror. Thus she started passing the pregnancy period in a disciplined way enjoying food, dresses, perfumes, garlands, ornaments etc. that are suitable for all seasons. When nine months and seven and a half days passed since the date of conception, she gave birth to a tender and healthy child (detailed earlier). पुत्र-जन्म सूत्र ५९. तए णं ताओ अंगपिडयारियाओ धारिणिं देविं नवण्हं मासाणं जाव दारयं पयायं पासंति। पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जए णं विजए णं वद्धावेंति। वद्धावित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-। __ एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी णवण्हं मासाणं जाव दारगं पयाया। तं णं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेएमो, पियं ते भवउ। ___ तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ट. ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य पुप्फगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति, सम्माणेति, सक्कारित्ता सम्माणित्ता मत्थयधोयाओ करेति, पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पेति, कप्पित्ता पडिविसज्जेति। ___ सूत्र ५९. पुत्र का जन्म होते ही मन में हर्ष का आवेग भरे चपल शरीर और शीघ्र गति से चलती दासियाँ राजा श्रेणिक के पास आईं, दोनों हाथ जोड़ मस्तक को छुआ, अभिवादन किया, बधाई दी और बोलीं__हे देवानुप्रिय ! उचित समयानुसार धारिणी देवी ने पुत्र-रत्न को जन्म दिया है। हम आपको यह प्रिय समाचार देते हुए बधाई देती हैं। राजा श्रेणिक यह समाचार सुन हर्ष से अभिभूत हो गए। उन्होंने दासियों का फूल, गंध, माला और आभूषण तथा मधुर वचनों से भरपूर सत्कार किया। उन्होंने दासियों को प्रचुर धन दे कई पीढ़ियों की आजीविका का प्रबन्ध कर (मस्तक धौत) दासता से मुक्त कर दिया। CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (63) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र LORDS नेक SERI - - BIRTH OF THE SON 59. Immediately after the birth of the child the slave girls, driven by the feeling of joy, rushed to King Shrenik and after formal greetings congratulated him "O beloved of gods! At the due hour Queen Dharini has given birth to a son. We bring this good news to you with our congratulations." This news filled King Shrenik with joy. He thanked them and amply rewarded them with flowers, perfumes, garlands, ornaments and words of encouragement. He also gave them their freedom along with wealth enough to last many generations. __सूत्र ६०. तए णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति। सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं आसत्ति जाव परिगीयं करेह कारवेह य। करित्ता चारगपरिसोहणं करेह। करित्ता माणुम्माण-वद्धणं करेह। करित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। जाव पच्चप्पिणंति। __ सूत्र ६0. श्रेणिक राजा ने तब अपने सेवकों को बुलाया और आदेश दिया कि राजगृह नगर की धुलाई-सफाई करवा कर उसे मनोरम (पूर्व सम) बनाया जाये। नृत्य, गायन आदि उत्सव किये जाएं साथ ही कारागार में रहे बन्दियों को मुक्त कर दिया जाए और नगर में तोल-माप को बढ़ा दिया जाये। ये सब कार्य सम्पूर्ण करके उन्हें सूचित किया जाए। सेवकों ने शीघ्र ही ये सब काम सम्पन्न कर राजा को सूचित किया। 60. King Shrenik called his attendants and gave them instructions to beautify the town of Rajagriha (as detailed earlier). He also asked them to make arrangements for dance and music festivals, for pardoning the prisoners, and for subsidizing prices of essential goods. He ordered them to comply and report, which they soon did. सूत्र ६१. तए णं से सेणिए राया अट्ठारससेणीप्पसेणीओ सद्दावेति। सद्दावित्ता एवं वदासी-“गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! रायगिहे नगरे अभिंतरबाहिरिए उस्सुक्कं उक्कर अभडप्पवेसं अदंडिमकुडंडिमं अधरिमं अधारणिज्जं अणुद्धयमुइंगं अमिलायमल्लदामं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह कारवेह य। करित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।" ते वि करेन्ति, करित्ता तहेव पच्चप्पिणंति। Tex (64) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ لمانيا انا لها . प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात सूत्र ६१. फिर राजा श्रेणिक ने सभी अठारह जातियों (कुंभकार आदि) और उपजातियों (उपश्रेणियों) के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा - "हे देवानुप्रियो ! आप सब राजगृह नगर के भीतर-बाहर दस दिनों तक अपनी कुल परंपरा के अनुरूप पुत्र-जन्मोत्सव मनाने का ऐसा प्रबन्ध करें- इस शुभ अवसर पर दस दिन के लिए चुंगी तथा कृषि - कर, पशुओं का लगान आदि माफ कर दिया जाय। सभी दुकानों से बिना नापे-तोले और मूल्य चुकाए सभी प्रकार की सामग्री दिये जाने की व्यवस्था हो । कर वसूली आदि के लिए जाने वाले कर्मचारीगण दस दिन के लिए छुट्टी पर चले जायें। अदण्ड और कुदण्ड समाप्त कर दिया जाये। जनता के ऋणों को माफ कर दिया जाये। नगर में प्रसिद्ध नर्तक - नर्तकियों के नृत्यों और नाटकों का आयोजन किया जाए। उत्सव के दिनों में लगातार मृदंग बजते रहें । नगर और देश के सभी वासी प्रसन्नचित्त हो मनोरंजनपूर्वक समारोह में भाग लें। दस दिनों तक यह उत्सव निर्बाध चलता रहे। ये सब प्रबन्ध कर मुझे सूचित करें।" वे सब प्रतिनिधि राजाज्ञा शिरोधार्य करके गये और कार्य संपन्न कर राजा को सूचित किया। 61. King Shrenik then summoned representatives from all the eighteen castes and sub-castes and said ( ६५ ) "O beloved of gods! Make all necessary arrangements for a ten day birthday festival to be celebrated in and around Rajagriha according to your respective family traditions. During the tenure of these auspicious festivities all municipal and agricultural taxes should be withdrawn. All provisions, in whatever quantities needed, should be distributed free from all shops. The tax collection staff should be sent on a holiday. Minor and major punishments should be discontinued. Public loans should be written off. Performing artists of fame should be invited to perform dances and dramas. During these festivities Mridangs (a specific type of drum) should be played non stop. All the people of the city and the country should join the celebrations with joy and enthusiasm. For ten days these festivities should continue without a pause. Please comply and report back.” The delegates took leave after accepting the king's order. After complying with the instructions they soon reported back. सूत्र ६२. तए णं से सेणिए राया बाहिरियाए उवट्टाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्याभिमु सन्नसन्ने सइएहि य साहिस्सिएहि य सयसाहिस्सिएहि य जाएहिं दाएहिं दलयमाणे दलयमाणे पडिच्छेमाणे पडिच्छेमाणे एवं च णं विहरति । CHAPTER - 1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 65 ) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Ong DIR सूत्र ६२. राजा श्रेणिक फिर बाहरी सभा भवन में आये और यथाविधि सिंहासन ग्रहण किया। फिर उन्होंने सैंकड़ों, हजारों, लाखों मुद्राओं का अनुष्ठानपूर्वक दान दिया। इस शुभ अवसर पर राजा को भेंट किये द्रव्यों व उपहारों को स्वीकार किया। 62. King Shrenik then arrived in the outer assembly hall and seated himself on the throne. He ceremoniously gave donations of hundreds and thousands and millions of gold coins. He also accepted presents and gifts on this happy occasion. जन्म-संस्कार कर्म सूत्र ६३. तए णं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करित्ता बितियदिवसे जागरियं करेन्ति, करित्ता ततियदिवसे चंदसूरदंसणियं करेन्ति, करित्ता एवामेव निव्वत्ते असुइजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमंसाइमं उवक्खडावेन्ति, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइणियग-सयण-संबंधि-परिजणं बलं च बहवे गणणायग-दंडणायग जाव आमंतेति। सूत्र ६३. उसके बाद माता-पिता ने पहले दिन शिशु का जातकर्म किया। दूसरे दिन रात्रि जागरण किया गया। तीसरे दिन शिशु को सूर्य-चन्द्र के दर्शन कराये गये। इस प्रकार विभिन्न अनुष्ठानों में ग्यारह दिन बीत गये। बारहवें दिन प्रचुर मात्रा में अशन, पान, खादिम तथा स्वादिष्ट वस्तुएँ तैयार कराई गईं। मित्र, स्वजातीय, निकट, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन, सेना, सामन्त, राजा, गणनायक, दण्डनायक आदि को निमन्त्रण दिया गया। RITUAL BIRTH-CEREMONIES ___63. On the first day of the celebrations the parents performed ritual ceremonies connected with the birth of a son. The second night was spent in chanting and singing devotional songs. On the third day they performed the ritual adorational beholding of the Sun and the moon. By the time all these ritual ceremonies were concluded, eleven days passed. On the twelfth day arrangements were made for a great feast and delicious and savory dishes were prepared. The king invited all his family members, relatives, friends, kin folk, ministers and other state and army officials. सूत्र ६४. तओ पच्छा ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्त-णाइ ago (66) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OM EKO ON 200 - FARANSTALL Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Camro ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED महाराज श्रेणिक द्वारा नामकरण चित्र : ४ वैभारगिरि, विपुलगिरि, उदयगिरि, सुवर्णगिरि एवं रलगिरि इन पाँच पहाड़ों की तलहटी में बसा हुआ समृद्ध नगर भव्य राजगृह है। राजमहल के विशाल सभागार में राजा श्रेणिक, महारानी धारिणी विराजमान हैं। राजमंत्री, सेनापति तथा अनेक स्वजन परिजन समूह के बीच महाराज श्रेणिक पुत्र का जन्मोत्सव मनाकर “मेघकुमार" नामकरण की घोषणा करते हैं। (अध्ययन १) THE NAMING CEREMONY ILLUSTRATION: 4 The grand and prosperous town of Rajagriha is situated in the valley of the five hills named Vaibhargiri, Vipulgiri, Udaigiri, Suvarngiri, and Ratnagiri. In the large assembly hall are sitting king Shrenik and queen Dharini. Ministers, commanders, family members and other prominent citizens are present in the assembly. The king ceremoniously announces the name of the new-born as MEGH KUMAR. (CHAPTER-1) AIDA JNATÃ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (६७) , SS CA गणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा एवं च णं । विहरइ। सूत्र ६४. स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहन राजा श्रेणिक व देवी धारिणी परिवारजनों सहित विशाल भोजन मंडप में आये और आमंत्रित अतिथियों के साथ महाभोज में सम्मिलित हो स्वाद, आनन्द और परस्पर मनुहार के साथ भोजन किया। 64. Following their daily routine including bath and donning ceremonial dresses and regalia King Shrenik and Queen Dharini arrived at the feast pavilion. They joined their guests in the feast, joyously greeted them and offered them food with all due courtesy. नामकरण संस्कार सूत्र ६५. जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजण गणणायग विपुलेणं पुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेंति, संमाणेति, सक्कारिता सम्माणित्ता एवं वयासी-“जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकाल-मेहेसु डोहले पाउब्भूए, तं होउ णं अहं दारए मेहे नामेणं मेहकुमारे।" तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेज्जं करेन्ति। __ सूत्र ६५. भोजन समाप्त होने पर आचमन करने और हाथ-मुँह धोकर स्वच्छ होने के बाद उन्होंने आमन्त्रित अतिथियों का विपुल वस्त्रादि (पूर्व सम) से सम्मान-सत्कार किया। इस समस्त औपचारिकता के बाद राजा ने कहा-"हमारा यह पुत्र जब गर्भ में था तब इसकी माता को अकाल-मेघ का दोहद हुआ था इस कारण इसका नाम मेघकुमार होना चाहिए।'' इस प्रकार माता-पिता ने बालक का गुणानुकूल नाम मेघकुमार रखा। NAMING CEREMONY 65. When the feast concluded the king and the queen washed their hands and freshened up. They offered their guests ample gifts including dresses (as detailed earlier) with due respect and courtesy. After all these formalities the king addressed the assemblage—“When this son of ours was in the womb, the mother had a Dohad of untimelyclouds, as such, his name should be Megh (cloud) Kumar.” Thus the new-born was formally named Megh Kumar by the parents. The name reflected the apparent virtues of the individual. CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (67) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र -- 20 मेघकुमार का लालन-पालन । सूत्र ६६. तए णं से मेहकुमारे पंचधाईपरिग्गहिए। तं जहा-खीरधाईए, मंडणधाईए, मज्जणधाईए, कीलावणधाईए, अंकधाईए। अन्नाहि य बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणि-वडभि-बब्बरि-वउसि-जोणियाहिं पल्हविय-ईसिणिय-धोरुगिणि-लासिय-लउसियदमिलि-सिंहलि-आरबि-पुलिंदि-पक्कणि-बहलि-मुरुंडि-सबरि-पारसीहिं णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगित-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-कंचुइअ-महयरगवंद-परिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं संहरिज्जमाणे, अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे, परिगिज्जमाणे, चालिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे, रम्मंसि मणिकोट्ठिमतलंसि परिमिज्जमाणे परिमिज्जमाणे णिव्वायणिव्वाघायंसि गिरिकन्दरमल्लीणे व चंपगपायवे सुहंसुहेणं वड्डइ। ___ सूत्र ६६. शिशु मेघकुमार का लालन-पालन पाँच धात्रियाँ करने लगीं-(१) क्षीर धात्रीदूध पिलाने वाली, (२) मंडन धात्री-वस्त्राभूषण पहनाने वाली, (३) मज्जन धात्री-स्नान कराने वाली, (४) क्रीड़ायन धात्री-खेल-खिलाने वाली, और (५) अंक धात्री-गोद में रखने वाली। इनके अलावा मेघकुमार अनेक दास-दासियों की भीड़ से घिरा रहता था। वे इस प्रकार हैं-कुबड़ी, बौनी, मोटे पेट वाली; किरात, बर्बर, बकुश, यौनक, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कण, पारस, बहल, मुरुंड, शबर आदि अनेक देशों से आई दासियाँ; चेष्टा, इच्छा और मन को समझने वाली; विभिन्न वेशभूषाओं वाली; अति निपुण तथा विनम्र दासियां तथा अन्य सेवक। राजकुमार मेघ कभी एक का हाथ पकड़ता तो कभी दूसरी का। कभी एक की गोद में जाता तो कभी दूसरी की गोद में। कभी खेल-खिलाकर बहलाया जाता तो कभी गाकर। उसे सुन्दर रत्न-जड़ित आँगन में चलाया जाता था। वह ऐसे सुखपूर्वक विकसित होने लगा जैसे वायु और व्याघात विहीन चम्पा का वृक्ष किसी पहाड़ की गुफा में विकसित होता है। BRINGING UP OF MEGH KUMAR 66. Five nurse-maids were appointed to look after infant Megh Kumar. They were—1. Kshir Dhatri or milk-nurse-maid—the one who took charge of feeding; 2. Mandan Dhatri or dress-nurse-maid-the one who took charge of putting on dress and ornaments; 3. Majjan Dhatri or bath-nurse-maid-the one who took charge of giving a bath; 4. Kridayan Dhatri or play-nurse-maid—the one who took charge of playing with the baby; 5. Anka Dhatri or lap-nurse-maid--the one who took charge of keeping the baby in her lap. हाल CHANDA (68) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात OBC S Anmol Besides these, Megh Kumar was always surrounded by numerous other servants and slaves; they are—the hunch-backed, dwarf, bigbellied; slave girls from various countries or geographic areas including Kirat, Barbar, Bakush, Yaunak, Simhal, Arab, Pulind, Pakkan, Paras, Bahal, Murund, and Shabar; those who could understand the gestures and feelings; those with different styles of dresses, and those who were accomplished in their respective fields as well as humble. Prince Megh Kumar would hold hands or climb into the lap of one or the other of these maids depending on his mood. They entertained the infant sometimes by playing with him and at others by singing to him. He played and walked on a beautiful and gem inlaid floor. He grew happily as a Champa tree grows undisturbed by the blowing winds in a mountain cave. सूत्र ६७. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेणं नामकरणं च पज्जेमणं च एवं चंकमणगं च चोलोवणयं च महया महया इड्डीसक्कारसमुदए णं करिसु। सूत्र ६७. इस प्रकार माता-पिता ने समय बीतने के साथ एक के बाद एक सभी संस्कार, नामकरण, पालने में सुलाना, पैरों से चलाना, चोटी रखना (मुंडन) आदि बड़े समारोह और सत्कार सहित स्वजन समुदाय के बीच सम्पन्न किये। 67. As time passed the parents performed various ceremonial rituals connected with the initiation of the growing child into new activities one after the other. These were done with a lot of fan fare inviting and honouring friends and relatives. The ceremonies included naming, putting into the cradle, toddling, shaving the head, etc. कला-शिक्षण सूत्र ६८. तए णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजायगं चेव सोहणंसि तिहिकरणमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेन्ति। तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओ अ अत्थओ अ करणओ य सेहावेति, सिक्खावेति। तं जहा-(१) लेहं (२) गणियं (३) रूवं (४) नर्से (५) गीयं (६) वाइयं (७) सरगयं (८) पोक्खरगयं (९) समतालं (१0) जूयं (११) जणवायं (१२) पासयं CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (69) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ago (१३) अट्ठावयं (१४) पोरेकच्चं (१५) दगमट्टियं (१६) अन्नविहिं (१७) पाणविहिं (१८) वत्थविहिं (१९) विलेवणविहिं (२०) सयणविहिं (२१) अज्जं (२२) पहेलियं (२३) मागहियं (२४) गाहं (२५) गीइयं (२६) सिलोयं (२७) हिरण्णजुत्तं (२८) सुवन्नजुत्तिं (२९) चुन्नजुत्तिं (३०) आभरणविहिं (३१) तरुणीपडिकम्म (३२) इथिलक्खणं (३३) पुरिसलक्खणं (३४) हयलक्खणं (३५) गयलक्खणं (३६) गोणलक्खणं (३७) कुक्कुडलक्खणं (३८) छत्तलक्खणं (३९) दंडलक्खणं (४०) असिलक्खणं (४१) मणिलक्खणं (४२) कागणिलक्खणं (४३) वत्थुविज्जं (४४) खंधारमाणं (४५) नगरमाणं (४६) बूहं (४७) पडिबूहं (४८) चारं (४९) पडिचारं (५०) चक्कवूहं (५१) गरुलवूहं (५२) सगडबूह (५३) जुद्धं (५४) निजुद्धं (५५) जुद्धातिजुद्धं (५६) अद्विजुद्धं (५७) मुट्ठिजुद्धं (५८) बाहुजुद्धं (५९) लयाजुद्धं (६०) ईसत्थं (६१) छरुप्पवायं (६२) धणुव्वेयं (६३) हिरन्नपागं (६४) सुवन्नपागं (६५) सुत्तखेडं (६६) वट्टखेडं (६७) नालियाखेडं (६८) पत्तच्छेज्जं (६९) कडगच्छेज्जं (७0) सज्जीवं (७१) निज्जीवं (७२) सउणरुयमिति। सूत्र ६८. मेघकुमार जब आठ वर्ष के हुए तो माता-पिता ने शुभ मुहूर्त में उन्हें कलाचार्य के पास भेजा। उन्होंने मेधकुमार को लेखन से आरंभ कर पक्षियों की भाषा तक बहत्तर कलाएँ सूत्र, अर्थ और प्रयोग द्वारा सिखाईं। वे कलाएँ इस प्रकार हैं(१) लेख (उस काल की अठारह (१३) चौपड़ खेलना विभिन्न लिपियों को पढ़ना और (१४) आशु कविता लिखना।) (१५) कुंभकार कला (२) गणित (१६) खेती (३) रूप (१७) जल उत्पत्ति व शुद्धि (४) नाट्य (पेय पदार्थ का ज्ञान) (५) गीत (१८) वस्त्र बनाना पहनना आदि (बुनाई, (६) वाद्य सिलाई) (७) स्वर जानना (१९) विलेपन कला (८) ढोलादि बजाना (२०) शय्या बनाना व शयन विधि (९) ताल ज्ञान (२१) कविता (आर्या छंद) (90) जुआ (२२) पहेलियाँ बनाना व बूझना (गूढार्थ (११) वार्तालाप रचना) (१२) पासा खेलना (२३) मागधी भाषा व छंद | Omma केल AAVATIONAL (70) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (७१) (२४) प्राकृत भाषा व छंद (२५) गीति छंद (२६) श्लोक (२७) चाँदी बनाना (२८) सोना बनाना (२९) चूर्ण निर्माण व उपयोग (३०) गहने गढ़ना, पहनना (३१) स्त्री सेवा (३२) स्त्री लक्षण (३३) पुरुष लक्षण (३४) अश्व लक्षण (३५) हाथी के लक्षण (३६) गाय लक्षण (३७) मुर्गों के लक्षण (३८) छत्र लक्षण (३९) दंड लक्षण (४0) तलवार के लक्षण (४१) मणि लक्षण (४२) रत्न विशेष (काकिणी) लक्षण (४३) वास्तु कला (४४) सेना का पड़ाव प्रमाण (४५) नगर निर्माण (४६) व्यूह रचना (४७) प्रतिव्यूह रचना (४८) सैन्य संचालन (४९) प्रतिरक्षा हेतु सैन्य संचालन (५०) चक्रव्यूह (५१) गरुड़व्यूह (५२) शकटव्यूह (५३) युद्ध (५४) विशेष युद्ध (५५) अत्यन्त विशेष युद्ध (महा) (५६) यष्टि युद्ध (अस्थि) (५७) मुष्टि युद्ध (५८) बाहु युद्ध (५९) लता युद्ध (६०) बढ़ा-चढ़ाकर बताना-विस्तार (६१) मूठ बनाना (६२) धनुर्विद्या (६३) चाँदी का पाक (रसायन) (६४) सोने का पाक (रसायन) (६५) सूत के खेल (६६) वृत्त के खेल (६७) नाली के खेल (६८) पत्र छेदन (६९) वृत्त छेदन (कुंडल छेदन) (७०) संजीवन (७१) निर्जीवन (७२) पक्षियों की भाषा (बोली) - EDUCATION 68. When Megh Kumar became eight years olu his parents, finding an auspicious moment, sent him to a scholar of a wide range of subjects including various arts and crafts. The teacher imparted theoretical education, including texts and meaning, as well as CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (71) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (63) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Onung HA practical training of the seventy two arts (subjects) beginning with writing and ending at the language of birds. The list of these subjects is as follows (1) Writing or Script (writing and reading of eighteen different scripts popular at that time.) (2) Mathematics (3) Decoration (4) Dramatics (5) Song (6) Instrumental music (7) Musicology / Phonetics (8) Playing percussion instruments (9) Knowledge of beats (10) Gambling (11) Conversation (12) Playing dice (13) Playing board games like Chopar (a type of ludo) (14) Instant poetry (15) Pottery (16) Farming (17) Water resources management (18) Making cloth and apparels (19) Coating (20) Making bed and art of sleeping (21) Poetry (Arya Chhand) (22) Riddles and puzzles (23) Magadhi language and its poetics (24) Prakrit language and its poetics (25) The Giti meter of poetry (26) Shlok (the couplet style of poetry) (27) Silver refining and smithy (28) Gold refining and smithy (29) Powder technology and its applications (30) Making ornaments and art of adornment (31) Taking care of females (32) Characteristics of the female (33) Characteristics of the male (34) Characteristics of the horse (35) Characteristics of the elephant (36) Characteristics of the cow (37) Characteristics of the cock (38) Characteristics of the canopy (39) Characteristics of the staff (40) Characteristics of the sword (41) Characteristics of the gem (42) Characteristics of the Kakini (a divine gem) (43) Architecture (44) Military camping Swellen ( 72 ) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (७३) ORDS (45) Town planning and (59) Combat with the help of building vines (46) Attack strategy (60) Elaboration (47) Defense strategy (61) Making of the handles (48) Commanding the army (62) Archery (49) Defense maneuvering (63) Chemistry of silver (50) Battle formation - circular (64) Chemistry of gold (51) Battle formation - eagle (65) Games of the string (52) Battle formation - Shakat (66) Games of the circle (53) Combat (67) Games of the canal (54) Battle (68) Piercing of leaves (55) War (69) Drilling or cutting of holes (56) Combat with the help of (70) Imparting life bones (71) Destroying life (57) Boxing (72) Bird language (58) Arm wrestling गृहस्थाश्रम सूत्र ६९. तए णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणिरुअपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सिहावेति, सिक्खावेति, सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेति। ___ तए णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो तं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेण वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेंति, सम्माणेति, सक्कारित्ता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, पीइदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेन्ति। सूत्र ६९. इन सब कलाओं की यथाविधि शिक्षा देकर वह कलाचार्य मेघकुमार को उसके माता-पिता के पास ले जाता है। माता-पिता आचार्य का यथाविधि सत्कार, सम्मान करते हैं और यथोचित प्रीतिदान (सम्मान पूर्वक स्नेह उपहार) देकर विदा करते हैं। FAMILY LIFE 69. After giving proper education in all these fields the teacher took Megh Kumar to his parents. With due respect King Shrenik and Queen Dharini offered glowing tributes and ample gifts to the teacher and bid him farewell. DIOHIDO हमानी CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (73) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OnOM (७४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र @ARMA SODEOS सूत्र ७0. तए णं मेहे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगार-देसीभासा-विसारए गीयरई गंधव्वनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे-साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था। सूत्र ७0. मेघकुमार बहत्तर कलाओं में पारंगत हो गया, उसके नौ अंग जाग्रत (पूर्ण विकसित) हो गये। वह अट्ठारह प्रकार की देशी भाषाओं का विद्वान् हो गया। गायन-नृत्य-नाट्य आदि में कुशल हो गया। सब प्रकार के युद्ध में प्रवीण हो गया, बाहुबली और समस्त भोग भोगने में समर्थ हो गया। साहसी और विकालचारी (रात में भी अकेला निर्भय घूमने में सक्षम) हो गया। 70. Megh Kumar became proficient in all the seventy two arts. Every part of his body became fully developed. He was now a scholar of all the eighteen indigenous languages; a proficient exponent of music, dance, and drama; a strong warrior; and a skilled commander. He had attained the desired maturity to enjoy all the pleasures of life. Above all, he had turned into a courageous and fearless mover. सूत्र ७१. तए णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरिकलापंडितं जाव वियालचारी जायं पासंति। पासित्ता अट्ठ पासायवडिंसए कारेन्ति अब्भुग्गयमूसियपहसिए विव मणि-कणग-रयण-भत्तिचित्ते, वाउद्धृतविजयवेजयंती-पडागाछत्ताइच्छत्तकलिए, तुंगे, गगणतलमभिलंघमाण-सिहरे, जालंतररयण-पंजरुम्मिल्लियव्व मणिकणगथूभियाए, वियसियसयपत्तपुंडरीए, तिलयरयणद्ध-चंदच्चिए नाणामणिमयदामालंकिए, अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्जरुइरवालुयापत्थरे, सुहफासे सस्सिरीयस्वे पासाईए जाव पडिरूवे। सूत्र ७१. मेघकुमार के माता-पिता ने जब यह देखा-जाना कि वह उक्त प्रकार से सर्व-गुण-सम्पन्न हो गया है तो उन्होंने आठ श्रेष्ठ प्रासाद-भवन बनवाए। ये भवन बहुत ऊँचे थे और उज्ज्वल आभा से दैदीप्यमान थे। उन पर मणि, सुवर्ण और रत्नमय भित्ति चित्र शोभित थे। उनके गगनचुम्बी शिखरों पर छत्रों की श्रेणियाँ थीं और वैजयन्ती पताकाएँ हवा से फहरा रही थीं। उनके जाली झरोखों के बीच जड़े रत्न नेत्रों जैसे लग रहे थे। स्थान-स्थान पर सोने के मणिमय स्तूप थे और उन पर चित्रित शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिल रहे थे। तिलकाकार तथा अर्द्धचन्द्राकार सोपान तथा चन्दन के आलेख (हाथ के छापे) उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। अनेक प्रकार की मणिमालाओं से सजे वे भवन भीतर-बाहर से चिकने थे। उनके आँगन में सुनहरी रुचिर बालू बिछी थी। सुखद स्पर्श और शोभन रूप वाले वे भवन अत्यन्त आह्लादकारी और मनोहर थे। OMer (74) JNĀTĀ DHARMA KATHÂNGA SUTRA | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (७५) S 71. When Megh Kumar's parents realized that he had matured in every respect, they got eight beautiful houses constructed for him. These buildings were tall and eye catching. Gem and gold inlaid frescoes decorated their walls. A series of canopies and fluttering flags made their sky-high roofs very attractive. The gem stones embellishing the overhangs and grills appeared like eyes. Gem studded and golden domes, with different types of lotus flowers painted over them, were aesthetically placed at various points. Diamond shaped and half-moon shaped arches and the supporting pillars with colourful palm impressions enhanced the beauty of these buildings. Decorated with a variety of bead strings, both the surfaces of the walls were shining and smooth. Glowing golden sand covered the floor of the courtyards. Pleasing to touch and look at, these buildings appeared alluring and attractive. सूत्र ७२. एगं च णं महं भवणं कारेंति-अणेगखंभसयसनिविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं अब्भुग्गय-सुकय-वइरवेइया-तोरण-वररइय-सालभंजिया-सुसिलिट्ठ-विसिट्टलट्ठ-संठित-पसत्थ-वेरुलिय-खंभ-नाणामणि-कणग-रयणखचितउज्जलं बहुसम-सुविभत्तनिचिय-रमणिज्ज-भूमिभागं ईहा-मिय. जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गय-वइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजुत्तं पिव अच्ची-सहस्स-मालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचण-रयणथूभियागं नाणाविहपंचवन्नघंटा-पडाग-परिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवयं विणिम्मयंतं लाउल्लोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं पासाईयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं। सूत्र ७२. इन भवनों के अतिरिक्त एक विशाल भवन मेघकुमार के लिए भी बनवाया गया। वह अनेक खंभों पर बना हुआ था। जिन पर क्रीड़ा करती पुतलियाँ बनी हुई थीं। उस भवन में ऊँची और सुनिर्मित हीरे जड़ी वेदिका बनी थी। द्वार पर तोरण थे और विशाल व उन्नत वैडूर्य के स्तम्भ थे जिन पर पुतलियाँ बनी थीं और जो सोने, रत्न और मणियों से जड़े होने के कारण चमक रहे थे। इन स्तम्भों का आकार समतल, विशाल, सुदृढ़ और सुन्दर था। इन पर जगह-जगह ईहामृगादि (पूर्व सम) के मनोहारी चित्र बने हुए थे। हीरे की बिंदियों से जड़े होने के कारण ये नयनाभिराम लग रहे थे। ऐसा लगता था मानो समान स्तर पर रहे दो विद्याधर (युगल) यंत्र से चल रहे हों। यह भवन हजारों किरणों और चित्रों से सजा होने से जगमगा रहा था। उसे देख दर्शकों की आँखें एकटक निहारने लगती थीं। उसका स्पर्श सुखद और रूप चित्ताकर्षक था। सुवर्णादि से जड़े स्तूप वाले उस भवन के CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (75) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (७६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र rina शिखर पर कई प्रकार की पंचरंगी व घंटियों सहित पताकाएँ फहरा रही थीं। वह धुला, लिपा तथा चंदोलों से युक्त था और सुगंध का भंडार था। सारांशतः वह भवन मनोरम और आह्लादकारक था, दर्शनीय था मन को मोहने वाला था। 72. Besides these, one other large building was constructed specifically for Megh Kumar. This building was raised on numerous pillars having figures of dancing damsels engraved. There was a raised pedestal with inlaid diamonds. The gate was made of large and high pillars of chrysoberyl supporting an arch. They too had carvings of human figures; and the inlaid gold and gems gave them a brilliant glow. These pillars were shapely, large, strong, and beautiful and were richly decorated with exquisite carvings of Ihamrig (etc. as mentioned earlier). A splattered pattern of inlaid diamonds added to their eyecatching beauty. It appeared as if a couple of Vidyadhars (a class of gods) were moving mechanically. Decorated with numerous paintings and filled with infinite rays of reflected light, this building provided a scintillating view. The onlookers could not shift their eyes from this visual wonder. It was pleasent and exciting to touch. Five coloured flags with bells fluttered over the gold inlaid dome at the top of this building. Its interior was washed, besmeared, fitted with curtains and canopies and filled with incense and perfume. All said and done, this building was appealing lovely, exquisite, and alluring to the highest degree. विवाह और प्रीतिदान ___ सूत्र ७३. तए णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहणंसि तिहि-करणनक्खत्त-मुहुत्तंसि सरिसियाणं सरिसव्वयाणं सरिसत्तयाणं सरिसलावन्न-रूव-जोव्वणगुणोववेयाणं सरिसए-हिंतो रायकुलेहितो आणिल्लियाणं पसाहणट्ठग-अविहवबहुओवयणमंगल-सुजंपियाहिं अट्टहिं रायवरकण्णाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु। सूत्र ७३. इस निर्माण कार्य के सम्पन्न हो जाने के बाद मेघकुमार के माता-पिता ने शुभ तिथि, करण, मुहूर्त देखकर उनके समान व उपयुक्त शरीर परिमाण, आयु कान्ति, लावण्य, यौवन और गुण वाली तथा समान कुल की आठ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक साथ विवाह करवाया। उस समय आठों अंगों में अलंकार धारण करने वाली सुहागिनों ने मंगल गान गाये तथा दही, अक्षतादि मांगलिक पदार्थों से सब अनुष्ठान करवाये। RADIO se 4IHARI - F (76) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माळ CM Owoo BAMRAO CHIEDO य प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (७७) पाया MARRIAGE AND GIFTS 73. After this construction work was concluded Megh Kumar's parents found an auspicious date and time and married Megh Kumar to eight princesses. These young ladies had suitable and matching physique, age, aura, beauty, youth, and virtues and they belonged to families of matching status. Married women, richly adorned with ornaments, sang auspicious and ceremonial songs and performed all the ceremonies using propitious things like curd and rice. __ सूत्र ७४. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइदाणं दलयइ-अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, गाहानुसारेण भाणियव्वं जाव पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंतसारसावतेज्ज अलाहि जाव आसत्तमाओ कुल-वंसाओ पकामं भोतुं पकामं परिभाएउं। तए णं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति, एगमेगं सुवन्नकोडिं दलयति जाव एगमेगं पेसणकारि दलयति, अन्नं च विपुलं धणकणग जाव परिभाएउं दलयति। सूत्र ७४. मेघकुमार के माता-पिता ने इस अवसर पर जो प्रीतिदान दिया वह इस प्रकार था-आठ करोड़ चाँदी, आठ करोड़ सोना आदि गाथाओं के अनुसार (मूल में ये गाथाएँ नहीं हैं)। इसके अलावा आठ-आठ दासियाँ और विपुल धन, सोना, रत्न, मणि, मोती, शंख, मूंगा, माणक आदि श्रेष्ठ व मूल्यवान वस्तुएँ दीं। ये सब इतना था कि सात पीढ़ी तक दान देने, भोगने, उपयोग करने और आपस में बाँटने के लिए यथेष्ठ था। मेघकुमार ने यह सारी सामग्री अपनी आठ पत्नियों में बराबर-बराबर बाँट दी। 74. The marriage gifts given by Megh Kumar's parents on this occasion were eighty million gold (coins), eighty million silver(coins) and more as mentioned (these details are not available in the text). Besides these, eight maids each for every wife, and great wealth including cash, gold, gems, pearls, conch shells, coral, ruby, and other valuables. The extant of gifts was so enormous that it was enough to enjoy, distribute, use, and donate for seven generations. Megh Kumar distributed all these gifts equally among his eight wives. ॥ CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (77) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र JAANA00 सूत्र ७५. तए णं से मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहि । वरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति। सूत्र ७५. अब मेघकुमार अपने मनोरम महल में नाटक-गान-क्रीड़ा आदि करता हुआ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, गंध और रूप का उपभोग करता, आनन्द लेता सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा। ___75. Now, in his palace, Megh Kumar and his wives started enjoying all possible worldly pleasures, tender and lusty, through the faculties of hearing, touch, smell, and vision. भगवान महावीर का आगमन सत्र ७६. तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए जाव विहरति। __तए णं से रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया बहुजणसद्देति वा जाव बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छति। इमं च णं मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुयंगमत्थएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गं च आलोएमाणे एवं च णं विहरति। सूत्र ७६. उस काल के उस भाग में श्रमण भगवान महावीर एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करते हुए राजगृह नगर में पधारे और गुणशील चैत्य में यथोचित स्थान पर ठहरे। ___ उस समय राजगृह नगर के मार्गों आदि पर लोगों की भीड़ का शोर होने लगा। विभिन्न कुल और समूह के लोग नगर के बीच से निकल-निकल एक ही दिशा में जाने लगे। उस समय मेघकुमार अपने महल में मृदंगादि के मधुर संगीत में लीन आनन्द करते हुए राजमार्ग की हलचल देख रहे थे। ARRIVAL OF BHAGAVAN MAHAVIR 76. During that period of time Shraman Bhagavan Mahavir, L NE (78) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (७९) aama NIRDO wandering from one village to another, arrived in Rajagriha city and stayed at a proper place in the Gunasheel temple complex. At that time the roads and other areas of Rajagriha city were filled with clamour of groups of excited people. Citizens from various clans and groups came out of their houses and all the roads led in one direction only. At that moment, enjoying instrumental music in his room, Megh Kumar was looking down at the commotion on the highway. सूत्र ७७. तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमहे पासति पासित्ता कंचु-इज्जपुरिसं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी-“किं णं भो देवाणुप्पिया ! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा, खंदमहेति वा, एवं रुद्द-सिव-वेसमण-नाग-जक्खभूय-नई-तलाय-रुक्ख-चेतिय-पव्यय-उज्जाण-गिरिजत्ताइ वा ? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छंति ?" सूत्र ७७. मेघकुमार लोगों की भीड़ को एक ही दिशा में जाते देखकर अपने सेवक को बुलाकर पूछता है-'हे देवानुप्रिय ! राजगृह नगर में क्या आज इन्द्रोत्सव मनाया जा रहा हैं ? कार्तिकेय का महोत्सव है ? अथवा रुद्र, शिव, कुबेर, नाग, यक्ष, भूत, नदी, तालाब, वृत्त, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि की यात्रा है ? आज सभी लोगों की भीड़ एक ही दिशा मं क्यों जा रही है ?" 77. Looking at the large crowd going in a specific direction, Megh Kumar called a member of his staff and asked, “Beloved of gods! Is the town celebrating the festival of Indra or Kartikeya today? Is there some procession being taken out in honour of Rudra, Shiva, Kuber, Naag, Yaksha, Bhoot, (deities) in the direction of some sacred river, pond, circle, temple, hill, or mountain? Why all the groups of people are moving in the same direction?" सत्र ७८. तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासी-"नो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा जाव गिरिजत्ताओ वा, जं णं एए उग्गा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे इहमागते, इह संपत्ते, इह समोसढे, इह चेव रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडि0 जाव विहरति।" Saro RAMIna CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (79) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र aimeo धी CTIO A सूत्र ७८. सेवक ने श्रमण भगवान महावीर के आने के समाचार जानकर मेघकुमार को बताया-“देवानुप्रिय ! नगरवासियों के एक दिशा में जाने का कारण कोई इन्द्रोत्सव आदि नहीं है। आज तो धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं और यथाविधि राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विहार कर रहे हैं।" 78. Finding about the arrival of Shraman Bhagavan Mahavir the attendant explained to the prince, “Beloved of gods! It is not because of some religious festival that the crowd is going in one particular direction. Today Shraman Bhagavan Mahavir, the founder of the religious ford, has arrived in the town and stayed in the Gunasheel temple.” __सूत्र ७९. तए णं से मेहे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सदावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह।" तंह त्ति उवणेति। सूत्र ७९. सेवक की यह बात सुनकर मेघकुमार प्रसन्न हुए और दासों को बुलवाकर कहा-“हे देवानुप्रियो ! जल्दी से चार घंटे वाले रथ में घोड़े जोतकर तैयार करो।" सेवकों ने तत्काल आज्ञा स्वीकार की और रथ तैयार करके उपस्थित किया। 79. Megh Kumar was pleased to get this information from the attendant. He called his staff and said, “Beloved of gods! Prepare a four horse chariot and bring it here immediately.” The servants executed the order without delay. भगवान महावीर के दर्शन व देशना __ सूत्र ८0. तए णं मेहे पहाए जाव. सव्वालंकारविभूसिए चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडगर-विंद-परियालसंपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छति। निग्गच्छित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति। पासित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहति। पच्चोरुहित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति। तं जहा (80) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (८१) MS -- शाखा (१) सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए। (२) अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए। (३) एगसाडियउत्तरासंगकरणेणं। (४) चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं। (५) मणसो एगत्तीकरणेणं। जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति। करित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स णच्चासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलियउडे अभिमुहे विणए णं पज्जुवासइ। ___ सूत्र ८0. मेघकुमार ने तब स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर वस्त्राभूषण पहने। वे रथ पर चढ़े और अपने वैभव के अनुसार छत्रादि धारण कर सैन्यादि के साथ नगर के बीच से निकल गुणशील चैत्य (उद्यान) में पहुंचे। वहाँ उन्होंने श्रमण भगवान महावीर के छत्र पर छत्र, पताकाओं पर पताका आदि अतिशयों को, तथा विद्याधरों, चारणों और मुंभक देवों को आकाश से नीचे आते ऊपर जाते देखा। यह सब देख वह रथ से उतरे और पाँच प्रकार के अभिगम (देव-गुरु के सन्मुख जाने की उचित विधि) कर भगवान महावीर की तरफ चले। वे पाँच अभिगम हैं-(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग, (२) अचित्त द्रव्यों का अत्याग, (३) बिना जोड़ का उत्तरीय धारण करना, (४). भगवान पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, तथा (५) मन को एकाग्र करना। भगवान महावीर के निकट पहुँच उन्होंने दक्षिण दिशा (दाहिनी ओर) से आरम्भ कर तीन बार भगवान की प्रदक्षिणा की और तब वन्दन तथा नमस्कार किया। फिर वह भगवान के सम्मुख उचित स्थान पर बैठ धर्मोपदेश सुनने की इच्छा लिए, दोनों हाथ जोड़ विनयपूर्वक प्रभु की उपासना करने लगे। MAHAVIR'S DISCOURSE ___80. Megh Kumar got ready after his bath and putting on his royal ress and ornaments. He ascended the chariot and with regalia and guards passed through the town and arrived at the Gunasheel temple. There he saw the miraculous things like canopy over a canopy, flag over a flag, and ascending and descending of a variety of gods including Vidyadhars, Charans, and Jambhriks around Shraman Bhagavan Mahavir. He got down from his chariot and made five prescribed resolutions before proceeding to greet Bhagavan. These resolutions were-1. not to Omro Ram CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (81) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ago AAm PROTHER m آیدابا accept anything with any trace of life, 2. only to accept a thing without any trace of life, 3. to wear a joint-less upper garment, 4. to join palms the moment the lord is seen and 5. to focus thoughts over him. When he reached near Shraman Bhagavan Mahavir, Megh Kumar circum-ambulated him three times in anti-clockwise direction and then bowed in reverence. Megh Kumar took an appropriate seat in front of Bhagavan and joining both palms started worshiping him with a desire to listen to his preaching. सूत्र ८१. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममाइक्खइ, जहा जीवा बझंति, मुच्चंति, जहा य संकिलिस्संति। धम्मकहा भाणियव्वा, जाव परिसा पडिगया। __ सूत्र ८१. श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार सहित उस धर्म सभा के बीच बैठकर अद्भुत (श्रेष्ठ) श्रुतधर्म और चारित्र धर्म का उद्बोधन दिया। उन्होंने बताया कि कैसे जीव कर्मों का बंधन करता है, कैसे उनके प्रभाव से कष्ट पाता है, और कैसे मुक्त होता है (औपपातिक सूत्र अनुसार)। भगवान की देशना सुनकर जन-समूह वापस लौट गया। 81. Shraman Bhagavan Mahavir gave his revolutionary discourse on the word of the omniscient and the codes of conduct. He explained how a being fuses karmas to his soul, how it suffers under the influence of these karmas, and how it gets liberated (Aupapatik Sutra). The assembled people left after the discourse. वैराग्य जागरण सूत्र ८२. तए णं मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एव पत्तयामि णं, रोएमि णं, अब्भुट्टेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेय भंते ! अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेय भंते ! से जहेव तं तुब्भे वदह। जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं पव्वइस्सामि।" “अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।" सूत्र ८२. भगवान की देशना सुनकर मेघकुमार प्रसन्न हुए और दाहिनी ओर से | आरंभ कर भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दना व नमस्कार किया। फिर वह बोले, (82) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (८३) "भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे श्रेष्ठ मानता हूँ, उस पर विश्वास करता हूँ, और उसमें रुचि रखता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ। आपका वचन एकान्त सत्य है, नितान्त सत्य है, निर्बाध सत्य है। भगवन् ! मेरे मन में निर्ग्रन्थ मार्ग की साधना की इच्छा जाग उठी है और बारंबार जागकर वह बलवती हो रही है। आपने जो जैसा कहा है वो वैसा ही है। किन्तु हे देवानुप्रिय ! मैं पहले अपने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर लूँ फिर मुंडित हो प्रव्रज्या ग्रहण करूँ।" भगवान ने उत्तर दिया, “देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख मिले वह निर्विलम्ब करो।" DETACHMENT 82. Pleased to hear the discourse of the Bhagavan, Megh Kumar stood up, went around him and bowed (as mentioned earlier). He then said "Bhante! I have faith in the word of the Nirgranth (one who is free of all knots, inner and outer), I consider it to be the best, I believe in it and have interest in it. Bhagavan! I want to embrace the word of the Nirgranth. Your word is the only, absolute and ultimate truth. Bhagavan! the desire to tread the path of spiritual practices shown by the Nirgranth has dawned in my mind and with every passing moment it is getting stronger. What you have said is exactly as you have described. However, Beloved of gods! I will first seek permission from my parents and then shave my head and get initiated." __ “Beloved of gods! do what pleases you without any delay." replied Bhagavan. __सूत्र ८३. तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्झंमज्झेण जेणेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ। पच्चोरुहित्ता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ। करित्ता एवं वयासी-“एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।" ces लाह CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (83) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) सूत्र ८३. तब मेघकुमार ने भगवान महावीर को फिर वन्दनादि की और रथ में बैठकर वापस लौटे। रथ से उतर वे अपने माता-पिता के पास गये और उनके चरणों में प्रणाम कर के बोले, “हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर की देशना सुनी और मेरे मन में उनके धर्म मार्ग की इच्छा जागी और बलवती हो गई है। वह मुझे रुचा है । " 83. Megh Kumar once again bowed before Shraman Bhagavan Mahavir and returned to the palace in his chariot. He went straight to his parents and after due courtesy said, "Father and mother! I have been to the discourse of Shraman Bhagavan Mahavir. It has inspired me strongly to accept the path shown by him. I have developed an affinity for it.” ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ८४. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी - " धन्नो सि तुमं जाया ! संपुन्नो सि तुमं जाया ! कयत्थो सि तुमं जाया ! जं णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।" . सूत्र ८४. माता-पिता ने कहा, " हे पुत्र ! तुम धन्य हो ! तुम पुण्यवान और कृतार्थ हो कि तुमने श्रमण भगवान महावीर की देशना सुनी और वह तुम्हें अभीष्ट लगी।” 84. The parents replied, "Son! You are to be commended. You are lucky and blessed that you have heard the sermons from Shraman Bhagavan Mahavir and found the same inspiring." सूत्र ८५. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी - " एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते। से वियणं मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं, पव्वइत्तए । सूत्र ८५. तब मेघकुमार ने आग्रहपूर्वक निवेदन किया - " हे माता-पिता ! मुझे भगवान का धर्म-मार्ग इष्ट लगा है अतः मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान महावीर के पास जा, मुंडन करवाकर, गृह त्याग कर, प्रव्रज्या ले अनगार बनना चाहता हूँ ।" 85. Megh Kumar requested persuasively, “Father and mother! I find the path shown by Bhagavan to be beneficial and as such, I wish to seek your permission, go to Shraman Bhagavan Mahavir and get initiated into his ascetic order after renouncing the worldly life and getting my head shaved." (84) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात शोकाकुल माता सूत्र ८६. तए णं सा धारिणी देवी तमणिट्टं अकंतं अप्पियं अमणुन्नं अमणामं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा णिसम्म इमेणं एयारूवेणं मणोमाणसिएणं महया पुत्तदुक्खेणं अभिभूता समाणी सेयागय - रोमकूव-पगलंत - विलीणगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणवयणा करयल-मलिय व्व कमलमाला तक्खण- ओलुग्ग-दुब्बलसरीरा लावन्नसुन्न-निच्छाय-गयसिरीया पसिढिलभूसण- पडतखुम्मिय- संचन्नियधवलवलयपब्भट्टउत्तरिज्जा सूमालविकिण्णकेसहत्था मुच्छावसणट्टचेयगरुई परसुनियत्त व्व चंपगलया निव्वत्तमहिम व्व इंदलट्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि सव्वंगेहिं धसत्ति पडिया | सूत्र ८६. धारिणी देवी ऐसी अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ, अवांछित, अभूतपूर्व और कठोर बात सुन-समझकर पुत्र वियोग के अकल्पनीय दुःख से अभिभूत हो गईं। वे पसीने से तर हो गईं, और उनका अंग-अंग काँपने लगा। वे असमय मुरझाई माला के समान अनमनी, दीन, और निस्तेज हो गईं। क्षण मात्र में ही उनका लावण्य, कान्ति और श्री लुप्त हो गई। दुर्बलता के कारण उनके शरीर पर पहने गहने ढीले हो गए, हाथ के कंगन सरककर जमीन पर गिरे और टूट गए। उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गए और बाल बिखर गये। उनके मन पर गहरा आघात लगा और वे बेहोश हो गईं। ऐसा लगता था जैसे फरसे से काटी कोई लता या उत्सव सम्पन्न हो जाने के बाद ध्वजा शोभाविहीन हो गई हो । उनके जोड़ ढ़ीले पड़ गये और वे धड़ाम से धरती पर गिर पड़ीं। MOTHER'S GRIEF 86. When she heard these ominous, unpleasant, repelling, undesirable, and hard hitting words, queen Dharini was overwhelmed with the unimaginable anguish of separation from her beloved son. She became drenched with sweat and her limbs started trembling. Like a withered garland of flowers she became gloomy, depressed, and dull. Within a moment she lost all her beauty, radiance, and splendour. Her body became so shriveled that all her ornaments became ill fitting; so much so that her bracelets slipped out of her loosely hanging wrists, fell down on the floor and broke. Her dress and hairdo became shabby. The deep shock made her unconscious. It appeared as if a vine was cut by the blow of an axe or a flag had been unhoisted. Her joints became loose and she fell prone on the floor. CHAPTER - 1: UTKSHIPTA JNATA ( ८५ ) For Private Personal Use Only (85) थ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) सूत्र ८७. तए णं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गय-सीयलजल- विमलधाराए परिसिंचमाणा निव्वावियगायलट्ठी उक्खेवणतालविंट-वीयणग-जणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडंत-अंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणविमणदीना रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहं कुमारं एवं वयासी सूत्र ८७. अनिष्ट की आशंका से तत्काल उनके मुख पर सोने के कलश से शीतल जल की निर्मल धारा डाली गई जिससे उनके अंग शीतल हुए। अनेक प्रकार के पंखों से उन्हें जल-कण युक्त हवा की गई और अन्तःपुर के परिजनों ने उन्हें आश्वस्त किया। इससे उन्हें होश आया और वे रो पड़ीं। उनकी आँखों से मोती की लड़ियों की तरह आँसू बहने लगे और वस्त्र भींग गये। वे अनमनी, दीन और दयनीय हो गईं। शोक से संतप्त धारिणी देवी ने रोते-रोते मेघकुमार से कहा ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 87. Apprehensive of some disaster the attendants poured cold water on her face from a golden urn and she calmed down. Humid air was blown at her with water soaked fans and her relatives and staff members uttered words of encouragement to console her. She regained her consciousness and started crying. Tears dripped from her eyes like strings of pearls and wet her cloths. Her appearance became pitiable. Choked with anguish she said to Megh Kumar - मेघकुमार का माता-पिता से संवाद सूत्र ८८. तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुन्ने मणामे थेज्जे सासिए सम्म बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियउस्सासए, हिययाणंदजणणे उंबरपुष्कं व दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहित्तए । तं भुंजाहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सर कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो । तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिणयवए वड्डिय-कुलवंस-तंतु- कज्जम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि । सूत्र ८८. " हे पुत्र ! तू हमारा एकमात्र पुत्र है, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनभावन है। तू हमारे धैर्य और शान्ति का आधार है। तू हमारा विश्वासपात्र और कार्यपालक होने से अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा लगता है। तू हमारे लिए आभूषणों की पेटी के समान है, रत्न समान है। तू ही तो हमारे जीवन का आधार है और आनन्द का स्रोत है। (86) JNÄTÄ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only OMRO Ove Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ८७ ) दुर्लभ गूलर के फूल की तरह तेरे जैसे पुत्र को देखना तो क्या तेरे विषय में सुन पाना भी कठिन है। हे पुत्र ! हमें तो क्षण भर के लिए भी तेरा वियोग सहन नहीं होगा। इसलिए हे पुत्र ! जब तक हम जीवित हैं तब तक तू सभी मानवोचित सुख और आनन्द का भोग कर। फिर जब हम काल गति को प्राप्त हों और तू अधेड़ हो जाये, कुल-वंश के विस्तार का कर्तव्य पूरा हो जाये और किसी सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे तब तू श्रमण भगवान महावीर के पास यथाविधि प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना।" DIALOGUE WITH PARENTS 88. “Son! You are our only and cherished, lovely, adored, charming, and beloved son. You are the source of our peace and confidence. As you are faithful and obedient we consider you to be excellent, not just good. You are like a chest full of ornaments or gems for us. You are the hope of our life and source of our joy. It is difficult to hear about a son like you, what to talk of seeing one that is as rare as a Gular flower. Darling! We will not be able to tolerate separation from you even for a moment. As such, we implore you to enjoy the joys and pleasures of human life as long as we live. When we breathe our last and, you get middle aged, fulfill your duty of continuation of the clan, and no desire of any worldly activity is left you may go to Shraman Bhagavan Mahavir and get initiated following the prescribed procedure." __ सूत्र ८९. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी-“तहेव णं तं अम्मयाओ ! जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह-तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते, तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि-एवं खलु अम्मयाओ माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसणसउवद्दवाभिभूते विजुलयाचंचले अणिच्चे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिन्दुसन्निभे संझब्भराग-सरिसे सुविणदंसणोवमे सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणइ अम्मयाओ ! के पुव्विं गमणाए ? के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। सूत्र ८९. मेघकुमार ने उत्तर दिया-“हे माता-पिता ! आपने जो कुछ कहा वह ठीक है परन्तु यह मनुष्य भव अध्रुव है, अनियत है, अशाश्वत है, व्यसनों और उपद्रवों से अभिभूत है, विद्युत् के समान चंचल और अनित्य है, पानी के बुलबुले और घास की नोंक Cate omga M 4INDIDO CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (87) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) पर रही ओस की बूँद जैसा अस्थिर है, संध्या की लालिमा और स्वप्न के समान अस्थाई है, और सड़ने, गिरने तथा नाश होने वाला है। अतः यह तो पहले हो या बाद में, अवश्य ही त्यागने योग्य है और फिर यह किसने जाना है कि कौन पहले जायेगा और कौन बाद में ? इसलिए हे माता - पिता मैं आपकी आज्ञा लेकर भगवान महावीर के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ ।" 89. Megh Kumar replied, “Parents! What you say is correct but know that this human life is mutable, uncertain, and fleeting. It is handicapped with vices and plagued by afflictions. It is flickering and inconstant like lightening, fleeting like a bubble and a dew drop on the edge of grass, ephemeral like the crimson of the dusk or a dream. It is perishable, decayable, and destructible. As such, sooner or later it has to be abandoned. Moreover, who ever knows who will go earlier and who, later? So, parents! with your permission I want to go to Shraman Bhagavan Mahavir and get initiated." ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ९०. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी - "इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ सरिसत्तयाओ सरिसव्वयाओ सरिसलावन्नरूवजोव्वणगुणोववेयाओ सरिसेहिन्तो रायकुलेहितो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुंजाहि णं जाया ! एताहि सद्धिं विपुले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्सति । ” सूत्र ९०. तब माता-पिता ने कहा - " हे पुत्र ! तुम्हारी ये समान गुणों वाली ( पूर्व सम ) पत्नियाँ हैं । इनके साथ मनुष्योचित दाम्पत्य जीवन के सुखों और आनन्द का भोग करो और तब सब भोगों से तुष्ट होकर दीक्षा ग्रहण कर लेना ।” 90. The parents said, "Son! You have all these beautiful wives (as detailed earlier). Enjoy all the pleasures and joys of your marital life with them and when you are fully contented go and get initiated." सूत्र ९१. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी - " तहेव णं अम्मयाओ ! जं णं तुभे ममं एवं वह - इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स पव्वइस्ससि– एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा दुरुयमुत्त-पुरीसपूय - बहुपडिपुन्ना उच्चार- पासवण - खेल - जल्ल-सिंघाणग-वंत-पित्त - सुक्क सोणितसंभवा अधुवा अणियया असासया सडण - पडण - विद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा । (88) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ८९) SHAYARI तसे के णं अम्मयाओ ! जाणंति के पुव्विं गमणाए ? के पच्छा गमणाए ! तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! जाव पव्वइत्तए।" __ सूत्र ९१. इस पर मेघकुमार ने कहा-“हे माता-पिता ! आपका कथन उचित है किन्तु काम भोग के आधार ये शरीर अशुद्ध हैं, अशाश्वत हैं। इनमें से वमन, पित्त, कफ, शुक्र और रक्त झरता है। ये अशुद्ध श्वास-निश्वास, मल-मूत्र और पीप के भण्डार हैं और इनमें से इन्हीं सब कुत्सित वस्तुओं की उत्पत्ति होती रहती है। ये ध्रुवादि नहीं हैं (कथन का अंतिमांश पूर्व सम)। अतः हे माता-पिता मैं अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। ___91. Megh Kumar replied, “Parents! What you say is right but the body that is the source of these physical pleasures is impure and transient. It discharges vomit, bile, phlegm, semen, and blood. It is filled with as well as produces impure things like foul air, excreta, and pus. It is mutable (etc.). As such, I want to get initiated now only.” सूत्र ९२. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-“इमे ते जाया ! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहु हिरन्ने य सुवन्नेय कंसे य दूसे य मणिमोत्तिए य संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावतिज्जे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं, पगामं भोत्तुं, पगामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगं इड्डिसक्कारसमुदयं, तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पव्वइस्ससि। सूत्र ९२. माता-पिता ने पुनः मेघकुमार से कहा-“हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और उनके प्रपितामह के समय से आयी प्रचुर समृद्धि-हिरण्यादि (पूर्व सम) विद्यमान है। यह इतना है कि सात पीढ़ियों तक भी समाप्त न हो। तुम इसका खूब दान करो, स्वयं भी भोग करो और बाँटो भी। हे पुत्र ! मनुष्योचित जितना ऋद्धि-सत्कार का भण्डार है तुम उसका भोग करो। उसके बाद दीक्षा ले लेना।" 92. The parents persisted, "There is abundant wealth (gold, etc. as detailed earlier) inherited from your ancestors. It is enough to last seven generation and more. You should donate, enjoy, and distribute out of it as much as it pleases you. Enjoy this great treasure of wealth and good will and then get initiated.” _सूत्र ९३. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी-“तहेव णं अम्मयाओ ! जं णं तं वदह-इमे ते जाया ! अज्जग-पज्जग-पिउपज्जयागए जाव तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे पव्वइस्ससि एवं खलु अम्मयाओ ! हिरन्ने य सुवण्णे य जाव सावतेज्जे AAHIRNO पटक - ABDMRO CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (89) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र O AARAO आप अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसामन्ने जाव मच्चुसामन्ने सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे, से के णं जाणइ अम्मयाओ ! के जाव गमणाए ? तं इच्छामि णं जाव पव्वइत्तए।" सूत्र ९३. इस पर मेघकुमार ने उत्तर दिया-“हे माता-पिता ! आपका कथन ठीक है किन्तु हे माता-पिता यह हिरण्यादि सभी द्रव्य अग्नि द्वारा जलाये जा सकते हैं। ये सभी चोरों द्वारा चुराये जा सकते हैं, राजा द्वारा इनका अपहरण किया जा सकता है, भागीदार बँटवारा कर सकता है और मृत्यु के आने पर इनसे बिछोह हो जाता है। अतः इस सारी समृद्धि में अग्नि, चोर आदि सभी भागीदार हैं। ये ध्रुवादि नहीं हैं (कथन का अंतिमांश पूर्व सम)। इसलिए मैं अभी ही दीक्षा लेना चाहता हूँ।" ___93. Megh Kumar replied, “Parents! What you say is correct but all these earthly things including gold can be consumed by fire. Thieves can take away this wealth, government can confiscate it, a partner can claim a share from it, and death can separate one from it. In other words, all these and many others are in fact partners in this wealth. Moreover, it is mutable (etc. as mentioned before). As such, I want to get initiated immediately.” सूत्र ९४. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहूहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य, आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहि संजमभउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निजाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भुयाहिं दुत्तरे, तिक्खं चक्कमियव्वयं गरुअं लंबेयव्वं, असिधारावयं संचरियव्वं। __सूत्र ९४. इस प्रकार जब माता-पिता सभी प्रकार के अनुकूल अनुनय-विनय, दीनता प्रदर्शन, आत्मीयता आदि से मेघकुमार को समझाने में असफल रहे तो उन्होंने प्रतिकूल उपायों से संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने की चेष्टा से कहा___ “हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ का प्रवचन सत्य है, अनुपम है, केवली द्वारा प्रतिपादित है, न्याययुक्त है, विशुद्ध है, शल्यनाशक है (मायादि), सिद्धि और मुक्ति का मार्ग है, स्वर्ग और निर्वाण oporo RABITA 1 (90) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (९१) CATo1 Ma ARRIEDO Hinde RAMERAD EMAND ATMASANLEANSPIRATION का मार्ग है, तथा समस्त दुःखों से निस्तार का मार्ग है। इस मार्ग पर चलने के लिए निर्ग्रन्थ प्रवचन में वैसी ही एकाग्रता रखनी पड़ती है जैसी सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करते समय रखता है। यह राह छुरे की धार की तरह एकान्त रूप से तीक्ष्ण धार वाली है। इस पर चलना लोहे के चने चबाने जैसा है। यह रेत के ग्रास के जैसी स्वादहीन है। इस पर चलना गंगा जैसी महानदी में बहाव के विपरीत तैरने जैसा है, महासमुद्र को तैरकर पार करने जैसा है, भाले की नोकों पर चलने जैसा है, चट्टान को गले में बाँधने जैसा है, और तलवार की धार पर चलने जैसा है। 94. Thus when all enticing methods including request, show of humility and affection failed to break the resolve of Megh Kumar, his parents resorted to repulsive methods like instilling fear and antipathy for ascetic discipline - ___“Son! The word of the Nirgranth is true, unique, and propagated by the omniscient. It is just, pure, and an antidote for thorns like illusion. It shows the path of purity, liberation, heaven and Nirvana, and is the means of removal of all sorrows. To tread this path it is necessary to have a deep concentration like a snake has when it hunts its prey. This path is as sharp as a razors edge. To tread this path is like biting iron bits. It is as tasteless as a mouthful of sand. To move on this path is like swimming against the current in a great river like the Ganges, swimming across an ocean, walking on spear points, suspending a heavy rock from the neck, and walking on the edge of a sword.” ___ सूत्र ९५. णो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दुभिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वदलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा। तुमं च णं जाया ! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिए। णालं सीयं, णालं उण्हं, णालं खुहं, णालं पिवासं, णालं वाइयपित्तियसिंभियसन्निवाइयविविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिन्ने सम्म अहियासित्तए। भुंजाहि ताव जाया ! माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि। __सूत्र ९५. “हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी (साधु के निमित्त पकाया), औद्देशिक (साधु के लिए खरीदा), क्रीतकृत (भिक्षा में देने के लिए संकल्प किया हुआ), क SENSE PRODUR RSamannamaAMAVATRA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (91) Pa Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ANDA किया स्थापित (साधु के लिए रखा), रचित (साधु के लिए तैयार किया), दुर्भिक्ष भक्त (अकाल के लिये बनाया), कान्तार भक्त (अरण्य का भोजन), वर्दलिका भक्त (वर्षा के दिन का भोजन), ग्लान भक्त (बीमार का भोजन) आदि आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता। इसी प्रकार मूल, कंद, फल, बीज, हरित आदि आहार ग्रहण करना भी नहीं कल्पता और फिर, हे पुत्र ! तुम्हारा जीवन तो सुख भोगने के लिए है न कि दुःख भोगने के लिए। तू सर्दी, गर्मी सहन नहीं कर सकता। वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि जनित अनेक प्रकार के रोग सहन नहीं कर सकता। तू अनुकूल-प्रतिकूल बाईस प्रकार के परिषह-उपसर्ग समता सहित सहन नहीं कर सकता। अतः हे पुत्र ! तू मनुष्योचित काम भोगों को भोग और तब भगवान महावीर के पास दीक्षा ले।" 95. “Son! A wide range of eatables is prohibited for an ascetic; it includes- Adhakarmi (food cooked for ascetics), Auddeshik (food cooked for a specific ascetic), Kreetkrit (food purchased for ascetics), Rachit (food prepared or given final shape for an ascetic), Durbhikshabhakt (food prepared for eating during drought), Kantar-bhakt (food prepared for jungle travel), Vardalika-bhakt (food prepared for a rainy day), Glan-bhakt (food prepared for a sick person), and also green vegetables including roots, bulbs, and fruits. “Besides this, you are born to enjoy the pleasures of life and not to suffer the pains. You are not accustomed to tolerate the extremes of cold and heat, neither can you tolerate numerous ailments caused by disturbed body humours like wind, bile, and phlegm. It is beyond the limits of your tolerance to face with equanimity the twenty two types of afflictions. As such, son! you should enjoy the pleasures of life fully and then only get initiated into the order of Shraman Bhagavan Mahavir.” सूत्र ९६. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी-"तहेव णं तं अम्मयाओ ! जं णं तुब्भे ममं एवं वयह-एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे. पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि। एवं खलु अम्मयाओ ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, णो चेव णं धीरस्स। निच्छियववसियस्स एत्थं किं दुक्करं करणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए।" Rahima (92) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SÜTRA | Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ९३) RAO सूत्र ९६. मेघकुमार ने उत्तर दिया-“हे माता-पिता ! आपका यह सब कथन ठीक है पर यह निर्ग्रन्थ-मार्ग दुर्बल शरीर वाले, कायर, कापुरुष आदि तथा इस लोक के विषय-सुख की अभिलाषा में लिप्त तथा परलोक के सुख की इच्छारहित सामान्य व्यक्ति के लिए ही दुष्कर है। धीर पुरुष के लिए नहीं। जिसका संकल्प दृढ़ हो उसके लिए यह दुष्कर नहीं है। अतः मैं आपकी आज्ञा ले दीक्षा लेना चाहता हूँ।" 96. Megh Kumar replied, “Parents! What you have said is correct but know that this path of asceticism is difficult only for a weakling, a coward, spineless and other such timorous persons and also for those who are deeply involved only with earthly desires and pleasures having no awareness for the happiness of the other world or the next life. But it is not at all difficult for the composed ones who have strong determination. As such, seeking your permission I wish to get initiated without any delay." सूत्र ९७. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहूहि विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहाहि य आघवित्तए वा, पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा, ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वयासी-"इच्छामो ताव जायाः ! एगदिवसमवि ते रायसिरिं पासित्तए।" तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। सूत्र ९७. जब मेघकुमार के माता-पिता उसे विषयों के अनुकूल तथा प्रतिकूल तरह-तरह के उपायों से मनाने में सफल नहीं हुए तो अनिच्छा से बोले-“हे पुत्र ! हम तुम्हें कम से कम एक दिन के लिए राज्य लक्ष्मी का भोग करते देखना चाहते हैं।" मेघकुमार माता-पिता की इच्छा का आदर करते हुए मौन रहा। 97. When Megh Kumar's parents failed to dissuade him in spite of every possible effort, they unwillingly said, "Son! We wish to see you enjoy the kingdom and its wealth at least for one day." In honour of this insignificant desire of his parents Megh Kumar remained silent to express his acceptance. राज्याभिषेक सूत्र ९८. तए णं सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (93) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORIALS ( ९४ ) उट्ठवेह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव (महत्थं महग्घं महरिहं विउलं रायाभिसेयं) उवट्ठवेन्ति । " सूत्र ९८. श्रेणिक राजा ने तब सेवकों को बुलवाया और कहा - " - "देवानुप्रियो ! मेघकुमार के लिए महान् समृद्धिवान पुरुषों के योग्य राज्याभिषेक का विशाल आयोजन करो। " सेवकों ने राजाज्ञा का पालन किया। CORONATION 98. King Shrenik now called his staff and said, "Beloved of gods! Make elaborate arrangements for a grand coronation ceremony for Megh Kumar, as is done for highly prosperous individuals." The attendants carried out the order. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ९९. तए णं सेणिए राया बहूहिं गणणायग-दंडणायगेहि य जाव संपरिवुडे मेहं कुमारं अट्ठसए णं सोवन्नियाणं कलसाणं, रुप्पमयाणं कलसाणं, सुवण्ण-रुप्पमयाण कलसाणं, मणिमयाणं कलसाणं, सुवन्न- मणिमयाणं कलसाणं, रुप्प - मणिमयाणं कलसाणं, सुवन्न- रुप्प - मणिमयाणं कलसाणं, भोमेज्जाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वपुष्फेहिं सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहिं सव्वोसहिहि य, सिद्धत्थएहि य, सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभि-निग्घोस - णादियरवेणं महया महया रायाभिसेए णं अभिसिंचाइ, अभिसिंचित्ता करयल जाव परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी सूत्र ९९. राजा श्रेणिक ने बहुत से गणनायक, दण्डनायक आदि समस्त वैभव, चमक-दमक और सेना के साथ दुंदुभि आदि की प्रतिध्वनियों के बीच अनेक कलशों से मेघकुमार का अभिषेक किया। उन कलशों का वर्णन इस प्रकार है- एक सौ आठ सोने के, एक सौ आठ चाँदी के, एक सौ आठ सोने-चाँदी के एक सौ आठ मणिजड़ित, एक सौ आठ सोने और मणि के, एक सौ आठ चाँदी और मणि के एक सौ आठ सोने-चाँदी और मणि के, और एक सौ आठ मिट्टी के इस प्रकार आठ सौ चौंसठ कलशों को मिट्टी, जल, पुष्प, गंध, माला, औषधि, सरसों आदि विभिन्न मांगलिक वस्तुओं से भरकर तैयार किया गया। अभिषेक के बाद राजा श्रेणिक ने यथाविधि हाथ जोड़कर कहा 99. In presence of a large gathering of chieftains, administrators, (etc.) with all grandeur and pomp and show in an atmosphere filled with reverberating sounds of beating drums and other musical (94) For Private JNÄTÄ DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (९५) instruments King Shrenik annointed Megh Kumar with the help of numerous urns. The details of these urns is, One hundred and eight each made up of 1. gold, 2. silver, 3. silver and gold, 4. gem studded, 5. gold and gem studded, 5. silver and gem studded, 7. gold, silver, and gem studded, and 8. clay. These eight hundred and sixty four urns were filled with a variety of auspicious things including sand, water, perfumes, garlands, herbs, and mustard. After the annointing King Shrenik joined his palms and said सूत्र १00. “जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! जय गंदा भदं ते, अजियं जिणेहि, जियं पालयाहि, जियमझे वसाहि, अजियं जिणेहि सत्तुपक्खं, जियं च पालेहि मित्तपखं, जाव इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूणं गामागरनगर जाव खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंव-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्ट-गीत-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि" त्ति कटु जयजयसई पउंजंति। तए णं से मेहे राया जाए महया जाव विहरइ। सूत्र १00. “हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे आनन्दमूर्ति ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अजित तथा शत्रुपक्ष पर विजय पाओ और जीते हुए तथा मित्रपक्ष का पालन करो। जो जिन हैं उनके बीच निवास करो। इन्द्रादि तथा भरत चक्रवर्ती के समान राजगृह तथा अन्य नगर-ग्रामादि, सन्निवेशादि पर आधिपत्यादि करते हुए आनन्द और उत्सव सहित विचरण करो।" यह कहकर राजा ने जय-जयकार किया। इस प्रकार मेघ राजा बन गया और पर्वतों में महाहिमवन्त की तरह शोभित हुआ। 100. “Victory be to you O source of joy! May you be victorious O noble one! May all go well with you o embodiment of happiness! May you conquer the enemies and those who are yet unvanquished and support the friends and the conquered. May you live with the Jinas, who have won over their senses. Like Indra and Bharat Chakravarti, may you rule over and protect Rajagriha and other towns and villages with festivities and joy.” With these words King Shrenik hailed Megh Kumar. Thus Megh Kumar was crowned and became glorious among kings as is the Himalaya among mountains. क RAHA PAHAMAA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (95) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र १0१. तए णं तस्स मेहस्स रण्णो अम्मापियरो एवं वयासी-“भण जाया ! किं दलयामो ? किं पयच्छामो ? किं वा ते हियइच्छिए सामत्थे (मंते)?" । सूत्र १०१. इसके बाद माता-पिता बोले-“हे पुत्र ! हम तुम्हें क्या देवें ? तुम्हें किस प्रिय वस्तु की इच्छा है ? तुम्हारे मन में क्या इष्ट है ? कहो।" ____101. After this, the parents asked, “Son! What should we gift you? Which fond thing you wish to have? What is it that you desire? Tell us." संयमोपकरण की माँग सूत्र १०२. तए णं से मेहे राया अम्मापियरं एवं वयासी-“इच्छामि णं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च उवणेह, कासवयं च सद्दावेह।" सूत्र १०२. राजा मेघ ने कहा-“हे माता-पिता ! कुत्रिकापण (जिस दुकान में तीनों लोकों की सभी वस्तुएँ मिलती हों) से रजोहरण और पात्र (श्रमण के उपकरण) मँगवा दीजिये और साथ ही एक नाई को बुलवा दीजिए।" DEMAND FOR ASCETIC EQUIPMENT _____102. King Megh replied, “Parents! Please send someone to a departmental store and get me the ascetic's sweep and utensils and, also call a barber." सूत्र १०३. तए णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ। सद्दावेत्ता एवं वयासी"गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह, सयसहस्सेणं कासवय सद्दावेह।" __तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिए णं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साई गहाय कुत्तियावणाओ दोहिं सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च उवणेन्ति, सयसहस्सेणं कासवयं सदावेन्ति। ___ सूत्र १०३. राजा श्रेणिक ने अपने सेवकों को बुलवाकर आज्ञा दी-“देवानुप्रियो ! खजाने से तीन लाख मोहरें ले लो। दो लाख मोहरों में कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र खरीदो और एक लाख मोहर देकर नाई को बुला लाओ।" सेवकों ने राजाज्ञा का पालन किया। HOO - / (96) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ९७) - RAMA 103. King Shrenik called his staff and said, “Beloved of gods! Collect three hundred thousand gold coins from the treasury. Purchase the ascetic's sweep and utensils by paying two hundred thousand coins and also bring a barber paying him the remaining one hundred thousand coins." The attendants carried out the order. me PAPATIPRIT दीक्षा की तैयारी सूत्र १०४. तए णं से कासवए तेहिं कोडुबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हटे जाव ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते सुद्धप्पावेसाइं वत्थाई मंगलाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलमंजलिं कटु एवं वयासी-“संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज।" तए णं से सेणिए राया कासवयं एवं वयासी-“गच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिया ! सुरभिणा गंधोदए णं णिक्के हत्थपाए पक्खालेह। सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधेत्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि।" सूत्र १०४. सेवकों द्वारा बुलाया गया नाई इस बुलावे से प्रसन्न हुआ। वह स्नानादि कर्मों से निवृत्त होकर राज सभा में जाने योग्य वस्त्र आभूषण पहनकर राजा श्रेणिक के पास आया। यथाविधि हाथ जोड़कर बोला-"देवानुप्रिय ! आज्ञा दीजिये मुझे क्या करना है।" राजा श्रेणिक बोले-“देवानुप्रिय ! तुम जाओ और सुगंधित जल से हाथ-पैर अच्छी तरह धो आओ। फिर चार तह वाले कपड़े से मुँह बाँधकर मेघकुमार के बालों को दीक्षा योग्य चार अंगुल प्रमाण छोड़कर बाकी काट दो।" PREPARATIONS FOR INITIATION ____104. The barber felt honoured to receive the invitation from the king. After his bath and other daily chores he got ready wearing a dress suitable for the king's assembly and came to king Shrenik. After due greetings he joined his palms and asked, “Beloved of gods! Tell me what is expected of me?" King Shrenik replied, “Beloved of gods! Go and wash your hands and feet with perfumed water. After this, cover your mouth with a four layered piece of cloth and cut Megh Kumar's hair short to approximately four inch length, as needed for the initiation ceremony." - DAHILY -KARIETIER CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (97) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र १०५. तए णं से कासवए सेणिए णं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ जाव हियए जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सुरभिणा गंधोदए णं हत्थपाए पक्खालेइ, पक्खालित्ता सुद्धवत्थेणं मुहं बंधति, बंधित्ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पइ। __ सूत्र १०५. नाई राजा की बात सुन प्रसन्न हुआ और उनके निर्देशानुसार सावधानी से मेघकुमार के बाल काट दिये। ____105. The barber felt honoured to get this order from the king and cut Megh Kumar's hair short as per the instructions of the king. सूत्र १०६. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडए णं अग्गकेसे पडिच्छइ। पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदए णं पक्खालेति, पक्खालित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयति, दलइत्ता सेयाए पोत्तीए बंधेइ, बंधित्ता रयणसमुग्गयंसि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता मंजूसाए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता हार-वारिधार-सिन्दुवारछिन्नमुत्तावलि-पगासाइं अंसूई विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं वयासी-“एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइ त्ति कटु उस्सीसामूले ठवेइ। सूत्र १०६. मेघकुमार की माता ने उन बालों को हंस के चिह्न वाले हंस जैसे सफेद कपड़े में ले लिया। बालों को सुगंधित जल से धोया, सरस गोशीर्ष चन्दन उन पर छिड़का और सफेद कपड़े में बाँध लिया। इस पोटली को उसने रत्नजड़ित डिब्बे में रखा और डिब्बे को पेटी में। फिर वे जलधारा, निर्गुडी के फूल, और मोतियों के टूटे हार की तरह आँसू बहाती रोती कलपती बोलीं-“मेघकुमार का यह दर्शन भविष्य में अभ्युदय, उत्सव, जन्मोत्सव, विशिष्ट तिथियों, इन्द्र महोत्सव, नाग पूजा, कार्तिक पूर्णिमा आदि के अवसर पर हमें इन केशों के माध्यम से याद आएगा।' यह कहकर धारिणी देवी ने वह पेटी अपनी शय्या के सिराहने की ओर रख ली। 106. Megh Kumar's mother collected these hair in a swan marked piece of cloth as white as a swan. She washed the hair with perfumed water, sprinkled good quality sandal essence over them and tied them into a packet with a piece of cloth. She put this packet into a gem studded box which in turn was placed in a chest. Sobbing and shedding tears like a stream of water, Nirgundi flowers, and a broken string of pearls, she uttered, “This bunch of hair aat (98) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ९९) 4MMS - - - will help us recall this image of Megh Kumar on various festive occasions like days of achievements, ceremonies, birth celebrations, specific dates of festivals, Indra festival, snake worship, Kartik Purnima (full moon of the month of Kartik) and others." Queen Dharini then placed the chest near the head of her bed. सूत्र १०७. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेन्ति। मेहं कुमारं दोच्चं पि तच्चं पि सेयपीयएहिं कलसेहिं पहावेन्ति, ण्हावेत्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायाइं लूहेन्ति, लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति, अणुलिंपित्ता नासानीसासवायवोझं जाव हंसलक्खणं पडगसाडगं नियंसेन्ति, नियंसित्ता हारं पिणद्धति, पिणद्धित्ता अद्धहारं पिणद्धति, पिणद्धित्ता एगावलि मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंबं पायपलंबं कडगाई तुडिगाइं केऊराइं अंगयाइं दसमुद्दियाणंतयं कडिसुत्तयं कुंडलाइं चूडामणिं रयणुक्कडं मउडं पिणद्धति, पिणद्धित्ता दिव्वं सुमणदामं पिणद्धति, पिणद्धित्ता दद्दरमलयसुगंधिए गंधे पिणद्धति।। तए णं तं मेहं कुमारं गंठिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेन्ति। __ सूत्र १०७. मेघकुमार के माता-पिता ने तब उत्तर दिशा की ओर सिंहासन रखवाया। मंघकुमार को दो तीन बार सफेद और पीले कलशों से नहलाया। कषाय रंग के अत्यन्त कोमल और रोएँदार तौलिये से उसके शरीर को पोंछा और गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। साँस से उड़े ऐसे अत्यन्त महीन और हंस के समान सफेद वस्त्र पहनाए और फिर ये सब आभूषण पहनाए-हार, अर्द्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, प्रालंब, पाद प्रालम्ब, कड़े, तुटिक, केयूर, अंगद, अंगूठियाँ (दस), कंदोरा, कुंडल, चूड़ामणि और गड़ित मुकुट। आभूषणों के बाद फूलों की मालाएँ पहनाई और तब मिट्टी के बर्तन में नपाकर निकाला हुआ चन्दन का सुगंधित तेल शरीर पर लगाया। ... सबक बाद मेघकुमार को चार तरह की फूल मालाओं से सजाया गया; वे इस प्रकार हैं-पिरोकर बनाई हुई, लपेटकर बनाई हुई, भरकर बनाई हुई और गूंथकर बनाई ___107. Megh Kumar's parents arranged for a throne and got it placed facing the north. Water was poured over Megh Kumar from white and yellow coloured urns two to three times. His body was rubbed dry with gray coloured soft woolly towels and, sandal wood paste was applied - - CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (99 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 04O over it. He was dressed in garments as white as a swan and, so light that they could be blown away by a mere exhalation. He was then adorned with ornaments such as__Haar (necklace), Ardha-haar (half-necklace or a pendant with a chain), Ekavali (single string of beads), Muktavali (pearl string), Kanakavali (string of golden beads), Ratnavali (string of gem beads), Pralamb (a long necklace), Paad-pralamb, (a very long necklace dangling near the feet), Kandora, (a type of girdle), Kundal (earrings), Chudamani (an ornament for forehead), and Mukut (crown). After this, garlands of flowers were put around his neck and fragrant sandal-wood oil, distilled in an earthen pot, was applied on his body. In the end, he was further adorned with flower garlands made by four different processes- strung, wrapped, filled, and inter-woven. सूत्र १०८. तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं ईहामिग-उसभ-तुरय-नर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलयपउमलय-भत्तिचित्तं घंटावलि-महुर-मणहरसरं सुभकंत-दरिसणिज्जं निउणोचियमिसिमिसंतमणि-रयणघंटियाजाल-परिक्खित्तं खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं उवट्ठवेह।" __सूत्र १०८. श्रेणिक राजा ने फिर सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी-“देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक विशाल पालकी तैयार कराओ जिसका विवरण इस प्रकार है-जो अनेक खंभों से बनी हो। जिसमें लीला करती पुतलियाँ सजी हों। जिसमें ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, नट, मगर, पक्षी, साँप, किन्नर, रुरु, सरभ, चमरी गाय, हाथी, वनबेल, कमल बेल आदि के चित्र बने हों। जिसमें लगी घंटियों के गुच्छों की मीठी आवाज गूंज रही हो। जो इन सबसे शोभित हो शुभ, कान्त और दर्शनीय लग रही हो। जो कुशल कारीगरों की बनाई चमकदार मणिरलों की घंटियों के गुच्छों से सजी ऊँची वेदी लगी होने से नयनाभिराम लग रही हो। क्रीड़ारत विद्याधर युगल के चित्र और विविध रत्नों से जड़ी होने के कारण जो सूर्य की किरणों से भी अधिक प्रकाशवान हो। ऐसे सहस्रों सुन्दर चित्रों से सजी, रत्नों से चमकती, तरह-तरह की शिल्प कलाओं से सुरूप बनी यह पालकी आकर्षक हो, सुखद स्पर्श वाली हो और (100) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १०१) aa SAMBER अपूर्व शोभा वाली हो तथा एक हजार आदमियों से उठाई जाने वाली हो। आलस त्यागकर, अन्य कोई भी कार्य में व्यस्त हुए बिना, शीघ्रातिशीघ्र और पूर्ण एकाग्रता से ऐसी पालकी ले आओ।" ____108. Once all this was done, King Shrenik called his staff and said, "Beloved of gods! Arrange for a large palanquin with the following specification -- It should be raised on numerous pillars. It should be decorated with idols of dancing damsels. It should have painted motifs such as—Iha Mrig, bull, horse, gymnast, crocodile, bird, snake, Kinnar, Ruru, Sarabh, yak, elephant, wild creepers, lotus, etc. It should resonate with the twinkling sound of bunches of small bells dangling in it. Decorated thus it should look good, beautiful and attractive. It should be eye catching due to a high pedestal made by expert artisans and fitted with bunches of bells made of gems. Embellished with the paintings of playful Vidyadhar couples and inlaid with a variety of gems it should appear more brilliant than the sun rays. Decorated with thousands of such paintings, made radiant with gems, and exquisite with a variety of crafts this palanquin should be attractive and unique in appearance and pleasant to touch. It should be carried by one thousand persons. Quit indolence, avoid all distractions and rush with full concentration to bring such a palanquin.” महाभिनिष्क्रमण सूत्र १०९. तए णं ते कोडुबियपुरिसा हट्टतुट्ठा जाव उवट्ठवेन्ति। तए णं से मेहे कुमारे सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने। तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहति। दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति। तए णं मेहस्स कुमारस्स अंबधाई रयहरणं च पडिग्गहं च गहाय सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स वामे पासे भद्दासणंसि निसीयति। सूत्र १०९. वे सेवक प्रसन्नतापूर्वक पालकी ले आए। मेघकुमार पालकी पर चढ़ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गये। 44 CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (101) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र COM RANDO agar RADHANA स्नानादि कर वस्त्राभूषण पहनकर मेघकुमार की माता उस पालकी पर चढ़कर मेघकुमार के दाहिनी ओर आसन पर आ बैठीं। मेघकुमार की धाय-माता भी तैयार हो रजोहरण, पात्र आदि लेकर उनके बाईं ओर के आसन पर बैंठीं। THE GREAT RENUNCIATION ____109. The attendants felt honoured to bring this palanquin. Megh Kumar ascended the palanquin and sat on a throne facing the east. Getting ready and attired ceremoniously, Megh Kumar's mother too ascended the palanquin and took a seat to the right of Megh Kumar. The governess of Megh Kumar also got ready and carrying the ascetics broom and pots took her seat on his left. सूत्र ११०. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलास-संलावुल्लाव-निउणजुत्तोवयारकुसला, आमेलग-जमल-जुयल-वट्टिय-अब्भुन्नय-पीण-रइय-संठियपओहरा, हिमरययकुन्देन्दुपगासं सकोरंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय सलीलं ओहारेमाणी ओहारेमाणी चिट्ठइ। __तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयं दुरूहंति, दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स उभओ पासं नाणामणि-कणग-रयणमहरिह-तवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सुहुमवरदीहवालओ संख-कुंद-दगरयअ-महियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलील ओहारेमाणीओ ओहारेमाणीओ चिट्ठति। सूत्र ११0. फिर आकण्ठ सजी हुई, सुन्दर वस्त्र, गति, हास्य, वचन, चेष्टा, विकास वाली; बातचीत में निपुण, और व्यवहार कुशल एक युवती जिसकी देह सुन्दर थी और पयोधर उन्नत थे, अपने हाथ में हिम, चाँदी, कुंद के फूल और चन्द्रमा के समान सफेद आभा वाला कोरंट फूलों की मालाओं से संजा छत्र लिए मेघकुमार के पीछे खड़ी हो गई। फिर आकण्ठ सजी हुई (पूर्व सम) दो युवतियाँ पालकी पर चढ़ीं। वे अपने हाथों में मणि, सोना और रत्नों से जड़ी, चमकदार और अद्भुत इंडी वाले और जगमग करते, श्रेष्ठ पतले और लम्बे, चाँदी तथा मथे हुए अमृत के झाग जैसे सफेद चामर लिए मेघकुमार के दोनों ओर खड़ी हो गईं। 110. After this came a beautiful young maid having perfect figure and firm breasts; attractively dressed and richly embellished with Pamma का (102) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १०३) ornaments; having charming growth, movements, laughter, voice, and gestures; and with graceful speech and behaviour. Carrying an umbrella as brilliantly white as snow, silver, Kund flowers, and fullmoon and decorated with garlands of Korant flowers, she ascended the palanquin and stood behind Megh Kumar. Then came two more maids (described as before) and ascended the palanquin. With a whisk each in their hands they took position on both flanks of Megh Kumar. These whisks were made up of long and thin strands of good quality fiber, white and gleaming like silver and ambrosia-froth, mounted on exquisite long handles made radiant with gold and gem inlay. सूत्र १११. तए णं तस्स मेहकुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा जाव कुसला सीयं जाव दुरूहइ। दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरथिमेणं चंदप्पभवइर-वेरुलिय-विमलदंडं तालविंट गहाय चिट्ठइ। ___ तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी जाव सुरूवा सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मेहस्स कुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयं रययामयं विमलसलिलपुत्रं मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ। ___ सूत्र १११. इसके बाद एक अन्य सुन्दर युवती (वर्णन पूर्व सम) पालकी पर आई और मेघकुमार के पास पूर्व दिशा की ओर मुख किये, हाथ में चन्द्रकान्त मणि, हीरा और लसनिया जड़ी डंडी वाला पंखा हाथ में लिए खड़ी हो गई। इसी प्रकार एक अन्य युवती हाथ में चाँदी की, हाथी के मुख के आकार की, निर्मल जल से भरी झारी लिए मेघकुमार की दक्षिण-पूर्व दिशा में खड़ी हो गई। 111. Now another beautiful maid (as described before) ascended the palanquin and stood facing east near Megh Kumar. She carried a fan with a moon-stone, diamond and cats-eye studded handle in her hand. Another young maid came and stood on the south-eastern side of Megh Kumar with an elephant-head shaped silver pitcher full of pure water. सूत्र ११२. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयाणं सरिसत्तयाणं सरिसव्वयाणं एगाभरणगहियनिज्जोयाणं कोडुंबियवरतरुणाणं सहस्सं सदावेह।" जाव सद्दावेन्ति। SAR CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (103) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र क SAIRAO - तए णं कोडुंबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रन्नो कोडुबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठा ण्हाया जाव एगाभरणगहियनिज्जोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता सेणियं रायं एवं वयासी-“संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं णं अम्हेहिं करणिज्ज।" सूत्र ११२. अब मेघकुमार के माता-पिता ने सेवकों को बुलवाकर आज्ञा दी"देवानुप्रियो ! शीघ्र ही समान कान्ति, वय, वेष-भूषा और आभूषण वाले एक हजार युवा सेवकों को बुलाओ।" सेवकों ने आज्ञा का पालन किया। ये एक हजार युवक राजा का बुलावा सुनकर प्रसन्नचित्त हो स्नानादि कर एक समान वस्त्राभूषण पहन राजा के निकट आये और बोले-“हे देवानुप्रिय ! हमें क्या आज्ञा है ?" 112. When all this was done Megh Kumar's parents called the staff and said, “Beloved of gods! Call one thousand young servants of same appearance, age and attire immediately." The attendants carried out the order. These one thousand young men felt honoured at the king's invitation. They got ready after taking bath and wearing similar dresses and ornaments. They came to the king and said, “Beloved of gods! What do you want us to do?" सूत्र ११३. तए णं से सेणिए तं कोडुबियवरतरुणसहस्सं एवं वयासी-“गच्छह णं देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं परिवहेह। ___तए णं तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सेणिए णं रण्णा एवं वुत्तं संतं हटुं तुटुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं परिवहति। सूत्र ११३. श्रेणिक राजा ने उनसे कहा-“देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और एक हजार पुरुषों से उठने वाली मेघकुमार की पालकी को उठाओ।" प्रसन्नचित्त हो वे सेवक गये और मेघकुमार की पालकी को उठा लिया। ____13. King Shrenik said to them, “Beloved of gods! Go and lift the Purisasahassa palanquin of Megh Kumar." The servants proceeded happily and lifted Megh Kumar's palanquin. सूत्र ११४. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिसहस्सवाहिणिं सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया। तं जहा(१) सोत्थिय (२) सिरिवच्छ (३) नंदियावत्त (४) वद्धमाणग (५) भद्दासण (६) कलस KARO DURAT (104) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १०५ ) Oamr> OO (७) मच्छ (८) दप्पणया जाव बहवे अत्यत्थिया जाव कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किब्बिसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया बद्धमाणा पूसमाणया खंडियंगणा ताहिं इटाहिं जाव अणवरयं अभिणंदंता य एवं वयासी “जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! जय णंदा ! भदं ते, अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्योऽवि य वसाहि तं तेव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागद्दोसमल्ले तवेणं धिइधणियबद्धकच्छे, मदाहि य अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय वितिमिर-मणुत्तरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं च अयलं हंता परीसहचर्मु णं अभीओ परीसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ' त्ति कटु पुणो पुणो मंगल-जयजयसदं पउंजंति। __सूत्र ११४. ये सब तैयारियाँ हो जाने के बाद पालकी के आगे सबसे पहले अनुक्रम से आठ मंगल द्रव्य चलाये गये। वे इस प्रकार हैं-१. स्वस्तिक, २. श्रीवत्स (तीर्थंकरों के वक्ष पर का एक अवयवाकार चिह्न), ३. नंदावर्त (विशेष स्वास्तिकाकार चिह्न), ४. वर्धमान (पात्र विशेष), ५. भद्रासन, ६. कलश, ७. मत्स्य, और ८. दर्पण। बहुत से याचकादि मेघकुमार का इष्टादि वचनों से अभिनन्दन करते हुए कहने लगे___“हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे जगत् को आनन्द देने वाले ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अजेय इन्द्रियों को जीतो और स्वीकार किये हुए श्रमण धर्म का पालन करो। हे देव ! विघ्नों को जीतकर सिद्धि में निवास करो। धैर्यपूर्वक कमर कसकर राग-द्वेषरूपी मल्लों का तप के द्वारा नाश करो। प्रमादरहित हो आठों कर्मरूपी शत्रुओं का विशुद्ध शुक्लध्यान से मर्दन करो। अज्ञान के तिमिर से विहीन सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान को प्राप्त करो। परीषहों की सेना का नाश कर, परीषह और उपसर्गों से निश्चिन्त होकर शाश्वत एवं अचल परम पद को प्राप्त करो। तुम्हारी धर्मसाधना में कोई विघ्न न हो।" और वे बार-बार मंगलमय जय-जयकार करने लगे। ___114. After all these preparations were made, first of all eight propitious things were sent ahead of the palanquin. They are 1. Swastik (a specific graphic design resembling the mathematical sign of addition with a perpendicular line added to each of the four arms), 2. Srivatsa (a specific mark found on the chest of all Tirthankars), 3. Nandavarta (a specific graphic design resembling a Swastik but more elaborate), 4. Vardhaman (a specific design of vessel), 5. Bhadrasan (a specific design of a seat), 6. Kalash (an urn), 7. Matsya (a fish), and 8. Darpan (a mirror). साला CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (105) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OC Cam Mo काम Numerous beggars collected near the palanquin and started uttering greetings addressed to Megh Kumar - ___ "Victory be to you O source of joy! May you be victorious O noble, one! May all go well with you O benefactor of the world! May you conquer the unconquerable senses and follow the path of Shramans that you have accepted. O Bhagavan! May you cross all hurdles and embrace achievements. With patience and resolve, may you annihilate the adversaries in the form of attachment and aversion by means of penance. Rising above inaction, may you subjugate the enemies in the form of eight types of Karmas with the help of pure ultimate meditation. May you attain the ultimate state of pure knowledge or omniscience that is free of the darkness of ignorance. May you destroy the chain of afflictions and, being free of them you may attain the stable and eternal state of liberation. May your spiritual endeavour be free of obstacles." And they repeatedly hailed for the auspicious victory. सूत्र ११५. तए णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ। सूत्र ११५. मेघकुमार राजगृह नगर के बीच से हो गुणशील चैत्य के निकट आये और पालकी से नीचे उतरे। 115. Passing through the town of Rajagriha, when the procession reached the Gunashil temple, Megh Kumar got down from the palanquin. सूत्र ११६. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कटु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति। करित्ता वंदति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी___"एस णं देवाणुप्पिया ! मेहे कुमारे अम्हं एके पुत्ते (इटे कंते जाव पिये मणुण्ण मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए) जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुष्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए ? से जहानामए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा, कुमुदेइ वा, पंके जाए जले - (106) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १०७ ) - संवड्ढिए नोवलिप्पइ पंकरए णं, णोवलिप्पइ जलरए णं, एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्ढे, नोवलिप्पइ कामरए णं, नोवलिप्पइ भोगरए णं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसार-भउव्विग्गे, भीए जम्मणजरमरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सभिक्खं। सूत्र ११६. मेघकुमार के माता-पिता उन्हें आगे करके श्रमण भगवान महावीर के निकट आए। भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा, वन्दनादि करके बोले____ “हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। यह हमें इष्ट-कांत आदि (पूर्व सम) है और हमारे प्राणों जैसा है, हमारे श्वास-निश्वास जैसा है। हमारे मन का आनन्द है। गूलर के फूल के समान इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो देखने की क्या कहें ? जैसे विभिन्न प्रजाति के कमल कीचड़ में पैदा होते हैं और जल में विकसित होते हैं फिर भी कीचड़ के मैल और पानी की बूंद से लिप्त नहीं होते उसी तरह मेघकुमार वासना में उत्पन्न हुआ और भोग में विकसित हुआ है परन्तु काम-रज और भोग-रज से लिप्त नहीं हुआ है। हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार संसार के भय से चिंतित हो गया है और जन्म-जरा-मरण से डर गया है। इसलिए यह मुंडित होकर गृह त्यागकर आपके पास आगार से अणगार बनना चाहता है। हम देवानुप्रिय को शिष्य-भिक्षा देना चाहते हैं अतः हे देवानुप्रिय आप शिष्य भिक्षा स्वीकार कीजिए।" । ___116. Keeping him in the lead, Megh Kumar's parents approached Shraman Bhagavan Mahavir and after due obeisance said ____ “Beloved of gods! This is Megh Kumar, our only and cherished, lovely, adored, charming, and beloved son. He is the inspiration of our life and purpose of our breathing. It is difficult to hear about a son like him, what to talk of seeing one that is as rare as a Gular flower. As a lotus sprouts in swamp and grows in water but still remains free from stain of mud or wetness, Megh kumar was born out of lust and grew amidst earthly pleasures but has still remained free from the mud of lust and wetness of indulgence in pleasures. Beloved of gods! Megh Kumar has become apprehensive of the cycles of rebirth and the sequence of birth-aging-death. As such, renouncing his home and shaving his head he wants to become Anagar (homeless ascetic) from Agar (house-holder) under your auspices. We want to effect a discipledonation and beseech you to accept the same." DOS CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (107) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T (१०८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र | छ सूत्र ११७. तए णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते P समाणे एयमहूँ सम्म पडिसुणेइ। तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागं अवक्कमइ। अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ। ___तए णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडए णं आभरण-मल्लालंकारं पडिच्छइ। पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार-छिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूणि विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी रोयमाणी रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी विलवमाणी विलवमाणी एवं वयासी___ "जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अढे नो पमाएयव्यं। अम्हं पि णं एसेव मग्गे भवउ" त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। सूत्र ११७. भगवान महावीर ने मेघकुमार के माता-पिता की यह बात सम्यक् रूप से स्वीकार की और तब मेघकुमार ने भगवान से उत्तर-पूर्व की दिशा में जाकर स्वयं ही अपने वस्त्राभूषण उतार दिये। मेघकुमार की माता ने कोमल श्वेत वस्त्र में वे वस्त्राभूषण ग्रहण किये और विलाप करती हुई बोलीं-“हे पुत्र ! तुम यत्न करना, प्रयल करना और पराक्रम करना। साधना में प्रमाद मत करना। हमारी कामना है कि भविष्य में हमारे लिए भी यही मार्ग प्रशस्त हो।" यह कहकर मेघकुमार के माता-पिता ने भगवान को यथाविधि वन्दन किया और लौट गये। 117. Shraman Bhagavan Mahavir accepted this request whole heartedly. Megh Kumar then proceeded in the north-east direction and removed all his ornaments and dress. Megh Kumar's mother collected all the cloths and ornaments in a soft piece of cloth and uttered in choked voice, “ Son! put in diligence, effort, and vigour into your practices and do not be lethargic. I wish that future may open the same path for us also." After this, Megh Kumar's parents bowed before Shraman Bhagavan Mahavir with all reverence and left. (108) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १०९) -प्रव्रज्या ग्रहण सूत्र ११८. तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। करित्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी__"आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए, तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ, एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभंडे इढे कंते पिए मणुन्ने मणामे, एस मे णित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खियं।" ___ सूत्र ११८. मेघकुमार ने फिर अपने हाथ से पंचमुष्टि लोच किया और भगवान के निकट आए। दाहिनी ओर से आरम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की और यथाविधि वन्दना करके बोले___ "भगवन् ! यह संसार जरा-मरण की आग से जल रहा है। ऐसे में कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर सबसे कम भार की और बहुमूल्य वस्तु चुनकर वहाँ से दूर चला जाता है। वह सोचता है कि आग में जल जाने से बचायी यह वस्तु भविष्य में मेरे हित, सुख, सामर्थ्य और कल्याण के लिए उपयोगी होगी। ठीक उसी प्रकार मेरे लिये एक मात्र यह आत्मारूपी वस्तु है। यह मेरे लिये इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनोहर है। इस आत्मा को यदि मैं जरा-मरण की आग में भस्म होने से बचा लूँगा तो यह पुनर्जन्म को समाप्त करने वाला सिद्ध होगा। अतः मेरी कामना है कि आप स्वयं मुझे दीक्षा दें, मुंडित करें, प्रतिलेखना आदि सिखावें, सूत्र और अर्थ की शिक्षा दें, ज्ञानादि आचार, गोचर (भिक्षाचरी की विधि), विनय (संयम के भेदोपभेद) और उसका फल, चरण, करण, यात्रा और मात्रा (भोजन विधि का ज्ञान) आदि सहित धर्म का प्ररूपण करें।" INITIATION 118. Megh Kumar pulled out all his hair (formally termed as fivefistful pulling out of hair) and came near Shraman Bhagavan Mahavir. He went around Shraman Bhagavan Mahavir three times in anticlockwise direction, formally bowed and said RAMA CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (109) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) "Bhagavan! This world is being consumed by the fire of old age and death. In a situation when his house is on fire a rich merchant chooses the most valuable and least cumbersome object and rushes away. The thought at the back of his mind is that this valuable thing, saved from the fire, will be of immense use for his future benefits, happiness, power, and welfare. In exactly the same way the only thing I found valuable was my soul. This is my only cherished, lovely, adored, charming, and beloved thing. If I save it from being consumed by the fire of old age and death it will prove to be the instrument of terminating the cycle of rebirth. "As such, it is my earnest desire that you yourself initiate me, order shaving of my head, instruct me about the essential duties, teach me the text and meaning of the canons, and preach me the basic tenets of religion that include the code of conduct, rules of alms collecting, humility and its benefits, Charan (the observance of vows etc.), Karan (rituals of maintaining purity), Yatra (practice of penance and discipline), and Matra (the proportion of things). " सूत्र ११९. तए णं समणं भगवं महावीरे सयमेव पव्वावेइ, सयमेव आयार जाव धम्ममाइक्खइ–“एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिट्ठियव्वं णिसीयव्वं तुयट्टियव्वं भुंजियव्वं भासियव्वं, एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिं चणं अट्ठे णो पमाएयव्वं ।" ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र तणं से मे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्मं पडिवज्जइ । तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमइ । सूत्र ११९. यह सुनकर भगवान महावीर ने मेघकुमार को स्वयं ही दीक्षा प्रदान की । स्वयं ही आचार आदि धर्म का प्ररूपण किया । वह इस प्रकार हैं- "हे देवानुप्रिय ! श्रमण को इस प्रकार ( नियमानुसार) चलना, खड़े होना, बैठना, सोना, आहार करना, बोलना आदि कर्म करने चाहिए और इस प्रकार सावधान और अप्रमत्त हो प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए । इस सम्बन्ध में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। " मेघकुमार ने भगवान से यह धर्मोपदेश सुनकर हृदय में धारण किया और सम्यक् रूप से अंगीकार किया । वह भगवान की आज्ञा के अनुरूप ही आचरण करके संयम की आराधना करने लगे। (110) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only 46 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१११) Aio 119. Accepting his request Shraman Bhagavan Mahavir initiated Megh Kumar into the order. Preaching the basic tenets he said, "Beloved of gods! An ascetic should move, stand, sit, sleep, eat, speak, and do other things according to the prescribed rules (and he stated the rules). He should observe the discipline taking all precautions, being alert, and avoiding lethargy so as to protect all living beings (Pran, Bhoot, Jiva, Sattva, etc.). There should be no negligence in this.” Megh Kumar listened to, absorbed, and accepted the preaching of Shraman Bhagavan Mahavir and commenced his practices of conduct and discipline accordingly. __ सूत्र १२०. जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जासंथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जासंथारए जाए यावि होत्था। तए णं समणा निग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणु- जोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टति, एवं पाएहिं, सीसे पोट्टे कायंसि, अप्पेगइया ओलंडेन्ति, अप्पेगइया पोलंडेन्ति, अप्पेगइया पायरयरेणुगुंडियं करेन्ति। एवं महालियं च णं रयणिं मेहे कुमारे णो संचाएइ खणमवि अच्छि निमीलित्तए। सूत्र १२०. सन्ध्या के समय श्रमणों के शय्या-स्थान का विभाजन उनके दीक्षा पर्याय के काल क्रमानुसार होने के कारण जिस दिन मेघकुमार ने दीक्षा ली उसी दिन से उनका शयन स्थान (सबके पश्चात्) द्वार के निकट निश्चित हुआ। रात के पहले और अंतिम प्रहर में अनेक श्रमण वाचना, पृच्छना, परावर्तन, धर्म-चिन्तन, उच्चार (मल त्याग) या प्रस्रवण (मूत्रादि त्याग) के लिए आते-जाते रहे। सोये हुए मेघकुमार से उनमें से किसी श्रमण का हाथ छू गया, किसी का पैर उनके मस्तक से छू गया, कोई उन्हें लाँघ गया, किसी ने तो उन्हें दो-तीन बार लाँघा और किसी के पैरों की धमक से उड़ी धूल उन पर पड़ी। उस लम्बी रात में मेघकुमार क्षण भर को भी पलक नहीं झपका सके। 120. At bed-time the allotment of places to sleep was done according to the seniority of ascetics on the basis of the period of initiation. As such, Megh kumar was allotted the last place near the gate. TO A CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (111) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र During the first and last quarter of the night many ascetics kept going out for studies, inquiries, repetition of the lessons, contemplation, relieving the call of nature, etc. and coming back. During this perambulation some one touched sleeping Megh Kumar' by his hands and some other with his feet, some touched his head with their feet and others crossed over his body; and the dust disturbed by all this commotion settled on his body. Consequently, Megh Kumar could not sleep a wink throughout the night. मेघ अनगार का ऊहापोह ___ सूत्र १२१. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए पत्थिए मणोगते संकप्पे) समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो पुत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमाणेति, अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इटाहिं कंताहिं वग्गहिं आलवेन्ति, संलवेन्ति, जप्पभिज्ञ च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो संलवन्ति। अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्तिं नो संचाएमि अच्छि निमिलावेत्तए। तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे वसित्तए" ति कटु एवं संपेहेइ। संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्ट-माणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ, खवित्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ। __ सूत्र १२१. मेघकुमार के मन में ऊहापोह होने लगा-“मैं श्रेणिक राज का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघकुमार हूँ और गूलर-पुष्प के समान दुर्लभ। मैं जब गृहवासी था तब श्रमण मुझे एक पुण्यात्मा राजकुमार के रूप में जानते थे और मेरा आदर, सत्कार, सम्मान करते थे। अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों, उत्तरों आदि को स्पष्ट करते थे और इष्ट, कान्त वाणी में मुझसे बातचीत करते थे। पर जब से मैं आगार से अनगार बना हूँ तब से ये सभी श्रमण न तो मेरा आदरादि करते हैं और न ही बातचीत करते हैं। इसके अतिरिक्त जब रात को ये वाचना आदि के लिए यहाँ से आते-जाते हैं तो उनके पीड़ादायक स्पर्श से मेरी पूरी रात्रि बिना पलक झपकाए बीत जाती है। अतः मेरी भलाई इसी में है कि रात्रि O (112) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ११३) MAmA का अवसान होने पर सूर्योदय के समय भगवान महावीर से आज्ञा लेकर पुनः गृहवास में चला जाऊँ।' इन विचारों से उत्पन्न आर्तध्यान से पीड़ित, विकल्पों से व्याकुल मन लिए मेघकुमार ने शेष रात्रि जैसे-तैसें बिताई। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रदीप्त सूर्य के उदय होने पर वे भगवान महावीर के पास गये, यथाविधि वन्दन-नमस्कार करके हाथ जोड़ भगवान की पर्युपासना करने लगे। ASCETIC MEGH'S DILEMMA 121. This disturbance put Ascetic Megh in a dilemma - "I am the son of King Shrenik and queen Dharini and said to be as rare as a Gular flower. When I was a house-holder the ascetics recognized me as a pious prince and used to bestow honour, respect, and greetings on me. They used to talk to me in loving and pleasing tone, answered to my questions, and explained meanings, causes, and reasons. But since I became an ascetic they have stopped respecting me and talking to me. When they go out for some work and return, my sleep is disturbed due to the painful touch they inflict. It becomes impossible to sleep even for a moment. It would be good for me if I seek permission from Shraman Bhagavan Mahavir, first thing in the morning, and return back to my mundane life.” Suffering the misery and dilemma caused by these thoughts Ascetic Megh somehow spent the rest of the night. As soon as the sun dawned the next morning, he went to Shraman Bhagavan Mahavir and after formal obeisance sat down with joined palms before him in worship. सूत्र १२२. तए णं 'मेहा' इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी-“से गूण तुमं मेहा ! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं राइं णो संचाएमि मुहत्तमवि अच्छि निमीलावेत्तए" तए णं तुब्भं मेहा ! इमे एयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-"जया णं अहं अगारमज्झे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति जाव परियाणंति, जप्पभिई च णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वायामि, तप्पभिदं च णं मम समणा णो आढायंति, जाव नो परियाणंति। अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगइया वायणाए जाव पाय-रय-रेणुगुंडियं करेन्ति। तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे आवसित्तए" त्ति कटु एवं संपेहेसि। संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे जाव are CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (113) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र amare OmEO णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेसि। खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए। से नूणं मेहा ! एस अढे समढे ?" "हंता अढे समठे।" __ सूत्र १२२. श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार से कहा-“हे मेघ ! तुम श्रमणों के आवागमन (उपरोक्त वर्णनानुसार) के कारण पूरी रात थोड़ी देर के लिए भी पलक नहीं झपका सके। मेघ ! तब तुम्हारे मन में ऊहापोह हुआ (उपरोक्त वर्णनानुसार) और तुमने आर्तध्यान (उपरोक्त वर्णनानुसार) में शेष रात बिताई। भोर होते ही तुम मेरे पास आए हो। हे मेघ ! क्या मेरा कथन सत्य है ?" मेघकुमार ने उत्तर दिया-"हाँ प्रभु ! आप यथार्थ कह रहे हैं।" ___ 122. Shraman Bhagavan Mahavir said to Ascetic Megh, “Megh! You have not been able to sleep throughout the night due to the continuous perambulation of the ascetics. You were put into a quandary and spent the rest of the night in misery. Immediately after the dawn you have come to me. Megh! am I telling the truth?" “Yes sire! the absolute truth." affirmed Ascetic Megh. प्रतिबोध : पूर्वभव कथन ___ सूत्र १२३. एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्ढगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियणामधेज्जे सेए संखदलउज्जल-विमल-निम्मल-दहिघण-गोखीरफेणरयणियर (दगरय-रययणियर) प्पयासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपट्ठिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्ठागिइ-विसिट्ठपुढे अल्लीणपमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन-सुचारु-कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-णिरुवहय-विंसतिनहे छइंते सुमेरुप्पभे नामं हत्थिराया होत्था। ___ सूत्र १२३. भगवान ने कहा-“मेघ ! इस से पूर्व तीसरे भव में तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी में एक गजराज थे। वनचरों ने तुम्हारा नाम सुमेरुप्रभ रखा था। उस गजराज का रंग शंख के चूरे, दही, गाय के दूध के फेन और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, निर्मल और विमल था। वह सात हाथ ऊँचा, नौ हाथ लम्बा और मध्य में दस हाथ की परिधि वाला था। उसके सातों अंग सुडौल और सुपुष्ट थे। वह सौम्य और आदर्श अनुपात के अंगों और रूप वाला था। उसका अग्र भाग ऊँचे मस्तक और शुभ स्कन्ध वाला था और पिछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था। उसका उदर बकरी के उदर के जैसा, बिना गढे का (114) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARSHOTAM Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED भगवान महावीर का उद्बोधन : सुमेरुप्रभ हाथी का भव चित्र: ५ भगवान महावीर मेघ मुनि को उद्बोधन देते हुए पूर्वजन्म की घटना सुनाते हैं - वैताद्यगिरि की तलहटी में छह दाँत वाला विशालकाय श्वेत हाथी अपने सैकड़ों हाथी - हथिनियों के साथ रहता था। एक बार वन में भीषण आग लगी। पशु-पक्षी आदि सभी वनचर इधर-उधर सुरक्षित स्थान की खोज में भागने लगे। वह सफेद सुमेरुप्रभ हाथी भी सुरक्षित स्थान की खोज में भटकने लगा। ( अध्ययन १ ) BHAGAVAN MAHAVIR'S DISCOURSE : ELEPHANT SUMERUPRABH ILLUSTRATION : 5 During his discourse before Megh Kumar, Bhagavan Mahavir narrates the story of his earlier births - At the foot of Vaitadhyagiri a giant white sixtusk elephant lives with its herd. A forest-fire erupts. All the creatures in the jungle run helter-skelter in search of a safe place. Sumeruprabh is also searching around for a safe heaven. (CHAPTER-1) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Gras B Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात और पुष्ट था। उसका उदर, होंठ और सूँड लम्बे थे। उसकी पीठ धनुषाकार और प्रशस्त थी। उसके अन्य सभी अवयव परस्पर भलीभाँति जुड़े हुए, गोल, पुष्ट और आदर्श अनुपात के थे । पूँछ चिपकी हुई और सानुपात थी । पैर कछुए के जैसे पुष्ट और सुन्दर थे। बीसों नाखून सफेद, निर्मल, स्निग्ध और दोषरहित थे। उसके छह दाँत थे। ENLIGHTENMENT: REMINDING OF THE EARLIER LIVES 123. Bhagavan said, “Megh! In your third birth before the present one, you were a King elephant in the valley of the Vaitadhya mountain. The foresters had named you Sumeruprabh. ( ११५ ) "The complexion of that great elephant was white like conch-shell powder, curds, and the froth of cow-milk and bright, pure and soothing like the moon. It was seven hands (slightly more then a foot) in height, nine hands in length, and had a girth of ten hands in the middle. All the seven portions of its body were perfectly developed and strong. It had a serene appearance and a perfectly proportioned and beautiful body. Seen from the front, it had a high head and graceful flanks. Seen from the back, its posterior was slanted like that of a wild boar. Its abdomen was not hollow but sleek like that of a goat. It had long torsoe, jaws, and trunk. Its hump was bow shaped and prominent. All its limbs and other parts of the body were close jointed, rounded, healthy, and ideally proportioned. Its tail was close to its body. Its feet were healthy and beautiful like a turtle. All its twenty toes were white, pure, smooth, and faultless. It had six tusks. सूत्र १२४. तत्थ णं तुमं मेहा ! बहूहिं हत्थीहि य हत्थणीहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे हत्थिसहस्सणायए देसए पागट्ठी पट्टवए जूहवई वंदपरिवड्ढए अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेवच्चं जाव पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर - सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरसि । सूत्र १२४. “हे मेघ ! उस भव में गजराज के रूप में तुम अनेक हाथियों, हथनियों, तरुण और बाल्य अवस्था वाले हाथी - हथनियों से घिरे रहते थे। तुम एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, नियोजक, यूथपति और यूथवर्धक थे। अपने दल के अतिरिक्त भी तुम अन्य अनेक एकल विहारी हाथियों के बच्चों का आधिपत्य एवं उनका पालन-पोषण आदि करते हुए विचरण करते थे । CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 115 ) দ JUHING Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SRO Came 04MADA 124. "Megh! In that birth as the king elephant you were always surrounded by a herd of large and small elephants of all ages and sex. You were the leader, guide, commander, organizer, chief, and progenitor of a herd of one thousand elephants. You roamed around leading your own herd as well as many other strays and babies. __ सूत्र १२५. तए णं तुम मेहा ! णिच्चप्पमत्ते सइं पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोगतिसिए बहहिं हत्थीहि य जाव संपरिवुडे वेयड्डगिरिपायमूले गिरीसु य, दरीसु य, कुहरेसु य, कंदरासु य, उज्झरेसु य, निज्झरेसु य, वियरएसु य, गड्ढासु य, पल्ललेसु य, चिल्ललेसु य, कडएसु य, कडयपल्ललेसु य, तडीसु य, वियडीसु य, टंकसु य, कूडेसु य, सिहरेसु य, पब्भारेसु य, मंचेसु य, मालेसु य, काणणेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, वणराईसु य, नदीसु य, नदीकच्छेसु य, जूहेसु य, संगमेसु य, बावीसु य, पोक्खरिणीसु य, दीहियासु य, गुंजालियासु य, सरेसु य, सरपंतियासु य, सरसरपंतियासु य, वणयरेहिं दिनवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिवुडे बहुविहतरुपल्लव-पउरपाणियतणे निब्भए निरुव्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि। __सूत्र १२५.. “हे मेघ ! उस भव में गजराज के रूप में तुम मस्त, क्रीड़ारत, कंदर्परति-क्रीड़ाप्रिय, मैथुन-प्रिय, अतृप्त वासना और कामभोग की तृष्णायुक्त थे। तुम अनेक हाथियों आदि से घिरे वैताढ्य पर्वत की तराई में, पहाड़ियों, गुफाओं, दरों, कन्दराओं, प्रपातों, झरनों, नहरों, गड्ढों, तलैयों, दलदलों, खोहों, झीलों, तटों, अटवी, टीलों, कूटों, चोटियों, ढलानों, पुलों, काननों, वनों, वनखंड़ों, बीहड़ों, नदियों, किनारे के जंगलों, यूथों, संगमों, वापियों, पुष्करणियों, दीर्घिकाओं, गुंजलिकाओं, सरोवरों, सरोवरों की पंक्तियों, संयुक्त सरोवरों आदि अनेक प्रकार के स्थानों में वनचरों की रोक-टोक के बिना विचरण करते थे। इस प्रकार तुम निर्भय, निरुद्वेग हो सुख से घूमते रहते थे। ___125. “Megh! In that life as the king elephant you were wild, playful, lustful, passionate, and lascivious due to insatiable acute libido. Surrounded by your herd you moved around unchecked by foresters in the valley of Vaitadhya mountain in and around a variety of spots and places like-hills, caves, ravines, caverns, waterfalls, streams, channels, ditches, ponds, swamps, crags, lakes, banks, forests, knolls, horns, peaks, slopes, bridges, gardens, jungles, woods, dense forests, rivers, mangroves on river banks, thickets, junctions, tanks, rivulets, large rivers, rapids, pools, rows of pools, joint pools, etc. Thus you roamed fearless, free and happy. AAMA (116) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ११७) RAO त दावानल सूत्र १२६. तए ण तुमं मेहा ! अन्नया कयाई पाउस-वरिसारत्त-सरय-हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उउसु समइक्कंतेसु, गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासे, पायवघंससमुट्ठिए णं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मारुत-संजोगदीविए णं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलित्तेसु वणंतेसु, धूमाउलासु दिसासु, महावायवेगेणं संघट्टिएसु, छिन्नजालेसु आवयमाणेसु, पोल्लरुक्खेसु अंतो अंतो झियायमाणेसु, मयकुहियविणिविट्ठकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वणंतेसु भिंगारक-दीण-कंदिय-रवेसु, खरफरुस-अणिठ्ठ-रिवाहित-विदुमग्गेसु दुमेसु, तण्हावस-मुक्क-पक्ख-पयडियजिब्भतालुयअसंपुडिततुंड-पक्खिसंघेसु ससंतेसु, गिम्ह-उम्ह-उण्हवाय-खरफरुसचंडमारुयसुक्कतण-पत्तकयरवाउलि-भमंतदित्त-संभंतसावयाउल-मिग-तण्हाबद्धचिण्हपट्टेसु गिरिवरेसु, संवट्टिएसु तत्थ-मिय-पसव-सिरीसवेसु, अवदा-लिय-ययणविवरणिल्लालियग्गजीहे, महंततुंबइयपुनकन्ने, संकुचियथोर-पीवरकरे, ऊसियलंगूले, पीणाइय-विरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरए णं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयारं, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाइं छिंदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि णोल्लायंत विणहरढे व्व णरवरिन्दे, वायाइद्धे ब्व पोए, मंडलवाए व्व परिब्भमंते, अभिक्खणं अभिक्खणं लिंडणियरं पमुंचमाणे पमुंचमाणे, बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्था। सूत्र १२६. “एक बार पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त और वसन्त ऋतुओं के बीत जाने पर जब ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ तब ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस में रगड़ से आग लग गई और हवा के वेग से सूखे घास, पत्ते और कूड़े-करकट को पकड़ वह भीषण दावानल बन गई। उस भयावह अग्नि की प्रदीप्त ज्वालाओं से सारे वन का मध्य भाग सुलग उठा। चारों ओर धुआँ फैल गया। वायु के प्रचण्ड वेग से ज्वालाएँ चारों ओर फैलने लगीं। पोले वृक्ष भीतर ही भीतर सुलगने लगे। जंगल के नदी-नालों का पानी पशुओं के शवों से सड़ने लगा। किनारों का पानी सूखने लगा। शृंगारक पक्षी दीनतापूर्वक क्रन्दन करने लगे। बड़े पेड़ों की ऊँची डालों पर बैठे कौए कठोर और अनिष्ट स्वर में काँव-काँव करने लगे। पेड़ों की टहनियों की नोंके अंगारों के कारण मूंगे की तरह लाल दिखाई देने लगीं। पक्षियों के झुण्ड प्यास से पंख ढीले कर जीभ को मुँह से बाहर निकालकर चोंच खोलकर साँस लेने लगे। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी, सूर्य का ताप, प्रचंड तीव्र पवन और सूखी घास, पत्ते और कचरे से भरे अन्धड़ के कारण इधर-उधर दौड़ते भयावह सिंह आदि विशालकाय पशुओं से पर्वत प्रदेश अस्त-व्यस्त हो गया। मृग-तृष्णा जैसा दृश्य लिए पर्वतों में भयभीत सरीसृप जाति के जीव भी इधर-उधर छटपटाने लगे। Camya RAM CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (117) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र m eaniwHAware Pानकावलकारका HAMARTHDatindian "इस भयावह अवसर पर, हे मेघ ! अपने पूर्व भव में, गजराज रूप में तुम्हारा मुँह भी फटा-सा रह गया और जीभ बाहर निकल पड़ी। दोनों विशाल कान भय से स्तब्ध हो इधर-उधर से कुछ सुनने को व्याकुल हो उठे। विशाल पुष्ट सूंड सिकुड़ गई। तब उस विशाल गजराज ने पूँछ ऊँची कर ली। दर्पचूर्ण होने से व्यथित हो वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति से चिंघाड़ने लगा मानो आकाश को फोड़ देगा और फिर चारों और बेलों के झुण्ड को छेदता, अनेक पेड़ों को उखाड़ता, राज्य भ्रष्ट राजा के समान, वायु वेग से डोलते जहाज के समान, और प्रचण्ड बवंडर के समान चक्कर काटता, बार-बार मल त्याग करता अनेक हाथियों आदि के साथ इधर से उधर भागने लगा। FOREST FIRE 126. “Once when monsoon and winter and spring seasons were over and the summer began, in the month of Jyeshtha a fire started due to friction in the dry logs. Flamed by the force of wind this small fire spread in the dry twigs, leaves, and other forest waste and turned into a forest-fire. Caught in the fearsome leaping flames almost all the central part of the forest was aflame. The smoke spread all around. Pieces of flaming tree branches splintered by the tremendous force of the wind started falling all around. Hollow trees burned from within. The water in the rivers and streams putrefied with the decaying carcasses of animals. Moisture evaporated from the banks leaving them dry. "The Bhringarak birds started crying in sad tone. Perched on the high branches cravens started crowing ominously. The tips of the burnt branches turned coral red. Flocks of birds, with their wings made limp due to acute thirst, laboriously breathed with their beaks open and tongues hanging. The heat of the summer, scorching rays of the sun, winds with tremendous force, and fearfully running large beasts, like lion, disturbed even the slopes of the nearby mountain. Even in the hills beyond, that appeared mirage like, the reptiles became restless with fear. ____ “In this fearsome predicament, Megh! you, as the king elephant, were also adversely effected. Your mouth was open with the tongue hanging out. Both the large ears were flapping, trying eagerly to hear some reassuring sound in this fearful conflagration. The giant and strong trunk had shriveled. oms - .EDI (118) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OMPU प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( ११९) ORO PAHARAN SAHARANA SAHEN लिवान "Suddenly the giant creature lifted its tail. Hurt by the shattered ego, it started trumpeting with all its power as if it would tear the sky apart. Like a deported king or a ship caught on a stormy sea or a giant whirlwind, it started running around with its herd piercing the screens of dense vines, uprooting trees, and defecating again and again. सूत्र १२७. तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजज्जरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए | दुब्बले किलंते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण य, तण्हाए य, छुहाए य परब्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो। __ सूत्र १२७. “हे मेघ ! (गजराज के रूप में) तुम जीर्ण-जर्जरित देह लिए, व्याकुल, भूखे, प्यासे, क्षीण, क्लान्त, बहरे और दिशा भ्रमित हो अपने यूथ से बिछुड़ गये। दावानल की ज्वालाओं से हार, गर्मी, प्यास, भूख की पीड़ा से भयभीत और त्रस्त हो गये। तुम्हारे भीतर का आनन्द का झरना सूख गया। भय से पराभूत हो इधर से उधर दौड़ने लगे। इस दौड़ भाग में तुम्हें एक बड़ा तालाब दिखाई पड़ा जिसमें जल कम और कीचड़ अधिक था। पानी पीने के लिए तुम बिना किसी घाट के ही उस सरोवर में उतर गये। ____127. “Megh! (In the birth as the king elephant) With your decrepit and withered body and frantic, hungry, thirsty, weak, tired, and deaf condition you were separated from your herd and lost. Overpowered by the flames of forest fire you became fearful and awe-struck with the agony of heat, hunger and thirst. The stream of joy within you dried up. Consumed by fear you started running around and saw a large pond which had more slime than water. In search of water you entered it without looking for a proper landing. सूत्र १२८. तत्थ णं तुमं मेहा ! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने। तत्थ णं तुम मेहा ! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं न पावेइ। तए णं तुम मेहा ! पुणरवि कायं पच्चुद्धरिस्सामि त्ति कटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते। __सूत्र १२८. “मेघ ! तुम उस सरोवर में किनारे से दूर तो चले गये किन्तु पानी | तक पहुँचने से पहले ही दलदल में फँस गये। फिर तुमने किसी तरह पानी पी लूँ इस ORmro WIDO CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (119) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र రాజ్యం GANIA Com का विचार से अपनी सूंड को पूरी तरह फैलाया पर वह पानी के निकट नहीं पहुँच सकी। हताश हो तुमने कीचड़ से बाहर निकलने की इच्छा से जोर लगाया तो दलदल में और धंस गये। 128. “Megh! You proceeded away from the bank but before reaching near the water you were caught in the swamp. In order to drink a little water somehow, you stretched your trunk but failed to reach it. Loosing hope you pushed hard to come out of the swamp achieving the opposite and going deeper. सूत्र १२९. तए णं तुमं मेहा ! अन्नया कयाइ एगे चिरनिज्जूढे गयवरजुवाणए सयाओ जूहाओ कर-चरण-दंतमुसल-प्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाएउं समोयरेइ। तए णं से कलभए तुम पासति, पासित्ता तं पुव्ववेरं समरइ। समरित्ता आसुरुत्ते रुट्टे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठओ उच्छुभइ। उच्छुभित्ता पुचवेरं निज्जाएइ। निज्जाइत्ता हट्टतुट्टे पाणियं पियइ। पिइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। सूत्र १२९ “मेघ ! उसी समय उसी सरोवर में एक अन्य बलिष्ट युवा हाथी पानी पीने उतरा। किसी समय तुमने इस युवा हाथी को अपनी सूंड़, पैर और दाँतों से मारकर अपने यूथ से बाहर निकाल दिया था। उसने जब तुम्हें दलदल में फँसे देखा तो उसे पुरानी घटना याद हो आई और वैर की भावना जगकर क्रोध में ढल गई। क्रोध ने जब प्रचण्ड रौद्र रूप धारण कर लिया तो क्रोधाग्नि से जलकर वह तुम्हारे निकट आया और अपने तीखे दाँतों से तीन बार तुम्हारी पीठ को छेद दिया। अपनी वैर-भावना को शांत कर प्रसन्न हो उसने पानी पीया और जिस दिशा से आया था उधर ही लौट गया। ____129. “Megh! Just at that moment another strong and young elephant stepped in to drink water. Sometime in the past you had hit it with your trunk, legs and tusks and pushed it out of the herd. When it saw you caught in the swamp it remembered the incident from the past and the feeling of vengeance surfaced to make it angry. When the anger grew intense, burning with the desire to take revenge, it approached you and pierced your back with its sharp tusks three times. After quenching its inner thirst for vengeance it happily quenched its physical thirst and went away. One Gre TERRORE (120) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात सूत्र १३०. तए णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउ भवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव ( पगाढा चंडा दुक्खा ) दुरहियासा, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंती यावि विहरित्था । तए णं तुमं मेहा ! तं उज्जलं जाव ( विउलं कक्खडं पगाढं चंडं दुक्खं) दुरहियासं सत्तराइदियं वेयणं वेएसि; सवीसं वाससयं परमाउं पालइत्ता अट्टवसट्टदुहट्टे कालमास कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे दाहिणडभरहे गंगाए महानदीए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवर - गंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए तणं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासम्मि तुमं पयाया । ( १२१ ) सूत्र १३०. "मेघ ! फिर तुम्हारे शरीर में वेदना होने लगी । वह तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर और मन में फैल गई थी और तुम्हें तनिक भी चैन नहीं था। उस कठिन दुस्सह पीड़ा तुम्हारे शरीर में पित्त - ज्वर और दाह उत्पन्न हो गया। तुम उस संतप्त करने वाली तीव्र वेदना को सात दिन तक भोगकर, एक सौ बीस वर्ष की आयु में, आर्त्तध्यानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात् तुम्हारा अवतरण दक्षिणार्ध भरत में महानदी गंगा के दक्षिणी किनारे पर विन्ध्याचल के निकट एक मदोन्मत्त उत्तम गंधहस्ती से एक श्रेष्ठ हथिनी की कोख में हुआ। उस हथिनी ने नौ मास पूरे होने पर वसन्त ऋतु में तुम्हें जन्म दिया । 130. “Megh! You suffered from intense pain. It spread throughout your body and mind and you had not even a moments respite. That intolerable agony caused fever and burning sensation in your body. You suffered that excruciating pain for seven days and died suffering at a mature age of one hundred and twenty years. From here you descended into the womb of a she-elephant made pregnant by a wild bull elephant of best breed living near the Vindhyachal mountain on the southern banks of the Ganges in the southern half of Bharat. After nine months, during the spring season, you were born. यूथपतिरुप्रभ सूत्र १३१. तए णं तुमं मेहा ! गब्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तु-प्पलरत्तसूमालए जासुमणा-रत्तपारिजत्तय-लक्खारस-सरसकुंकुम-संझब्भरागवन्ने इट्ठे णिस्स जूहवइणो गणियायारकणेरु-कोत्थ- हत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिवुडे रम्मेसु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि । सूत्र १३१. “तुम एक नन्हें और सुकुमार हाथी के रूप में विकसित होने लगे। तुम्हारा रंग लाल कमल, जवा कुसुमादि समान लाल था और तुम अपने यूथपति के स्नेह भाजन CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA ( 121 ) Opi Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAIT ( १२२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र HOMEngagyasamroNNMALoUKRINAKAmazameeMIRNAYA - थे। गणिकाओं जैसी युवती हथनियों के उदर-प्रदेश में अपनी सूंड डालते हुए तुम काम-क्रीड़ा में तत्पर रहने लगे। सैंकड़ों हाथियों के झुण्ड सहित तुम पर्वत के रमणीय काननों में सुखपूर्वक विहार करने लगे। KING ELEPHANT MERUPRABH 131. “As a tiny and delicate elephant you started growing. Your colour was red like lotus and Javakusum flowers (etc.) and you were the darling of the leader of the herd. Touching the under bellies of youthful females with your trunk you began the apprenticeship of the love game. With a herd of hundreds of elephants you roamed around with joy in the enchanting woods in the mountain valley. सूत्र १३२. तए णं तुमं मेहा ! उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते जूहवइणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि। तए णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था। तत्थ णं तुम मेहा ! सत्तंगपइहिए तहेव जाव पडिलवे। तत्थ णं तुमं मेहा सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवच्चं जाव अभिरमेत्था। सूत्र १३२. "मेघ ! इसी प्रकार विकसित हो तुम बाल्यावस्था से यौवनावस्था में पहुँच गये। फिर यूथपति की मृत्यु हो जाने पर तुम स्वयं यूथपति बन गये। ___ “मेघ ! वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा। तुम चार दाँतों वाले हस्तिरत्न हुए। तुम्हारे सातों अंग परिपुष्ट आदि (पूर्व वर्णित) और सुरूप थे। तुम वहाँ सात सौ हाथियों के यूथपति बनकर अभिरमण करने लगे। ___ 132. "Megh! You slowly developed and crossing the infancy you grew into a young bull elephant. When the leader of the herd died you succeeded it. ___ "Megh! the foresters named you as Meruprabh. You had four tusks. All the seven parts of your body were fully developed, strong, and beautiful (details as before). You started roaming around in that jungle with a herd of seven hundred elephants. हस्ती-भव में जातिस्मरण सूत्र १३३. तए णं तुमं अनया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले वणदवजालापलित्तेसु वणंतेसु सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाए व्व परिब्भमंते भीए तत्थे MPRAKARMA - HAR HAMRO UILIZARurateaHESARKaraurumen RE P ARALLUMAUNCAREERamSapnaCHRUMESPurwisesamarpasanRIMMMMINISCIEMATTARAINIOS KAMAaranas 11 (122) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIR proste ORICE Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORMATO SS चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED मेरुप्रभ द्वारा सुरक्षित मण्डल-निर्माण चित्र : ६ सुमेरप्रभ हाथी मरकर विंध्यगिरि के वनों में पुनः हाथी बना। यहाँ उसका रंग लाल था तथा वह चार दाँत वाला यूथपति हुआ। एक बार वन में लगी आग देखकर उसे पूर्व जन्म की स्मृति हो गई। तो बार-बार इस विनाश लीला से बचने के लिए उसने एक योजन का मण्डल बनाने का निश्चय किया। सभी हाथियों ने मिलकर छोटे-बड़े वृक्ष उखाड़े, घास-फूस साफ करके एक योजन मण्डल में अग्नि से सर्वथा सुरक्षित आश्रय स्थान बना लिया। चित्र में हाथी मिलकर मण्डल बना रहे हैं। (अध्ययन १) MERUPRABH PREPARES A SAFE ARENA ILLUSTRATION: 6 Sumeruprabh dies and is reborn as Meruprabh elephant in jungles of Vindhyagiri. It is red coloured and with four tusks. Seeing a forest-fire it remembers its past life. It decides to create a safe arena of one Yojan. With the help of its herd it pulls out all the vegetation in the marked area and throws it out. (CHAPTER-1) Orgs JNATA DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात संजय बहू हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्वओ समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था । तए णं तव मेहा ! तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - "कहिं णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुव्वे ।" तए णं तव मेहा ! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं, अज्झवसाणेणं सोहणेणं, सुभेणं परिणामेणं, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं, ईहापोह - मग्गण - गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाइसरणे समुप्पज्जित्था । ( १२३ ) सूत्र १३३. " एक बार ग्रीष्म ऋतु के ज्येष्ठ मास में दावानल की ज्वालाओं में समस्त वनप्रान्त धधक उठा (पूर्व सम) और तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर दौड़ने लगे । भयभीत और व्याकुल हो बहुत से हाथी - हथनियों के साथ चारों ओर भागने लगे । "उस समय हे मेघ ! दावानल को देख तुम्हारे मन में विचार उठा, 'लगता है ऐसी आग मैंने पहले भी कभी अनुभव की है।' विशुद्ध होती लेश्याओं, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम के प्रभाव से और मति - ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम होने से तुम्हें ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा (तर्क-वितर्क युक्त विशेष एकाग्र चिन्तन) करते-करते जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। MEMORY OF THE EARLIER BIRTH 133. “Once during the month of Jyeshtha in the summer season a terrible forest fire started and you and your herd ran wild in panic (details as mentioned earlier ). "Looking at this forest fire you thought, 'It seems that I have experienced such holocaust before also.' While you were going through the process of thinking, ascertaining, analyzing, and exploring (Iha, Apoh, Margana, and Gayeshana), as a result of gradually purifying inner energies (Leshya), righteous endeavour and attitude, and destruction and suppression (Kshayopasham) of the instinctiveknowledge-veiling Karmas (Mati-Jnanavarniya Karma), you acquired the knowledge about earlier births (Jatismaran Jnana). सूत्र १३४. तए णं तुमं मेहा ! एयमहं सम्मं अभिसमेसि - " एवं खलु मया अईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयगिरिपायमूले जाव तत्थ णं मया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए ।" तए णं तुमं मेहा ! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकाल-समयंसि नियए णं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था । तए गं तुमं मेहा ! सत्तुस्सेहे जाव सन्निजाइस्सरणे चउद्दंते मेरुष्पभे नाम हत्थी होत्था । CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 123 ) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) तए णं तुज्झं मेहा ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - "तं सेयं खलु मम इयाणिं गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंजायकारणट्ठा सए णं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए " त्ति कट्टु एवं संपेहेसि | संपेहित्ता सुहं सुहेणं विहरसि । सूत्र १३४. " तुमने यह भलीभाँति जान लिया- 'मैं पूर्व भव में इसी भू-भाग के वैताढ्य पर्वत की तराई में विचरता था । जहाँ मैंने ऐसे ही दावानल का अनुभव किया था और उसी दिन शत्रु हाथी की मार से देह त्याग मेरुप्रभ के रूप में जन्म लिया था।' " और तब तुम्हारे मन में एक चिन्तन और संकल्प उठा- 'मेरे लिए श्रेय होगा कि गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर विन्ध्याचल की तराई में दावानल से बचने के लिए अपने यूथ के साथ एक विशाल मंडल बनाऊँ।' इस विचार के साथ तुम पुनः सुखपूर्वक विचरने लगे । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 134. “You became aware that during the earlier birth you wandered in the valley of the Vaitadhya mountain in the same geographical area. Also that you had experienced a similar predicament of forest fire and had died of the wounds inflicted by a vengeful elephant, before being born as Meruprabh. You then contemplated and decided-'It would be to my benefit if, with the help of my herd, I make a large arena on the southern bank of the Ganges in the valley of Vindhyachal as protection against the forest fire.' Arriving at this decision you resumed your wandering. मंडल निर्माण सूत्र १३५. तए णं तुमं मेहा ! अन्नया पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहिं य सत्तहिं य हत्थिसएहिं संपरिवुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि । जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्टं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा, तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएण उट्ठवेसि, हत्थेणं गेण्हसि, एगंते पाडेसि। तए णं तुमं मेहा ! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानईए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरि - पायमूले गिरिसु य जाव विहरसि । सूत्र १३५. “ हे मेघ ! तब तुमने प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा हो जाने पर गंगा नदी के निकट अनेक हाथियों को साथ लेकर एक योजन प्रमाण का एक विशाल घेरा बनाया। उस घेरे में जो भी घास, पत्ते, काठ, काँटे, लता, ठूंठ, वृक्ष या पौधे थे उन्हें हिला कर पैर से ( 124 ) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात "उखाड़कर सूँड में उठा एक ओर ले जाकर डाल दिया। फिर तुम उसी घेरे के पास विन्ध्याचल की तराई में पर्वनादि ( पूर्व वर्णित ) स्थानों में विहार करने लगे । CLEARING THE JUNGLE 135. “Megh! During the following monsoon season after the first heavy rains you came with your herd to the southern bank of the Ganges. There you marked a large area of one Yojan and cleared it of all the grass, leaves, logs, thorns, creepers, stumps, trees, and plants, uprooting them with legs and lifting and carrying them away with trunks. Accomplishing this you went into the nearby valley (detailed as earlier) and started wandering with your herd. ( १२५ ) सूत्र १३६. तए णं मेहा ! अन्नया कयाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महावुट्टिकायंसि संनिवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि । उवागच्छित्ता दोच्चं पि मंडलं घाएसि । एवं चरिमे वासारत्तंसि महावुट्ठिकार्यसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि; उवागच्छित्ता तच्चं पि मंडलघायं करेसि । जं तत्थ तणं वा जाव सुहंसुहेणं विहरसि । सूत्र १३६. " हे मेघ ! वर्षा ऋतु की मध्य वृष्टि के बाद और अन्तिम वृष्टि के बाद भी तुमने उस घेरे में जाकर दुबारा उसी प्रकार सफाई कर दी और सुखपूर्वक घूमने लगे । 136. “You repeated this operation after the mid-monsoon and the end-monsoon showers. दावाग्नि सूत्र १३७. अह मेहा ! तुमं गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवण - विहवणगरे हेमंते कुंद लोद्ध-उद्धत - तुसारपउरम्मि अइक्कंते, अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते, वियट्टमाणो वणेसु वणकरेणुविविह-दिण्ण- कयपसवघाओ तुमं उउय - कुसुम कयचामर-कन्नपूरपरिमंडियाभिरामो मयवस - विगसंत-कड-तडकिलिन्न-गंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउ - समत्त - जणियसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसिय-तरुवरसिहर - भीमतर- दंसणिज्जे भिंगाररवंतभेरवरवे णाणाविहपत्त-कट्ठ-तण-कयवरुद्धतपइमारुयाइद्धनहयल-दुमगणे वाउलियादारुणयरे तण्हावस- दोसदूसिय-भमंत- विविह-सावयसमाउले भीमदरिसणिज्जे वट्टंते दारुणम्मि गिम्हे मारुयवसपसर - पसरियवियंभिए णं अब्भहिय-भीम-भैरव-रव-प्पगारेणं महुधारा-पडिय-सित्त- उद्धायमाण-धगधगंत-सदुद्धुए णं दित्ततरसफुलिंगेणं धूममालाउलेणं सावय-सयंतकरणेणं अब्भहियवणदवेणं CHAPTER - 1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (125) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) आकुंचियथोर जालालोवियनिरुद्धधूमंधकारभीओ आयवालोयमहंत - तुंबइयपुन्नकन्नो पीवरकरो भयवस-भयंतदित्तनयणो वेगेण महामहो व्व पवणोल्लियमहल्लरूवो, जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीयहिययेणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोद्देसो दवग्गिसंताणकारणट्टाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए । एक्को ताव एस गमो । सूत्र १३७. " समय बीतता गया और कमल - वनों का नाश करने वाला, कुंद और लोध्र के फूलों से लदा, हिम से भरा हेमन्त ऋतु भी बीत गया । ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ हो गया । उस समय तुम वनों में विहार कर रहे थे। क्रीड़ा करते समय हथिनियाँ तुम्हारे ऊपर तरह-तरह के कमल और पुष्पों से प्रहार करती थीं । उस ऋतु के फूलों के चामर जैसे कान के आभूषणों से सजे तुम सुन्दर लगते थे। मद के कारण फूले गंड-स्थलों को गीला करने वाले और झरते मदजल से तुम गन्ध- हस्ति बन गये थे और हथिनियों से घिरे रहते थे । ऋतु संबंधी सौन्दर्य से तुम गमक उठे थे। और तब ग्रीष्मकाल के प्रखर सूर्य की किरणें पड़ने लगीं जिन्होंने वृक्षों की चोटियों को सुखा दिया । मृगार पक्षी दारुण रव करने लगे । प्रचण्ड वायु से पत्ते, तिनके, काठ आदि सारे आकाश में छा गये और वृक्षों को ढँक दिया। वेग से चक्कर लगाते भँवरों से वातावरण भयावह दिखाई देने लगा । प्यास जनित पीड़ा से सिंह आदि पशु इधर से उधर भागने लगे। ऐसे भयानक बने जंगल में प्रचण्ड हवा के थपेड़ों से दावानल की ज्वालाएँ भड़क उठीं और फैलने लगीं। उसका भीम रौरव प्रचण्ड था । वृक्षों से झरती मधुधाराओं से सिंचित होने से वह और भी भड़कने लगा और जाज्वल्यमान तथा शब्दायमान हो गया। चमचमाती चिंगारियाँ और धूम - माला से परिपूर्ण हो गया। सैंकड़ों जीवों का विनाश होने लगा। इस निरन्तर वेगवान होते दावानल से वह ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त भयास्पद हो गई। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र " हे मेघ ! तुम उस दावानल की ज्वालाओं से घिरकर रुक गये। धुएँ से हुए अंधकार से आतंकित हो गए। आग की तपन से स्तब्ध होने से तुम्हारे तूम्बे जैसे विशाल कान स्तम्भित हो गए। तुम्हारी विशाल और पुष्ट सूँड सिकुड़ गई। तुम्हारी चमकती आँखें भय से इधर-उधर देखने लगीं। जैसे हवा के वेग से घने बादल फैल जाते हैं वैसे ही भय के आवेग से तुम्हारा आकार भी विस्तार पा गया और तुमने उस दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए उस मंडल की ओर जाने का निश्चय किया जिसे तुमने साफ किया था और तिनकों रहित बना दिया था। THE CONFLAGERATION 137. “As time passed, the winter season, with its abundance of Kund and Lodhra blossoms and known as the destroyer of the lotus ( 126 ) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only उ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( 926 ) OK per WRRPARRORR ELATED "bushes, came to an end. Later when the summer season started you still wandered in the forest. The she elephants playfully threw lotus and other flowers at you. Decorated with seasonal flowers hanging from your ears like whisks you looked beautiful. With your temples swollen and wet and fragrant with the ooze due to mating fever you became an odoriferous elephant. Consequently you remained surrounded with the she elephants. You had become resplendent with the seasonal beauty. “And then the scorching rays of the sun dried the foliage and the Mrigar birds started emitting ominous sounds. Blown by the forceful wind the stray and dried straw, leaves and twigs spread all around in the sky and covered the trees. The atmosphere became aweful due to the giant and high speed whirlwinds. Driven by the agony of thirst large animals like lions started running around. Such fearful forest was filled with sparks caused by the tremendous blows of the forceful wind. The sparks turned into flames and a terrible forest fire started. The hissing and howling sound that the wind and fire produced were heart rending. The ooze from the trees further fueled this fire and it started emitting oppressing light and sound. The whole area was filled with shining sparks and loops of fumes. The forest creatures started dying in hundreds. This growing inferno made that summer all the more awe inspiring. “Megh! Surrounded by the flames of the forest fire you stopped at a spot. Enveloped in the darkness caused by the smoke you became panicky. Stunned by the heat of the flames your large vessel sha ears went limp. Your large and heavy trunk shriveled. Your shinning eyes started shifting with fear. As the force of wind scatters the dense clouds, the force of fear made your body loose its shape. You decided to rush to the arena you had cleared for protection against such forest fire. सूत्र १३८. तए णं तुम मेहा ! अन्नया कयाई कमेणं पंचसु उउसु समइकंतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूले मासे पायव-संघस-समुट्ठिए णं जाव संवट्टिएसु मिय-पसु-पक्खि-सिरीसिवेसु दिसोदिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहूहिँ हत्थीहि य सद्धिं जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए। AMERALD 54 opere camp CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (127) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Oug - सूत्र १३८. “हे मेघ ! किसी समय अन्य पाँच ऋतुओं के बीतने पर आए ग्रीष्मकाल में जो यह भयावह दावानल फैल गया था (पूर्व सम) उससे बचने के लिए तुम बहुत से हाथियों के साथ अपने बनाये उस साफ किये मंडल की ओर दौड़ पड़े। ____138. "To save yourself from this fearsome forest fire that had started in the summer season, the season that comes after the lapse of five seasons, you started running with numerous other elephants towards the arena that you had cleared. सूत्र १३९. तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य, वग्घा य, विगया, दीविया, अच्छा य, रिछतरच्छा य, पारासरा य, सरभा य, सियाला, विराला, सुणहा, कोला, ससा, कोकंतिया, चित्ता, चिल्लला, पुव्वपविठ्ठा, अग्गिभयविद्या एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठति। तए णं तुम मेहा ! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छिसि, उवागच्छित्ता तेहिं बहूहिं सीहेहिं जाव चिल्ललएहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि। __ सूत्र १३९. "उस मैदान में सिंह, बाघ, भेड़िया, चीता, भालू, तरक्ष, पारासर, शरभ, सियार, बिल्ली, कुत्ता, सूअर, खरगोश, लोमड़ी, चित्र और चिल्लल आदि अन्य अनेक पशु आग के डर से. घबराकर पहले ही आ गये थे और किसी बिल में जैसे कीड़े-मकोड़े ठसाठस भर जाते हैं वैसे ही वे सब प्राणी जहाँ जगह मिली वहीं घुस गये थे। हे मेघ ! तुम भी वहाँ पहुँचने पर उन्हीं सब प्राणियों के बीच जहाँ जगह मिली वहीं खड़े हो गये। 139. “In that arena numerous animals including lion, tiger, wolf, leopard, bear, Taraksh, Parasar, Sharabh, jackal, cat, dog, boar, rabbit, fox, Chitra and Chillan in large numbers, had already taken refuge. Afraid of the forest fire, they had swarmed in and occupied whatever little space they could find. The place appeared like a hole jam-packed with insects. Megh! When you reached there, you also squeezed in and stood where you found a little space. अपूर्व अनुकम्पा सूत्र १४0. तए णं तुमं मेहा ! पाए णं गत्तं कंडुइस्सामि त्ति कटु पाए उक्खित्ते, तसिं च णं अंतरंसि अन्नेहिं बलवंतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे पणोलिज्जमाणे ससए अणुपविढे। __तए णं तुम मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि त्ति कटु तं ससयं अणुपविट्ठ पाससि, पासित्ता पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए से पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते। Cas MO wa RAMIAS DOE Lan / (128) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र QORS चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED अनुकम्पा भाव से कष्ट सहन चित्र : ७ किसी समय ग्रीष्म ऋतु में विंध्यगिरि के वनों में भीषण अग्नि-प्रकोप हुआ। जंगल के जीव दौड़-दौड़कर मेरुप्रभ हाथी के सुरक्षित मण्डल में आकर आश्रय लेने लगे। योजन भर का वह मण्डल जंगल के जीवों से खचाखच भर गया। अचानक मेरुप्रभ हाथी ने शरीर खुजलाने के लिए अपना पाँव ऊपर उठाया। स्थान खाली होते ही वहाँ एक नन्हा-सा खरगोश आकर दुबक गया। हाथी वापस पैर रखने लगा तो उसने पैर के नीचे खरगोश को बैठा देखा, हाथी के मन में अनुकम्पा भाव उमड़ आया। खरगोश की प्राण-रक्षा के लिए उसने अढाई दिन-रात तक अपना एक पैर ऊपर अधर में उठाये रखा, वह तीन पैर पर ही खड़ा रहा। (अध्ययन १) COMPASSIONATE TOLERANCE । ILLUSTRATION : 7 During the summer once again a terrible forest fire started. To save itself the red elephant rushed towards the arena that it had cleared. In that arena numerous animals had already taken refuge. After some time it lifted one of its legs to scratch some itching part of its body. At that instant a small rabbit crept in and occupied that space. When the elephant wanted to put back its leg on the ground it found that a tiny rabbit was occupying that space. Overwhelmed with compassion, it did not put its feet back on the ground and kept it raised. Meruprabh elephant remained standing on three legs for two and a half days. (CHAPTER-1) - का JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १२९) EPS तए णं मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए, माणुस्साउए निबद्धे। ___ सूत्र १४0. “कुछ समय बाद तुमने पैर खुजाने की इच्छा से अपना एक पैर ऊपर उठाया। उसी समय अन्य बड़े पशुओं से ठेला हुआ एक नन्हा-सा खरगोश तुम्हारे पैर उठाने से खाली हुए स्थान पर आ दुबका। पैर खुजाने के बाद जैसे ही तुमने अपना पैर वापस धरती पर रखना चाहा तुम क्या देखते हो कि छोटा-सा खरगोश उस स्थान पर बैठा है। तुम्हारे मन में प्राणियों के प्रति, भूतों के प्रति, जीवों के प्रति, सत्त्वों के प्रति अनुकम्पा जाग उठी और तुम अपना पैर उठाये रहे, नीचे नहीं रखा। हे मेघ ! अपने मन में उठी प्राणियों आदि के लिए इस निर्मल अनुकम्पा भावना के प्रभाव से तुमने अपने संसार-भ्रमण चक्र को (परित) कम किया और मनुष्य आयु का बन्ध कर लिया। UNPRECEDENTED COMPASSION 140. “After some time you lifted one of your legs to scratch some itching part of your body. At that instant a small rabbit, pushed by larger animals, crept in and occupied that place. After scratching, when you wanted to put back your leg on the ground you found that a tiny rabbit is occupying that space. You were overwhelmed with compassion for all living beings and instead of putting your feet back on the ground you kept it lifted. Megh! As a result of your pure feeling of compassion you reduced the period of the cycle of rebirths and also earned a human-life-span (the karmas that cause a birth and a specific life-span as a human being). सूत्र १४१. तए णं से वणदवे अड्ढाइज्जाइं राइंदियाइं तं वणं झामेइ, झामेत्ता निट्टिए, उवरए, उवसंते, विज्झाए यावि होत्था। तए णं ते बहवे सीहा य जाव चिल्लला य तं वणदवं निट्ठियं जाव विज्झायं पासंति, पासित्ता अग्गिभयविष्यमुक्का तण्हाए य छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति। पडिनिक्खमित्ता सव्वओ समंता विप्पसरित्था। __सूत्र १४१. “अढ़ाई दिन तक वह दावानल धधकती रही और पूरे जंगल को जलाकर कम हुई, शान्त हुई और बुझ गई। ___ “फिर वे सब सिंहादि पशु दावानल बुझी देख अग्नि के भय से मुक्त हो गये। भूख-प्यास की पीड़ा शान्त करने वे उस मैदान से बाहर निकले और इधर-उधर भाग गये। CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (129) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र se BAmino 141. "The forest fire burned for two and a half days. It lost its intensity, calmed down and ended only when it consumed the forest completely. “Seeing the fire extinguished, the animals became free of fear and scattered in search of food and water. सूत्र १४२. तए णं तुमं मेहा ! जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुब्बले किलंते मुंजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे अचंकमणे वा ठाणुखंडे वेगेण विक्षसरिस्सामि त्ति कटु पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरिपब्भारे धरणियलंसि सव्वंगेहिं य सन्निवइए। तए णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव (विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे) दाहवक्कंतीए यावि विहरसि। तए णं तुमं मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाइं वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए। सूत्र १४२. "उस समय तुम जीर्ण थे। जरा से जर्जरित हो चुका था तुम्हारा शरीर, तुम्हारी देह पर की चमड़ी ढीली और सल वाली हो गई थी। तुम दुर्बल, क्लान्त, शक्तिहीन, सामर्थ्यहीन और मनोबलरहित हो दूंठ जैसे स्तंभित हो गये। उस स्थान से तत्काल पलायन करने की इच्छा से जैसे ही तुमने अपना पैर बढ़ाया तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े, मानो तडित् के प्रहार से रजत गिरि का शिखर गिर पड़ा हो। "तुम्हारे शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हुई और सारा शरीर पित्त ज्वर से जलने लगा। तुम उस असहनीय पीड़ा को तीन दिन तक भोगते रहे और अन्त में सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर इस राजगृह नगर में धारिणी देवी की कोख में अवतरित हुए। ____142. “By then you were completely exhausted. Your body had shriveled and aged. Your skin had become loose and it developed folds. Devoid of all the strength, vigour, energy, prowess, and determination you stood rooted like a stump. With the desire to rush away from that place, as soon as you stretched your cramped leg you toppled and fell on the ground, as if struck by lightning a crag of the silver mountain had toppled down. “Acute pain tormented your body and it started burning with high fever. You suffered this excruciating agony for three days and died RAPE जा ARTAN (130) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED हाथी देह त्याग कर राजकुमार के रूप में जन्म चित्र : ८ तीन दिन बाद जब दावानल शान्त हुआ तो सभी वनचर जीव धीरे-धीरे अपने-अपने स्थान पर चले गये। खरगोश भी वहाँ से हटा । मेरुप्रभ हाथी ने पाँव भूमि पर रखने के लिए जैसे ही नीचा किया तो उसका सन्तुलन बिगड़ गया। वह भूमि पर धड़ाम से गिर गया। भूख-प्यास व पाँव के दर्द के कारण वह तीन दिन तक असह्य पीड़ा सहता रहा। परन्तु उसके मन में प्रसन्नता थी, अनुकम्पाभाव की आनन्दानुभूति थी । वहाँ से मृत्यु प्राप्त कर वह हाथी मगधपति श्रेणिक की रानी धारण का पुत्र मेघकुमार बना । ( अध्ययन १ ) DEATH OF THE ELEPHANT, BIRTH OF A PRINCE ILLUSTRATION : 8 The forest fire burned for two and a half days. When it ended all the animals including the small rabbit ran away from that arena. With the desire to rush away from that place, as soon as Meruprabh stretched its cramped leg it toppled and fell on the ground. It suffered excruciating agony for three days and died. However, even at the time of death it was filled with a feeling of happiness derived out of its act of compassion. It descended into the womb of queen Dharini, the wife of king Shrenik of Magadh and was born as prince Megh Kumar. JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only (CHAPTER-1) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात in the end. Completing a hundred years long life span as an elephant you descended into the womb of queen Dharini in this town of Rajagriha. मेह के ऊहापोह का अन्त सूत्र १४३. तए णं तुमं मेहा ! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । तं जइ जाव तुमं मेहा! तिरिक्खजोणिय भावमुवागए णं अप्पडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते, किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहय - सरीरपत्त-लद्धपंचिंदिए णं एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार - परक्कम -संजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकाल - समयंसि वाया जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुंडणाणि य नो सम्म सहसि खमसि, तितिक्खिसि, अहियासेसि ? ( १३१ ) सूत्र १४३. " फिर क्रमशः तुम्हारा जन्म हुआ, तुम विकसित हुए, युवा बने और मेरे पास आ मंडित हो अनगार बने । हे मेघ ! विचार करो कि जिस जन्म में तुम पशु रूप में थे और तुम्हें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी तुमने जीवों के प्रति अनुकम्पा की भावना से अपना पैर अधर में ही रखा, उसे धरती पर टिकाया नहीं था । इस जन्म में तो तुम उच्च कुल में जन्मे हो और तुम्हें अक्षत् - अप्रतिहत शरीर प्राप्त हुआ है। तुमने पाँचों इन्द्रियों का दमन किया है, तुम उत्थान, बल, वीर्य, महत्वाकांक्षा और पराक्रम से भरपूर हो मेरे पास आकर अनगार बने हो । और कल पहली ही रात्रि में श्रमणों के आवश्यक कार्यों से बाहर आते-जाते समय छू जाने मात्र से, धूल के कण लग जाने मात्र से तुम क्षुब्ध हो गये । तनिक सी असुविधा को सह नहीं सके । अदीन भाव से तितीक्षा नहीं कर सके । शरीर को निश्चल रख समतामय नहीं हो सके।” END OF THE DILEMMA 143. “With the passage of time you were born, grew up and became a youth. After that you came to me and became an ascetic. Megh! Just consider this that in the life you spent as an animal and when the desire for spiritual pursuits had not sprouted, you were still inspired by the compassion for living beings. Driven by that feeling you kept CHAPTER - 1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only ( 131 ) - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र O PARMA ا ت دنیا، نهلا المر your feet lifted instead of putting it back on the ground. In this life you were born in a high class family and endowed with a perfect and strong body. You disciplined your senses. You came to me with the desire for upliftment and having all the strength, potency, ambition, and vigour. And the very first night you find yourself disturbed by the touch of the dust and the feet of the ascetics moving about for essentials. You failed to tolerate even the slightest of inconveniences. You failed to suffer without a feeling of inferiority. You failed to keep the body still with equanimity." सूत्र १४४. तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाइसरणे समुप्पन्ने। एयमद्वं सम्मं अभिसमेइ। __ सूत्र १४४. भगवान महावीर से यह वर्णन सुन-समझकर शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती लेश्याओं के कारण जाति-स्मरण को आवृत करने वाले ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने से ईहा आदि करते हुए मेघकुमार को संज्ञावान जीवों को मिलने वाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। उन्हें अपने पूर्व भव के इस विवरण का प्रत्यक्ष और सम्यक्ज्ञान हो गया। 144. Hearing all this from Shraman Bhagavan Mahavir, Megh Kumar went through the process of thinking, ascertaining, analyzing, and exploring (Iha, Apoh, Margana, and Gaveshana). As a result of gradually purifying inner energies (Leshya), righteous endeavour and lofty attitude, his instinctive-knowledge-veiling Karmas (MatiJnanavarniya Karma) were partially destroyed. and partially suppressed. Consequently he acquired the knowledge about earlier births (Jatismaran Jnana). He at once had the direct perception of all these details about his earlier birth. पुनः प्रव्रज्या ___ सूत्र १४५. तए णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीय-संवेगे आणंदसुपुन्नमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबकं पिव समुस्ससियरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-"अज्जप्पभिई णं भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसट्टे' त्ति कटु केरल 4MRAO SARIA (132) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १३३ ) पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते ! इयाणिं सयमेव दोच्चं पि पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं।" __सूत्र १४५. भरावान महावीर द्वारा पूर्व जन्म का वर्णन याद करा देने से मेघकुमार की आत्मोन्नति की प्यास दुगुनी हो गई। उनकी आँखों में आनन्दातिरेक से आँसू भर आये। वर्षा की बूंदें पड़ने से खिले कदम्ब के फूल की तरह हर्ष से उनका रोम-रोम पुलक उठा। उन्होंने भगवान महावीर को यथाविधि वन्दन करके कहा-"भंते ! आज से मैं अपने दोनों नेत्र छोड शेष समस्त शरीर श्रमणों के लिये अर्पित करता हूँ।" उन्होंने पुनः वन्दन करके कहा"भगवन् ! मेरी अभिलाषा है कि अब आप स्वयं मुझे पुनः यथाविधि प्रव्रज्या प्रदान करें और श्रमण धर्म का उपदेश दें।" RE-INITIATION ____145. When Shraman Bhagavan Mahavir made him recall the details of his earlier births, ascetic Megh's desire for spiritual upliftment redoubled. Overwhelmed with joy, his eyes brimmed with tears. As a Kadamb flower blossoms at the touch of droplets of rain, every pore of his body was filled with ecstatic joy. He formally bowed before Shraman Bhagavan Mahavir and said, “Bhante! Since this moment I commit every part of my body excepting my eyes to the service of the ascetics.” He bowed again and requested, “Bhagavan! It is my earnest desire that now you once again initiate me into the order and preach me the religion of Shramans." __ सूत्र १४६. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ जाव जायामायावित्तयं धम्ममाइक्खइ-“एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं णिसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्यं, एवं भुंजियव्यं, एवं भासियव्वं, उट्ठाय उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्यं।" __सूत्र १४६. श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार की इच्छा का आदर कर उन्हें पुनः दीक्षित किया और कहा-“हे देवानुप्रिय ! यत्न से चलना संयम में यतनापूर्वक प्रवृत्ति करना आदि (पूर्व सम)।" 146. Honouring ascetic Megh's desire Shraman Bhagavan Mahavir once again initiated him and said, “Beloved of gods! Move carefully ........ etc. (as detailed earlier)." AAHIRDOL CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (133) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CrON - - ॐॐ AAMIRMA Dia काल - Ho wwmaER सूत्र १४७. तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह चिट्ठइ जाव संजमेणं संजमइ। तए णं से मेहे अणगारे जाए इरियासमिए, अणगारवन्नओ भाणियव्यो। सूत्र १४७. श्रमण मेघ ने भगवान का उपदेश सुना तथा सम्यक् रूप से अंगीकार कर लिया और वे ईर्या समिति आदि से युक्त अनगार बन गये। अनगार का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार है। ___147. Ascetic Megh heard and absorbed the preaching of Shraman Bhagavan Mahavir. He became an ascetic observing every prescribed discipline. The description of an ascetic is as mentioned in Aupapatik Sutra. सूत्र १४८. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयारूवाणं थेराणं सामाइयमाइयाणि एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरइ। सूत्र १४८. फिर मेघ अनगार ने भगवान के निकट रहकर उनके समान स्थविर श्रमणों से सामायिक से आरम्भ कर ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन किया। फिर वे अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पंचौला, अर्द्धमासखमण एवं मासखमण आदि तपस्या से आत्मा को तपाते हुए विहार करने लगे। 148. Living near Shraman Bhagavan Mahavir and under the tutelage of his senior ascetic disciples ascetic Megh studied all the subjects beginning from Samayik and covering all the eleven Angas (canons). He started doing various penances including fasts for a day, two days, three days, four days, five days, a fortnight and a month and followed the ascetic way of life. सूत्र १४९. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ। पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। सूत्र १४९. भगवान महावीर तब गुणशील चैत्य और राजगृह नगर से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। ___149. After some time Shraman Bhagavan Mahavir left the Gunshil Chaitya and coming out of Rajagriha he resumed his itinerant life moving about in various populated areas. AIHINo amanna / (134) JNĀTĂ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१३५) Cam DAbran मेघ की उत्कट तपस्या सूत्र १५०. तए णं से मेहे अणगारे अन्नया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते ! तुडभेहिं अब्भणुनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।" “अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह।" सूत्र १५0. कई दिन बाद एक बार मेघ अनगार भगवान के पास आए, वन्दना की और कहा- “भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षु प्रतिमा लेने की कामना रखता हूँ।" ___ भगवान महावीर ने कहा-“देवानुप्रिय ! जिसमें सुख मिले वही करो। उसमें व्यवधान मत दो।" - - HARSH PENANCES BY MEGH ___150. After some days ascetic Megh came to Shraman Bhagavan Mahavir, bowed before him and said, “Bhagavan! If you permit me I wish to observe the one month duration Bhikshu Pratima (a specific harsh penance)." ___Shraman Bhagavan Mahavir said, “Beloved of gods! Do as it pleases you. Do not get distracted." सूत्र १५१. तए णं से मेहे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, किट्टेइ, सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता सोहेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी “इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे दोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह।" जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासियाए पढमसत्तराइंदियाए दोच्चसत्तराईदियाए तइयसत्तराइंदियाए अहोराइंदियाए वि एगराइंदियाए वि। ad CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (135) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (१३६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र C THRE HER in सूत्र १५१. भगवान महावीर से अनुमति प्राप्त कर मेघ अनगार भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। यह तपस्या उन्होंने सूत्र, कल्प, मार्ग के अनुसार सम्यक् रूप से काया द्वारा ग्रहण की, उसका पालन किया, शोभित किया, शोधन किया, तथा विस्तार किया और पूर्ण करके कथन द्वारा कीर्तन किया। तपस्या सम्पन्न कर वे भगवान महावीर के पास गये और बोले__ "भगवन् ! अब मैं आपकी अनुमति प्राप्त कर दो माह की भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ।" भगवान ने अनुमति दे दी। ___ मेघकुमार ने इस प्रकार बारह भिक्षु प्रतिमाओं का सम्यक् रूप से पालन किया। वे इस प्रकार हैं-पहली एक माह की, दूसरी दो की, तीसरी तीन की, चौथी चार की, पाँचवी पाँच की, छठी छह की, सातवीं सात की, आठवीं, नवीं और दसवीं सात-सात अहोरात्र की और ग्यारहवीं तथा बारहवीं एक-एक अहोरात्र की। 151. Getting permission from Shraman Bhagavan Mahavir, ascetic Megh took vow of the Bhikshu Pratima. He accepted this penance with proper rules and procedures as prescribed in the scriptures. He physically observed this penance, and supplemented the observance with desired attitude, perfected and prolonged it. Concluding the penance with verbal praise of its fruits he went to Shraman Bhagavan Mahavir and said, "Bhagavan! Now I seek your permission for observing a two month duration Bhikshu Pratima." Bhagavan granted him permission. Continuing this way ascetic Megh properly observed twelve Bhikshu Pratimas. They are-first to seventh for durations of months matching their numbers, eighth to tenth for durations of seven days and nights each and eleventh and twelfth for durations of one day and night each. अथक साधना सूत्र १५२. तए णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं काए णं फासेत्ता पालेत्ता सोहेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी"इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह।" RAHMIRE Galma WRITER आ (136) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात सूत्र १५२. यह तपस्या पूर्ण करके मेघ अनगार पुनः भगवान महावीर के पास गये और वन्दना करके बोले-“भगवन् ! मैं आपकी अनुमति लेकर 'गुणरत्न संवत्सर' नामक तपस्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" भगवान ने अनुमति दे दी । RELENTLESS PRACTICES 152. After concluding this series of penances ascetic Megh again went to Shraman Bhagavan Mahavir and said after formal bowing, "Bhagavan! With your permission I wish to take vow and observe the Guna Samvatsar penance." Bhagavan granted him permission. ( १३७ ) सूत्र १५३. तए णं से मेहे अणगारे पढमं मासं चउत्थं चउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडए णं । दोच्चं मासं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडए णं । तच्चं मासं अट्ठमंअट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं उवाउडए णं । चउत्थं मासं दसमंदसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया. ठाणुक्कुडुए सूराभिमुह आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडए णं । पंचमं मास दुवालसमंदुवालसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडए णं । एवं खलु एए र्ण अभिलावेणं छट्टे चोदसमं चोद्दसमेणं, सत्तमे सोलसमंसोलसमेणं, अट्ठमे अट्ठारसमं अट्ठारसमेणं, नवमे वीसतिमंवीसतिमेणं, दसमे बावीसइमंबावीसइमेणं, एक्कारसमं चउवीसइमंचउवीसइमेणं, बारसमे छव्वीसइमंछव्वीसइमेणं, तेरसमे अट्ठावीसइमं - अट्ठावीसइमेणं, चोद्दसमे तीसइमंतीसइमेणं, पंचदसमे बत्तीसइमंबत्तीसइमेणं, सोलसमे मासे चउत्तीसइमंचउत्तीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए णं सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे राई वीरासणेण य अवाउडएण य सूत्र १५३. मेघ अनगार ने तब एक माह तक एकान्तर उपवास ( एक दिन उपवास, दूसरे दिन भोजन, तीसरे दिन फिर उपवास) से यह तपस्या आरंभ की। तपस्या काल में वे दिन में गोदोहन आसन में बैठते और सूर्य की ओर मुँह करके आतापना लेते। रात में निरावरण हो वज्रासन में बैठते । इसी दिनचर्या से दूसरे महीने बेले- बेले पारणा, तीसरे महीने तेले-तेले पारणा और चौथे महीने चौले - चौले पारणा किया। CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (137) OREO Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KATAR a ( १३८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Salman इसी प्रकार प्रति माह उपवासों की संख्या में एक दिन बढ़ाते गये। पाँचवें माह में पाँच-पाँच दिन उपवास के बाद पारणा, छठे माह छह-छह दिन के बाद पारणा, सातवें माह सात-सात दिन के बाद पारणा, आठवें माह आठ-आठ दिन के बाद, नौवें माह में नौ-नौ दिन बाद, दसवें माह में दस-दस दिन बाद, ग्यारहवें माह में ग्यारह-ग्यारह दिन बाद, बारहवें माह में बारह-बारह दिन बाद, तेरहवें माह में तेरह-तेरह दिन बाद, चौदहवें माह में चौदह-चौदह दिन बाद, पन्द्रहवें माह में पन्द्रह-पन्द्रह दिन बाद और अन्तिम सोलहवें माह में सोलह-सोलह दिन बाद पारणा करते निरन्तर तप करते विचरने लगे। दिन और रात की भी वही पहले दिन वाली चर्या निरन्तर चलती रही। 153. Ascetic Megh commenced this penance with fasting on alternate days for one month (fast on first day, food on second day, fast on third day, and so on). All along the period of penance during the day he would sit in the Godohan pose (as one sits while milking a cow) facing the sun, and during the night he would sit naked in the Vajrasan (a specific yogic posture). Following the same daily routine he observed two day fasts interspersed with a day of food intake (fast for two days, food on third day, fast for two days, and so on) during the second month. During the third and fourth months he increased the days of fasting to three and four respectively. This way he went on increasing the number of fasting days by one every month. During the fifth month the number of fasting days became five. During the sixth month he ate food every seventh day, during the seventh month he ate food every eighth day, during the eighth month he ate food every ninth day, during the ninth month he ate food every tenth day, during the tenth month he ate food every eleventh day, during the eleventh month he ate food every twelfth day, during the twelfth month he ate food every thirteenth day, during the thirteenth month he ate food every fourteenth day, during the fourteenth month he ate food every fifteenth day, during the fifteenth month he ate food every sixteenth day, and during the concluding or sixteenth month he ate food every seventeenth day. During this long period of penance his daily routine remained same as he followed during the first month. सूत्र १५४. तए णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं जाव सम्म काएण फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, किट्टेइ, अहासुत्तं अहाकप्पं जाव किट्टेत्ता समणं AARI (138) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १३९) केक MANIA भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बहुहिं छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। सूत्र १५४. मेघ अनगार ने गुणरल संवत्सर नामक तप का यथा सूत्र, कल्प और मार्ग सम्यक् पालन, शोधन तथा कीर्तन किया। फिर वे भगवान महावीर के पास आये और यथाविधि वन्दन करके उनसे अनुमति ले एक के बाद एक अनेक षष्टभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमासखमण, मासखमण आदि अनोखी तपस्याएँ करते हुए विहार करने लगे। ____154. Ascetic Megh accepted this penance with proper rules and procedures as prescribed in the scriptures. He physically observed this penance, and adorned the observance with desired attitude, perfected and prolonged it. Concluding the penance with verbal praise of its fruits he went to Shraman Bhagavan Mahavir and seeking permission from Shraman Bhagavan Mahavir he observed a great number of harsh penances including fasts for a day, two days, three days, four days, five days, a fortnight and a month; and followed the ascetic way of life. सूत्र १५५. तए णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं सस्सिरीए णं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धनेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तबोकम्मेणं सुक्के भुक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाव यावि होत्था। जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता, गिलायइ, भासं भासमाणे गिलायइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलायइ। __ सूत्र १५५. मेघ अनगार ऐसी उदार, विपुल, श्रीयुक्त, गुरु प्रदत्त, स्वयं गृहीत, कल्याणकारी, शिव, धन्य, मंगल, उदग्र, वर्द्धमान, उत्तम और महाप्रभावशाली तप साधना के कारण क्षीण, भूखे, रूक्ष और माँस व रक्तहीन से हो गये और उठते-बैठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ मात्र चर्म से मढ़ी दीखने लगी और दुबले शरीर पर नसें दिखाई देने लगीं। वे अपने आत्मबल से ही खड़े रहते और चलते थे। बात करते तो थक जाते थे, यहाँ तक कि बोलने का विचार करने मात्र से भी थक जाते थे। ___155. As a result of these wide ranging, numerous, gracious, bestowed (by the guru), accepted, beneficent, torment free, commend Cam का ब RAMHANI CERNED CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (139) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र deso DELIMAGE RAMA - en- DEOBA - - - able, pious, vigorous, ever evolving, excellent, and extremely potent penances ascetic Megh became weak, famished, shriveled, lean and anaemic. With every movement his joints rattled. He appeared like a fleshless skeleton covered by skin only, and bluish veins became visible on his wiry body. He could remain standing and walk only by force of his will. He got tired when he spoke; even the effort of speaking was too much for him. सूत्र १५६. से जहानामए इंगालसगडियाइ वा, कट्ठसगडियाइ वा, पत्तसगडियाइ वा, तिलसगडियाइ वा, एरंडकट्ठसगडियाइ वा, उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एकमेव मेहे अणगारे ससई गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंससोणिए णं, हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने, तवेणं तेए णं तवतेयसिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ। सूत्र १५६. कोयले, लकड़ी, सूखे पत्ते, तिनके, डंठल अथवा एरंड से भरी गाड़ी को धूप में और भी सुखाने के बाद चलाने पर वह खड़खड़ाहट के साथ चलती है और खड़खड़ाती आवाज के साथ ही रुकती है। ठीक उसी प्रकार मेघ अनगार भी हड्डियों की खड़खड़ाहट के साथ चलते और रुकते थे। वे माँस और रुधिर से तो क्षीण हो गये थे पर तपस्या के तेज से पुष्ट थे। राख के ढेर से घिरे अंगारे के समान वे तप तेज से देदीप्यमान हो गये थे। तप के तेजरूपी लक्ष्मी से शोभित हो गये थे। ___156. As a cart filled with coal, wood, dry leaves, twigs, branches or castor nuts and further dried in sun rattles while moving as well as when stopped; ascetic Megh's bones also rattled while moving or when he stopped. Although he was lean and anaemic he glowed with the aura of penance. Like embers in a heap of ash he had become radiant with the sheen of penance. He had become rich with the wealth of penance. सूत्र १५७. तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव पुव्वाणुपुब्बिं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। सूत्र १५७. काल के उस भाग में धर्म के प्रतिपादक, तीर्थ के स्थापक श्रमण भगवान महावीर एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में आये और यथाविधि ठहरे। OR HINTEPS - der (140) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन: उत्क्षिप्त ज्ञात ( १४१) opeso OM ro - CALLIDO - TOसका - - 157. During that period of time moving from one village to another Shraman Bhagavan Mahavir, the propagator of religion and the founder of the religious ford, arrived in Rajagriha and stayed in the Gunashil temple. समाधिमरण का संकल्प सूत्र १५८. तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था-“एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासिस्सामि त्ति गिलामि, तं अस्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा धिई संवेगे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सूरे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाई आरुहित्ता गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेत्ता तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसनिगासं पुढविसिलापट्टय पडिलेहित्ता संलेहणाझूसणाए झूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए।'' | सूत्र १५८. उस समय मेघ अनगार के मन में रात को धर्म जागरण करते समय मध्य रात्रि को यह विचार उठा-"मैं इस तपस्या के कारण दुर्बल हो गया हूँ (विस्तृत विवरण पूर्व सम)। फिर भी अभी मुझमें उठने की शक्ति, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है। अतः जब तक मुझमें ये सब शेष हैं और मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, गंधहस्ति के समान जिनेश्वर श्रमण भगवान महावीर विद्यमान हैं तब तक मुझे जीवन के अन्तिम कर्तव्य पूरे कर लेने चाहिये। इस रात्रि के बीत जाने पर जब सूर्योदय हो तो मैं भगवान महावीर को यथाविधि वन्दना कर, उनकी आज्ञा ले, स्वयं ही पाँच महाव्रतों को पुनः अंगीकार करूँ; गौतम आदि श्रमणों तथा श्रमणियों से क्षमायाचना करूँ; वैसे ही क्रियाओं में पारंगत स्थविर श्रमणों के साथ धीरे-धीरे विपुलाचल पर चढूँ, मेघ के समान काले शिलाखण्ड का प्रतिलेखन करूँ; और अन्ततः संलेखना स्वीकार कर, आहार-पानी का त्याग कर पादोपगमन अनशन धारण करूँ और मृत्यु की आकांक्षारहित हो ध्यानमग्न हो जाऊँ।" CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (141) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) Ran> ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - r HOD ARASHARAM RESOLVE OF A PIOUS DEATH 158. One night while ascetic Megh was busy with his religious practices an idea surfaced in his mind, “Due to my penances I have become extremely weak (details as before). However, I am still left with barely enough energy, strength, potency, vigour, valor, confidence, firmness, and will to stand up. As such, as long as this capacity is available to me and my religious preceptor and leader, the odoriferous elephant like Jineshwar, Shraman Bhagavan Mahavir, is present I should fulfill the last duties of my life. When the night ends and sun dawns I shall seek his permission after due obeisance and retake the five great vows. Then I shall seek forgiveness from Gautam and other ascetics, seek company of senior ascetics who are proficient in the rituals, and slowly climb the Vipul mountain. Reaching there I shall explore and prepare a large rock, black as monsoon clouds, and in the end take the Sanlekhana vow, stop taking all food and water, accept the vow of fasting till liberation and transcend into meditation without any desire for death." सूत्र १५९. एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणए णं पंजलिउडे पज्जुवासइ। ___ सूत्र १५९. यह विचार उठने और संकल्प कर लेने के बाद दूसरे दिन सूर्योदय होने पर अपने संकल्प के अनुसार मेघ मुनि भगवान महावीर के पास गये और यथाविधि वन्दन कर बैठ गये। हाथ जोड़ भगवान की उपासना करने लगे। 159. Once he got this idea he resolved to follow it. Next morning ascetic Megh went to Shraman Bhagavan Mahavir and formally bowed before him. He then joined his palms and sat down worshiping. सूत्र १६0. मेहे त्ति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वयासी-“से णूणं तव मेहा ! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेव हव्यमागए। से णूणं मेहा ! अढे समढे ?" _ “हता अत्थि।" RAMA (142) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4740 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात " अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह | " सूत्र १६०. भगवान महावीर ने मेघ अनगार से कहा - " हे मेघ ! रात्रि जागरण के समय मध्य रात्रि को तुम्हारे मन में विचार उठे ( पूर्व सम) और भोर होते ही तुम तत्काल मेरे पास आये। मेघ ! क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?" मेघ मुनि बोले-“हाँ, भगवन् यह सत्य है !” भगवान ने कहा- “देवानुप्रिय ! जो सुखद लगे वह करो । विलम्ब व बाधा मत करो। " ( १४३ ) 160. Shraman Bhagavan Mahavir asked ascetic Megh, “ Megh ! During your night practices you thought of something, around midnight (as stated earlier), and just as the day dawned you rushed to me. Am I right, Megh!" "Absolutely, Bhagavan!" Shraman Bhagavan Mahavir added, "Do as it pleases you, beloved of gods! Do not hesitate." सूत्र १६१. तए मं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भुणुन्नाए समाणे हट्ठ जाव हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, आरुहित्ता गोयमाइ समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेइ, खामेत्ता य ताहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चार- पासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरत्याभिमु संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु वयासी " नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयं" ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी सूत्र १६१. भगवान महावीर की आज्ञा पा मेघ अनगार प्रसन्न और प्रफुल्ल हुए। यथाविधि वन्दना कर स्वयं ही पाँच व्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि श्रमणों व श्रमणियों से क्षमायाचना की। फिर योग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़े। वहाँ पहुँच मेघ के समान काले शिलाखण्ड की प्रतिलेखना की और घास का आसन CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (143) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Camro बिछाकर बैठ गये। पूर्व दिशा की ओर मुख कर पद्मासन में बैठे और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर लगा कर बोले "नमस्कार हो अरिहन्तों को, भगवंतों को,........ (शक्रस्तव के अनुसार)। सिद्धगति को प्राप्त होने वाले मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान को नमस्कार हो। वहाँ रहे उन भगवान को मैं यहाँ से वन्दना करता हूँ। वे मुझे देखें।" इस प्रकार यथाविधि भगवान को वंदना करके वे बोले 161. Ascetic Megh was happy and pleased to get the permission from Shraman Bhagavan Mahavir. After due obeisance he uttered the five great vows on his own. Then he sought forgiveness from Gautam and other ascetics. Taking along some able and senior ascetics he slowly climbed the Vipul mountain. Reaching at the top he found and prepared a large rock, black as monsoon clouds, for his practices. He spread a grass mattress and sat down in lotus pose facing the east. Joining his palms and raising them to his forehead he uttered "I bow and convey my reverence to the worthy ones (Arhats), the supreme ones (Bhagavans), ....... (the panegyric by the king of gods or the Shakrastav). My reverence also to my preceptor, Shraman Bhagavan Mahavir, who is destined to attain the Siddha state (the ultimate state of liberation). From here I bow before him, stationed far away; may he see me doing so. After following this prescribed procedure of bowing to Bhagavan, he added - सूत्र १६२. पुट्वि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरई-रई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। _इयाणिं पि य णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि। सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जं पि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कटु एयं पि य णं चरमेहिं ऊसास निस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणा झूसणा-झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति। (144) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १४५ ) सूत्र १६२. " मैंने पहले भी भगवान महावीर के निकट समस्त हिंसा का त्याग किया है, मिथ्या, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, मिथ्या दोषारोपण, चुगली, पराये दोषों का प्रकाशन, धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा ( ठगी) और मिथ्यादर्शनशल्य इन सभी अठारह प्राप स्थानों का प्रत्याख्यान ( त्याग की प्रतिज्ञा ) किया है। अब मैं पुनः भगवान के निकट हिंसादि इन सभी पाप स्थानों का प्रत्याख्यान करता हूँ और साथ ही अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों तरह के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। जो इष्ट, कान्त और प्रियादि है ( पूर्व सम) और जिसकी विविध रोग, आतंक, परीषह और उपसर्गों से पूर्ण रक्षा की है उस शरीर का भी मैं अंतिम साँस तक परित्याग करता हूँ अथवा उसके प्रति उदासीन होने का प्रण करता हूँ ।" यह कहकर संलेखना अंगीकार कर, भोजन-पान का त्याग कर, पादोपगमन समाधि-मरण अंगीकार कर मेघ अनगार मृत्यु- कामनारहित हो धयानमग्न हो गये । उनके साथ रहे स्थविर तब उनका वैयावृत्य (सेवा) करने लगे । 162. “Earlier, before Shraman Bhagavan Mahavir, I took an oath to refrain from indulging in all the eighteen sinful activities (Papasthan) including falsehood, grabbing, sex, hoarding, anger, conceit, illusion, greed, attachment, aversion, quarrel, false accusation, backbiting, revealing faults of others, dislike for true religion, liking for false religion, cheating, and pursuing false concepts. Orego "Now I once again take the oath in his name to refrain from indulging in all the eighteen sinful activities and at the same time I also take an oath for life to refrain from eating, drinking, satisfying the hunger and satisfying the taste buds. I also abandon this body that has been desired, adored, loved ( etc.) and fully protected by me from various ailments, terrors, afflictions, and adversities. In other words I take an oath to remain detached from my body till my last breath." Saying thus ascetic Megh took the Sanlekhana vow, stopped taking food and water, accepted the vow of fasting till liberation and transcended into meditation without any desire for death. CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA The ascetics who accompanied him started taking care of him. सूत्र १६३. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुन्नाई दुवालसवरिसाई For Private Personal Use Only Laparand ( 145 ) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aanans ( १४६ ) सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सट्टिं भत्ताइं अणसणाए छेत्ता आलोइयपडिक्कंते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते आणुपुव्वेणं कालगए । सूत्र १६३. मेघ अनगार भगवान महावीर से दीक्षा लेने के बाद स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, लगभग बारह वर्षों तक चारित्र का पालन करके, एक माह की संलेखना द्वारा अपने शरीर को क्षीण कर आलोचना प्रतिक्रमण करके, माया, मिथ्यात्व व निदान शल्यों को दूर कर, समाधिस्थ होकर अन्ततः कालधर्म को प्राप्त हुए। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 163. After getting initiated by Shraman Bhagavan Mahavir, studying all the canons from the senior ascetics, observing the ascetic conduct for almost twelve years, emaciating his body by one month long final fast, reviewing all his actions (Pratikraman), removing all the thorns of illusion, mis-concepts, etc., transcending into final meditation, ascetic Megh finally met his end. सूत्र १६४. तए णं थेरा भगवंतो मेहं अणगारं आणुपुव्वेणं कालगयं पासेंति । पासित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करिता मेहस्स आयारभंडयं गेण्हति । हित्ता विउलाओ पव्वयाओं सणियं सणियं पच्चोरुहंति । पच्चोरुहित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए, जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी தமிநந்தி एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए । से णं देवाणुप्पिएहिं अब्भणुन्नाए समाणे गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ । दुरूहित्ता सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ । पडिलेहित्ता भत्तपाण- पडियाइक्खित्ते आणुपुव्वेणं कालगए। एस णं देवाप्पिया! मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए । सूत्र १६४. मेघ अनगार के साथ गये स्थविरों ने जब देखा कि उनका देहावसान हो गया है तो उन्होंने परिनिर्वाण निमित्तक ( मृत देह को स्पर्श करने के कारण किया जाने वाला) कायोत्सर्ग किया, उनके उपकरण उठाये और पर्वत से धीरे-धीरे नीचे उतर आये । फिर वे गुणशील चैत्य में भगवान के पास आए और वन्दना करके वोले "हे देवानुप्रिय ! आपके शिष्य मेघ अनगार स्वभाव से भद्र और विनीत थे । वे आपसे अनुमति ले, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर गये थे । उन्होंने यथाविधि (पूर्व सम ) संलेखना ग्रहण कर अनुक्रम से देह त्याग कर दी। हे देवानुप्रिय ! ये मेघ अनगार के उपकरण हैं । " ( 146 ) SELARE ARCHIEF WELT JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१४७) - 164. When the senior ascetics accompanying ascetic Megh saw that he was dead they performed the ritual meditation prescribed to be done on touching a dead body. They picked up his equipments (the things like broom, wooden pots, etc.) that an ascetic always carries and came down from the mountain. They came to Shraman Bhagavan Mahavir in the Gunashil temple and after paying homage said, ____ “Beloved of gods! Your disciple, ascetic Megh, was good natured and humble. Getting your permission and seeking forgiveness from all the ascetics he had gone to the Vipul mountain with us. Following the prescribed procedure he took the ultimate vow and consequently met his end. Beloved of gods! these are his equipments.' पुनर्जन्म निरूपण सूत्र १६५. भंते त्ति ‘भगवं' गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पियाणं अन्तेवासी मेहे णामं अणगारे, से णं मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने ?' सूत्र १६५ ‘भगवन्' यह सम्बोधन कर गौतम स्वामी ने भगवान महावीर को यथाविधि वन्दन करके कहा-"आपके अन्तेवासी मेघकुमार अनगार मृत्यु के बाद किस गति में गये और कहाँ उत्पन्न हुए ? RE-BIRTH 165. Addressing him as 'Bhagavan ! Gautam Swami asked Shraman Bhagavan Mahavir after offering due homage, "To what form of life has your disciple ascetic Megh has gone after his death and where has he taken birth?" सूत्र १६६. गोयमाइ' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–“एवं खलु गोयमा ! मम अन्तेवासी मेहे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए। से णं तहारूवाणं थगणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ। अहिज्जित्ता बारस भिक्खु-पडिमाओ गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं कारणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता मए अव्भणुनाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेइ। खामित्ता तहारूवेहिं जाव (कडाईणेहिं) विउलं पव्वयं दुम्हइ। दुरूहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ। संथरित्ता दब्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेइ। बारस वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहिँ भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धं चंदिम-सूर-गहगण-नक्खत्त-तारा-रूवाणं बहूइं जोयणाई, ल AIRAO CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (147) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ y ( ( १४८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र बहूइं जोयणसयाई, बहूइं जोयणसहस्साई, बहूइं जोयणसयसहस्साइं, बहूई जोयणकोडीओ, बहूइं जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमारमाहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-च्चुए तिन्नि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं मेहस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। सूत्र १६६. भगवान महावीर ने उत्तर दिया-“हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी मेघ अनगार स्वभाव से भद्र व विनीत था। उसने स्थविरों से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। कठोर तपश्चर्या की और संलेखना ग्रहण कर देह त्याग की (सम्पूर्ण विवरण पूर्व सम)। मृत्यु के बाद ऊर्ध्व दिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूपी ज्योतिष चक्र से और ऊपर अनन्त योजन (सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों, कोडाकोडि आदि संख्यायें) पार कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशक्र, सहनार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोकों को तथा तीन सौ अठारह नवग्रैवेयक विमानों को लाँधकर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ है। "उस विजय नामक अनुत्तर विमान में कुछ देवों की आयु तेतीस सागरोपम कही है। मेघ की भी देव भव की आयु तेतीस सागरोपम है।" ___166. Shraman Bhagavan Mahavir replied, “Gautam! My disciple ascetic Megh was a good natured and humble person. He had studied all the eleven canons under the guidance of senior ascetics. He did vigorous penance and met his end after taking the ultimate vow (as described above). After his death his soul has gone in the upward direction. Going beyond the moon, sun, planets, constellations and galaxies, crossing infinite Yojans ( a measure of distance) and going beyond the Saudharma. Ishan. Sanatkumar, Mahendra, Brahmalok. Lantak, Mahashakra, Sahasrar, Anat, Pranat, Aran, and Achyut dimensions of gods it has taken birth as a god in the Anuttar dimension of gods. "In the Anuttar dimension some of the gods are said to have an age of thirty three Sagaropam (a superlative measure of time). Megh too is to have the same life span.” सूत्र १६७. एस णं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खए णं, ठिइक्खए णं, भवक्खए णं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? (148) E CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१४९) Crime सूत्र १६७. गौतम स्वामी ने फिर पूछा-"भगवन् ! वह मेघ देव देवलोक की आयु का, स्थिति का और भव का क्षय करके किस गति में जायेगा ? कहाँ जन्म लेगा ?" 167. Gautam Swami again asked, “Bhagavan! completing the age, state, and life of the dimension of gods to what form of life will god Megh go and where will he be born?" अन्त में सिद्धि सूत्र १६८. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुझिहिइ, मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। सूत्र १६८. भगवान बोले-“हे गौतम ! वह महाविदेह में जायेगा और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो निर्वाण प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त करेगा।" AT LAST, LIBERATION ___168. Bhagavan said, “Gautam! He will be born as a human being in the Mahavideh area and achieving purity, enlightenment, and freedom he will terminate all his miseries and attain Nirvana:": सूत्र १६९. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालंभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। सूत्र १६९. सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा-“हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ इस प्रयोजन से कहा है कि हितेच्छु गुरु को अविनीत शिष्य को उपालम्भ देना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ।" 169. Sudharma Swami told Jambu, “Jambu! Shraman Bhagavan Mahavir narrated this text of the first chapter of the Jnata Sutra in order to convey that a well wishing teacher should not hesitate to reprimand an undisciplined disciple. So I state." ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE FIRST CHAPTER || TRA को CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (149) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ( १५०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OMG चा उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की यह प्रथम कथा आत्मोन्नयन के प्रयत्न और उसके लिए अपनाए संयम साधना में स्थिर रहने के महत्त्व पर तो बल देती ही है पर साथ ही गुरु के इस कर्त्तव्य पर भी प्रकाश डालती है कि वह शिष्य के मन में आई चंचलता को उपालम्भ तथा प्रेरित प्रसंगादि के माध्यम से दूर करे तथा उसे पुनः संयम मार्ग में स्थापित करे। गुरुजनों द्वारा दी गई इस प्रेरणा को आप्तोपालम्भ कहा है। - इसके अतिरिक्त इस कथा में तत्कालीन सांस्कृतिक वातावरण सम्बन्धी सूचनाएँ भी मिलती हैं। उस काल के रीति-रिवाज, विभिन्न कलाओं, विधि-विधानों, सामाजिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं आदि के विषय मे संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट जानकारी यथा स्थान गुंशी मिलती है। | उपनय गाथा - टीकाकार आचार्य ने अध्ययन के उपसंहार में भावार्थ को उपनय में ढालते हुए एक गाथा का उल्लेख किया है महुरेहिं णिउणेहिं वयणेहिं चोययंति आयरिया। सीसे कहिं च खलिए, जह मेहमुणिं महावीरो।। किसी कारण, यदि शिष्य का मन संयम से चलित " जाय तो आचार्य (गुरू) उसे मधुर और हृदय स्पर्शी वचनों से प्रेरणा देकर संयम में स्थिर कर देते हैं। जैसी मेघमुनि को भगवान महावीर ने स्थिर कर दिया। CONCLUSION This first story of Jnata Dharma Katha lays stress on the importance of endeavour for spiritual upliftment and observance of the required discipline. At the same time it also highlights the duty of the teacher to remove any weakness by counseling or rebuke and restore his resolve. This inspiration by the elders is known as sagaciousrebuke. Besides this, the story contains useful information about the cultural scenario of that period. Brief but explicit information about social behaviour, arts, codes of conduct, administration, etc. has been skillfully assimilated within the framework of the story. Case (150) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात ( १५१) - - - अनाव SB THE MESSAGE (The commentator gives the central theme of every story in a versified message.) If, for any reason, a disciple wavers from the path of discipline the teacher restores his resolve by inspiring in sweet but effective words as Bhagavan Mahavir did to ascetic Megh. परिशिष्ठ अंगदेश-महाभारत के अनुसार बलिराजा के पुत्र अंग द्वारा स्थापित राज्य। जैन पुराणों के अनुसार भगवान ऋषभदेव के पुत्र अंग का राज्य। शक्तिसंगमतंत्र के अनुसार वैद्यनाथ से भुवनेश्वर के बीच का भू-भाग। वर्तमान में अधिकांश उड़ीसा, दक्षिणी बिहार का कुछ भाग तथा दक्षिण-पश्चिम बंगाल का कुछ हिम्मा मिलने से बना भू-भाग प्राचीन अंग देश कहा जा सकता है। ___ चंपा-प्राचीन अंग देश की राजधानी। भागवत कथा के अनुसार यह नगरी राजा हरिश्चन्द्र के प्रपौत्र चंपा ने बसाई थी। जैन पुराणों के अनुसार यों तो चम्पा नगरी बहुत प्राचीन है, पर वह उजड़ गई होगी। अपने पिता श्रेणिक की मृत्यु से व्यथित राजा कुणिक का मन राजगृह में नहीं लगता था। इस कारण उन्होंने चंपा के एक सुन्दर वृक्ष के निकट के क्षेत्र में अपनी नई राजधानी बसाई और उसे चंपा नाम दिया। इस नगरी के अन्य नाम हैं-अंगपुरी, मालिनी, लोमपादपुरी तथा कर्णपुरी। वैदिक और जैन संप्रदायों के समान ही बौद्ध भी इसे तीर्थ-स्थान मानते हैं। प्राचीन जैन यात्रा उल्लेखों के अनुसार यह स्थान पटना से पूर्व में लगभग दो सौ मील दूर है तथा इसके दक्षिण में लगभग बत्तीस मील पर मंदारगिरि नाम का तीर्थ पड़ता है जो वर्तमान में मंदारहिल नाम के स्टेशन के निकट है। चंपा का वर्तमान नाम चंपानाला है तथा वह भागलपुर से तीन मील दूर है। उसी के पास नाथ नगर भी है। ___राजा कुणिक-मगध के राजा प्रसेनजित का पौत्र तथा स्वनामधन्य सम्राट् बिम्बसार श्रेणिक का पुत्र। माता का नाम चेल्लणा या चेलना था जो श्रमण भगवान महावीर के मामा, वैशाली के गणाधिपति महागज चेटक की ज्येष्ठ पुत्री थी। कुणिक भारतीय इतिहास तथा बौद्ध साहित्य में अजातशत्रु के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। जैन साहित्य में इसका नाम अशोकचन्द्र भी है। भगवान महवीर के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा थी। इसके अतिरिक्त कुणिक का उल्लेख वज्जी विदेहपुत्र तथा विदेहपुत्र नामों से भी हुआ है। कुणिक प्रबल योद्धा था। वैशाली गणराज्य संगठन को हराकर वह लगभग संपूर्ण पूर्व भारत का अधिपति बन गया था। (ईसा पूर्व पाँचवीं-छठी शताब्दी)। सुधर्मास्वामी (गणधर) श्रमण भगवान महावीर के पाँचवें गणधर अग्निवैशायन गोत्रीय स्थविर आर्य मुधर्मा। भगवान महावीर के निर्वाण से पूर्व नौ गणधर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जा चुके थे। गौतमम्वामी को महावीर-निर्वाण के तत्काल बाद केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। सर्वज्ञ कभी धर्म-परम्परा wom anawar INRITHerra E N TEvanta CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA (151) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का वाहक नहीं होता अतः तीर्थंकर महावीर के पश्चात् इस दायित्व का वहन सुधमास्वामी ने किया। ये अपने युग के अनुपम विद्वान् व साधक थे। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित त्रिपदी के आधार पर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की जो जैन परम्परा के आधारभूत आगम ग्रन्थ हैं। आज जो भी श्रमण विद्यमान हैं वे सभी आर्य सुधर्मा की परम्परा की शिष्य-सन्तान हैं। बाकी सभी गणधरों की शिष्य परम्परा पृथक रूप में विकसित न होकर इसी में विलीन हो गईं। (निर्वाण-५०६ ई. पू.) जम्बूस्वामी श्रमण भगवान महावीर के प्रपट्टधर अथवा सुधर्मास्वामी के पट्टधर काश्यप गोत्रीय स्थविर आर्य जम्बू। महावीर निर्वाण के वर्ष राजगृह के एक समृद्ध वैश्य परिवार में इनका जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु में सुधर्मास्वामी का प्रवचन सुनकर इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया था। माता-पिता ग्रह से इन्होंने विवाह तो कर लिया किन्त उसी रात्रि अपनी आठ पत्नियों को धर्मोपदेश दिया उनके इस उपदेश को उनके यहाँ चोरी करने आया दस्य प्रभव भी सन रहा था। उसे भी वैराग्य उत्पन्न हो गया। प्रातः काल जम्ब ने प्रभव व उसके साथियों सहित ५२७ व्यक्तियों के साथ सधर्मास्वामी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। बारह वर्ष तक उन्होंने सुधर्मास्वामी के पास समस्त आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया और उनके निर्वाण के पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन हुए। (५२६-४६२ ई. पू.) __ चैत्य-चिता पर बना स्मारक। औपपातिक सूत्र के अनुसार चैत्य के क्षेत्र में याग तथा आहुतियों के अतिरिक्त अनेक नट, नर्तक आदि कलाकार अपनी कला का अभ्यास, प्रयोग व प्रदर्शन भी किया करते थे। टीकाकारों ने चैत्य को व्यंतरायतन भी कहा है। वर्तमान संदर्भो में देखें तो चैत्य किसी एक भवन विशेष का नाम नहीं अपितु एक ऐसे अपेक्षाकृत विशाल धार्मिक स्थल का नाम है जिसके आयतन में मंदिर, उपाश्रय आदि, विभिन्न धार्मिक क्रियाओं हेतु निर्मित किये गये निर्माण तथा इनसे जुड़ी सुविधायें विद्यमान हों। राजगृह-जैन तथाबौद्ध मतावलम्बियों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ नगर जहाँ भगवान महावीर तथा बुद्ध दोनों ने अनेक चातुर्मास किये थे। जैन ग्रन्थों के अनुसार राजगृह में भगवान महावीर के दो सौ से अधिक बार समवसरण हुए थे। वे प्रायः गुणशील, मण्डिकुच्छि व मुद्गरपाणि उद्यानों में ठहरते थे। महाभारत के अनुसार जरासंध के समय में मगध की राजधानी। इस रमणीय नगर के निकट पाँच पहाड़ हैं जिनके नाम हैं-जैन परम्परा में-वैभार, विपुल, उदय, सुवर्ण तथा रत्न-गिरि। वायुपुराण में-वैभार, विपुल, रत्नकूट, गिरिव्रज तथा रत्नाचल। महाभारत-वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि तथा चैत्यक। इन पहाड़ों के कारण राजगृह का अन्य नाम गिरिव्रज (पर्वत समूह) भी था। आवश्यकनियुक्ति की अवचूर्णि में उल्लेख है कि इस स्थल पर प्राचीनकाल में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। इसके जीर्ण हो जाने पर राजा जितशत्रु ने चनकपुर नाम का नगर बसाया था। वह भी जीर्ण हो गया तब ऋषभपुर बसाया गया और उसके बाद कुशाग्रपुर। इन सभी के नष्ट हो जाने पर महाराजा प्रसेनजित (सम्राट् श्रेणिक के पिता) ने राजगृहनगर बसाया। यहाँ के गर्म पानी के झरनों का उल्लेख प्राचीन जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में ही नहीं चीनी यात्री फाह्यान तथा ह्युयेनत्सांग के यात्रा वर्णनों में भी मिलता है। वर्तमान में यह राजगिरि के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से उत्तर पूर्व में स्थित है प्रसिद्ध नालन्दा विद्यापीठ। ___ मगध-ऋग्वेद का कीकटदेश। अथर्ववेद में इस देश का नाम मगध लिखा है। पन्नवणासूत्र में आर्यदेशों की सूची में प्रथम नाम मगध का आता है। यह क्षेत्र प्राचीन काल के सर्वाधिक समृद्धिशाली क्षेत्रों में था तथा यहाँ की सांस्कृतिक तथा राजनैतिक गतिविधियाँ सपूर्ण भारत को प्रभावित करती थीं। जैन तथा बौद्ध परम्परा की कार्य-स्थली रहने के कारण दोनों धर्मावलम्बी इसे पूज्य तथा पवित्र क्षेत्र मानते हैं। Congo 6RS स्वामी (152) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (१५३ ) किन्तु वैदिक परम्परा में तीर्थयात्रा के उद्देश्य को छोड़ अन्य किसी कारण से इस क्षेत्र में प्रवेश करने के निषेध की बात मिलती है। यहाँ अधिक समय तक निवास करने से प्रायश्चित्त करने का विधान भी है। समय के साथ अपनी सीमाओं के विस्तार तथा संकोचन के बावजूद वर्तमान के बिहार प्रान्त को प्राचीन मगध देश कहा जा सकता है। श्रेणिक राजा-शिशुनाग वंशीय मगध सम्राट्। राजा प्रसेनजित का पुत्र तथा अजातशत्रु कुणिक का पिता। अन्य नाम–बिम्बिसार, भिंभिसार तथा भंभासार। स्वप्न-लगभग सभी प्राचीन भारतीय परम्पराओं में यह मान्यता है कि जब कोई महापुरुष अपनी माता के गर्भ में आता है तब उसकी माता श्रेष्ठ स्वप्न देखती है। सभी परम्पराओं में स्वप्न-फल वेत्ताओं का तथा अष्टांगनिमित्त वेत्ताओं का उल्लेख है। स्वप्न-फल अष्टांगनिमित्त का एक अंग है। जैन मतानुसार बहतर स्वप्न होते हैं जिनमें बयालीस सामान्य स्वप्न तथा तीस महास्वप्न होते हैं। अरहंत तथा चक्रवर्ती की माताएँ इन महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न-विशेष देखती हैं। वासुदेव की माताएँ इन चौदह स्वप्नों में से सात स्वप्न देखती हैं। इसी प्रकार बलदेव की माता चार तथा माण्डलिक राजा की माता एक स्वप्न देखती है। इस संबंध में अनेक प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार उपलब्ध है, जैसे-सुश्रुतसंहिता के शरीर स्थान का तेतीसवाँ अध्याय, ब्रह्मवैवर्त पुराण-जन्मखंड-अध्याय-७, भगवतीसूत्र-शतक ६, उद्देशक ६ आदि। प्राचीनकाल में स्वप्नशास्त्र का विधिवत् अध्ययन किया जाता था तथा इसके फलाफल बताने वाले स्वप्न पाठक कहे जाते थे। स्वप्न के सम्बन्ध में आधुनिक मनोविज्ञान भी बहुत गहराई से अनुसंधान कर रहा है। अनेक पाश्चात्य लेखकों ने स्वप्न शास्त्र को परा-मनोविज्ञान की एक स्वतंत्र विधा मानकर इस पर कई ग्रन्थ लिखे हैं। अष्टांगनिमित्त-भविष्य विषयक अनुमान में सहायक विद्या। इसके आठ अंग हैं-(१) भौम (भूकंप आदि), (२) उत्पात (प्राकृतिक उत्पात), (३) स्वप्न, (४) अंतरिक्ष, (५) आंग (शरीर के अंगों से संबंधित), (६) स्वर (पक्षियों आदि की ध्वनियाँ), (७) लक्षण (स्त्री. पुरुष आदि के लक्षण), (८) व्यजंन (शरीर पर के चिन्ह, तिल, मस्से आदि)। इन विषयों की विस्तृत जानकारी वराहमिहिर की वृहत संहिता में उपलब्ध है। जाति-मातृ वंश, कुल-पितृ वंश कौटुम्बिक पुरुष-निकट के नौकर या विशेष नौकर। वैसे इस शब्द का अर्थ पारिवारिक लोग होता है। किन्तु जिस अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है वह परिवार के कार्यकर्ताओं से संबंधित है। ऐसा लगता है कि विशेष सेवाओं के लिए दूर-निकट के संबंधियों को अथवा राजवंशीय लोगों को नियुक्त किया जाता रहा होगा अतः यह शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। ये लोग वैतनिक पर स्वतंत्र कर्मचारी रहे होंगे क्रीतदास नहीं, जैसे दास चेट होते थे। ___दोहद-द्विहृद या दो हृदय। गर्भावस्था में स्त्री दोहृदयवाली होती है, एक अपना, एक गर्भस्थ शिशु का। अतः गर्भिणी स्त्री को जो विशेष इच्छाएँ, कामनाएँ उत्पन्न होती हैं उन्हें दोहद (दोहला/डोहला) कहा जाता है। ये इच्छाएँ गर्भावस्था के तीसरे माह में उत्पन्न होती हैं और ऐसी मान्यता है कि इन्हें पूर्ण न करने से स्त्री तथा उसके गर्भ को हानि पहुँचती है। अतः परिवार वालों का यह कर्त्तव्य होता है कि दोहद पूरे किये जायें। दोहद से गर्भस्थ शिशु के गुण-स्वभाव का अनुमान भी किया जाता है। प्राचीन धार्मिक साहित्य जैन, बौद्ध, वैदिक ग्रन्थों में दोहद की अधिक घटनाएँ आती है। (विस्तृत सूचना-सुश्रुत संहिताशरीर स्थान-अध्याय ३) Congo 6ta ना CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA (153) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CARRIA MOTRPramme ASTE R RORRAIMILIARIEND - वैक्रिय समुद्घात-परिस्थिति विशेष में विशिष्ट गुण सम्पन्न आत्माएँ अपने आत्म-प्रदेशों का विस्तार करती हैं और आवश्यक पुद्गलों का चयन कर आत्म-प्रदेशों का पुनः संकोचन कर इच्छित शरीर धारण करती हैं। इस क्रिया को वैक्रिय समुद्घात तथा इस शरीर को उत्तर-वैक्रिय शरीर कहते हैं। योगसूत्र में इससे मिलती-जुलती क्रिया को निर्माणचित्त तथा निर्माणकाय कहा है। वायुपुराण में भी इस विषय के उल्लेख मिलते हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण पन्नवणासूत्र के ३६३ पद में तथा भगवतीसूत्र के दूसरे शतक के दूसरे उद्देशक में मिलता है। यह देव एवं नारकों में जन्मजात तथा मनष्यों में तपोलब्धि से प्राप्त होता है। सेचनक हाथी-श्रेणिक राजा का पट्टहस्ती-मुख्य हाथी। कुणिक ने इसी हाथी को लेने के लिये महाशिला कंटक संग्राम लड़ा था और इस संग्राम में लिच्छवी तथा मल्ल गणराज्यों को पराजित किया था। जैन साहित्य में इससे जुड़ी अनेक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। ____ अठारह जाति-प्रजाति-कार्य विशेष में जुटे समूह का नाम जाति है तथा उनसे जुड़े अन्य समूहों के नाम प्रजाति या उपजाति हैं। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में अठारह जातियों के दो विभाग हैं-नौ नारू तथा नौ कारू। नास्व-(१) कुम्हार, (२) पट्टहल्न (पटेल), (३) सुवर्णकार या सोनी, (४) सूपकार या रसोइया, (५) गांधर्व (संगीतज्ञ), (६) काश्यपक (नाई), (७) मालाकार या माली, (८) कच्छकर, तथा (९) तम्बोली। काल(१) चमार, (२) यंत्रपीडक-तेली, (३) गंधिअ (गांधी या बांस फोड़), (४) छिपाय या छीपा, (५) कंसकार या कंसारो, (६) सीवंग-दर्जी, (७) गुआर, (८) मिल्ल तथा (९) धीवर-मछियारा। उग्र-आरक्षक, रखवाले, दंड देने वाले या ऐसे ही अन्य उग्र कार्यों में पारम्परिक रूप से प्रवृत्त क्षत्रिय। भोग-पारम्परिक रूप से गुरू स्थान पर रहे क्षत्रिय। राजन्य-दीर्घ आयु वाले क्षत्रिय। प्रशस्तार-धर्मशास्त्रों के अध्यापक। मल्ल अथवा मल्लकी-वंश विशेष का नाम। बौद्ध-साहित्य में इन्हें मल्ल कहा है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में मल्लक कहा है। जैन सूत्रों में काशी के नव-मल्लकी गण राजाओं का उल्लेख मिलता है। लिच्छिवी-वंश विशेष का नाम। बौद्ध लिच्छवी, कौटिल्य-लिच्छवीक, जैन लेच्छकी। कौशल के नव-लेच्छकी गणराजा। इश्वर-युवराज; अणिमा आदि सिद्धियों के धारक। तलवर-राजा द्वारा भूमि का पट्टा देकर सम्मानित व्यक्ति. जागीरदार। मांडलिक-जिस भू-भाग के निकट बस्ती या गाँव न हो उसे मंडल कहते हैं। ऐसे स्थल के मालिक को मांडलिक कहते हैं। इसका पाठ-भेद मांडविक है-मंडप के मालिक। इभ्य-जिसके धन के ढेर से हाथी ढका जाय ऐसा समृद्धिवान। श्रेष्ठी-श्री अथवा लक्ष्मी के पट्ट को सर पर बाँधने वाले अथवा धन की पूजा करने वाले। कुत्रिकापण-यह शब्द कु + त्रिक् + आपण इन तीन शब्दों से बना है। कु का अर्थ है पृथ्वी, त्रिक का अर्थ है तीन, आपण का अर्थ है दुकान। अर्थात् जिस दुकान पर तीनों लोकों की दुर्लभ वस्तुएँ अथवा सभी वस्तुएँ हों। वर्तमान का डिपार्टमेन्टल स्टोर। - - - - - ODS KIA r (154) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jam प्रथम अध्ययन उत्क्षिप्त ज्ञात APPENDIX Anga country-According to the Mahabharat this was a state founded by king Anga, the son of the demon king Bali. According to the Jain mythology it was the state ruled by Anga, the son of Bhagavan Rishabh Dev. As mentioned in the ShaktiSangam-Tantra the area between Vaidyanath and Bhuvaneshvar is recognized as Anga country. According to the modern political geography most of Orissa, parts of southern Bihar and parts of southern West Bengal put together may be termed as ancient Anga country. Champa city-The capital city of ancient Anga country. According to the stories. from Bhagavat this city was founded by the great grandson of the famous king Harishchandra. According to the Jain mythology this should be a very ancient town. but it appears to have been deserted in some remote past. Disturbed by the death of his father. King Shrenik, king Kunik found Rajagriha a haunted place. As such he found a suitable place and founded a new town. As this was near a beautiful Champa tree, he named it Champa. Other names of this city are-Angapuri, Malini, Lomapaadpuri, and Karnapuri. Like the Vedics and the Jains, Buddhists also consider this a place of pilgrimage. According to the ancient Jain travelogues this place is approximately two hundred miles east of Patna and thirty two miles south of this place is situated the famous pilgrimage centre Mandargiri, near the present day Mandar Hill railway station. Today Champa city is known as Champanala situated three miles away from Bhagalpur. Naath Nagar is also nearby. ( १५५ ) (King) Kunik-Grandson of King Prasenjit of Magadh and son of the famous emperor Bimbasar Shrenik. His mother was Chellana or Chelana who was the eldest daughter of the president of the Vaishali republic, king Chetak, the maternal uncle of Bhagavan Mahavir. In the Buddhist literature as well as Indian history Kunik is better known as Ajatshatru. In the Jain literature he has also been mentioned as Ashoka Chandra, Vajji Videhputra, and Videhputra. He was a deeply devoted follower of Bhagavan Mahavir. He was a great warrior. He defeated the Vaishali republic and became the undisputed monarch of almost the whole of eastern India. (5-6 B.C.) Sudharma Swami (Ganadhar or chief-disciple)-Sthavir Arya Sudharma, belonging to the Agnivaishayan clan, was the fifth chief-disciple of Bhagavan Mahavir. Nine of his Chief-disciples had already attained omniscience and nirvana. before the nirvana of Bhagavan Mahavir. Gautam Swami became omniscient immediately after the nirvana of Bhagavan Mahavir. An omniscient, as a rule, is never a carrier of any tradition; as such the responsibility of carrying on the tradition established by Bhagavan Mahavir came to Sudharma Swami. He was an exemplary. scholar and spiritualist of his times. It was he who created the twelve canons Dwadashangi) on the basis of the tri-facet principle (tripadi) propagated by Bhagavan Mahavir. These canons are the source-books of all knowledge for the Jain tradition. He became omniscient twelve years after the nirvana of Bhagavan Mahavir A.N.M.) or 458 B.V. (Before Vikram calendar), or 514 B.C. and got liberated in 20 A.N.M. (450 B.V.. 506 B.C.) CHAPTER-1 UTKSHIPTA JNATA (155) 0000 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Grey ( 94€ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Jambu Swami-The successor of Sudharma Swami as the head of the religious order established by Bhagavan Mahavir was Jambu Swami. He was born in a merchant family of Rajagriha in the year of the nirvana of Bhagavan Mahavir. When he was sixteen year old he became detached after listening to a discourse of Sudharma Swami. Due to intense pressure from his parents although he married but during the first night he gave a spiritual discourse to his eight wives. A notorious thief, Prabhav, who had entered Jambu's house, also happened to listen to this discourse. This thief also got detached, and the next morning when Jambu got initiated into the order by Sudharma Swami, Prabhav and his fellow thieves, all including 527 persons, joined him and became ascetics. For twelve years Jambu thoroughly studied all the canons under the tutelage of Sudharma Swami. After Sudharma Swami became omniscient Jambu succeeded him as the head of the order. Jambu became omniscient in 20 A.N.M. and got nirvana in 64 A.N.M. (462 B.C.). Jambu Swami is believed to be the last omniscient of this cycle of time. Chaitya-A monument constructed at the place of cremation. As mentioned in Aupapatik Sutra the area of a Chaitya was used for practice, experimentation, and demonstration of various performing arts like acrobatics, dance, etc. besides the religious rituals like Yajna, fire-offerings, etc. Some commentators have also termed it as Vyantarayatan or abode of lesser gods. In modern context Chaitya is not a term denoting a specific building, it denotes a comparatively larger area having temple, place of stay for ascetics, and other such constructions and facilities within it; in other words a religious complex. Rajagriha--An important place of pilgrimage for Jains and Buddhists where Bhagavan Mahavir and the Buddha spent numerous monsoon-stays. According to the Jain scriptures there occurred more than 200 Samavasarans (religious assembly) of Bhagavan Mahavir in Rajagriha. He usually stayed in Gunasheel, Mandikuccha, and Mudgarpani gardens. According to the Mahabharat it was the capital city of Magadh during the reign of Jarasandh. There are five hills around this picturesque city. There names are in Jain tradition—Vaibhar, Vipul, Udaya, Suvarna, and Ratnagiri; in Vayupurana (a Vedic scripture)-Vaibhar, Vipul, Ratnakoot, Girivraj, and Ratnachal; and in the Mahabharat-Vaihar, Varaha, Vrishabh, Rishigiri, and Chaityak. Because of this proximity with so many hills Rajagriha was also known as Girivraj (cluster of hills). There is a mention in the Avachurni (philological commentary) of the Avashyakaniryukti that in the remote past a town named Kshitipratishthita existed here. When it was ravaged by time king Jitshatru founded another town named Chanakpur in the same area. Passing centuries saw Rishabhpur and Kushagrapur at that place. Lastly king Prasenjit (father of Shrenik) founded Rajagriha. Mention of the famous hot-springs of this town can be found in the travelogues of the famous Chinese travelers Fahyan and Huentsang besides the Jain and Buddhist literature. Today this town is known as Rajgiri. The remains of the famous Nalanda Institute stand a few kilometers north-east of this place. Magadh-The Kikat country of the Rigveda. In the Atharvaveda it is mentioned as Magadh. In the Pannavana Sutra (a Jain scripture) Magadh comes first in the list of Arya countries. This area was among the most prosperous during the ancient times. The political and cultural activities of this area influenced the whole country in those ovo ( 156 ) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात (946) SN days. As it was the area where the Jain and the Buddhist cultures flourished it is considered a pious and revered area by both these traditions. However, in the Vedic tradition there are mentions that it is prohibited to enter this area for any purpose other than pilgrimage. Mention of procedures of ritual penitence for a forced stay for a longer period can also be found. In spite of the contracting and expanding of its boundaries with the passage of time the present state of Bihar roughly covers the area that was known as Magadh in the remote past. (King) Shrenik-Emperor of ancient Magadh, belonging to the Shishunaag family. Son of king Prasenjit and father of Ajatshatru Kunik. Other namesBimbisar, Bhimbhisar, and Bhambhasar. Dreams-In almost all ancient Indian traditions there was a belief that whenever a great soul descends into the womb, the mother has auspicious dreams. In almost all traditions there are mentions of dream-diviners and augurs. Dream divining is a part of the Ashtanga Nimitta or the eight pronged science of augury. In the Jain tradition there are seventy two types of dreams, out of which forty two are known as common dreams and the remaining thirty as great dreams. When an Arihant or a Chakravarti is conceived, his mother sees fourteen of the thirty great dreams. When a Vasudev is conceived his mother sees any seven out of these fourteen dreams. When it is a Baldev in the womb the mother sees any four of these fourteen dreams. When it is a Mandalik Raja (regional sovereign) in the womb the mother sees any one of these fourteen dreams. Details on this subject can be found in many ancient works; some of which are-Sushrut Samhita thirty third chapter of the section Sharirasthan, Brahmavaivarta Purana - chapter seven of the Janma section, and Bhagavati Sutra-Shatak 6 of Uddeshak 6. During those days this subject was properly and thoroughly studied. Those who practiced this were known as dreamdiviners. The modern discipline of psychology is also indulging in profound study and research on this subject. Many western scholars have written books on the subject of dreams establishing it as an independent area in the field of para-psychology. Ashtanga Nimitta-The field of study that deals with prediction of future. It has eight sections-1. Bhaum (relating to the earth, like earth-quake), 2.Utpat (natural calamities), 3. Swapna (dreams), 4. Antariksh (sky or space), 5. Aanga (parts of the human body), 6. Swara (sound, sounds emitted by birds etc.), 7. Lakshan (attributes of man, woman, animals, etc.), 8. Vyanjan (marks on the body, like warts, birth marks, etc.). Detailed information on these subjects is available in the Vrihat Samhita of Varah Mihir. Kautumbik Purush-Personal aides or servants. The literal meaning of this term is family members or relatives. But here it has been used to represent family workers. It seems that for special, important, confidential, and personal duties it must have been a norm to appoint relatives. Thus this term acquired this particular meaning. These people must have been salaried employees but otherwise independent and not slaves or bonded labours. Dohad-The literal meaning of this term is having two hearts. When a woman is pregnant she is in this state. She has two hearts, one her own and the other that of the fetus. A pregnant woman gets some cravings during the second or third month of her pregnancy; these pregnancy desires are known as Dohad or Dohala. It is believed Bacon CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA ( 157 ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (946) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SO MILY... DE ASSISTANT MA P ALALA ABREU that if these desires are not fulfilled it is damaging to the fetus. As such it is the duty of the family members to help the pregnant woman fulfill these desires. The Dohad also helps to know the attributes and qualities of the child to be born. Stories about Dohad are very common in the religious literature of Jain, Buddhist, as well as the Vedic traditions. (detailed information is available in Sushrut Samhita, Chapter 3 of the Sharirasthan section) Vaikriya Samudghat-Under specific circumstances some accomplished souls expand the constituent sections of their soul (Atma-pradesh) in relation to the matter particles. They then choose some potent and required class of matter particles and contract the soul sections to attain a desired form or body. This process is known as Vaikriya-Samudghat and the body thus formed is known as the Uttar-Vaikriya body. A similar phenomenon or process is also mentioned in Yogasutra where the process is called Nirmanachitta and the body Nirmanakaya. Vayupurana has also discussed this subject. Detailed information is available in the 36th chapter of Pannavana Sutra and the second chapter of the second Shatak of Bhagavati Sutra. This capacity is natural for the gods and the hell beings but acquired in case of the human beings. Sechanak Elephant-The best among the elephants owned by king Shrenik. Ajatshatru Kunik fought the famous Mahashila-Kantak war for this elephant. This was the war that saw the end of the republics of Licchivi and Malla. Jain literature contains many a tales connected with this elephant. Castes and sub-castes (eighteen)-Group name of people occupied in specific trades and professions is termed as caste; and the group name of people affiliated with a particular caste is termed as sub-caste. In Jambudveep Prajnapti there are two groups of the then recognized cighteen castes. One group is Naru having nine castes and the other is Karu having the remaining nine. The complete list isNARU-1. Kumhar (potter), 2. Pattahal or Patel (farmer), 3. Suvarnakar or Soni (goldsmith), 4. Soopkar (cook), 5. Gandharva (musician), 6. Kashyapak or Nai (barber), 7. Malakar or Mali (gardener), 8. Kacchakar, and 9. Tamboli (beetle leaf vendor). KARU - 1. Chamar (cobbler), 2. Yantrapeedak or Teli (oil extractor), 3. Gandhi or Baansphod (perfume maker), 4. Chhimpaya or Chheepa (textile printer), 5. Kanskaar or Kansaro (maker of metal utensils), 6. Seevang or Darji (tailor), 7. Guar, 8. Milla, and 9. Dheevar (fisherman). Kutrikapan-A place where everything from everywhere is sold: a departmental store. Licchivi-A clan name of Kshatriyas. In the Buddhist literature the name is Licchivi. In the Arthashastra of Kautilya they are mentioned as Licchavik. In Jain literature there are mentions of the Nava-Lecchaki republic-kings (head of the republic) of the Kaushal country. Malla or Mallaki-A clan name of Kshatriyas. In the Buddhist literature the name is Malla. In the Arthashastra of Kautilya they are mentioned as Mallak. In Jain literature there are mentions of the Nava-Mallaki republic-kings (head of the republic) of the Kashi country. ( 158 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९) cm R AARO UILDRD EROINESIANRAIZANDURIHASYARIESSENDRAKANTRIAGNOTICENaawaaNOR T HARAYONamrataruneawarRENCETSAMMELANGARETINGSnamesesLINES द्वितीय अध्ययन : संघाट : आमुख - शीर्षक-संघाडे-संघाट-बाँधा हुआ या जोड़ा हुआ। एक परिस्थिति विशेष और उस परिस्थिति से जुड़े सभी कर्तव्य कार्यों को इस कथानक में समझाया है। आत्मा और शरीर का बंधन एक नैसर्गिक बंधन है इस पर किसी का जोर नहीं चलता। आत्मा जब इस बंधन से मुक्त होने के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है तब उसे इस जुड़ाव का आभास होता है। इस भेद दृष्टि (भेदविज्ञान) की समझ आने पर वह देख पाता है कि शरीर के लिये किये सभी कार्यों में प्रवृत्त होना उसका आपद् कर्तव्य है। इस कर्त्तव्य को यदि वह आसक्त भाव से करता है तो कर्मबंधन को प्रेरित करता है और यदि आपाद् धर्म समझ निरासक्त भाव से करता है तो मुक्ति की ओर गति करता है। इस महत्त्वपूर्ण बात को धन्य सार्थवाह और विजय चोर के रोचक कथानक द्वारा समझाया गया है। कथासार-राजगृह नगर में धन्य सार्थवाह निवास करता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। अनेक वर्षों के विवाहित जीवन के पश्चात् भी वह निस्सन्तान थे। भद्रा ने पुत्र-प्राप्ति हेतु एक बार नगर के बाहर स्थित अनेक देवालयों में जाकर यथाविधि पूजा की और मन्नत मानी। उसकी कामना पूरी हुई और कुछ दिनों बाद वह गर्भवती हो गई। यथा समय पुत्र-जन्म हुआ और उसका नाम देवदत्त रखा गया। देवदत्त की सार-सँभाल व उसे खिलाने-रखने के लिए एक दास-पुत्र रखा गया जिसका नाम पंथक था। राजगृह नगर में ही विजय नाम का एक क्रूर और लालची चोर रहता था। एक दिन पंथक बालक देवदत्त को गोद में लेकर घर से बाहर गया और उसे एक स्थान पर बैठा वह स्वयं अन्य बालकों के साथ खेलने लगा। तभी विजय चोर उधर आ निकला। उसने आभूषणों से लदे बालक देवदत्त को देखा तो लालच से भर गया। इधर-उधर देखने पर उसने पाया कि पंथक का ध्यान खेलने में है, देवदत्त की ओर नहीं। विजय ने झट से बालक को गोद में उठाया और अपनी चादर से ढक लिया। तेजी से वहाँ से भाग गया और नगर से बाहर निकल गया। नगर के बाहर एक जीर्ण उद्यान में रहे एक पुराने कुएँ के पास जा उसने बालक के शरीर से गहने-कपड़े उतारे और उसकी हत्या कर उसे कुएँ में डाल दिया। इसके बाद वह पास ही एक घनी काला-तुलसी की झाड़ी में छुपकर बैठ गया। उधर पंथक ने धन्य को बच्चे के खो जाने की सूचना दी। धन्य चिन्तित हो नगर-रक्षकों के पास गया। बालक की खोज करते नगर-रक्षक नगर के बाहर उस उद्यान में आये। कुएँ में झाँकने पर बालक का शव दिखाई दिया। उसे कुएँ से निकाल धन्य को सौंपा गया। चोर के पद-चिन्हों पर चलते नगर रक्षकों ने झाड़ी में घुस उसे माल सहित पकड़ लिया। गले से बाँध मारते-पीटते उसे सारे शहर में घुमा कारागार में बंद कर दिया। दुःखी धन्य ने देवदत्त का दाह-संस्कार कर दिया। कालान्तर में शत्रुओं की शिकायत पर किसी राजदोष के कारण एक बार धन्य को बन्दी बनाया गया और कारागार में लाकर उसे विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी (खोड़ा) से बाँध दिया गया। भद्रा प्रख (159) BYA Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र R INThe RATION द्वारा भेजा गया भोजन लेकर जब पंथक कारागार में आया और धन्य भोजन करने लगा तो विजय ने उससे भोजन माँगा। धन्य ने उसे फटकार दिया और भोजन देने से मना कर दिया। कुछ देर बाद धन्य को शौचादि की शंका हुई तो उसने विजय से एकान्त में चलने को कहा। विजय ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया। पुनः आग्रह करने पर उसने कहा कि धन्य यदि अपने भोजन में से हिस्सा देने का वादा करे तो वह साथ चल सकता है। विवश धन्य ने वादा कर दिया और तब विजय उसे शंका मुक्त होने साथ ले गया। दूसरे दिन जब पंथक भोजन लेकर आया तो धन्य ने अपने भोजन में से विजय को भोजन कराया। पंथक ने घर लौट भद्रा से बताया तो वह धन्य से नाराज हो गई। कुछ दिनों बाद धन्य ने दण्ड स्वरूप राजकोष में धन दिया और कारागार से मुक्त होकर घर लौटा। सभी ने उसका स्वागत किया किन्तु उसकी पत्नी उससे रुष्ट रही। भद्रा ने जब उससे बात भी नहीं की तो उसने कारण पूछा। भद्रा ने कहा कि उसने अपने भोजन में से अपने पुत्रहन्ता को भाग दिया इस कारण वह रुष्ट थी। धन्य ने उसे समझाया कि विजय को भोजन देने के पीछे धन्य की अपनी शारीरिक आवश्यकता थी-मजबूरी, अन्य कोई कारण नहीं। भद्रा ने यह बात समझी कि शरीर की आवश्यकता हेतु आपाद् धर्म निभाना दोषपूर्ण नहीं है। कालान्तर में धन्य सार्थवाह ने दीक्षा ली और अपनी आराधना के फलस्वरूप सौधर्म देवलोक में जन्म लिया। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले मोक्ष में जायेगा। SECOND CHAPTER : SANGHAT: INTRODUCTION - Title--Sanghade or Sanghat means tied together or joined together. This story deals with a particular situation and the duties and activities connected with it. The connection between body and soul is a natural one and no outer force can intervene. When the soul steps on the path of freedom it becomes aware of this tie. When this sense of discrimination dawns, it becomes aware of the fact that all the essential activities connected with the body are guided by the natural and imperative needs. If it discharges its duty with an indulgent attitude the soul is doomed to attract Karmas, however, if it does the same considering it to be an imperative need or with a detached attitude the soul progresses toward liberation. This important principle has been explained with the help of this interesting tale. Gist of the Story-In Rajagriha lived a merchant named Dhanya and his wife Bhadra. Even after a long and happy married life they had no offspring. To be blessed with a child Bhadra once went to some temples outside the town to worship various deities. After some days her wish was fulfilled and Bhadra became pregnant. At the proper time she gave birth to a male child who was named Devdutt. A slave boy named Panthak was appointed to look after the child. One day Panthak took Devdutt in his arms and went out of the house. He came to the highway, placed Devdutt carefully on one side and got absorbed in playing with other children. In the city of Rajagriha lived a greedy and cruel thief named Cause Cango TE (160) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट (989) Oro GN wa 1160 @4400 - Vijaya. This thief arrived there and saw child Devdutt richly adorned with ornaments. He became mad with greed. Furtively he looked around and found that slave Panthak was inattentive towards the child. He quickly picked up the infant in his arm and covered it with his shawi. He rushed away from that spot, came out of the city and arrived near a broken well in a ruined garden. There he killed the infant and took all its cloths and ornaments. He threw the dead body of the infant in that broken well. Then he went and hid himself into a nearby thicket. Panthak returned and informed Dhanya merchant that the boy was lost. Getting this information Dhanya merchant was shocked. He approached the police force. Immediately on getting the report the police force launched a search. When they came near the broken well inside that ruined garden and looked down into the well they saw the limp dead body of Devdutt. The body was taken out from the well and handed over to Dhanya merchant. Overwhelmed with sorrow, Dhanya merchant cremated the dead body. Trekking the foot-prints left by the absconding thief the policemen reached that dense thicket and caught Vijaya red handed with the stolen goods. They tied his neck with a rope, paraded him in the town thrashing him with whips and canes and imprisoned him. Once, accused by some adversaries Dhanya was apprehended and imprisoned. He was put in the same prison and shackled jointly with Vijaya thief. Bhadra sent food in the prison with Panthak. When Dhanya started eating Vijaya asked for something to eat. Dhanya refused angrily. After some time Dhanya wanted to relieve himself. He requested Vijaya to accompany him to a secluded spot to enable him to relieve himself. Vijaya refused. After sometime Dhanya repeated his request. This time Vijaya said that if Dhanya agreed to share the food he would accompany. Dhanya was forced to agree. Vijaya now accompanied him to a secluded spot and Dhanya relieved himself. Next morning when Panthak served the food Dhanya merchant shared it with Vijaya. Panthak informed of this to Bhadra when he returned home. Bhadra became displeased with Dhanya merchant. Later Dhanya paid the fine and got himself released from the prison. When he returned home all but his wife greeted him with joy. When Dhanya asked for the reason of her reticence Bhadra informed that she was angry because he had shared the food she sent with the killer of her son. Dhanya explained that he shared the food with the killer for no other purpose but to satisfy the needs of his body. Bhadra was pleased and satisfied with this explanation. In the later part of his life Dhanya got initiated and earnestly followed the ascetic discipline. Finally he accepted the ultimate vow and after a one month fast he breathed his last and was reborn as a god in the Saudharma dimension. He shall be reborn as a human being in the Mahavideh area and shall attain liberation ending all the sorrows during the same birth. como Gma 04 CHAPTER-2 : SANGHAT ( 161 ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) मान - बीयं अज्झयणं : संघाडे द्वितीय अध्ययन : संघाट SECOND CHAPTER : SANGHAT : THE UNION सूत्र १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पन्नत्ते, बिइयस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते ? सूत्र १. जम्बू स्वामी पूछते हैं-"भंते ! श्रमण भगवान महावीर द्वारा बताये गए प्रथम ज्ञाताध्ययन के इस अर्थ के पश्चात् कृपया बतायें कि उन्होंने दूसरे ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" ___1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the second chapter according to Shraman Bhagavan Mahavir?” सूत्र २. एवं खल जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं रायगिहे णामं नयरे होत्था वन्नओ। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए राया होत्था महया. वण्णओ। तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेइए होत्था, वनओ। सूत्र २. सुधर्मा स्वामी कहने लगे-हे जम्बू ! ऐसा वर्णन है कि काल के उस भाग में राजगृह नामक एक नगर था और उसके बाहर गुणशील नामक चैत्य। राजगृह पर राजा श्रेणिक राज्य करते थे। (विस्तृत वर्णन पूर्व सम)। 2. Sudharma Swami replied-Jambu ! It is said that during that period of time there was a town named Rajagriha. Outside this town was a temple named Gunashil Chaitya. King Shrenik was the king of Rajagriha (details as before). उजाड उद्यान सूत्र ३. तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे पडिय-जिण्णुज्जाणे यावि होत्था, विणट्ठदेवकुले परिसाडिय तोरण-घरे नाणाविह-गुच्छगुम्म-लया-वल्लि-वच्छ-च्छाइए अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था। तस्स णं जिन्नुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गकूवए यावि होत्था। (162) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १६३ ) ore तस्स णं भग्गकूवस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किण्हे किण्होभासे जाव रम्मे महामेहनिउरंबभूए बहूहिं रुक्खेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य तणेहि य कुसेहि य खाणुएहि य संछन्ने पलिच्छन्ने अंतो झुसिरे बाहिं गंभीरे अणेग-वालसयसंकणिज्जे यावि होत्था। सूत्र ३. उस चैत्य के आसपास एक अन्य अति विशाल, जीर्ण टूटा-फूटा उद्यान था। उस उद्यान में रहा देवगृह कभी का खंडहर हो चुका था। उसके द्वार तथा तोरण व गृहादि ढह गये थे। उसमें अनेक झुरमुट, झाड़ियाँ, लताएँ, वल्लियाँ, वृक्ष आदि जहाँ-तहाँ उग आये थे और सैंकड़ों साँप आदि जीव रहने लगे थे। बड़ा भयानक था वह स्थान। उस उद्यान के बीचोंबीच एक टूटा-फूटा पुराना कुआँ भी था। उस कुएँ के पास एक स्थान पर मालुका (काली तुलसी) के पौधों का एक झुरमुट था जो काला रंग और कृष्ण आभा लिये था और महामेघों के समूह जैसा सुरम्य लगता था। वह झुरमुट बहुत से पेड़, झाड़ियों, पौधों, लताओं, घास और दूंठ आदि से भरा और सघन था। उसके भीतर खाली स्थान था पर बाहर से वह घना दिखाई देता था। उसके भीतर अनेक सादि हिंस्र जीवों के रहने से वह और भी भयावह और आशंकाजनक हो गया था। - DESOLATE GARDEN ____3. Near the temple there was a large, desolate and ruined garden. The temple in that garden was in ruins since long. The gates, arches, and rooms of that temple had collapsed. Bushes, shrubs, vines, creepers, and wild trees had grown here and there and hundreds of creatures like snakes had made it their abode. The place had an ominous look. There was an old and broken well at the centre of the garden. Near that well there was a thicket of black Tulsi plants. It had a beautiful black colour and hue and it looked as attractive as a cluster of black clouds. That thicket was dense and filled with numerous bushes, shrubs, vines, creepers, and wild trees as well as grass and stumps. Although it had open space in the middle, from outside it looked impenetrable. As numerous dangerous creatures like snakes lived within, it was fearsome and awe-inspiring. - Case PARO OM बाबा MANA CHAPTER-2 : SANGHAT (163) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - - धन्यव भद्रा सूत्र ४. तत्थ णं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्थवाहे अढे दित्ते जाव विउलभत्तपाणे। तस्स णं धन्नस्स सत्थवाहस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरा लक्खण-वंजणगुणोववेया माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्णसुजाय-सव्यंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदंसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमज्झा कुंडलुल्लिहिय-गंडलेहा कोमुइरयणियरपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा जाव पडिरूवा वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था। सूत्र ४. राजगृह नगर में धन्य नामक एक सार्थवाह रहता था। वह बहुत धनवान और तेजस्वी था तथा उसके घर में विपुल भोजन बनता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। वह सुकुमार शरीरा तथा पंचेन्द्रिय परिपूर्ण थी। उसकी देह मान, उन्मान और प्रमाण से सुगठित व सर्वांग सौन्दर्यवान थी। चन्द्रमा जैसी सौम्य कान्ति लिए वह सुदर्शना और रूपवती थी। मुट्ठी में समा जाय ऐसी क्षीण थी उसकी कटि और उस पर तीन सल पड़ते थे। उसके कुंडल कंधों को छूते थे और मुखमण्डल पूर्णिमा के चाँद जैसा खिला हुआ और स्निग्ध था। वह चारु वसना और शृंगार का आगार थी। ऐसी त्रिपुर सुन्दरी होने पर भी वह सन्तानहीन वंध्या थी। उसके अपने जानु और कोहनियाँ ही उसके पयोधरों का स्पर्श करने वाली सन्तानें थीं। DHANYA AND BHADRA ___4. In Rajagriha lived a merchant named Dhanya. He was very rich and influential. Large quantity of food was cooked in his kitchen. The name of his wife was Bhadra. Her body was fully developed, perfectly proportioned, delicate, and beautiful. With a moon like glow she was attractive and charming. There were three line-like folds on her abdomen and her slim waist could be held in a fist. Her dangling earrings touched her shoulders. Her face was fresh and smooth like moon. She was enchantingly dressed and richly embellished. Although an exquisite beauty, she was barren having no offspring. The only child like touch to her breasts was provided by her own thighs and arms. सूत्र ५. तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था, सव्वंगसुंदरंगे मंसोवचिए बालकीलावणकुसले यावि होत्था। AD - (164) JNĀTA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १६५) तए णं से धण्णे सत्थवाहे रायगिहे नयरे बहणं नगर-निगम-सेटि-सत्थवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्पसेणीणं बहुसु कज्जेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य जाव चक्खुभूए यावि होत्था। नियगस्स वि य णं कुडुंबस्स बहुसु य कज्जेसु जाव चक्खुभूए यावि होत्था। सूत्र ५. धन्य सार्थवाह के यहाँ पंथक नामका एक दास-पुत्र था। वह सर्वांग सुन्दर और पुष्ट देह वाला था तथा बच्चों को खिलाने में कुशल था। ___ धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में रहने वाले अनेक व्यापारियों, सेठों, सार्थवाहों तथा अठारह जातियों तथा उनकी उपजातियों के विविध कर्मों में, पारिवारिक समस्याओं व मंत्रणाओं में उसी प्रकार मार्गदर्शक के रूप में आदर पाता था जैसे अपने कुटुंब के ऐसे ही कार्यों में। 5. Dhanya merchant had a boy-slave named Panthak. He was well proportioned and healthy and was expert in child care. As he did in such matters in the family, Dhanya merchant also enjoyed a high reputation as a trouble shooter and counselor for social and other matters and problems in the trading community as well as all the eighteen castes and sub-castes. विजय चोर सूत्र ६. तत्थ णं रायगिहे नगरे विजए नामं तक्करे होत्था, पावे चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसिय-दित्त-रत्त-नयणे खर-फरुस-महल्ल-विगय-बीभच्छदाढिए असंपुडियउट्टे उद्धय-पइन्न-लंबंत-मुद्धए भमर-राहुवण्णे निरणुक्कोसे निरणुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरणुकंपे अहिव्वएगंतदिट्ठिए, खुरे व एगंतधाराए, गिद्धे व आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी, जलमिव सव्वगाही, उक्कंचण-वंचणमाया-नियडिकूडकवड-साइ-संपओगबहुले, चिरनगरविणट्ठ-दुट्टसीलायारचरित्ते, जूयपसंगी, मज्जपसंगी भोज्जपसंगी, मंसपसंगी, दारुणे, हिययदारए, साहसिए, संधिच्छेयए, उवहिए, विस्संभघाई, आलीयगतित्थभेय-लहुहत्थसंपउत्ते, परस्स दव्वहरणम्मि निच्चं अणुबद्ध, तिव्ववेरे, रायगिहस्स नगरस्स बहणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य छिंडिओ य खंडिओ य नगरनिद्धमणाणि य संवट्टणाणि य निव्वट्टणाणि य जूयखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तद्दारहाणाणि य तक्करघराणि य सिंघाडगाणि य तियाणि य चउक्काणि य चच्चराणि य नागघराणि य भूयघराणि य . dhitana Shagun / CHAPTER-2: SANGHAT (165) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Ram जक्खदेउलाणि य सभाणि य पवाणि य पाणियसालाणि य सुन्नघराणि य आभोएमाणे आभोएमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य विहुरेसु य वसणेसु य अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वाउलस्स य सुहियस्स सदुक्खियस्स य विदेसत्थस्स य विप्पवसियस्स य मग्गं च छिदं च विरहं च अन्तरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य, उज्जाणेसु य वावि-पोक्खरिणी-दीहिया-गुंजालिया-सरेसु य सरपंतिसु य सरसरपंतियासु य जिण्णुज्जाणेसु य भग्गकूवएसु य मालुया कच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकन्दर-लेणउवट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव अन्तरं मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ। ___ सूत्र ६. राजगृह नगर में विजय नाम का एक चोर था। वह बड़ा पापी, चाण्डाल जैसा और जघन्य क्रूर कर्म करने वाला था। उसकी आँखें क्रोधी व्यक्ति की आँखों जैसी लाल थीं। उसकी .दाढ़े अतिशय कठोर, विशाल, विकृत और वीभत्स थीं। उसके दाँत बड़े-बड़े थे जिसके कारण दोनों होंठ आपस में मिलते नहीं थे। उसके सिर के बाल लम्बे और हवा से उड़ने के कारण बिखरे रहते थे। वह भँवरे और राहु के समान काला था और दया तथा पश्चात्ताप से परे। इतना रौद्ररूपी था वह कि देखते ही भय उत्पन्न हो। वह नृशंस और दयाहीन था। सर्प के समान एक-दृष्टि वाला अर्थात् क्रूर कर्म में दृढ़ निश्चय वाला था। अन्य की वस्तु चोरी करने की उसकी प्रवृत्ति छुरे की धार के समान तीक्ष्ण थी। गिद्ध जैसा माँस लोलुप तो था ही, वह अग्नि के समान सर्वभक्षी और जल के समान सर्वग्राही भी था। वह उत्कंचन (मिथ्या-प्रशंसा), वंचन (ठगी), माया, पाखण्ड और क्रूर-कपट में पटु था। वह मिलावट और धोखाधड़ी में सिद्धहस्त था। एक लम्बे समय से वह नगर को आतंकित किये हुए था। उसका शील, आचार और चरित्र-सभी गर्हित थे। वह जुआ खेलने, मदिरा पीने, भोजन करने और मांस भक्षण का लोलुप था। वह कठोर, अन्य लोगों को दुःख प्रदान करने वाला, उद्दण्ड, सेंध लगाने वाला, मायाचारी, विश्वासघाती और आग लगाने में बेहिचक था। देवस्थान को नष्ट करने में निःसंकोच और देवद्रव्य हरण करने में चतुर था। वह पराया धन छीन लेने को सदा तत्पर रहता था और वैर-भावना से भरपूर था। विजय नाम का यह चोर राजगृह नगर के अधिकतर प्रवेश करने व निकलने के मार्गों, दरवाजों, छोटे व गुप्त द्वार, छिद्र, खिड़कियाँ, मोरियाँ, नालियाँ, नये मार्ग आदि स्थानों की खोज लेता रहता था। वह जुए के अड्डे, मदिरालय, वेश्यालयों और उनके प्रवेश स्थलों, चोरों के घर आदि स्थलों की खबर लेता रहता था। चौराहे, तिराहे, चौक तथा अन्य मार्गों - (166) JNĀTĀ DHARMA KATHÁNGA SUTRA Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १६७ ) के संधि स्थल; साँप, भूत, यक्षादि के आवास; सभास्थल, प्याऊ, दुकान, सूने मकान आदि स्थानों की गवेषणा करता रहता था, उनके सम्बन्ध में विविध सूचनायें एकत्र करता रहता था। जनसामान्य के सम्बन्ध में प्रकट और गुप्त सभी सूचनाएँ एकत्र करता रहता था; जैसे-परिवार के सम्बन्ध, रोग, वियोग, व्यसन, राज्य-संकट, लाभ वृद्धि, उत्सव, प्रसव, भोज, यज्ञ, तिथि, पर्व, यात्रा, आवागमन आदि अवसर, जिन पर लोगों के मद्यपान से मत्त, प्रमत्त, व्यस्त, आकुल-व्याकुल, सुख-दुःख में व्यग्र आदि हो जाने की सम्भावना होती है। ऐसी सूचनाओं के आधार पर वह लोगों की छिद्र, एकान्त आदि कमजोरियों का | अनुमान लगाता और उचित अवसर का विचार करता रहता था। विजय राजगृह नगर के बाहर स्थित बाग-बगीचे, उद्यान, विभिन्न प्रकार के बावडे, | तालाब, सरोवर, एकाकी उपवन, पुराने कुएँ, झाड़ी-झुरमुट, स्मशान, गुफा, लयन (पाषाण-मण्डप) आदि लोगों के क्रीड़ास्थलों आदि पर भी नजर रखता था। THIEF VIJAYA ____6. In the city of Rajagriha there was a thief named Vijaya. He was a sinful and lowly person indulging in despicable and cruel deeds. His eyes were red shot like an angry individual. His molars were extremely | hard, large, irregular-shaped and ugly. He also had large front teeth that did not allow his lips to come together. His hair were long and disheveled. His complexion was as dark as a bumble-bee or ebonite. He was extremely horrifying to look at. He was beyond pity and repentance. He was cruel and without compassion. Like a snake he was single minded in his cruel activities. His attitude to steal was as sharp as a honed knife. Like a vulture he was greedy for flesh. Not only that, he was also all-consuming like fire and all- enveloping like water. He was an expert of exaggeration, cheating, fraud, hypocrisy, and cruel treachery. He was also a crafty adulterer and a vile cheat. ___The city was under his terror since long. His attitude, conduct, and character were despicable. He was a compulsive gambler, and a glutton. He was callous, oppressive, rude, treacherous, crafty, cheat, and destructive. He had no scruples even in destroying or stealing religious property. Filled with the venom of vengeance, he was always ready to steal property belonging to others. CRO /CHAPTER-2: SANGHAT (167) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <> % ( १६८ ) Vijaya regularly examined various new and old paths and ways of entry and exit, gates, small and concealed doors, holes, windows, sewers, tunnels, etc. He frequented places like gambling houses, bars, whore-houses and their approaches as well as the hiding places of thieves. He also used to explore as well as collect all possible information about places like road junctions, squares; abodes of snakes, ghosts, lower gods, etc.; halls and other places of assembly; water huts, shops, forlorn houses; etc. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Besides this, he kept abreast of all activities going on in the town, open or secret, like-family equations, ailments, separations, habits, problems created by state administration, economic windfalls, festivities, child births, feasts, religious ceremonies, festivals, travels and other movements. In other words, he was well informed about all such situations when people tend to get drunk, mad, agitated, disturbed, miserable or otherwise abnormal. On the basis of such information he would asses the weakness and vulnerability of individuals and look for an opportune moment to take advantage. Vijaya also kept an eye on various picnic spots outside Rajagriha, like parks, gardens, water tanks, ponds, pools, remote woods, old wells, bushes and thickets, cremation grounds, caves, monuments etc. भद्रा की पीडा सूत्र ७. तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाल - समयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - 14 'अहं धन्नेणं सत्थवाहेण सद्धिं बहूणि वासाणि सद्द-फरिस - रस-गंध-रूवाणि माणुस्सयाई कामभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरामि । नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासिं मन्त्रे णियगकुच्छि-संभूयाई थणदुद्धलुद्धयाइं महुरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाइं थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाई थणयं पिबंति । तओ य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊणं उच्छंगे निवेसियाइं देन्ति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए । तं अहं णं अधन्ना अपुन्ना अलक्खणा अकयपुन्ना एत्तो एगमवि न पत्ता । " ( 168 ) Tendriented JNÄTA DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १६९) CID RAHTAS ABP - "तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते धण्णं सत्थवाहं आपुच्छित्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी सुबहु विउलं असण-पाण-खाइम-साइम उवक्खडावेत्ता सुबहु पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहिं मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधी-परिजण-महिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा जाइं इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुहाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वइत्तए-"जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारिगं वा पायायामि, तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुबड्डेमि त्ति कटु उवाइयं उवाइत्तए।" _सूत्र ७. धन्य सार्थवाह की पत्नी भद्रा एक बार लगभग आधी रात के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता में मग्न थी। उसके मन में विचार उठे-- ___ “अनेक वर्ष हुए, मैं धन्य सार्थवाह के साथ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप, पाँचों इन्द्रियों द्वारा मनवांछित कामभोग का आनन्द लेती जीवन व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने एक भी पुत्र-पुत्री को जन्म नहीं दिया है। वे माताएँ धन्यादि (पूर्व सम) हैं और मैं समझती हूँ कि उनका मानव-जीवन सफल हुआ है जो अपनी कोख से जन्मे, स्तनपान करने को आतुर, मीठे और तोतली बोली बोलने वाले, स्तन मूल से काँख. की ओर सरकते मुग्ध शिशु को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल जैसे कोमल हाथों से उठा गोद में बिठा उससे मीठे स्वर में बतियाती हैं। मैं तो अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, अलक्षणा हूँ, अकृतपुण्या हूँ कि इनमें से एक सुख भी नहीं पा सकी। ___“अतः मेरे लिये यह श्रेयस्कर होगा कि सूर्योदय होने पर मैं धन्य सार्थवाह से अनुमति लेकर देव पूजा की तैयारी करूँ। उसके लिए बहुत से आहार-व्यंजनादि तैयार कराऊँ; यथेष्ट पुष्प, वस्त्र, गंधमाला और अलंकार आदि मँगवाऊँ; अनेक मित्र, सजातीय, पारिवारिक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की महिलाओं को निमन्त्रण हूँ। इन सबको साथ लेकर राजगृह नगर के बाहर स्थित नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के निकट जाकर उनकी बहुमूल्य पुष्पादि वस्तुओं से पूजा करूं और उन्हें यथाविधि वन्दन करके प्रार्थना कर वर माँगू-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूँगी तो तुम्हारी पूजा करूँगी, दान करूँगी, तुम्हारे चढ़वा चढ़ाऊँगी और तुम्हारी अक्षय निधि की वृद्धि करूँगी।'' BHADRA'S DISTRESS 7. One day while Dhanya merchant's wife, Bhadra, was brooding about family matters, she thought - RAM CHAPTER-2 : SANGHAT (169) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Ram "Since many years I have been enjoying my married life with Dhanya merchant satisfying all sexual desires through all the five sense organs of hearing, touch, taste, smell, and vision. However, I have not given birth even to a single child. In my opinion, those mothers are the blessed ones and their life is fulfilled who breast-feed their own child who is eager to suckle, who sweetly stutters, and who in stupor shifts from the base of the breasts toward the armpit. After feeding they lift the baby with their tender and loving hands, put it in the lap and speak to it in their sweet voice. I am the wretched one, the cursed, unqualified, and ill-fated one that has been deprived of any of these pleasures. "As such it would be good for me to seek permission from Dhanya merchant and prepare for the worship of gods the first thing in the morning. For that I should first get a lot of food and delicacies cooked; arrange for enough flowers, dresses, fragrant flower-garlands, and ornaments; and invite many ladies from families of friends, relatives, prominent citizens and other close acquaintances. Taking them along I should go out of the town and visit temples and other such abodes of various deities including Naag, Bhoot, Yaksha, Indra, Skand, Rudra, Shiva and Vaishraman and worship them with all prescribed rituals offering them valuable things like garlands (etc.). After this I should pay them homage and seek their blessings - Beloved of gods ! If I give birth to even one child, male or female, I shall worship you, give charity in your name, and enhance your unlimited wealth by rich offerings.'" सूत्र ८. एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते जेणामेव धण्णे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एवं वयासी-“एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाइं जाव देन्ति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए। तं णं अहं अहन्ना अपुन्ना अकयलक्खणा, एत्तो एगमवि न पत्ता। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी विउलं असणं पाणं ४ जाव अणुवड्डेमि, उवाइयं करेत्तए।" ___ सूत्र ८. दूसरे दिन प्रातः भद्रा धन्य सार्थवाह के पास गई और बोली-“देवानुप्रिय ! मैंने आपके साथ अनेक वर्षों का दाम्पत्य जीवन बिताया है पर एक भी सन्तान को जन्म नहीं दे पाई। अन्य स्त्रियाँ अपने बच्चों को मीठी लोरियाँ सुनाती हैं पर मैं अधन्य, पुण्यहीन mmro Gra QAM REWS UES / (170) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १७१) - SMS SAMITON बर और लक्षणहीन हूँ कि यह सब कुछ नहीं कर पाती। अतः हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी अनुमति से अशन-पान आदि यथेष्ट सामग्री ले जाकर नागादि देवों की यथाविधि पूजा-अर्चना करके मन्नत मानूँ (पूर्वसम)।" 8. Next morning Bhadra went to Dhanya merchant and said, "Beloved of gods ! Since many years I have been enjoying my married life with you but I have not been able to give birth even to a single child. Other women sing lullabies to their children but I am the wretched, cursed, unqualified, and ill-fated one that has been deprived of any of the pleasures of motherhood. As such, beloved of gods ! I want to have your permission and go for the worship of gods and seek their blessings (details as before).” । ___ सूत्र ९. तए णं धण्णे सत्यवाहे भदं भारियं एवं वयासी-“ममं पि य णं खलु देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे-कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि ? भद्दाए सत्थवाहीए एयमटुं अणुजाणाइ। सूत्र ९. धन्य सार्थवाह ने उत्तर दिया-“हे देवानुप्रिये ! अवश्य करो ! मेरी भी यह मनोकामना है कि जैसे भी हो तुम सन्तानवती होओ।" ऐसा कहकर धन्य सार्थवाह ने भद्रा को पूजा कर मन्नत मानने की अनुमति दी। 9. Dhanya merchant replied, “Beloved of gods ! Go ahead. I also earnestly desire that you bear a child somehow." With these words Dhanya merchant gave his permission to Bhadra to worship deities and seek their blessings. सन्तान के लिए मन्नत सूत्र १०. तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी हट्टतुट्ठ जाव हयहियया विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ। उवक्खडावेत्ता सुबहुं पुष्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गेण्हइ। गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता रायगिहं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फ जाव मल्लालंकारं ठवेइ। ठवित्ता पुक्खरिणिं ओगाहेइ। ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, जलकीडं करेइ, करित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ। गिण्हित्ता पुक्खरिणीओ पच्चोरुहइ। पच्चोरुहित्ता तं सुबहु पुष्फगंधमल्लं गेण्हइ। गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य जाव वेसमणघरए य तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तत्थ णं नागपडिमाण ORA aa MEO MORE CHAPTER-2 : SANGHAT (171) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र O2ms M A/AHDIMANAS 1 यू WAVA य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, ईसिं पच्चुन्नमइ। पच्चुन्नमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ। परामुसित्ता नागपडिमो य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थेणं पमज्जइ, उदगधाराए अब्भुक्खेइ। अब्भुक्खित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लूहेइ। लूहित्ता महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेइ। करित्ता धूवं डहइ, डहित्ता जाणुपायवडिया पंजलिउडा एवं वयासी-“जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवुड्डेमि" त्ति कटु उवाइयं करेइ, करित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता विपुलं असण पाण खाइम साइमं आसाएमाणी जाव विहरइ। जिमिया जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। __ सूत्र १०. अनुमति प्राप्त कर भद्रा प्रसन्न हुई और प्रचुर सामग्री तैयार करवाकर वस्त्रालंकार आदि लेकर घर से बाहर निकली। नगर के बीच से होती वह नदी के किनारे पहुँची और समस्त सामग्री किनारे रखकर नदी में उतर गई। नदी के जल में क्रीड़ादि कर स्नान किया। फिर शुभ अनुष्ठान कर गीले वस्त्र धारण किये नदी में रहे अनेक प्रकार के कमल लिये और नदी से बाहर निकल आई। अपने साथ लाई सारी सामग्री पुनः एकत्र कर देवालयों में गई, प्रतिमाओं को नमस्कार किया, हाथ में मोर पंख लेकर नीचे झुकी और प्रतिमाओं को साफ किया, जल की धारा से अभिषेक किया, रोएँदार और कोमल कषाय रंग के कपड़े से प्रतिमाओं के अंग पोंछे, वस्त्र पहनाये, पुष्पमाला पहनाई, गंध का लेप किया, चूर्ण चढ़ाया, रंग चढ़ाया और धूप जलाई। यह सब अनुष्ठान कर घुटने टिकाकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मन्नत माँगी-“अगर मैं सन्तानवती हुई तो आपकी यज्ञ-पूजा आदि करूँगी (पूर्व सम)।" यह मन्नत माँगने के बाद भद्रा वापस नदी किनारे आई और आहारादि प्रसाद ग्रहण कर हाथ-मुँह धो घर लौटी। WORSHIP FOR OFFSPRING ____10. Bhadra was pleased to get the permission. She arranged for all the things needed including dresses and ornaments in large quantities and came out of her house. Passing through the town she went to the river bank, placed her belongings at the bank and dived into the river. After a playful bath and still in wet dress she picked a variety of lotus flowers and came out of the river. She collected all her belongings from the river bank and proceeded to the temples. Entering each temple she paid homage before the idols, bent down and cleaned the idols with peacock-feather broom, anointed them by AYA 4 (172) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA GM Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १७३) RAMINA RE pouring water, wiped them dry with soft and tufted gray towels, adorned them with cloths and garlands, rubbed perfumes and sprinkled fragrant and coloured powders over them, and in the end burnt incense. After all these rituals she touched her knees to the ground, joined her palms and bowing she prayed, “If I give birth to a child I will do your worship with all prescribed rituals (etc.).” Now Bhadra returned to the river bank, had her food and share of the auspicious offerings, washed her mouth and hands, and returned home. सूत्र ११. अदुत्तरं च णं भद्दा सत्थवाही चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुनमासिणीसु विउलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता बहवे नागा य जाव. वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं च णं विहरइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था। __ सूत्र ११. इसके बाद भद्रा प्रत्येक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन प्रचुर मात्रा में अशनादि आहार सामग्री तैयार करती और इसी प्रकार पूजादि कर भोग चढ़ाती और मन्नत मानती। कुछ समय बीतने पर भद्रा गर्भवती हो गई। 11. On eighth, fourteenth and fifteenth day of every fortnight of the lunar calendar, Bhadra repeated the above detailed rituals of worship and prayer. After some days Bhadra became pregnant. दोहद __ सूत्र १२. तए णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउब्भूए-"धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ ताओ अम्मयाओ, जाओ णं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुबहुयं पुष्फ-वत्थगंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण-पहिलियाहि य सद्धिं संपरिवुडाओ रायगिहं नगरं मझमझेण निग्गच्छति। निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाहिंति, ओगाहित्ता ण्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइम आसाएमाणीओ जाव पडिभुजेमाणीओ दोहलं विणेन्ति।" /CHAPTER-2: SANGHAT (173) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ so ( १७४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Ope 'एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तस्स गब्भस्स जाव दोहलं विणेन्ति; तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणी जाव विहरित्तए। "अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंध करेह।" सूत्र १२. जब भद्रा को गर्भवती हुए दो महीने बीत गये और तीसरा चलने लगा तो उसे एक दोहद उत्पन्न हुआ-"वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनी आदि हैं जो खूब अशनादि, घुष्पादि वस्त्रालंकार लेकर मित्रादि की स्त्रियों के साथ नगर के बीच से हो नदी के किनारे आती हैं। नदी में स्नान आदि कर वस्त्रालंकार पहन आनन्द से आहार ग्रहण करती हैं, स्वाद से खाती और खिलाती हैं और इस सबमें संतोष प्राप्त कर अपना दोहद पूर्ण करती हैं।" इस विचार के उठने के पश्चात् दूसरे दिन प्रातःकाल वह धन्य सार्थवाह के पास गई और बोली-“देवानुप्रिय ! मुझे गर्भ के प्रभाव से एक दोहद उत्पन्न हुआ है।" दोहद का वर्णन कर उसने धन्य से दोहद पूर्ण करने की इच्छा प्रकट की। धन्य ने कहा-“हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिसमें सुख मिले वह कार्य निर्विलम्ब करो।" PREGNANCY-DESIRE 12. During the third month of pregnancy Bhadra had a Dohad (pregnancy-desire)—“Blessed, pious, and contented are those mothers who, accompanied by other women, carrying plenty of gourmet food, flowers, cloths and ornaments (etc.) go to the river bank passing through the town. After arriving there they bathe (etc.) in the river, adorn themselves with cloths and ornaments, and enjoy as well as offer the food to others. Deriving happiness in these activities they fulfill their Dohad." Next morning she went to Dhanya merchant with these thoughts and said, “Beloved of gods ! Due to my pregnant condition I had a Dohad." She explained her desire to Dhanya merchant and asked him to make necessary arrangements. Dhanya said, “Beloved of gods ! do as you please without any delay." सूत्र १३. तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुनाया समाणी हतुट्ठा जाव विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता ण्हाया P MAmbo - - BAB (174) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १७५) al SE ( S जाव (कयबलिकम्मा) उल्लपडसाडगा जेणेव णागघरए जाव धूवं दहइ। दहित्ता पणाम करेइ, पणामं करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। तए णं ताओ मित्त-नाइ जाव नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सव्वालंकार-विभूसियं करेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहिं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणणगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव परिभुंजेमाणी य दोहलं विणेइ। विणित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। ___ सूत्र १३. धन्य सार्थवाह से अनुमति पा भद्रा प्रसन्न हुई और प्रचुर सामग्री के साथ नदी के किनारे जा, स्नानादि करके देवकुलों में जा वह यथाविधि उपासना पूर्ण कर वापस नदी के किनारे आई। वहाँ उसके साथ आई महिलाओं ने उसे वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया। फिर उसने अपने साथ आई स्त्रियों के साथ आहारादि ग्रहण करके आनन्द से अपना दोहद पूर्ण किया और घर को लौट आई। ___13. Bhadra was pleased to get the permission. She went to the river bank with plenty of things she needed, took her bath (etc.), went into the temples, performed the ritual worship and returned to the river bank. There the ladies accompanying her adorned her with the cloths and ornaments. Enjoying the food with her friends she fulfilled her Dohad and returned home. पुत्र-प्रसव सूत्र १४. तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुन्नडोहला जाय तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्ठमाणं राइंदियाणं सुकुमाल-पाणि-पायं जाव सव्यंगसुंदरंगं दारगं पयाया। सूत्र १४. दोहद पूर्ति के बाद भद्रा सभी कार्य पूरी सावधानी से करती हुई और उचित पथ्य ग्रहण करती हुई गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी। नौ महीने और साढ़े सात दिन बीतने पर उसने एक सुकुमार अंगों वाले बालक को जन्म दिया। BIRTH OF A SON 14. After her Dohad was fulfilled Bhadra started taking due care in all her movements and activities. She ate nutritious food and spent the pregnancy period taking due precautions. When nine months and seven and a half days passed she gave birth to a male child having a delicate body. CHAPTER-2 : SANGHAT (175) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र UMATA FRIEND MAST HP सूत्र १५. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेन्ति, करित्ता तहेव जाव विउलं असण पाण खाइम साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता तहेव मित्तनाइ. भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति-"जम्हा णं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे णं तं होउ णं अम्हं इमे दारए देवदिन्ननामेणं।" तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवड्डेन्ति। सूत्र १५. जन्म के बाद पहले दिन माता-पिता ने बालक का जातकर्म संस्कार किया और तब एक के बाद एक ग्यारह दिन तक सभी पारम्परिक संस्कार अनुष्ठान पूरे किये। बारहवें दिन आहारादि की भरपूर तैयारी कर मित्रादि स्वजनों-परिजनों को आमंत्रित किया। भोज सम्पन्न होने के बाद गुणानुसार नाम रखने हेतु कहा-"हमारा यह पुत्र नागादि देवों की प्रतिमाओं के सम्मुख मनौती करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है अतः इसका नाम देवदत्त रखा जाता है।" फिर बालक के माता-पिता ने मनौती के संकल्प के अनुसार सभी दानादि अनुष्ठान सम्पन्न किये। 15. After the birth of the child, on the first day the parents performed the ritual ceremonies connected with the birth of a son. After that, one by one they performed all traditional ceremonies and rituals for eleven days. On the twelfth day arrangements were made for a great feast and friends and relatives were invited. When the feast concluded the formal naming ceremony was performed. Dhanya merchant said, “As we have been blessed with this son by the grace of deities like Naag, (etc.) we formally give him the name Devdutt (given by the gods)." After this the parents indulged in other activities like charity (etc.) as they had vowed. देवदत्त का अपहरण सूत्र १६. तए णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए। देवदिन्नं दारयं कडीए गेण्हइ, गेण्हित्ता बहहिं डिभएहि य डिंभयाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे अभिरमइ। BABI (176) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA STA Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAT द्वितीय अध्ययन : संघाट सूत्र १६. पंथक नाम का एक दास पुत्र बालक देवदत्त की देखरेख के लिये नियुक्त हुआ। वह देवदत्त को गोद में उठाकर अनेक विविध आयु के बालक-बालिकाओं के साथ खेलता रहता था। KIDNAPPING OF DEVDUTT 16. The slave boy Panthak was appointed to look after child Devdutt. He used to carry Devdutt and play around with children of various ages. सूत्र १७. तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइं देवदिन्न दारयं हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करे | पंथयस्स दासचेsयरस हत्थयंसि दलयइ । ( १७७ ) तए णं पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिनं दारयं कडीए गेह, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ । पडिणिक्खमित्ता बहूहिं डिंभएहि य डिंभियाहि य जाव (दारएहिं दारियाहिं कुमारेहिं ) कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं एगंते ठावेइ । ठावित्ता बहूहिं डिंभएहि य जव कुमारियाहि यसद्धिं संपरिवुडे पमत्ते यावि होत्था विहरइ । सूत्र १७. एक बार भद्रा ने देवदत्त को स्नानादि सभी नित्य कर्म से निवृत्त करा वस्त्र आभूषणों से सजा पंथक के हाथ में दिया । पंथक ने देवदत्त को गोद में लिया और घर से बाहर निकला। अन्य बहुत से बच्चों को साथ लेकर वह राजमार्ग पर आया। उसने देवदत्त को एक ओर बैठा दिया और स्वयं उन बच्चों के साथ खेलने में मगन हो गया। 17. One day Bhadra got Devdutt ready after giving him a bath and dressing him and adorning him with ornaments. She then handed him over to Panthak. Panthak lifted Devdutt in his arms and went out of the house. Taking some more children along he came to the highway. He placed Devdutt carefully on one side and got fully absorbed in playing with the other children. बालक की हत्या सूत्र १८. इमं च णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य अवदाराणि य तहेव जाव आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसेमाणे जेणेव देवदिने दारए तेणेव उवागच्छइ । CHAPTER-2 : SANGHAT For Private Personal Use Only ( 177 ) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CON ( १७८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र । AVALAM उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासइ। पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचेडं पमत्तं पासइ। पासित्ता दिसालोयं करेइ। केरत्ता देवदिन्नं दारयं गेण्हइ। गेण्हित्ता कक्खंसि अल्लियावेइ। अल्लियावित्ता उत्तरिज्जेणं पिहेइ। पिहेत्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे, जेणेव भग्गवए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ। ववरोवित्ता आभरणालंकारं गेण्हइ। गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरयं निप्पाणं निच्चेटुं जीवियविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवइ। पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अणुपविसइ। अणुपविसित्ता निच्चले निप्फंदे तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठइ। सूत्र १८. तभी विजय नाम का चोर राजगृह नगर के विभिन्न गुह्य-एकान्त स्थलों का निरीक्षण-परीक्षण करता (पूर्व वर्णन के अनुसार) वहाँ आ पहुँचा। उसने गहनों से लदे-फदे देवदत्त को देखा। गहने देखते ही वह लोभ से पागल हो गया और उसके मन में विवेकहीन आकांक्षा जाग उठी। उसने इधर-उधर देखा और पाया कि दास पंथक बालक की ओर से बेखबर है। उसने झट से बालक को उठाया और अपनी काँख में दबाकर ऊपर से चदरा ढक लिया। फिर वह शीघ्र, त्वरित, चपल और तेज चाल से चलता नगर-द्वार से बाहर निकला और उस उजाड़ उद्यान में टूटे कुएँ के पास पहुँचा। वहाँ उसने बालक देवदत्त की हत्या कर दी और उसके सारे वस्त्रालंकार उतार कर ले लिये। बालक की प्राणहीन, चेष्टाहीन और निर्जीव देह को उसने टूटे कुएँ में डाल दिया। वह स्वयं कुएँ के पास के उस घने झुरमुट में घुस गया और निश्चल, निस्पन्द तथा मौन होकर छुप बैठा और दिवस के अन्त होने की राह देखने लगा। । main - KILL THE CHILD 18. Just than, while exploring unfrequented and secluded spots (details as before), Vijaya thief arrived there. He saw child Devdutt richly adorned with ornaments. The moment he saw the costly ornaments he became mad with greed and distorted ambition. Furtively he looked around and found that slave Panthak was not watching the child. He quickly picked up the infant in his arm and covered it with his shawl. He rushed away from that spot, came out of the city gate and arrived near the broken well in the ruined garden. There he killed the omo - . (178) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GRYWAVE ZAJMULERAY BYNGAS S ORTO ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED चित्र : ९ राजगृह में धन सार्थवाह नाम का धनाढ्य गृहस्थ रहता था । भद्रा उसकी पत्नी थी। अनेक मनौतियों •बाद धन सेठ को एक पुत्र की प्राप्ति हुई । देवदत्त उसका नाम रखा गया। एक बार पंथक नाम का घरेलू नौकर बालक देवदत्त को सुन्दर वस्त्र - बहुमूल्य आभूषण पहनाकर गली के मोड़ पर बच्चों के साथ खेलने ले गया । देवदत्त को एक चबूतरे पर बैठाकर पंथक बालकों के साथ खेलने लग गया। तभी राजगृह का क्रूर खूँखार विजय चोर उधर आ निकला । देवदत्त के शरीर पर बहुमूल्य कीमती आभूषण देखकर वह चुराने के लिए ओट में छुपकर मौका देखने लगा। पंथक को लापरवाह देखकर विजय चोर ने बालक को उठा लिया। जंगल में ले जाकर उसने कीमती वस्त्र आभूषण उतार लिए और उसे मार कर एक गहरे सूखे कुए में फेंक दिया। ( अध्ययन २ ) विजय चोर द्वारा देवदत्त का अपहरण ILLUSTRATION: 9 In Rajagriha lived a merchant named Dhanya and his wife Bhadra. After a lot of worship Bhadra became pregnant and gave birth to a male child who was named Devdutt. One day a domestic servant, Panthak, took Devdutt, came to the highway, placed Devdutt carefully on a platform and got busy playing with other children. The greedy and cruel thief named Vijaya arrived there and saw child Devdutt richly adorned with ornaments. He was overpowered by greed. Furtively he looked around and found that slave Panthak was inattentive towards the child. He quickly picked up the infant in his arm and covered it with his shawl. He came out of the city and arrived near a broken well in a ruined garden. There he killed the infant, took all its cloths and ornaments, and threw the dead body in that broken well. KIDNAPPING OF DEVDUTT BY VIJAY THIEF JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA (CHAPTER-2) ORTO OMG Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट -HONE ( १७९) om OMG infant and took all its cloths and ornaments. He threw the dead, inactive and lifeless body of the infant in that broken well. Then he went into that nearby thicket. He sat down motionless, unstirring, silent, and concealed, waiting for the day to end. सूत्र १९. तए णं से पंथए दासचेडे तओ मुहत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ। करित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुई वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे, जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! भद्दा सत्थवाही देवदिन्नं दारयं ण्हायं जाव मम हत्थंसि दलयइ। तए णं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि। गिण्हित्ता जाव मग्गणगवेसणं करेमि, तं न णज्जइ णं सामी ! देवदिन्ने दारए केणइ णीए वा अवहिए वा अवखित्ते वा।" पायवडिए धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमटुं निवेदेइ। __ तए णं से धण्णे सत्थवाहे पंथयदासचेडगस्स एयमहूँ सोच्चा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूए समाणे परसुणियत्ते व चंपगपायवे धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहिं सन्निवइए। __सूत्र १९. उधर दास-पुत्र पंथक कुछ देर बाद वहाँ पहुँचा जहाँ उसने बालक को बिठाया था। बालक को वहाँ नहीं पा वह रोता-चिल्लाता इधर-उधर सब जगह उसे ढूँढ़ने लगा। पर उसे देवदत्त का न तो स्वर सुनाई दिया, न उसकी छींक आदि की कोई ध्वनि और न ही वह स्वयं कहीं दिखाई दिया। निराश हो वह अपने मालिक के घर लौटा और धन्य सार्थवाह से बोला--''हे स्वामी ! मालकिन भद्रा ने स्नानादि करवाकर वस्त्राभूषण पहनाकर बालक को मुझे दिया था। मैं उसे लेकर बाहर गया और एक जगह बैठा दिया। कुछ देर बाद वह मुझे दिखाई नहीं दिया। मैंने सब जगह ढूँढ़ लिया। स्वामी ! पता नहीं देवदत्त को कोई मित्र अपने साथ ले गया, किसी चोर ने अपहरण कर लिया अथवा किसी ने कहीं फेंक दिया।" उस दास-पुत्र ने धन्ना के पैरों में पड़कर यह सब बताया। __पंथक की बात सुनकर धन्य सार्थवाह पुत्र शोक से व्याकुल हो उठा और कुल्हाड़ी से कटे चम्पा के पेड़ के समान धड़ाम से धरती पर गिरकर मूर्छित हो गया। 19. After sometime slave-boy Panthak came to the spot where he had left Devdutt. Not finding the child he started crying and, shouting the boy's name started searching all around. But he could neither locate Devdutt nor hear the voice or any other sound, like sneezing, emitted by the child. OM 24HRA KOT - CHAPTER-2 : SANGHAT (179) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Dejected, he returned to his master's house and informed Dhanya merchant, "Master ! Mistress Bhadra got Devdutt ready after giving him a bath and adorning him with dress and ornaments. She then handed him over to me. I took him and went out of the house and placed Devdutt carefully at a safe spot. After some time I could not see the child there. I searched him all around but could not find him. Master ! I do not know if some of his friends has taken him along, or some thief has kidnaped him or thrown him away.” That slave boy narrated the incident and fell at the feet of Dhanya. Getting this information from slave-boy Panthak, Dhanya merchant was deeply moved by the tragedy of loosing his son. He fell on the floor, like a Champa tree struck by an axe, and fainted. बालक की खोज __ सूत्र २0. तए णं से धण्णे सत्थवाहे तओ मुहुत्तंतरस्स आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता महत्थं पाहुडं गेण्हइ। गेण्हित्ता जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ, उवणइत्ता एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिन्ने नामं दारए इढे जाव उंबरपुर्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ?" ___ तए णं सा भद्दा देवदिन्नं पहायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलयइ, जाव पायवडिए तं मम निवेदेइ-"तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं कयं। सूत्र २०. कुछ देर बाद जब उसे होश आया. मानो प्राण लौट आये हों, तो उसने सब जगह बालक की खोज की। किन्तु बालक की कोई खोज-खबर नहीं मिली। वह निराश हो घर लौटा, बहुमूल्य भेंट सामग्री ली और नगर-रक्षक के पास गया। नगर-रक्षक-दल के सामने वह भेंट रखी और बोला-“हे देवानुप्रियो ! मैं और मेरी पत्नी भद्रा के देवदत्त नाम का एक पुत्र है, जो हमें प्राणों से भी अधिक प्यारा है।" ___ धन्ना सार्थवाह ने बालक के खो जाने का पूरा विवरण विस्तार से नगर-रक्षकों को बताया और कहा-“अतः हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि आप वालक देवदत्त की सभी स्थानों पर तलाश करें, खोज करें।' enge NEPALI / (180) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १८१) Sur क SEARCH FOR THE CHILD 20. After some time when he regained consciousness, as if he had been resurrected, he searched for the child everywhere but could not find any trace. He returned home crestfallen. He then collected valuable gifts and went to the chief of the police. He placed the gifts before the policemen and said, “Beloved of gods ! I and my wife have a son named Devdutt who is more precious to us than our own lives." And Dhanya merchant gave detailed report of the child's disappearance. He then asked, "I want that you conduct a thorough search for the lost child." सूत्र २१. तए णं ते नगरगोत्तिया धण्णेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलिय-सरासणवट्टिया जाव गहियाउह-पहरणा धण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य जाव पवासु य मग्गण-गवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति। पासित्ता हा हा अहो अकज्जमिति कटु देवदिन्नं दारयं भग्गकूवाओ उत्तारेंति। उत्तारित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे णं दलयंति। __सूत्र २१. नगर-रक्षकों ने धन्य की बात सुनकर कवच तैयार कर उन्हें पहनकर कसों से वाँधा, अस्त्र-शस्त्र उठाये और धन्य सार्थवाह के साथ हो लिये। उन्होंने राजगृह नगर के मार्ग, दरवाजे आदि (पूर्व वर्णन सम) सभी गुप्त-प्रकट स्थलों पर खोज की और तब नगर से बाहर निकले। खोज करते वे लोग उसी उजाड़ उद्यान में टूटे कुएँ के पास आये। उन्होंने जब कुएँ में झाँका तो देवदत्त का निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर दिखाई पड़ा। उनके मुँह से अनायास ही-“हाय ! हाय ! अहो अकार्य।" आदि स्वर फूट पड़े। देवदत्त की देह को कएँ से निकाल धन्य सार्थवाह को सौंप दिया गया। 21. Immediately on getting the report the police-force put on and tied their shields, picked up their weapons, and moved out with Dhanya merchant. They first searched all the streets, gates (etc., details as before), and then came out of the town. During their search they came near the broken well inside that ruined garden. When they looked down into the well they saw the limp dead body of Devdutt. They involuntarily uttered, “Oh ! god ! what cruelty?" Devdutt's body was taken out from the well and handed over to Dhanya merchant. amere ROINERwan CHAPTER-2 : SANGHAT ( 181) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र विजय चोर का निग्रह __सूत्र २२. तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता मालुयाकच्छयं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता विजयं तक्करं ससक्खं सहोडं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गिण्हंति। गिण्हित्ता अट्टि-मुट्ठि-जाणु-कोप्पर-पहारसंभग्गमहियगत्तं करेन्ति। करित्ता अवाउडबंधणं करेन्ति। करित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति। गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधंति, बंधित्ता मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं अणुपविसंति। अणूपविसित्ता रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु कसप्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा निवाएमाणा छारं च धूलिं च कयवरं च उवरिं पक्किरमाणा पक्किरमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति_ “एस णं देवाणुप्पिया ! विजए नामं तकरे जाव गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए, बालमारए, तं नो खलु देवाणुप्पिया ! एयस्स केइ राया वा रायपुत्ते वा रायमच्चे वा अवरज्झइ। एत्थढे अप्पणो सयाई कम्माइं अवरझंति' त्ति कटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता हडिबंधणं करेन्ति, करित्ता भत्तपाणनिरोहं करेंति, करित्ता तिसझं कसप्पहारे य जाव निवाएमाणा निवाएमाणा विहरंति। सूत्र २२. इसके बाद वे नगर-रक्षक विजय चोर के पद-चिन्हों का अनुसरण करते हुए उस घने झुरमुट के पास पहुंच गये। झुरमुट में घुसकर विजय चोर को चोरी के माल सहित पकड़ लिया। पंचों की साक्षी करवाकर उसे गर्दन से बाँध लिया। फिर हड्डी के डंडे, मुक्के आदि से घुटने, कोहनियों आदि पर मार-मार कर उसका शरीर ढीला कर दिया। दोनों हाथों को पीठ के पीछे बाँध दिया और बालक के आभूषण कब्जे में कर लिये। यह सब कार्यवाही करके वे झुरमुट से बाहर निकले और राजगृह नगर में प्रवेश किया। नगर के विभिन्न मार्गों पर वे चोर को कोड़ों, बेंत और चाबुक से मारते और उसके ऊपर राख, धूल, कचरा आदि डालते हुए चलने लगे। इस बीच वे ऊँचे स्वर में यह घोषणा भी करते जा रहे थे-"हे देवानुप्रियो ! यह विजय नाम का चोर है। यह गिद्ध के समान मांसभक्षी है, बाल-घातक है, बच्चों का हत्यारा है। हे देवानुप्रियो ! इसे यह मार किसी राजा, राजपुत्र अथवा अमात्य के कहने से नहीं पड़ रही है। यह तो स्वयं अपने किये कुकर्म का दण्ड भोग रहा है।" चलते-चलते वे कारागार में पहुंचे और उसे बेड़ियों से जकड़ दिया। उसका भोजन-पानी बंद कर दिया और सुबह, दोपहर, शाम उस पर कोड़े आदि की मार बरसाने लगे। Radinmol RamRDAMEEssa ---31 7 (182) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १८३ ) CHEE RAM PUNISHMENT TO VIJAYA 22. Trekking the foot-prints left by the absconding thief the policemen reached that dense thicket. They entered the thicket and caught Vijaya red handed with the stolen goods. After getting the legal formalities of evidence, they tied the thief's neck with a rope. They hit him on his joints with fists and sticks made of bone and turned his body limp. The stolen ornaments were recovered from him and his fists were tied behind his back. After doing all this they brought him out of the thicket and entered the town. They paraded him in the streets of the town thrashing him with whips and canes and throwing ash, dust and garbage over him. They also announced loudly, “Beloved of gods ! this is Vijaya, the thief. He is a meat eater like a vulture, he is a kidnaper and killer of children. He is not being beaten by orders of the king, prince or a minister. He is suffering this punishment because of his own misdeeds.” When they reached the prison the thief was shackled and imprisoned. He was not given anything to eat or drink and was whipped every morning, afternoon, and evening. सूत्र २३. तए णं से धण्णे सत्थवाहे मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं रोयमाणे कंदमाणे जाव देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं नीहरणं करेंति। करित्ता बहूई लोइयाइं मयगकिच्चाई करेंति, करित्ता केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था। ___ सूत्र २३. धन्य सार्थवाह अपने अनेक मित्र, स्वजनादि के साथ क्रंदन-विलाप करते हुए बालक देवदत्त के शरीर को महती ऋद्धि सत्कार के साथ दाह-संस्कार के लिये स्मशान में ले गया। वहाँ मृत्यु सम्बन्धी सभी लोकाचार आदि सम्पन्न कर दाह-संस्कार कर दिया। समय के अन्तराल के साथ वह पुत्र-शोक से उबर गया। 23. Accompanied by friends and relatives and overwhelmed with sorrow, Dhanya merchant took the dead body of Devdutt to the cremation ground. The funeral procession had all the pomp and show befitting his status. With all the traditional formalities and rituals the last rites were performed and the body cremated. With the passage of time he overcame the pangs of the pain of loosing his son. PARDA अब - o pm /CHAPTER-2 : SANGHAT (183) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C) ( १८४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ... - . - Rama - NAGARIOUSD % धन्य सार्थवाह का निग्रह सूत्र २४. तए णं से धण्णे सत्थवाहे अन्नया कयाइ लहुसयंसि रायावराहसि संपलते जाए यावि होत्था। तए णं ते नगरगुत्तिया धण्णं सत्यवाहं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव चारग तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता चारगं अणुपवेसंति, अणुपवेसित्ता विजए णं तकरेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति। सूत्र २४. एक बार कुछ चुगलखोरों ने धन्य सार्थवाह पर किसी सामान्य छोटे-मोटे राज्यापराध का आरोप लगा दिया। नगर-रक्षकों ने उसे बंदी बना लिया और कारागार में ले जाकर विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी से बाँध दिया। DHANYA IN PRISON 24. Once some adversaries framed Dhanya merchant and accused him of some minor offense against the state. He was apprehended and imprisoned. He was put in the same prison and shackled jointly with Vijaya thief. सूत्र २५. तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव जलंते विपुलं असण-पाण-खाइमसाइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता भोयणपिडयं करेइ, करित्ता भायणाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता लंछियमुद्दियं करेइ। करित्ता एगं च सुरभिवारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ। करित्ता पंथयं दासचेडं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया ! इम विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं गहाय चारगसालाए धन्नस्स सत्थवाहस्स उवणेहि।" ___ सूत्र २५. अगले दिन सुबह होने पर भद्रा ने बहुत-सी आहार सामग्री तैयार की और एक छबड़ी में उस सामग्री सहित आवश्यक पात्र आदि रख दिये। इस छबड़ी को बंद कर उस पर अपने चिह्न की मोहर लगा दी। सुगंधित जल से भरा एक छोटा घड़ा भी तैयार किया। पंथक नामक दास-पुत्र को बुलाकर भद्रा ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! यह सब खाने-पीने का सामान कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जाओ।" 25. Next morning Bhadra cooked a lot of food and put it in a basket along with the necessary utensils. She covered and sealed this basket. A small pitcher was filled with perfumed water. She now called slaveboy Panthak and instructed him, “Beloved of gods ! take all this food and water to Dhanya merchant in the prison." सूत्र २६. तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हट्टतुढे तं भोयणपिडयं तं च सुरभि-वरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गेण्हइ। गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ। BEDI (184) meoJNATA DHARMA KATHANGA SUTRA G Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट (१८५) ल SHARE mmarmanan m ason पडिनिक्खमित्ता रायगिहे नगरे मझमझेणं जेणेव चारगसाला, जेणेव धन्ने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठावेइ, ठावेत्ता उल्लंछइ, उल्लंछित्ता भायणाइं गेण्हइ। गेण्हित्ता भायणाई धोवेइ, धोवित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धण्णं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं परिवेसेइ। ___ सूत्र २६. पंथक ने प्रसन्नचित्त हो उस छबड़ी तथा घड़े को उठा लिया और घर से निकल राजमार्ग पर होता हुआ कारागार में धन्य सार्थवाह के पास गया। वहाँ पहुँचकर उसने वह छबड़ी नीचे रखी, उस पर से मोहर हटाई, भोजन के पात्रों को धोया, धन्य सार्थवाह के हाथ धुलाये और भोजन परोस दिया। 26. Panthak happily picked up the basket and the pitcher and walking on the highway went to Dhanya merchant in the prison. He put down the basket on the floor, broke the seal, washed the utensils, helped Dhanya merchant wash his hands, and served the food. विजय की क्षुधा सूत्र २७. तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“तुमं णं देवाणुप्पिया ! मम एयाओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि।" तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी-"अवियाइं अहं विजया ! एयं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं कायाणं वा सुणगाणं वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेज्जा, नो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेज्जामि।" सूत्र २७. यह सब देख विजय चोर ने धन्य से कहा-“हे देवानुप्रिय ! मुझे भी इस ढेर से भोजन में से कुछ दो।" ___ धन्य सार्थवाह ने उत्तर दिया-“हे विजय ! भले ही इतनी सारी भोजन सामग्री मुझे कौवों और कुत्तों को देनी पड़े या फिर कूड़े में फेंकनी पड़े पर तेरे जैसे पुत्रघातक, शत्रु, अनाचारी और प्रतिकूल व्यक्ति को इसमें से हिस्सा नहीं दूंगा।" - name- 15OM - - VIJAYA'S DESIRE FOR FOOD 27. Seeing all this, Vijaya thief said to Dhanya merchant, “Beloved of gods! Out of this large quantity of food please give a little to me as well.” Dhanya merchant replied, “Vijaya ! I would prefer to feed cravens and dogs or throw all the extra food in a dustbin rather then - CHHALA TOS ला - - जा CHAPTER-2 : SANGHAT (185) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sugal (१८६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ma VEEN - -- - - share it with the killer of my son, an enemy, a rogue, and a despicable person like you." सूत्र २८. तए णं धण्णे सत्थवाहे तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारे।। आहारित्ता तं पंथयं पडिविसज्जेइ। तए णं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हइ, गिण्हित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। __ सूत्र २८. धन्य सार्थवाह ने वह भोजन किया और पंथक को छबड़ी सहित वापस भेज दिया। 28. Dhanya merchant ate the food and sent the basket back with slave-boy Panthak. सूत्र २९. तए णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार-पासवणेणं उव्वाहित्था। ___ तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी-एहि ताव विजया ! एगंतमवक्कमामो, जेण अहं उच्चारपासवणं परिवेमि। तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“तुब्भं देवाणुप्पिया ! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारियस्स अत्थि उच्चारे वा पासवणे वा, मम ण देवाणुप्पिया ! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य जाव लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परब्भवमाणस्स णत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा, तं छंदेणं तुम देवाणुप्पिया ! एगंत अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिट्टवेहि।" सूत्र २९. पेट भर भोजन करने के बाद धन्य को मल-मूत्र त्यागने की शंका हुई तो उसने विजय से कहा-"विजय ! चलो एकान्त में चलें जिससे मैं मल-मूत्र त्याग कर सकूँ।" विजय ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिय ! तुमने तो पेट भर भोजन-पान किया है अतः तुम्हें मल-मूत्र की शंका हुई है। पर मैं तो बहुत से कोड़ों आदि की मार से तथा भूख-प्यास से पीड़ित हूँ। मुझे तो कोई ऐसी शंका नहीं हो रही। हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी इच्छा हो तो तुम्ही जाओ।" 29. Once his stomach was filled Dhanya merchant had the desire to relieve himself. He requested Vijaya, “Vijaya ! come, let us go to a secluded spot so that I may relieve myself of the nature's call." ___ Vijaya replied, “Beloved of gods ! You have eaten a stomach full of food and water and so you have this urge. But I am suffering the pain ( 186) JNATA DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 M Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED सहयोग की मजबूरी चित्र : १० बहुत खोजबीन के बाद विजय चोर पकड़ा गया। राजा की आज्ञानुसार पाँव में लकड़ी की बेड़ी (खोड़ा) लगाकर कारागार में बन्द कर दिया गया। कुछ समय बाद किसी राजकीय अपराध के दण्ड स्वरूप धन सेट को भी उसी कारागार में विजय चोर के साथ उसी बेड़ी में बन्द कर दिया गया। धन सेठ के लिए घर से भोजन आदि आता रहता। विजय चोर भी भूखा था, उसने खाना माँगा तो सेठ ने क्रोध में भरकर कहा-यह बचा हुआ भोजन कौओं, कुत्तों को डाल दूंगा, परन्तु तुझ पुत्र घातक को नहीं दूंगा। ___ भोजन के बाद सेठ को शौच जाने की शंका हुई। उसने विजय को साथ चलने के लिए कहा, परन्तु वह क्यों जाता? आखिर हारकर सेठ ने उसके साथ समझौता किया-मैं तुझे खाना दूंगा, तू शंका निवारण करने मेरे साथ चलते रहना। पुत्रघाती चोर को सेठ के खाने में से खाना खाते देखकर पंथक को बहुत बुरा लगता है। (अध्ययन २) FORCED TO COMPROMISE ILLUSTRATION: 10 After a lot of search Vijaya was apprehended and imprisoned. Once, accused by some adversaries Dhanya was also apprehended and put in the same prison, shackled jointly with Vijaya thief. Bhadra sent food in the prison with Panthak. When Dhanya started eating, Vijaya asked for something to eat. Dhanya refused angrily. After some time Dhanya wanted to relieve himself. He requested Vijaya to accompany him to a secluded spot. Vijaya refused. Driven by the need of his body Dhanya was forced to submit to the demand of the thief. Vijaya now accompanied him to a secluded spot and Dhanya relieved himself. Next morning when Panthak served the food Dhanya merchant shared it with Vijaya. Panthak saw this and felt very bad. (CHAPTER-2) TAGESVEDO JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SÜTRA Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १८७) : Twitola का saamaaveturnRABINAuneuWHPRONARIES HIMMATAARMP of whipping as well as hunger and thirst. I have no such urge like you. Beloved of gods ! you may go if you like.” विजय चोर को भोजन में हिस्सा सूत्र ३०. तए णं धण्णे सत्थवाहे विजए णं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से धण्णे सत्थवाहे मुहुत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उध्वाहिज्जमाणे विजयं तक्करं एवं वयासी-“एहि ताव विजया ! जाव अवक्कमामो।" ___ तए णं से विजए धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि, ततो हं तुम्हेहिं सद्धिं एगंतं अवकमामि।" __सूत्र ३0. विजय की यह उक्ति सुन धन्य सार्थवाह चुप रह गया। कुछ देर में उसकी शंका तीव्र हो गई तो उसने फिर विजय से कहा-“विजय ! चलो एकान्त में चलें।" विजय ने इस बार कहा-“देवानुप्रिय ! यदि तुम अपने भोजन में से मुझे हिस्सा देना स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चल सकता हूँ।" SHARING THE FOOD TO VIJAYA 30. This reply from Vijaya silenced Dhanya merchant. After some time when his urge intensified he again asked Vijaya, “Come Vijaya ! let us go to some secluded spot.” This time Vijaya said, "Beloved of gods ! If you agree to share your food with me I am ready to go to a secluded spot with you." सूत्र ३१. तए णं से धण्णे सत्यवाहे विजयं एवं वयासी-"अहं णं तुब्भं तओ विउलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करिस्सामि।" तए णं से विजए धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमद्वं पडिसणेइ। तए णं से विजए धण्णेणं सद्धिं एगते अवक्कमेइ, उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ, आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ। सूत्र ३१. धन्य सार्थवाह ने भोजन में से हिस्सा देना स्वीकार कर लिया। विजय ने उसकी बात मान ली और उसके साथ एकान्त स्थल पर चला गया। धन्य सार्थवाह शंकामुक्त हो हाथ-मुँह धोकर स्वच्छ हुआ और दोनों वापस अपने स्थान पर लौट आये। 31. Dhanya merchant agreed to share his food. Vijaya thief now accepted Dhanya merchant's request and accompanied him to a n amambatathimirman ORNMa -Pr mom CHAPTER-2 : SANGHAT (187) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) SAAD ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CO secluded spot. Dhanya merchant relieved himself and washed his hands and face. Both of them returned to their cell. सूत्र ३२. तए णं सा भद्दा कल्लं जाव जलते विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव परिवेसेइ। तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयस्स तक्करस्स तओ विउलाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ संविभागं करेइ। तए णं से धण्णे सत्थवाहे पंथयं दासचेडं विसज्जेइ। सूत्र ३२. भद्रा ने दूसरे दिन भी सुबह होने पर उसी प्रकार पंथक के साथ भोजन सामग्री भेजी। पंथक ने वहाँ आकर धन्य को भोजन परोसा तो धन्य ने विजय को भी उस भोजन में से कुछ भाग दिया। भोजन कर चुकने के बाद पात्रादि के साथ उसने पंथक को वापस भेज दिया। ____32. Next morning Bhadra again sent the food basket with slave-boy Panthak. In the prison Panthak served the food and Dhanya merchant shared it with Vijaya. After eating, the basket with utensils was returned with Panthak. सूत्र ३३. तए णं से पंथए भोयणपिडयं गहाय चारगाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता रायगिहं नगरं मझमझेणं जेणेव सए गेहे, जेणेव भद्दा भारिया, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता भई सत्थवाहिं एवं वयासी-“एवं खलु देवाणुप्पिए ! धण्णे सत्यवाहे तव पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स ताओ विउलाओ असण-पाण-खाइमसाइमाओ संविभागं करेइ।" तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथयस्स दासचेडयस्स अंतिए एटमटुं सोच्चा आसुरत्ता रुट्ठा जाव मिसिमिसेमाणा धण्णस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ। सूत्र ३३. पंथक ने घर लौटकर भद्रा से कहा-"देवानुप्रिये ! धन्य सार्थवाह ने आपके पुत्र के हत्यारे शत्रु को अपनी भोजन सामग्री में से हिस्सा दिया है।'' भद्रा पंथक से यह बात सुनकर क्रोध से लाल हो गई और कुढ़ती हुई धन्य सार्थवाह से रूठ गई। 33. When slave-boy Panthak returned home he said to Bhadra, "Beloved of gods! Today Dhanya merchant shared his food with the killer of your son." Getting this information from slave-boy Panthak Bhadra turned red with anger. She fretted in irritation and became displeased with Dhanya merchant. PATI - (188) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १८९) C क SAIRAVA - धन्य का छुटकारा सूत्र ३४. तएं णं धण्णे सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरिजणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ। मोयावित्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ। पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं करेइ। करित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ। गेण्हित्ता पोक्खरिणिं ओगाहेइ। ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ। करित्ता पहाए कयबलिकम्मे जाव रायगिहं नगरं अणुपविसइ। अणुपविसित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ___ सूत्र ३४. उधर धन्य सार्थवाह को उसके किसी स्वजन ने अर्थदण्ड चुकाकर मुक्त करा लिया। वह कारागार से निकलकर आलंकारिक सभा (सौन्दर्य प्रसाधन केन्द्र) में गया। वहाँ पहुँचकर बाल कटवाए तथा अन्य आलंकारिक सेवा करवाई। फिर वह नदी के किनारे गया और किनारे की मिट्टी लेकर नदी में उतरा। भली प्रकार शरीर को रगड़कर स्नानादि कर्मों से निवृत्त हो राजगृह नगर में प्रवेश किया और अपने निवास की ओर चला। DHANYA RELEASED 34. One of Dhanya merchant's friends paid the fine and got him released from the prison. From the prison Dhanya merchant immediately went to a beauty parlour. There he got a haircut and other such services performed. From there he went to the river bank and taking clean sand in his hands entered the river. He immaculately rubbed and washed his body clean. After putting on his dress he entered the town and proceeded towards his house. सूत्र ३५. तए णं धण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे बहवे नियग-सेट्ठि-सत्थवाह-पभइओ आढ़ति, परिजाणंति, सक्कारेंति, सम्माणेति, अब्भुटुंति, सरीरकुसलं पुच्छंति। ___ तए णं से धण्णे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता जावि य से तत्थ वाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा-दासाइ, वा, पेस्साइ वा, भियगाइ वा, भाइल्लगाइ वा, से वि य णं धण्णं सत्थवाहं एज्जंतं पासइ, पासित्ता पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छति। __जावि य से तत्थ अब्भंतरिया परिसा भवइ, तं जहा-मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, सावि य णं धण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अद्भुढेइ। अब्भुढेत्ता कंठाकंठियं अवयासिय बाहप्पमोक्खणं करेइ। P V"AFED CHAPTER-2 : SANGHAT (189) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ( १९०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SATTA MEDIAS सूत्र ३५. धन्य सर्थवाह को आता देखकर नगर के अनेक आत्मीय, श्रेष्ठी, सार्थवाह आदि जनों ने उसका आदर किया, स्वागत-सत्कार किया, सम्मान किया और खड़े होकर क्षेम-कुशल पूछी। धन्य सार्थवाह फिर अपने घर पहुँचा। बाहरी आँगन में खड़े दास, नौकर-चाकर, भृत्य, पालती आदि ने उन्हें आया देख पैरों में गिरकर क्षेम-कुशल पूछी। भीतरी आँगन में माता, पिता, भाई, बहन आदि परिवार-जन धन्य को आया देख आसन से उठे और उन्हें गले से लगा हर्ष के आँसू बहाये। 35. When they saw Dhanya merchant coming, many of his friends, other merchants, etc. greeted him with respect and enthusiasm. They stood up and asked about his welfare. Dhanya merchant then reached home. In the courtyard slaves, servants, and other workers touched his feet and asked his wellbeing. In the living area his parents, brothers, sisters and other family members got up from their seats, embraced him and shed tears of joy. भद्रा के कोप का उपशमन सूत्र ३६. तए णं से धण्णे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता णो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठइ।। ___तए णं से धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं वयासी-“किं णं तुब्भं देवाणुप्पिए, न तुट्ठी वा, न हरिसे वा, नाणंदे वा ? जं मए सए णं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं || विमोइए।" सूत्र ३६. अन्त में धन्य सार्थवाह अपनी पत्नी भद्रा के पास गया। उसे आता देख भद्रा ने अभिवादन ही नहीं किया मानो अपरिचित हो। वह मौन रही और मुँह घुमाकर बैठ गई। यह देख धन्य सार्थवाह बोला-“देवानुप्रिये ! मेरे आने से तुम्हें न संतोष हुआ, न हर्ष और न आनन्द। क्या बात है ? मैं तो अर्थदण्ड देकर राज कोप से छूटकर आया हूँ।" APPEASEMENT OF BHADRA 36. In the end Dhanya merchant went to his wife. Seeing him approach, Bhadra gave a cold shoulder as if she did not recognize him.. She remained silent and turned away from him. Surprised, Dhanya Jamg - 190) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट (१९१) merchant said, “Beloved of gods ! You are neither pleased, happy, nor contented to see me, what is the matter? I have paid the fine and saved myself from the wrath of the king.” __ सूत्र ३७. तए णं भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“कहं णं देवाणुप्पिया ! मम तुट्ठी वा जाव आणंदे वा भविस्सइ, जेणं तुमं मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ?" सूत्र ३७. भद्रा ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिय ! मुझे सन्तोष, हर्ष और आनन्द कैसे होगा जबकि आपने मेरे पुत्र के हत्यारे को मेरे भेजे हुए आहार-पानी में से हिस्सा दिया।" 37. Bhadra replied, “Beloved of gods ! How can I be pleased, happy or contented when I know that you shared the food I sent for you with the killer of my son?" ___ सूत्र ३८. तए णं से भई एवं वयासी-“नो खलु देवाणुप्पिए ! धम्मो त्ति वा, तवो त्ति वा, कयपडिकयाइ वा, लोगजत्ता इ वा, नायए ति वा, घाडियए ति वा, सहाए ति वा, सुहि त्ति वा, तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए, नन्नत्थ सरीरचिन्ताए।" तए णं सा भद्दा धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा-जाव आसणाओ अब्भुढेइ, कंठाकंठिं अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता बहाया जाव पायच्छित्ता विपुलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ। ___ सूत्र ३८. धन्य सार्थवाह बोला-“देवानुप्रिये ! मैंने यह कार्य न तो धर्म या तप समझकर किया है, न उपकार का बदला, लोक दिखावा अथवा न्याय सम्मत समझकर किया है और न ही उसे अपना नायक, सहचर, सहायक अथवा मित्र समझकर किया है। अपने शरीर की चिंता छोड़ (विवशता के कारण) अन्य किसी प्रयोजन से मैंने उसे अपने आहार-पानी में से हिस्सा नहीं दिया है।" धन्य के इस स्पष्टीकारण से भद्रा प्रसन्न और संतुष्ट हुई। वह अपने आसन से उठी और अपने पति के गले से लग उसकी कुशल-क्षेम पूछी। फिर स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हो सुख-भोग करती जीवन व्यतीत करने लगी। 38. Dhanya merchant replied, “Beloved of gods ! I did not do this thing taking it to be a religious act or with the misconception that it was some penance. I was not inspired to return some favour. I also did not consider it to be some social obligation or a legal duty. Nor did I - SAMRO H CHAPTER-2 : SANGHAT (191) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र :-12 share the food with the killer of my son considering him to be my leader, associate, or friend. I did that with no other purpose but to satisfy the needs of my body." Bhadra was pleased and satisfied with this explanation from Dhanya merchant. She at once got up from her seat, embraced him and asked about his welbeing. After this, she went for her bath, got ready and resumed her normal marital and family life. विजय चोर की अधम गति __ सूत्र ३९. तए णं से विजयं तक्करे चारगसालाए तेहि बंधेहिं वहेहिं कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए य छुहाए य परज्झवमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने। से णं तत्थ नेरइए जाए काले कालोभासे जाव वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ। से णं तओ उव्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सइ। __ सूत्र ३९. उधर विजय चोर बन्ध से, वध की धमकी से, कोड़ों की मार से, और भूख-प्यास से पीड़ा पाता हुआ मृत्यु के बाद नारक जीव के रूप में नरक में पैदा हुआ। वहाँ वह हर प्रकार से काला दिखाई देता था और दुःख भोग रहा था। नरक से निकलकर वह अनन्त काल तक चार गति वाले संसार का भ्रमण करेगा। END OF VIJAYA 39. In the prison Vijaya thief continued to be tormented by his shackles, threats of death, whipping and agony of hunger and thirst. In the end he died and was born as a hell being enveloped in the hellish darkness and suffering intolerable tortures. When he leaves the hell he will be caught in the unending cycles of rebirth for an indefinite period. सूत्र ४0. एवामेव जंबू ! जे णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गन्थी वा आयरियउवज्झायाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे विपुलमणिमुत्तिय-धण-कणग-रयण-सारे णं लुब्भइ से वि य एवं चेव। ___ सूत्र ४0. हे जंबू ! इसी प्रकार हमारा जो भी साधु या साध्वी गृह त्यागकर, मुंडित होकर आचार्य या उपाध्याय के पास दीक्षा लेने के बाद विपुल मणि, मोती, धन, सोना और बहुमूल्य रत्नों में लुब्ध होता है उसकी भी यही गति होती है। ago GARIA - - - (192) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १९३ ) ORNO OS M 40. Jambu ! If any of our ascetics, who has renounced the world, shaved and has been initiated by an Acharya or Upadhyaya, is still allured by plenty of beads, pearls, cash, gold or precious gems, he faces the same consequences. सूत्र ४१. तेणं कालेणं तेणं समए णं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव पुव्वानुपुट्विं चरमाणा जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव अहापिडरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति। परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। ___ सूत्र ४१. काल के उस भाग में धर्मघोष नाम के स्थविर भगवन्त जो उच्च मातृपक्ष और पितृपक्ष तथा बल आदि गुणों वाले थे, गाँव-गाँव विहार करते हुए राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में आकर यथाविधि ठहरे। उनके आने पर नगर में परिषद निकाली गई और उन्होंने धर्म देशना दी। ____41. During that period of time a senior ascetic named Dharmaghosh, who was a high born (meaning both father and mother belonging to upper caste), strong (etc. ) and virtuous, wandering from one village to another, arrived in Rajagriha and stayed in the Gunashil Chaitya. A delegation of citizens came to him and he gave a discourse. धन्य की दीक्षा व देवलोक गमन सूत्र ४२. तए णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"एवं खलु भगवंतो जाइसंपन्ना इहमागया, इहं संपत्ता, तं गच्छामि णं थेरे भगवंते वंदामि नमसामि।" ___ एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ण्हाए जाव सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए पायविहार-चारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ। तए णं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति। सूत्र ४२. धन्य सार्थवाह ने कई लोगों से यह समाचार जाना। उसके मन में विचार उठा-"उत्तम गुण वाले स्थविर भगवन्त यहाँ पधारे हैं। मुझे भी जाकर उनको नमन-नमस्कार करना चाहिये। यह सोचकर वह स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त हुआ और धर्म सभा में जाने योग्य स्वच्छ और मांगलिक वस्त्र पहने। फिर वह पैदल चलकर गुणशील चैत्य में गया और स्थविर भगवन्त के पास पहुँच उन्हें यथाविधि वन्दना की। उन्होंने उसे अपना विशिष्ट धर्मोपदेश दिया। CEO SMS T जब CHAPTER-2 : SANGHAT (193) HA Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CRO SH 410 DHANYA TURNS ASCETIC 42. Dhanya merchant got this news from a number of sources. He thought, “A highly virtuous senior ascetic has arrived in town. I should also go and pay my homage to him.” He got ready after a bath and put on a dress suitable for a religious assembly. He arrived at the Gunashil Chaitya walking, went near the ascetic and formally bowed before him. The senior ascetic gave a special discourse for him - सूत्र ४३. तए णं से धण्णे सत्थवाहे धम्म सोच्चा एवं वयासी-“सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं।" जाव पव्वइए। जाव बहूणि वासाणि सामण्ण-परियागं पाउणित्ता, भत्तं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संलेहणाए सढि भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं धण्णस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। से णं धण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खए णं ठिइक्खए णं भवक्खए णं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिहिइ। सूत्र ४३. धर्मोपदेश सुनकर धन्य सार्थवाह बोला-"भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ।" यह कहकर उसने पूरी श्रद्धा के साथ प्रव्रज्या लेने की इच्छा प्रकट की (अ. १, सू. ११५ के समान)। फिर उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अनेक वर्षों तक उसने श्रमण जीवन का पालन किया। अन्त में आहार त्यागकर एक महीने की संलेखना ग्रहण की, साठ-भक्त का त्याग किया और देह त्यागकर सौधर्म देवलोक में देव रूप में जन्म लिया। सौधर्म देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की आयुष्य होती है। धन्य नामक देव भी उन्हीं में से है। वह अपने आयुष्यकर्म की प्रकृति, स्थिति और भव का क्षय कर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य रूप में जन्म लेगा और उसी भव में सब दुःखों का अन्त कर सिद्धि प्राप्त करेगा। 43. After listening to the discourse Dhanya merchant said, "Bhante ! I have faith on the sermon of the Nirgranth." And he expressed his earnest desire to get initiated (same as Ch. 1, para 115). Consequently he was initiated. For many years he earnestly followed the ascetic discipline. Finally he accepted the ultimate vow and after a one month fast he breathed his last and was reborn as a god in the Saudharma dimension. - (194) JNATĂ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट ( १९५) Some of the gods in the Saudharma dimension have a life span of four Palyopams (a superlative count of time). Dhanya too was one of them. After completing his age, form, state, and life as a god he shall be reborn as a human being in the Mahavideh area and shall attain liberation, ending all the sorrows, during the same birth. उपसंहार सूत्र ४४. जहा णं जंबू ! धण्णेणं सत्थवाहेणं नो धम्मो ति वा जाव विजयस्स तक्करस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए, एवामेव जंबू ! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा जाव पव्वईए समाणे ववगयण्हाणुम्मद्दण-पुष्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो वण्णहेउं वा, रूवहेउं वा, विसयहेउं वा असण-पाण-खाइम-साइमं आहारमाहारेइ, नन्नत्थ णाण-दंसण-चरित्ताणं वहणयाए। से णं इह लोए चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावगाणं य साविगाण य अच्चणिज्जे जाव पज्जुवासणिज्जे भवइ। परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कन्नच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पाडणाणि य वसणुप्पाडणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ। अणाईयं च णं अणवदग्गं दीह जाव वीइवइस्सइ; जहा से धण्णे सत्थवाहे। __सूत्र ४४. हे जम्बू ! जैसे धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को अपने भोजन में से हिस्सा देने का कार्य न तो धर्म या तप समझकर किया, न उपकार का बदला आदि समझकर किया और न ही उसे अपना मित्रादि मानकर किया। उसने यह कार्य केवल अपने शरीर की रक्षा के लिये किया। उसी प्रकार, हे जम्बू ! हमारे जो साधु-साध्वी दीक्षित होने के पश्चात् स्नान, मर्दन, पुष्प, गन्ध, माला, अलंकार आदि का परित्याग कर इस औदारिक शरीर की कांति के निमित्त अथवा विषय भोगों को भोगने के निमित्त आहार नहीं करते, अपितु ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन करने के लिए करते हैं वे साधु-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं के वन्दनीय और हर तरह से उपासनीय होते हैं। परलोक में भी वे हाथ, कान, नाक, हृदय, वृषण आदि अंगों के छेदने, उखाड़ने, ऊँचा लटकाने आदि कष्टों से पीड़ित नहीं होते। वे पुनर्जन्म के अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग को पार करते हैं, जैसे धन्य सार्थवाह ने किया। CONCLUSION 44. Jambu ! Dhanya merchant did not do the act of sharing of his food with Vijaya thief considering it to be a religious act or with the misconception that it was some penance. He was not inspired to do this ख्या CHAPTER-2 : SANGHAT (195) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99€) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 9 as a return of some personal favour. He also did not consider it to be some social obligation or a legal duty. Nor did he do it considering Vijaya to be his friend (etc.). He did that with no other purpose but to satisfy the needs of his body. Similarly, Jambu ! when those of our ascetics who refrain from taking bath, massage, as well as any use of flowers, perfumes, garlands, ornaments, etc.; do not eat food for improving the appearance of this earthly body or enjoying the earthly pleasures but do that only as essentials on the path of right knowledge, perception, and conduct; become objects of reverence and worship for ascetics as well as house-holders. They also do not suffer the agony of amputation and other hellish tortures. They transcend the eternal cycle of rebirth as Dhanya merchant did. सूत्र ४५. एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति aft सूत्रं ४५. हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने दूसरे ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है, ऐसा मैं कहता हूँ। 45. Jambu ! This is the text and the meaning of the second chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. Il Pasira 3tosu 1941. Il || CHAT 3784749 44197 11 11 END OF THE SECOND CHAPTER II ( 196 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट MOV ( १९७) - उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की यह दूसरी कथा साधना पथ पर निर्लिप्त सांसारिक क्रिया के महत्त्व को दर्शाती है। जब तक आत्मा शरीर के रथ पर सवार है उसे अपनी यात्रा के लिये रथ को चलने योग्य सक्रिय तथा सुचारु रूप में रखना आवश्यक है। वैसा बनाये रखने के लिए जो उचित कर्म भी करना पड़े वह उसका आवश्यक कर्तव्य है अतः उसमें संकोच या दुविधा को स्थान नहीं है किन्तु वैसा कोई भी कार्य रुचि, भय, अभ्यास या आसक्ति से प्रेरित नहीं होकर निस्पृह भाव से होना चाहिये। इस कथा का संयोजन रूपक या उपमा शैली में किया गया है। यथा राजगृह नगर है मनुष्य क्षेत्र। धन्य है उसमें रहा साधु अथवा आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर साधक। विजय चोर उस साधु का शरीर है। धन्य का पुत्र देवदत्त है चरम आनन्द के लक्ष्य की प्राप्ति का आधार-संयम। पंथक है प्रमादरूपी अशुभ प्रवृत्ति। देवदत्त के आभूषण हैं इंद्रियों के विषय। प्रमाद के प्रभाव और इन्द्रियों की आसक्ति से प्रेरित शरीर संयम का हनन कर देता है। बेड़ी का बंधन है आत्मा और शरीर का अवश्यम्भावी संयोग। राजा है कर्मफल और दंडनायक आदि राजपुरुष हैं कर्म प्रकृतियाँ। अपराध है आयुष्य बंध का हेतु। धन्य की शौच-शंका है शरीर की नैसर्गिक आवश्यकताएँ जिनकी पूर्ति के बिना शरीर आत्मोन्नति की साधना के लिए अक्षम हो जाता है-उसमें बाधा बन जाता है। भद्रा है- आचार्य, जो साधु के अकल्पित कार्य के लिए उपालम्भ देता है किन्तु उस कार्य का औचित्य जान लेने पर संतुष्ट होता है। साधु यहाँ यह स्पष्ट करता है कि शरीर को पोषण देना उसका आपाद् धर्म में प्रेरित निस्पृह कार्य था, अन्य किसी कारण से प्रेरित आसक्ति रूप कार्य नहीं। उपनय गाथा इस अध्ययन की अन्तःप्रेरणा को स्पष्ट करने वाली यह उपनय गाथा है सिव साहणेस आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धणोव्व विजयं साहु तं तेण पोसेज्जा॥ -मोक्ष के साधना मार्ग पर बढते हुए यह देह एक साधन है, आहार के बिना यह साधना करने में समर्थ नहीं रहता। अतः साधक इसी भावना से भरण पोषण करे जैसे धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को भोजन दिया। 0DY EHERE - CHAPTER-2 : SANGHAT (197) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (986) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र LU CONCLUSION This second story of the Jnata Dharma Katha highlights the importance of detached mundane activities on the spiritual path. As long as the soul rides the chariot of body it is imperative for the travel to maintain the chariot in running condition. Whatever activity is needed for this maintenance is its imperative duty. As such there is no scope of ambiguity or a second thought. But all such activity has to be done with a detached attitude and not because of liking, fear, habit, or fondness. This story has been written in metaphoric style The city of Rajagriha is the abode of human beings. Dhanya is an ascetic or a practicer on the spiritual path. Vijay thief is the body of that ascetic. Devdutt is the discipline, the means of achieving the ultimate pleasure of liberation. Panthak is the harming attitude of lethargy or apathy. The ornaments of Devdutt are the subjects of the five senses. Under the influence of lethargy and infatuation with sensual pleasures the body annihilates the discipline. The bond of shackles is the inevitable interdependence of soul and the body. The king is the fruit of karma and his forces the various categories of karmas. Crime is the cause of the bondage of life-span. The nature's call of Dhanya is the natural needs of the human body without heeding to which the body becomes incapable of progressing on the spiritual path. Bhadra is the teacher who rebukes the practicer but is satisfied when a proper reason is given for the specific deed. The practicer explains that he has indulged in the act for the sole purpose of performing an essential duty and not because of any vested interest. THE MESSAGE Without food this body is not capable of observing the disciplines like meditation, self-analysis, and other practices needed on the path of liberation. As such an ascetic should nurture the body with the same attitude as Dhanya merchant did Vijaya thief. va 410A (198) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९) d तृतीय अध्ययन : अंडे : आमुख शीर्षक-अंडे-अंडक-यहाँ सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है यह शब्द। किन्तु एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रतीक रूप दिया गया है इसे। आस्था का प्रतीक। अंडे के भीतर जो जीवन विकास की क्रिया होती है वह सामान्यतया अदृष्ट होती है और उसको सेने वाले पक्षी के मन में उस अदृष्ट क्रिया व उसके प्रति गहरी और निश्शंक आस्था रहती है। शंका उत्पन्न हुई कि असंयमित व्यवहार आरंभ हुआ और जीवन का विकास अवरुद्ध। इस कथा में इसी आस्था-अनास्था के फल को दर्शाया है। कथासार-चंपा नगरी के बाहर सुभूमिभाग नामक एक मनोरम उद्यान था। इस उद्यान की एक झाड़ी में एक मोरनी ने सुंदर अंडे दिये थे। दो सार्थवाह पुत्र गणिका देवदत्ता के साथ उद्यान-रमण के लिये आए और उन्होंने वे अंडे देखे। अपने चाकरों से उन्होंने एक-एक अंडा अपने-अपने घर भिजवा दिया जिससे वहाँ रही मुर्गियाँ उन्हें सेकर मयूर-शावक उत्पन्न करें जिनसे उनका मनोरंजन हो। सागरदत्त-पुत्र के मन में अंडे को देख शंका उत्पन्न हो गई और वह उस अंडे को बार-बार हिलाता-डुलाता और जाँच करता रहा। अंततः वह अंडा सड़ गया। जिनदत्त-पुत्र के मन में कोई शंका उत्पन्न नहीं हुई। उसकी आस्था अटूट बनी रही। समय पाकर उस अंडे में से एक नन्हा मयूर निकला। उसे मयूर-पालकों के पास भेजा और यथोचित विकास तथा कला सिखाने की व्यवस्था की गई। मयूर बड़ा हुआ तो उसके करतब देख जिनदत्त-पुत्र का मनोरंजन तो हुआ ही साथ ही उसके स्पर्धा में जीतने के कारण लाभ भी हुआ। Came AARme - (199) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 200 ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र mo SU 4000 THIRD CHAPTER: ANDAK: INTRODUCTION Title-Andak means eggs. Although the term has been used in its literal sense only, it provides an important symbol; that of faith. The life process continuing within an egg is apparently invisible. The bird that hatches it still has a deep and unwavering faith in that invisible activity. The moment a shadow of doubt appears it gives rise to unruly behaviour and results in choking the evolution of life. This story highlights the result of such faith and skepticism. Gist of the Story—There was a beautiful garden named Subhumibhag outside the town of Champa. A wild pea-hen had laid two eggs in a thicket in this garden. Two merchant boys took along Devdutta courtesan and came to Subhumibhag garden for entertainment. They saw those two large and healthy eggs. They arranged to send one egg to each one's house with servants so that domestic hens could hatch and produce peacock chickens for their entertainment. Son-of-Sagardatta became doubtful if the egg would hatch or not? Nervously he disturbed the egg time and again. All this movement made the egg lifeless. Son-of-Jinadatta had no such apprehension. He was confident. A few days later a tiny chick broke the shell and came out. It was given under the care of peacock trainers. The chick slowly grew into a beautiful and intelligent peacock. Son-ofJinadatta not only entertained himself but also took this peacock along to various competitions in the town and won high wagers. r 400mA 1 EYOTE (200) JNĀTA DHARMA KATHÄNGA SUTRA Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) 4IMA तच्चं अज्झयणं : अंडे तृतीय अध्ययन : अंडक THIRD CHAPTER : ANDAK - THE EGGS सूत्र १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयमढे पन्नत्ते, तइअस्स अज्झयणस्स के अढे पण्णत्ते ? सूत्र १. जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया-"भंते ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता धर्मकथा के दूसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है, तो तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ?" ___ 1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the third chapter of Jnata Dharmakatha according to Shraman Bhagavan Mahavir?” सूत्र २. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं चंपा नाम नयरी होत्था, वन्नओ। तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभाए नामं उज्जाणे होत्था। सव्वोउय-पुष्फ-फलसमिद्धे सुरम्में नंदणवणे इव सुह-सुरभि-सीयल-च्छायाए समणुबद्ध । __सूत्र २. सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-“हे जम्बू ! ऐसा वर्णन है कि काल के उस भाग में चम्पा नाम की एक नगरी थी। जिसके बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में सुभूमिभाग नामक एक रमणीय उद्यान था। वह सभी ऋतुओं में फूलों-फलों से लदा बड़ा सुरम्य लगता था। वह नन्दनवन के जैसा शुभ, सुरभित और शीतल छाया से भरा था।" 2. Sudharma Swami narrated-Jambu ! There are mentions that during that period of time there existed a town named Champa. There was a beautiful garden named Subhumibhag outside the town. With abundance of flowers and fruits that garden appeared inviting during every season. It was attractive, fragrant, and full of cool shade just like Nandanvana (the garden of gods). मयूरी के अंडे सूत्र ३. तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था, वण्णओ। तत्थ णं एगा वणमऊरी दो पुढे परियागए पिटुंडी पंडुरे निव्वणे निरुवहए Othe PARDA (201) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OM भिन्नमुट्ठिप्पमाणे मऊरीअंडए पसवइ। पसवित्ता सए णं पक्खवाए णं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संविटेमाणी विहरइ। __ सूत्र ३. उस उद्यान के उत्तर में एक जगह मालुका झाड़ियों अर्थात् तुलसी की झाड़ियों का झुरमुट था (पूर्व सम)। इस झुरमुट में एक वनमयूरी ने, एक के बाद एक, दो अंडे दिये। ये दोनों अंडे पोली मुट्ठी जितने बड़े और चावलों के ढेर जैसे सफेद (उज्ज्वल) थे, किसी भी विकार या दोष से रहित थे। अंडे देने के बाद वह मयूरी अपने पंखों की हवा से अंडों की रक्षा करती, सार-सँभाल करती, पोषण करती वहाँ रहती थी। PEA-HEN EGGS 3. At the north end of that garden was a thicket of black Tulsi plants (details as before). In this, a wild pea-hen had laid two eggs one after the other. These eggs were of the size of a loose fist, brilliant white like a heap of rice, and faultless. After laying the eggs the peahen blew air over them with its wings and protected, nurtured and hatched them. सूत्र ४. तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति; तं जहा-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमन्नमणुरत्तया अन्नमन्नमणुव्वयया अन्नमन्नच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियइच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाइं पच्चणुभवमाणा विहरंति। सूत्र ४. चम्पा नगरी में दो सार्थवाहपुत्र रहते थे। एक था जिनदत्त का पुत्र और दूसरा सागरदत्त का पुत्र। वे दोनों एक साथ जन्मे, खेले, और बड़े हुए थे। दोनों का विवाह भी एक साथ ही हुआ था। दोनों में आपस में परम स्नेह था। जहाँ एक जाता वहीं दूसरा भी जाता था। सभी काम एक-दूसरे की सलाह से करते थे, एक-दूसरे की इच्छा के विरुद्ध कोई भी काम नहीं करते थे। यहाँ तक कि परस्पर एक-दूसरे के घर-परिवार के कार्य भी कर दिया करते थे। ___4. In Champa lived two sons of two merchants. One was Son-ofJinadatta and the other Son-of-Sagardatta. Both were born, had played around and were brought up together. They were married also around the same time. They both loved each other very much. Where one went, the other followed. Whatever they did was with mutual consent and none of them ever went against the other's wish. They were so close that they would even look after each other's family affairs. ACA009 (202) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २०३ ) O AmA सूत्र ५. तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविट्ठाणं इमेयारवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-"जण्णं देवाणुप्पिया ! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्या णित्थरियव्वं।" ति कट्ट अन्नमन्त्रमेयारूवं संगारं पडिसुणेन्ति। पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। __ सूत्र ५. एक बार जब दोनों एक के घर में साथ-साथ बैठे थे तो आपस में बातचीत हुई-“हे देवानुप्रिय ! हमें जो भी सुख, दुःख, विदेश-यात्रा अथवा प्रव्रज्या प्राप्त हो उस सभी में हमें एक-दूसरे का साथ देना चाहिये।" दोनों ने यही प्रतिज्ञा ले ली और यथावत् अपने कार्यों में लग गये। 5. One day, while they were sitting together at the residence of one of them, they discussed, “Beloved of gods ! Whatever pleasure or pain, chance of travel, or decision of renunciation we come across, we shall give each other company.” They promised each other and resumed there normal life. गणिका देवदत्ता सूत्र ६. तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ, अड्डा जाव भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसद्विगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयार-कुसला णवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहियविलासललियसलाव-निउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियझया सहस्सलंभा विइन्नछत्त-चामरबालवियणिया कनीरहप्पयाया यावि होत्था, बहूणं गणिया-सहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरइ। __ सूत्र ६. चम्पा नगरी में देवदत्ता नाम की एक गणिका भी रहती थी। वह शक्ति-सम्पन्न और समृद्ध थी, अनेकों सेवक उसके आश्रित थे। चौंसठ कलाओं की पंडित, गणिका के चौंसठ गुणों से परिपूर्ण, उनतीस प्रकार की क्रीड़ाओं की अभ्यासी, इक्कीस रति गुणों की पारंगत और बत्तीस पुरुषोपचारों (पुरुषों के साथ व्यवहार गुण) में कुशल थी वह। उसे नौ अंगों के परिपूर्ण हो जाने का भान था अर्थात् नव विकसित यौवना थी। अठारह देशी भाषाओं की विशारद थी व शृंगार का मूर्त रूप और चारु वेषधारी थी। वह संगति, गति आदि व्यवहार में कुशल थी। उसके घर पर ध्वजा फहराती थी और उसका एक दिन का शुल्क एक हजार मुद्रा था। राजा ने उसे छत्र, चामर और बाल व्यंजनक (मोर पंख से बना IASA00 CASE CHAPTER-3 : ANDAK (203) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cap ( २०४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OO चामर/पंखा) देकर सम्मानित किया था। वह कर्णीरथ नाम की पालकी पर बैठकर आवागमन करती थी। यह देवदत्ता गणिका एक हजार. गणिकाओं पर आधिपत्य करती सुखमय जीवन व्यतीत करती थी। DEVDATTA, THE COURTESAN 6. In Champa, there also lived a courtesan named Devdatta. She was powerful and wealthy. She had numerous servants in her house. She was proficient in sixty four arts, endowed with the sixty four qualities of a courtesan, an exponent of all the thirty nine types of entertainments, an expert of twenty one styles of sex plays, and accomplished in thirty one styles of interactions with males. She was youthful and full of vigour and, had good command over eighteen indigenous languages. She dressed in style, was the embodiment of adornment and an artful mover in the social and physical dimensions. A flag hoisted on her residence and her charges for a day's entertainment were one thousand coins. The king had honoured her with an umbrella, whisks and fans. The palanquin she used for commuting was named Karnirath. Having one thousand courtesans under her command she lived happily. उद्यान भ्रमण की तैयारी सूत्र ७. तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कयाइ पुव्वावरण्हकाल-समयंसि जिमियभुत्तुत्तरा-गयाणं समाणाणं आयंताणं चोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-"तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! कल्लं जाव जलंते विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइमसाइमं धूव-पुष्फ-गंध-वत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणाणं विहरित्तए" त्ति कट्ट अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेन्ति, पडिसुणित्ता कल्लं पाउब्भूए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेन्ति, सदावित्ता एवं वयासी__ “गच्छह णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेह। उवक्खडित्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूव-पुष्पं गहाय जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव णंदा पुक्खरिणी, तेणामेव उवागच्छह। उवागच्छित्ता गंदापुक्खरिणीओ अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह। आहणित्ता आसित्त-संमज्जिओवलितं सुगंध जाव कलियं करेह, करित्ता अम्हे पडिवालेमाणार चिट्ठह" जाव चिट्ठति। Tonsister (204) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २०५ ) Tera सूत्र ७. एक दिन दोपहर के भोजन के बाद वे सार्थवाहपुत्र आचमन कर, स्वच्छपवित्र होकर सुखासनों पर बैठे और परस्पर बातें करने लगे-“हे देवानुप्रिय ! क्या ही अच्छा हो कि कल प्रातःकाल विपुल अशनादि आहार सामग्री तथा धूप, पुष्प, गंध, वस्त्र साथ लेकर देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग. उद्यान की छटा का आनन्द लेते हुए विहार करें।" दोनों इस प्रस्ताव से सहमत हो गये और अगले दिन सुबह सेवकों को बुलाकर कहा____ “देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ और विपुल अशनादि खाद्य सामग्री तैयार करो। फिर वह सामग्री और धूप, गंध पुष्पादि लेकर सुभूमिभाग उद्यान में नन्दा पुष्करिणी के निकट जाओ। वहाँ नदी के तट पर शामियाने से एक मण्डप तैयार करो। पानी छिड़ककर, साफ कर, लीप-पोतकर सुगंधादि से उसे रम्य बनाओ। यह काम पूरा कर तुम वहीं पर हमारी राह देखना।'' इस प्रकार सेवक आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न कर वहीं ठहर गये। PREPARATIONS FOR AN OUTING ___7. After lunch, one day, both the merchant boys washed their hands and sat down to chat, “Beloved of gods ! How nice it would be if tomorrow morning we collect ample food stuff, incense, flowers, perfumes, dresses, etc., take along Devdatta courtesan and go to Subhumibhag garden to enjoy its beauty and entertain ourselves.” They both agreed and next morning called their staff and said, "Beloved of gods ! Go and cook a lot of food and other delicacies. Pack the food, collect incense, flowers, (etc. ) and go near the Nanda stream in the Subhumibhag garden. There, on the river bank raise a tent. operly clean the inner area with water, and make it habitable by applying plaster, white wash, perfumes, etc. Wait there for us after you complete this work." The servants did as ordered. __ सूत्र ८. तए णं सत्थवाहदारगा दोच्चंपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं समखुर-वालिहाणं-समलिहियतिक्खग्गसिंगएहिं रययामय-सुत्तरज्जुय-पवरकंचण-खचिय-णत्थपग्गहोवग्गहिएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणि-रयण-कंचण-घंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव पवहणं उवणेह।" ते वि तहेव उवणेन्ति। सूत्र ८. सार्थवाहपुत्रों ने तब अन्य सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी-“एक समान खुर और पूंछ वाले, एक ही तरह के रंग से रंगी चोटी के सींग वाले, चाँदी की घंटियाँ AARVA - CHAPTER-3 : ANDAK (205) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ( २०६ ) लटकाये, जरी वाली डोरी की नाथ से बँधे और नीलकमल की कलंगी से सजे उत्तम जवान बैल जिसमें जुते हों ऐसा रत्नों और सोने की घंटियों से सजा श्रेष्ठ लक्षणों वाला रथ ले आओ ।" सेवकों ने तत्काल आज्ञा के अनुरूप रथ ला उपस्थित किया । 8. Now the merchant boys called other servants and said, "Arrange to get a beautiful chariot decorated with gem studded bells made of gold and drawn by young bullocks of good breed, having resembling hoofs, tails, and horns. These bullocks should be adorned with same colour on horn-tips, silver bells on the neck and brocade straps and bridles with blue lotuses fixed at the top." The servants carried out the order and brought the chariot at the gate. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र उद्यान- भ्रमण सूत्र ९. तए णं ते सत्थवाहदारगा व्हाया जाव सरीरा पवहणं दुरूहंति, दुरूहित्ता जेणेव देवदत्ता गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेन्ति । तए णं सा देवदत्ता गणिया सत्थवाहदारए एज्जमाणे पास, पासित्ता हट्ठट्ठा आसणाओ अब्भुट्टे, अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता ते सत्थवाहदारए एवं वयासी - "संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमिहागमणप्पओयणं ? ” सूत्र ९. दोनों सार्थवाहपुत्र स्नानादि कर्म से निवृत्त हो रथ बैठ देवदत्ता गणिका के आवास के सामने आये । रथ से उतरकर उन्होंने गणिका के घर में प्रवेश किया। उन्हें आता देख देवदत्ता प्रसन्न हो अपने आसन से उठी और सात - आठ कदम आगे बढ़ी। उसने आगे बढ़कर सार्थवाहपुत्रों का स्वागत करते हुए कहा - "देवानुप्रियो ! कहिये क्रिस प्रयोजन से आना हुआ ?" THE OUTING 9. Both the merchant boys got ready and riding in the chariot arrived at Devdatta's residence. They got down from the chariot and entered the premises. When Devdatta saw them coming she got up and advanced a few steps. She greeted the merchant-boys and said, "Beloved of gods ! Please tell me what brings you to me?" ( 206 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २०७) 60 NE सूत्र १०. तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वयासी-"इच्छामो णं, देवाणुप्पिए ! तुम्हेहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरित्तए।" तए णं सा देवदत्ता तेसिं सत्थवाहदारगाणं एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता ण्हाया कयवलिकम्मा जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्थवाहदारगा तेणेव समागया। __सूत्र १0. सार्थवाहपुत्रों ने कहा-“हम तुम्हारे साथ-साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यानश्री छटा का आनन्द लेना चाहते हैं, देवानुप्रिये !' देवदत्ता ने सार्थवाहपुत्रों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने स्नानादि कर लक्ष्मी के समान उत्तम वस्त्र पहने और सार्थवाहपुत्रों के पास पहुंच गई। ____10. The merchant-boys replied, “Beloved of gods ! We want to enjoy the beauty of Subhumibhag garden in your company" Devdatta accepted the proposal of the merchant-boys. She got ready after her bath (etc.), dressed like Laxmi, the goddess of wealth, and came back to the merchant-boys. ___ सूत्र ११. तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं दुरूहंति, दुरूहित्ता चंपाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे, जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता गंदापोखरिणि ओगाहिति। ओगाहित्ता जलमज्जणं करेंति, जलकीडं करेंति, ण्हाया देवदत्ताए सद्धिं पच्चुत्तरंति। जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थूणामंडवं अणुपविसित्ता सव्वालंकारविभूसिया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं धूवपुष्फगंधवत्थं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरति। जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा देवदत्ताए सद्धिं विपुलाइं माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणा विहरंति। ___ सूत्र ११. सार्थवाहपुत्र देवदत्ता को साथ ले रथ पर चढ़े और चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर सुभूमिभाग उद्यान में नन्दा पुष्करिणी के पास पहुंचे। रथ से उतरकर नदी में गये। स्नान व जल-क्रीड़ा आदि करके वे देवदत्ता के साथ बाहर निकले और शामियाने में गये। वहाँ वस्त्राभूषण पहन स्वस्थ चित्त व शान्त चित्त हो उत्तम आसन पर बैठ गये। देवदत्ता के साथ भर पेट भोजन करते कराते, गंध-वस्त्रादि का उपभोग करते-कराते और भोजनोपरान्त देवदत्ता के साथ मन भरकर मनुष्योचित कामभोग का आनन्द लेते हुए समय बिताने लगे। SRO CHAPTER-3 : ANDAK (207) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORI 11. With Devdatta the merchant-boys ascended the chariot and passing through the town arrived near the Nanda stream in the Subhumibhag garden. Getting down from the chariot they entered the stream. After an entertaining and refreshing bath in the company of Devdatta, they came out and went into the tent. Dressing up and putting on the ornaments they sat down comfortably and quietly. After a sumptuous lunch they spent their time enjoying all earthly and bodily pleasures with Devdatta in a richly decorated and perfumed interior within the tent. मयूरी का उद्वेग सूत्र १२. तए णं सत्थवाहदारगा पुव्वावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं थूणामंडवाओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता हत्थसंगेल्लीए सुभूमिभागे बहुसु आलिघरएसु य कयलीघरएसु य लयाघरएसु य अच्छणघरएसु य पेच्छणघरएसु य पसाहणघरएसु य मोहणघरएसु य सालघरएसु य जालघरएसु य कुसुमघरएसु य उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणा विहरति। सूत्र १२. दिन के अंतिम प्रहर में वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता को साथ लिये शामियाने से बाहर निकले और हाथ में हाथ डालकर सुभूमिभाग उद्यान के वृक्ष काननों तथा पुष्प काननों आदि रमणीय स्थलों की छटा निहारते हुए घूमने लगे। DISTURBED PEA-HEN ____12. During the last quarter of the day they came out of the tent and holding Devdatta's hands started sauntering around enjoying the coulourful flowers, greenery and other enchanting spots in the Subhumibhag garden. सूत्र १३. तए णं ते सत्थवाहदारगा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं सा वणमऊरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ। पासित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ। पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी चिट्ठइ। सूत्र १३. घूमते-घूमते जब वे उस तुलसी के झुरमुट की ओर जाने लगे तो उस वनमयूरी ने उन्हें आते देखा। वह भय से घबरा गई और जोर से कूकती हुई झुरमुट से Oago RAINING RAMINA Sanohaps शु (208) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे (२०९ ) CB AAlima बाहर निकल उड़कर एक पेड़ की डाल पर बैठ गई। वहाँ से वह उस झुरमुट और आते हुए सार्थवाहपुत्रों को अपलक देखने लगी। 13. During this walk when they approached that Tulsi thicket the wild pea-hen saw them. Squeaking with fear she came out of the thicket and flew to a branch of a nearby tree. Perched there she watched the approaching merchant-boys and the thicket without blinking. अंडों का अपहरण सूत्र १४. तए णं सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी“जह णं देवाणुप्पिया ! एसा वणमऊरी अम्हे एज्जमाणा पासित्ता भीया तत्था तसिया उव्विग्गा पलाया महया महया सद्देणं जाव अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी पेच्छमाणी चिट्ठइ, तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं" ति कट्ट मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति। अणुपविसित्ता तत्थ णं दो पुढे परियागए जाव पासित्ता अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी__“सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमे वणमऊरीअंडए साणं जाइमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएसु य पक्खिवावित्तए। तए णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए सए य अंडए सए णं पक्खवाए णं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति। तए णं अम्हे एत्थ दो कीलावणगा मऊरी-पोयगा भविस्संति।" त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सए सए दासचेडे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-“गच्छह णं तुब्भ देवाणुप्पिया ! इमे अंडए गहाय सयाणं जाइमंताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह।" जाव ते वि पक्खिति। सूत्र १४. सार्थवाहपुत्रों ने एक-दूसरे को निकट बुलाकर कहा-“देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें आता देख भय से स्तब्ध हो गई और आशंका से उद्विग्न होकर उड़ गई और जोर-जोर से आवाज करके हमें और झुरमुट को बार-बार देख रही है। इसका कोई कारण होना चाहिए।' इस प्रकार बातें कर वे दोनों झुरमुट में घुस पड़े। वहाँ उन्होंने क्रमश: बड़े हुए मयूरी के दो पुष्ट अंडे देखे और परस्पर बात की। ___“हे देवानुप्रिय ! हमारे लिये इन अंडों को ले जाकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों के साथ डाल देना श्रेष्ठ होगा। इससे वे मुर्गियाँ अपने अंडों के साथ इनकी भी अपने पंखों की हवा से रक्षा करेंगी और सेती रहेंगी। यथा समय हमें अपनी क्रीड़ा के लिये दो मोर के बच्चे प्राप्त हो जायेंगे।" दोनों इस बात पर एकमत हो गये और अपने दास-पुत्रों Caugo 035 BAR क ... Solarsh CHAPTER-3: ANDAK (209) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REC 050 ( २१० ) को बुलाकर कहा - "हे देवानुप्रियो ! इन अंडों को उठाकर ले जाओ और अपनी मुर्गियों के अंडों के साथ रख दो।” दास पुत्रों ने वैसा ही किया । PICKING UP THE EGGS 14. The merchant-boys came together and consulted, "Beloved of gods! Seeing us approach, this wild pea-hen was stunned and flew away in panic. It is squeaking loudly and looking at us and the thicket in turn. There must be some reason for this." And they entered the thicket. They saw those two large and healthy eggs and consulted each other. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र we our "Beloved of gods! Would it not be good if we take these eggs and put them with eggs of our good breed hen at home? Along with their own eggs our hens will protect and hatch these eggs also. At the proper time shall have two peacock chickens for entertainment." Both of them agreed to this and called their slave-boys and instructed, "Beloved of gods! Pick up these eggs, take them home and put them with the eggs of our hen." The slave boys carried out the order. सूत्र १५. तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरी देणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता देवदत्ताए हिं अणुपविसंति। अणुपविसित्ता देवदत्ताए गणियाए विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति। दलइत्ता सक्कारेंति, सक्कारिता सम्मार्णेति सम्माणित्ता देवदत्ताए गिहाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सयाइं सयाइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था । , सूत्र १५. सार्थवाहपुत्र तब गणिका देवदत्ता के साथ उद्यान की शोभा का आनन्द लेते हुए घूम-धामकर रथ में बैठ नगर में होते हुए गणिका के निवास पर आये । वहाँ आकर उन्होंने देवदत्ता को यथेष्ट प्रीतिदान देकर सत्कार-सम्मान किया और अपने-अपने घरों को लौट अपनी चर्या में जुट गये। 15. The merchant - boys and Devdatta continued their walk enjoying the beautiful garden and finally returned back to the courtesan's house riding the chariot and passing through the town. They amply rewarded Devdatta, honoured her and returned to their houses. ( 210 ) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only CATO Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED TONS EXPLAINED_ मयूरी के अण्डे - चित्र : ११ चम्पा निवासी श्रेष्ठीपुत्र, जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र एक बार वन विहार करते हुए सुभूमिभाग उद्यान के मालुकाकच्छ लताकुंज में पहुँच गये। वहाँ एक मयूरी ने अण्डे दे रखे थे। इन्हें आता देखा तो वह भयभीत होकर वृक्ष पर जाकर बैठ गई और जोर-जोर से शब्द करने लगी। श्रेष्ठी पुत्रों ने सोचा-हम इन अण्डों को ले जाकर पालेंगे, इनसे मोर के बच्चे पैदा होंगे तो उन्हें शिक्षित कर मयूर नृत्य कराकर अपना व लोगे का मनोरंजन करेंगे। दोनों ने एक-एक अण्डा ले लिया। घर आकर अपने-अपने सेवकों को दे दिया और कहा-इनका पालन-पोषण करें। सेवकों ने उन्हें मुर्गी के अण्डों के बीच पलने के लिए रख दिया। (अध्ययन ३) - - PEA-HEN EGGS ILLUSTRATION: 11 Once two merchant boys took along a courtesan and came to Subhumibhag garden for entertainment. They saw that a wild pea-hen had laid two eggs in a thicket in this garden. When the pea-hen saw them approaching it flew. Perched on a nearby tree she started quacking in panic. The merchant boys arranged to send one egg to each one's house with servants so that domestic hens could hatch and produce peacock chickens for their entertainment. (CHAPTER-3) Seso ल H JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २११) CONT HDaroo शंकाशील सागरदत्त पुत्र __ सूत्र १६. तए णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से णं कल्लं जाव जलंते जेणेव | से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि संकिए कंखिए विइगिच्छासमावन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने-"किं णं ममं एत्थ कीलावणमऊरीपोयए | भविस्सइ, उदाहु णो भविस्सइ?" ति कट्ट तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेइ, परियत्तेइ, आसारेइ, संसारेइ, चालेइ, फंदेइ, घट्टेइ, खोभेइ, अभिक्खणं अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं अभिक्खणं उव्यत्तिज्जमाणे जाव टिट्टियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था। ___ सूत्र १६. दूसरे दिन सुबह होने पर सागरदत्त का पुत्र मुर्गी के दड़बे पर आया। वहाँ पहुँचकर उसके मन में मयूरी के अंडे के विषय में शंका उत्पन्न होने लगी कि यह अंडा पकेगा या नहीं ? कांक्षा उत्पन्न होने लगी कि इसमें से बच्चा निकलेगा कि नहीं ? विचिकित्सा हुई कि वह उसके साथ क्रीड़ा कर पायेगा या नहीं ? भेद भावना जाग उठी कि वह बच्चा जीवित भी बचेगा या नहीं ? इन सब बातों से उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो गई और उसने मन ही मन कहा कि उसके इस अंडे से क्रीड़ा के लिये मोर का बच्चा पैदा होगा कि नहीं ? इस दुविधास्पद मनःस्थिति में वह बार-बार उस अंडे पर हाथ फेरने लगा, घुमाने लगा, कभी यहाँ तो कभी वहाँ रखने लगा, हिलाने-डुलाने लगा, मिट्टी खोदकर उसमें रखने निकालने लगा और कान के पास ले जाकर बजाने लगा। इस उठा-पटक में वह अंडा पोचा हो गया। SKEPTIC SON OF SAGARDATTA ___16. Next morning Son of Sagardatta went near the roost. Looking at the pea-hen egg he became doubtful if it would hatch or not? He thought if a chick would come out of it or not? He was caught in a suspense if he would be able to play with the chick or not? He was filled with the apprehension that the chick would remain alive or not? This stream of thoughts made him skeptic and he said to himself—“Would this egg provide me with a little peacock for my entertainment?" In this doubtful mental condition he repeatedly brushed the egg with his palm, turned it around, moved it from one spot to another, shook it, and dug a hole in the ground and put it in. He also picked it ORG RAHATMA MALL / CHAPTER-3 : ANDAK (211) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - up and bringing it near his ear, struck it to hear some sound. All this movement made the egg lifeless. ___ सूत्र १७. तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तं मऊरीअंडयं पोच्चडमेव पासइ। पासित्ता "अहो णं ममं एस कीलावणए ण जाए" त्ति कट्ट ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए। ___ सूत्र १७. कुछ दिनों बाद सागरदत्त का पुत्र फिर उस दड़बे के निकट आया और देखा कि वह मयूरी का अंडा तो पोचा पड़ गया है। यह देख वह खिन्न चित्त होकर अवसाद में डूब गया-"अहो ! मुझे क्रीड़ा के लिये यह मयूरी का बच्चा नहीं मिल सका।" ____17. After some days Son-of-Sagardatta again went near the roost and saw that the egg had rotted. He became sad and disconcerted thinking that now he would not get a little peacock to play with. दुविधा का फल ___ सूत्र १८. एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु, छज्जीवनिकाएसु, निग्गंथे पावयणे संकिए जाव कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं बहूणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरिहणिज्जे, परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य जाव सूत्र १८. आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी दीक्षा ग्रहण करने के बाद पाँच महाव्रतों, षट्जीवनिकाय या निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंकादि कर मन में दुविधा को जन्म देता है वह इस भव में अनेक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के द्वारा संघ से निकाल देने योग्य, निन्दनीय, लोक निन्दा के योग्य, गहणीय तथा अनादर करने के योग्य होता है। वह तो पर भव में भी बहुत कष्ट पाता है और संसार परिभ्रमण करता रहता है। CONSEQUENCE OF DOUBT ____18. Long-lived Shramans ! The same way those of our ascetics who after getting initiated carry doubt about the five great vows, six classes of beings, and teachings of the Nirgranth and become skeptic are liable to be thrown out of the order. They become the objects of criticism, public contempt, hatred and disrespect in this life. Besides this, they (212) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २१३) - प also suffer misery in the next life and are caught in the cycle of rebirth indefinitely. सूत्र १९. तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तंसि मऊरीअंडयंसि निस्संकिए, “सुवत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सइ" त्ति कट्ट तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ जाच नो टिट्टियावेइ। तए णं से मऊरीअंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाण कालेणं समए णं उब्भिन्ने मऊरीपोयए एत्थ जाए। सूत्र १९. उधर जिनदत्त का पुत्र भी मुर्गी के दड़बे पर आया। किन्तु वह मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा। उसके मन में यह विश्वास था कि मेरे इस अंडे से क्रीड़ा हेतु मोर का एक सुन्दर गोलमटोल बच्चा निकलेगा। इस कारण उसने अंडे को किसी भी प्रकार छेड़ा-छूया नहीं। यथा समय वह अंडा फूटा और उसमें से मोर का बच्चा निकला। _____19. On the other side, Son-of-Jinadatta also went near the roost at his house. However, he had no apprehension about the egg. He was confident that the egg would produce a plump little peacock for his entertainment. Thus he did not disturb the egg in any way. At the proper time a tiny chick broke the shell and came out. नाचता मोर __ सूत्र २०. तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरीपोययं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे मऊरपोसए सद्दावेइ। सद्दावित्ता एवं वयासी-"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इमं मऊरपोययं बहहिं मऊरपोसणपाउग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्वेह, नट्टल्लगं च सिक्खावेह। तए णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एयम8 पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तं मऊरपोययं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता तं मऊरपोयगं जाव नटुल्लगं सिक्खाति। सूत्र २0. जिनदत्त-पुत्र उस बच्चे को देख प्रसन्न हुआ और मयूरों की देखरेख करने वालों को बुलाकर कहा-“देवानुप्रियो ! तुम इस मोर के बच्चे को इसके खाने योग्य पदार्थ दो और भलीभाँति संरक्षण संगोपन करते हुए बड़ा करो और नाचना सिखाओ।" ___ मयूर पोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की आज्ञा स्वीकार कर उस बच्चे को उठाया और अपने घर ले जाकर उसका पोषण करने लगे। CHAPTER-3: ANDAK (213) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र PAD-1 - DANCING PEACOCK 20. Son-of-Jinadatta was pleased to see the chick and calling the peacock trainers he said, "Take this chick under your care, give it the best feed, protect it, train it to dance at command, and let it grow undisturbed." The peacock trainers accepted the order and took the chick home to do the needful. सूत्र २१. तए णं से मऊरपोयए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते लक्खण-वंजणगुणोववेए माणुम्माण-पमाणपडिपुण्ण-पक्ख-पेहुण-कलावे विचित्तपिच्छे सयचंदए नीलकंठए नच्चणसीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाई नझुल्लगसयाइं केकारवसयाणि य करेमाणे बिहरइ। तए णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोययं उम्मुक्कबालभावं जाव करेमाणं पासित्ता तं मऊरपोयगं गेण्हंति। गेण्हित्ता जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेन्ति। तए णं से जिणदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए मऊरपोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव करेमाणं पासित्ता हट्ठतुढे तेसिं विउलं जीवियारिहं पीइदाणं जाव पडिविसज्जेइ। सूत्र २१. मयूरी का बच्चा धीरे-धीरे बड़ा हुआ। उसका ज्ञान विकसित हुआ। जब वह युवावस्था को प्राप्त हुआ तो वह मयूर सम्बन्धी सभी गुणों, व्यंजनों और लक्षणों से युक्त हो गया। वह पुष्ट, विशाल और भरे पंखों और पूंछ वाला सुन्दर मोर बन गया। उसके पंख रंग-बिरंगे और सैंकड़ों चाँद वाले हो गये। वह नीलकंठ और नृत्य-स्वभावी बन गया। वह एक चुटकी बजाते ही बारंबार कूदने लगता था। तब मयूर पालकों ने अपना कार्य संपन्न हुआ जान उसे जिनदत्त पुत्र के पास पहुंचा दिया। जिनदत्त पुत्र उसे बड़ा हुआ और गुण सम्पन्न देख बहुत हर्षित हुआ। उसने मयूर पालकों को आजीविका के लिये यथेष्ट प्रतिदान देकर विदा किया। 21. The chick slowly grew into a beautiful and intelligent peacock. When it reached maturity it displayed all the attributes, qualities and signs of the best breed of peacocks. It turned into a healthy, giant, thickly plumed, and long tailed beautiful peacock. Its colourful feathers displayed hundreds of moons. This instinctively dancing peacock had a deep blue neck. It danced and cooed at command. When the peacock trainers were satisfied with their work they took the peacock to Son-of-Jinadatta. When Son-of-Jinadatta set his eyes on this enchantingly beautiful and trained peacock he became very happy. He generously rewarded the trainers and bid them good-bye. oamro MHD शिरम (214) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र AL L - - - - - -- - ----- MARpravuwammaNMMAHINDRA - - - - - - -- - --- HIRAINRNENGINEERNHEitmal Pिaiine sevaasne चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED शंका से नाश : विश्वास से विकास चित्र : १२ सागरदत्तपुत्र के मन में संशय हुआ कि इन अण्डों में से मयूर पोत (मोर का बच्चा) पैदा होगा या नहीं, इसलिए वह बार-बार उस अण्डे को उठाता, हिलाता और आवाज सुनता। इस प्रकार करने से वह अण्डा पोला (सड़ गया) हा गया। जिनदत्तपुत्र निःशंक भाव से उनका पालन-पोषण करवाता रहा। समय पर मोर का बच्चा निकला। उसे शिक्षित कर वह नगर के मध्य स्थान-स्थान पर मयूर नृत्य दिखाता हुआ जनता का मनोरंजन करता रहता। जिनदत्तपुत्र के मोर को नाचता हुआ देखकर सागरदत्तपुत्र अपनी शंकालु वृत्ति के लिए सिर पर हाथ रखकर पश्चात्ताप करने लगा। (अध्ययन ३) DOUBT LEADS TO DESTRUCTION : FAITH LEADS TO CREATION ILLUSTRATION: 12 Son-of-Sagardatta became doubtful if the egg would hatch or not? Nervously, he disturbed the egg time and again. All this movement made the egg lifeless. Son-ofJinadatta had no such apprehension. A few days later a tiny chick broke the shell and came out. It was given proper training. Son-of-Jinadatta entertained himself and also took this peacock along to various public places and entertained masses. Son-of-Sagardatta watched all this and repented for his skeptic mentality resting his head in his palms. (CHAPTER-3) ब ला JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( २१५) SARAME - सत्र २२. तए णं से मऊरपोयए जिणदत्तपत्तेणं एगाए चप्पडियाए कयाए समाणीए णंगोलाभंगसिरोधरे सेयावंगे अवयारियपइन्नपक्खे उक्खित्तचंदकाइयकलावे केक्काइयसयाणि विमुच्चमाणे णच्चइ। तए णं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मऊरपोयए णं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहि य जयं करेमाणे विहरइ। ___ सूत्र २२. जिनदत्त पुत्र के एक इशारे पर वह मोर क्रीड़ा करते हुए अपनी गर्दन को सिंह की पूँछ के समान गोलाकार बना लेता था। उसके नेत्र के कोर सफेद हो जाते थे। वह अपने पंखों को फैला लेता था और चंदोवे युक्त पूँछ को ऊपर उठा लेता था। और तब वह बारंबार कूकता हुआ नाचने लगता था। जिनदत्त-पुत्र चम्पा नगरी के विभिन्न भागों में होने वाली अनेकों मयूर-प्रतिस्पर्धाओं में उस मोर को ले जाता और हजारों, लाखों के दाँव जीतकर लाता। 22. At the command of Son-of-Jinadatta the peacock playfully bent its neck back giving it a shape as circular as the tail of a lion. The edges of its eyes turned white. It stretched its wings and lifted its tail high, displaying its moons. And then it started cooing and dancing. Son-of-Jinadatta used to take this peacock along to various competitions in the town and win high wagers. उपसंहार __ सूत्र २३. एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथो वा पव्वइए समाणे पंचसु महव्वएसु छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्विइगिच्छे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं जाव वीइवइस्सइ। ___ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं णायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। सूत्र २३. हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों, षट्जीव निकाय तथा निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकादिरहित होता है वह इस भव में अनेक श्रमण-श्रमणियों से मान-सम्मान प्राप्त करता है और अन्त में संसार सागर को पार कर लेता है। __ हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता सूत्र के तीसरे अध्ययन का यह अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ। CHAPTER-3 : ANDAK (215) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Adivasna CONCLUSION 23. Long-lived Shramans ! The same way those of our ascetics who after getting initiated have no doubts about the five great vows, six classes of beings, and teachings of the Nirgranth become objects of reverence for all the ascetics in this life and finally cross the ocean of rebirth. Jambu ! This is the text and the meaning of the third chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. ॥ तच्चं अज्झयणं समत्ते ॥ ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE THIRD CHAPTER||| - उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की यह तीसरी कथा आप्त (सर्वज्ञ) वचन में अनास्था के दुष्प्रभाव तथा आस्था के सुफल को प्रकट करती है। प्रत्येक व्यक्ति में प्रत्येक क्रिया को देखने, जानने, समझने की सामर्थ्य नहीं होती। इसलिये उस क्रिया से होने वाले हित-अहित को विवेक बुद्धि पर परखकर मार्ग स्थिर करना प्रत्येक के लिए संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में जिनके पास अनुभव व ज्ञान है ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा स्थिर मार्ग पर निःशंक होकर चलना ही विकास का साधन है। शंका, कांक्षा एवं विचिकत्सा सम्यक्त्व के दोष हैं। इन मानसिक शिथिलताओं से साधक का मन साधना पथ से डगमगा जाता है। अतः निःशंक आस्थापूर्ण जीवन जीने की दृष्टि/प्रेरणा इस अध्ययन से मिलती है। उपनय गाथा जिणवर-भासिय भावेसु भाव सच्चेसु भावओ मइमं। नो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थ हेउ ति॥ संदेह अनर्थ का कारण है, अतः बुद्धिमान पुरुष वीतराग सर्वज्ञ कथित वाणी पर किसी प्रकार संदेह नहीं करें। क्योंकि संदेह साधना में चंचलता पैदा करके अनर्थ का कारण बनता है। वीतराग वाणी पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि करना अधःपतन की ओर ले जाता है। अण्डे को सेने से उसमें से बच्चा निकलेगा इस सामान्य व स्थापित यथार्थ पर शंका उत्पन्न होने और उसके फलस्वरूप अण्डे के पोला हो जाने के सटीक उदाहरण से इस बात को पुष्ट किया गया है। - (216) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अंडे ( 290 ) CONCLUSION This third story of Jnata Dharma Katha reveals the consequences of belief and dis-belief in the word of the all knowing or the omniscient. Every individual hardly has the capacity to see, know, and understand each and every activity in nature. As such it is not possible for him to take decisions based on judgment of the good and bad consequences. As such, in this complex state of affairs the best way to progress is to faithfully follow the path shown by those sagacious individuals who have the knowledge bolstered by experience. Doubt, disbelief and skepticism are impediments on the right path. These inner weaknesses or infirmities disturb the practicer on the path of spiritual practices. This story inspires to adopt the way of life that is founded on righteous faith. THE MESSAGE Doubt leads to debasement. So the wise should not have any doubt in the word of the omniscient. This is because doubt disturbs spiritual practices and consequently becomes the cause of downfall. परिशिष्ट मयूर-पोषक-मोर की देखरेख करने वाले तथा उसे कलाओं का अभ्यास कराने वाले। यह एक विशेष वर्ग के लोग हआ करते थे जिनकी आजीविका पश-पक्षियों को मनुष्य के मनोरंजन तथा अन्य कार्यों के लिए अभ्यास कराने प्रशिक्षण देने के व्यवसाय पर निर्भर करती थी। ___ आलिकागृह (आदि)-उद्यान में रमण व सुविधा के लिये वृक्षों, लताओं, फूलों आदि से बनाए गये अनेक प्रकार के विश्राम स्थल। APPENDIX Peacock-trainer-A person engaged in breeding and training of peacocks. This was a class or group of families who had taken up animal and bird breeding and training for entertainment and other services. Aalikagriha (etc.)-Small rooms, resting places, and other such covered and secluded areas, for human use in a garden, that are prepared with help of trees, vines, flowers, etc. De Orang conta CHAPTER-3 : ANDAK ( 217 ) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cons ( २१८) चतुर्थ अध्ययन : कूर्म : आमुख शीर्षक-कुम्मे-कूर्म-कछुए/कछुआ एक अनोखी शारीरिक संरचना वाला प्राणी है। आपदाओं से प्रतिरक्षा के लिए इसके शरीर का अधिकांश खुला भाग चमड़े की एक कठोर पर्त से ढका होता है। इसे हम ढाल के रूप में जानते हैं। कछुए के चारों पैर तथा गर्दन इस प्रकार बने होते हैं कि वह उन्हें अपने इस ढालरूपी शरीर से इच्छानसार बाहर-भीतर कर सकता है और इस प्रकार अपनी रक्षा करता है। आत्म-साधना के पथ पर विकाररूपी शत्रुओं से रक्षा हेतु इन्द्रिय-गोपन के महत्त्व को समझाने के लिए प्रतीक रूप में कछुए का उपयोग किया गया है इस कथा में। साथ ही चित्त चंचलता और कौतूहल का दुष्प्रभाव प्रकट किया गया है। अध्यात्म दृष्टि से कछुए का यह प्रतीक जैन आगमों के अतिरिक्त गीता आदि में भी वर्णित है। कथासार-वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नदी के एक तट पर मयंग तीर नामक एक द्रह था। उसमें कछुओं सहित अनेक जलचर प्राणी रहते थे। उस द्रह के एक तट पर एक विशाल झाड़ी में दो दुष्ट सियार रहते थे। एक बार संध्या के बाद दो कछुए उस तट पर भोजन की खोज में आए और इधर-उधर घूमने लगे। दोनों सियारों ने उन्हें देखा और उनका भक्षण करने आगे बढ़े। दोनों कछुओं ने अपने पैरों तथा गर्दन को शरीर में समेट लिया और एक स्थान पर गेंद की तरह स्थिर हो गये। सियारों ने बहुत चेष्टा की पर उनके कठोर कवच को भेद नहीं सके। निराश हो वे उस झाड़ी में छुप गये और कछुओं को देखने लगे। उनमें से एक कछुए ने यह समझा कि सियार चले गये हैं। कौतूहलवश उसने अपनी एक टाँग को कवच के बाहर निकाला। ताक में बैठे सियार उस पर झपट पड़े और उसकी बाहर निकली टाँग को क्षत-विक्षत कर खा गये। वह कछुआ थोड़ी-थोड़ी देर में कौतूहलवश अपना एक अंग बाहर निकालता और सियार उसे नोंच खाते। इस प्रकार कछ देर में वे उस कछुए को मारकर खा गये। तब दूसरे कछुए को खाने की चेष्टा की पर वह स्थिर ही रहा। थककर सियार लौट गये। वह कछुआ बहुत देर तक वैसे ही स्थिर रहा। फिर जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि सियार दूर चले गये हैं तो उसने सावधानी से गर्दन बाहर निकालकर चारों ओर देखा। आश्वस्त होने पर उसने झट से चारों पैर बाहर निकाले और दौड़कर पानी में जा घुसा। o Palim का (218) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म (298) -- FOURTH CHAPTER: KURMA : INTRODUCTION Title-Kurma means turtle. This amphibian has a unique constitution. Nature has provided it with an extremely hard and large outer shell for the protection of its body. This outer shell is so hard that humans use it as shield. The structure of the rest of its body is such that it can extend and pull back its neck and limbs out and in from this natural shield. This creature has been presented as a symbol to emphasize the importance of shielding the senses from foes like distortions and perversions. The story also reveals the bad effects of irrational curiosity and wavering attitude. In spiritual context this metaphor has also been used in the Gita besides other Jain canons. Gist of the Story-Outside the town named Varanasi, on the north-eastern side of the river Ganges was a lake named Mritgangateerhrid. Flocks of a variety of aquatic animals including turtles abounded it. Near that lake was a large thicket in which lived two evil jackals. One day late in the evening two turtles came out of the lake and started moving around at the bank in search of food. Those two evil jackals saw the turtles and moved in their direction. When the turtles saw the jackals they withdrew their limbs and neck into the shell. In this state they stopped where they were; absolutely immobile and still like a ball at rest. The jackals tried their best but failed to cause any damage or pain to the hard outer shell of the turtles. Dejected they returned to their lonely den and waited quietly without moving or stirring. When one of the turtles observed that sometime had passed since the jackals had left the place, it slowly pushed out one of its limbs. The waiting jackals at once pounced on the turtle with great speed and force. They tore at the exposed limb of the turtle with their paws, broke it apart with their jaws, consumed the flesh and licked the bones clean. The turtle brought out all its limbs one after the other out of curiosity and the jackals consumed all the four limbs and the neck. Once the turtle was dead the jackals devoured all its flesh and blood. Both those evil jackals then went near the other turtle and once again tried to kill it. But this turtle did not push out any of its limbs and so the jackals failed to do any damage. Tired and defeated they returned into their den dejected. After some time, when the turtle realized that the jackals had gone far away, it slowly stretched its neck out and carefully watched all around. Finding no danger lurking nearby, it at once pushed out all its four limbs, ran with all its power and speed and entered the lake. opeo VG QAnna B ! CHAPTER-4 : KURMA ( 219 ) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Opare ( २२० ) चउत्थं अज्झयणं : कुम्मे चतुर्थ अध्ययन : कूर्म FOURTH CHAPTER : KURMA - THE TURTLES सूत्र १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं नायाणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं णायाणं के अट्टे पन्नत्ते ? सूत्र १. जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा - " भन्ते ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता सूत्र के चौथे अध्ययन का क्या अर्थ बताया हैं ?" S 1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the fourth chapter of the Jnata Sutra according to Shraman Bhagavan Mahavir?" सूत्र २. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं वाणारसी नामं नयरी होत्था, वन्नओ । तीसे णं वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तर - पुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था, अणुपुव्व-सुजाय - वप्प - गंभीर-सीयल-जले अच्छ - विमलसलिल-पलिच्छन्ने संछन्नपत्त - पुप्फ-पलासे बहुउप्पल - पउम- कुमुय-नलिस-सुभग-सोगंधियपुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त- सहस्सपत्त- केसर- पुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे परूिवे । तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छपाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सयसाहस्सियाण य जूहाई निब्भयाई निरुव्विग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणाई अभिरममाणाइं विहरति । सूत्र २. सुधर्मा स्वामी ने कहा - " हे जम्बू ! काल के उस भाग में वाराणसी नामक एक नगरी थी, ऐसा वर्णन है। गंगा नदी के ईशाणकोण में मृतगंगातीरहद नाम की एक झील थी । उसके एक के बाद एक कई नैसर्गिक तट थे। उसका जल शीतल, गहरा, स्वच्छ और निर्मल था। उसकी सतह कमल-पुष्प, कुमुद दल तथा पुष्प- पलाशों से ढकी हुई थी। वह विभिन्न जाति के अनेक कमल-पुष्पों और उनकी केसर से परिपूर्ण था । इस प्रकार वह झील अत्यन्त शोभन और दर्शनीय थी। उस झील में अनेक मत्स्य, कछुवे, ग्राह, मगर, सुंसुमार आदि जलचरों के झुंड निर्भय और निरुद्विग्न होकर आनन्द से विचरते रहते थे । ( 220 ) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म ( २२१) OM GANA - 2. Sudhama Swami narrated—Jambu ! It is said that during that period of time there existed a town named Varanasi. On the northeastern side of the river Ganges was a lake named Mritgangateerhrid. It had a number of natural banks. Its water was cold, deep, pure and clear. Its surface was covered with lotus flowers, lily flowers and dense green foliage. It was filled with a wide variety of lotus flowers and the yellow of their pollen. Thus the lake was very beautiful and attractive. Flocks of a variety of aquatic animals including fish, turtle, alligator, crocodile, Sunsumar, etc. abounded it and played around fearlessly. सूत्र ३. तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए होत्था, वन्नओ। तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति पावा चंडा रोहा तल्लिच्छा साहसिया लोहियपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रत्तिं वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति। सूत्र ३. उस झील के पास एक बड़ा-सा तुलसी-वन था (पूर्व सम)। जिसमें दो पापी सियार रहते थे। वे पापी बड़े क्रोधी, रौद्र, साहसी और इच्छित वस्तु को पाने में दत्तचित्त थे। उनके अगले पैर खून से सने रहते थे। वे मांसा , माँसाहारी और माँसप्रिय ही नहीं माँस लोलुप भी थे। मांस की तलाश में वे साँझ और रात को घूमते-फिरते और दिन में छिपे रहते थे। 3. Near that lake was a large thicket of basil (Tulsi) shrubs (details as before), in which lived two evil jackals. They were cunning, ferocious, bold, and greedy. Their front paws were always bloody. They not only consumed, liked, and loved meat but were also ravenous for it. During the evening and night they roamed around in search of a prey and remained concealed during the day. कछुओं का आगमन ___ सूत्र ४. तए णं ताओ मयंगतीरद्दहाओ अन्नया कयाई सूरियंसि चिरत्थमियंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुवे कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं सणियं उत्तरंति। तस्सेव मयंगतीरदहस्स परिपेरंतेणं सव्वओ समंता परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। CHAPTER-4 : KURMA (221) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Camga सूत्र ४. एक बार सूर्यास्त के बाद और संध्या के भी बीत जाने के बाद जब लोग अपने-अपने घरों में विश्राम कर रहे होते हैं, कोई बिरले ही घूमते-फिरते दिखाई देते हैं, उस समय उस झील में से आहार की इच्छा से दो कछुए बाहर निकले। वे झील के. आसपास अपने आहार की खोज में इधर-उधर घूमने लगे। THE TURTLES 4. One day late in the evening when most of the people rest at home, only rarely some one is seen moving around, two turtles emerged out of the lake with a desire to eat. They started moving around at the bank in search of food. सूत्र ५. तयाणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी जाव आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वितिं कप्पेमाणा विहरंति। तए णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति, पासित्ता जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। सूत्र ५. उधर भोजन की तलाश में वे दोनों पापी सियार भी झुरमुट से निकले और झील के किनारे आकर चारों तरफ आहार की खोज करने लगे। सियारों को वे कछुए दिखाई दिये तो वे उनकी तरफ आने को तत्पर हुए। 5. Those two evil jackals also came out of the thicket in search of a prey and started looking around. When these jackals saw the turtles they turned and moved in their direction सूत्र ६. तए णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति। पासित्ता भीता तत्था तसिया उव्विग्गा संजातभया हत्थे य पाए य गीवाओ य सएहिं सएहिं काएहिं साहरंति, साहरित्ता निच्चला निफंदा तुसिणीया संचिट्ठति। __ सूत्र ६. उन कछुओं ने जब सियारों को आते देखा तो वे डर गये। त्रास से उद्विग्न होकर तथा अत्यन्त भयभीत होकर उन्होंने अपने पैरों और गर्दन को शरीर के भीतर समेट लिया। ऐसी स्थिति में वे निश्चल, निस्पन्द और शांत हो ठहर गये। ___6. When the turtles saw the jackals they were afraid. They became so acutely fearful that in panic they withdrew their limbs and neck SAMA Comme a TOP (222) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TARSHA Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OF ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED भोले कछुए : धूर्त शृगाल चित्र : १३ गंगा नदी के तट पर मृतगंगा तीर नामक एक द्रह था । जहाँ पर अनेक प्रकार के मच्छ, कच्छ, कछुए आदि जलचर प्राणी रहते हैं। एक बार संध्या के समय दो कछुए भोजन की तलाश में द्रह से बाहर निकलकर रेतीले तट पर घूमने लगे । उसी तीर के पास एक गहरी झाड़ियों वाला मालुकाकच्छ था । वहाँ दो धूर्त शृंगाल (सियार) रहते थे। सियारों ने कछुओं को घूमते देखा तो उन्हें अपना भक्ष्य बनाने के लिए घात लगाकर वहाँ आकर छुप गये । ( अध्ययन ४ ) INNOCENT TURTLES : CUNNING JACKALS ILLUSTRATION : 13 On the banks of the river Ganges was a lake named Mritgangateerhrid. Flocks of aquatic animals including turtles abounded it. On the river-bank, two evil jackals lived in a large thicket. One evening two turtles came out of the lake and started moving around on the sandy bank in search of food. The jackals saw the turtles and hid within the thicket ready to pounce for a kill. (CHAPTER-4) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA ܗ Wa Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म into the shell. In this state they stopped where they were; absolutely immobile and unstirring. शृंगालों की चालाकी सूत्र ७. तए णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता ते कुम्मगा सव्वओ समंता उव्वत्तेन्ति, परियत्तेन्ति, आसारेन्ति, संसारेन्ति, चालेन्ति, घट्टेन्ति, फंदेन्ति, खोभेन्ति, नहेहिं आलुपंति, दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स आबाहं वा, पबाहं वा, बाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए । ( २२३ ) तए णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोच्चं पि तच्वंपि सव्वओ समंता उव्वत्तेंति, जाव नो चेव णं संचाएंति करेत्तए । ताहे संता तंता परितंता निव्विन्ना समाणा सणियं सणियं पच्चोसक्कंति, एगंतमवक्कमंति, निच्चला निष्कंदा तुसिणीया संचिट्ठति । सूत्र ७. दोनों सियार कछुओं के पास पहुँचे और उन्हें उलटा-पलटा, आगे-पीछे सरकाया, घसीटा, हिलाया और अन्त में नाखून और दाँत गड़ाकर नोंचने - फाड़ने की चेष्टा की। किन्तु वे उन कछुओं के शरीर को न्यूनाधिक किसी भी प्रकार पीड़ा पहुँचाने में अथवा चमड़ी को भेदने में सफल नहीं हो सके। ये सब चेष्टाएँ उन्होंने बार-बार कीं और हर बार असफल होने पर वे रुक गये। शरीर और मन दोनों की थकान से उन्हें ग्लानि और खेद हुआ। फिर वे धीरे-धीरे वापस लौटे और एकान्त में जा निश्चल, निस्पंद और मूक हो ठहर गये। CUNNING JACKALS 7. The jackals reached near them, turned and over-turned them, pulled and pushed them, shifted and shook them, and in the end tried to pierce and tear them with claws and canines. But they failed to cause any damage or pain to the hard outer shell of the turtles. They tried these tricks again and again but in vain, and stopped. Extremely tired in body and spirit they felt dejected and ashamed. Slowly they returned to their lonely den and waited quietly without moving or stirring. चपल स्वभाव का फल सूत्र ८. तत्थ णं एगे कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं एगं पायं निच्छुभइ । तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मए णं सणियं सणियं एवं पायं CHAPTER - 4: KURMA For Private Personal Use Only (223) Spaso 3020and Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P (२२४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OPORD SS नीणियं पासंति। पासित्ता ताए उक्किट्ठाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जइणं वेगिई जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स तं पायं नखेहि आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेंति, तओ पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति, आहारित्ता त कुम्मगं सव्वओ समंता उव्वत्तेति जाव नो चेव णं संचाइंति करेत्तए, ताहे दोच्चं पि अवक्कमंति, एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं सणियं गीवं णीणेइ। तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मए णं गीवं णीणियं पासंति, पासित्ता सिग्धं चवलं तुरियं चंड नहेहिं दंतहिं कवालं विहाडेंति, विहाडित्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति, ववरोवित्ता मंसं च सोणियं च आहारेंति। - सूत्र ८. दोनों में से एक कछुए ने जब देखा कि सियारों को गये कुछ देर हो चुकी है तो उसने धीरे-धीरे अपना एक पैर शरीर के बाहर निकाला। दुष्ट सियार यह सब देख रहे थे। वे तत्काल तीव्र, शीघ्र, चपल और त्वरित गति से, प्रखरता और वेग से उस कछुए पर झपट पड़े। नाखूनों से उसके पैर को फाड़ा और दाँतों से तोड़ लिया। उस पैर का रक्त-माँस खा लेने के बाद उन्होंने फिर कछुए के शरीर को पहले की भाँति चीरने-फाड़ने की चेष्टा की, पर वे फिर असफल रहे। इस पर वे फिर पहले की तरह जा छिपे। कछुए ने कुछ देर बाद दूसरा पैर निकाला और सियारों ने वह भी पहले की तरह ही खा डाला। इसी प्रकार एक के बाद एक वे उसके चारों पैर खा गये और अन्त में उसकी गर्दन तोड़कर कपाल को शरीर से अलग कर दिया। कछुए के मृत हो जाने पर उन्होंने उसके पूरे माँस व रक्त का भक्षण कर लिया। THE RASH TURTLE 8. When one of the turtles observed that sometime had passed since the jackals had left the place, it slowly pushed out one of its limbs. The evil jackals were furtively observing all this. They at once pounced on the turtle with great speed and force. They tore at the exposed limb of the turtle with their paws and broke it apart with their jaws. After eating the flesh and licking the bones clean they again attacked the body of the turtle but failed to do anything. They returned to their hiding place and started their watch again. The turtle brought out another of its limbs after some time and the jackals pounced again, This way, one after the other, they consumed all the four limbs of the turtle and at last tore apart its neck. Once the turtle was dead the jackals devoured all its flesh and blood. (224) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Anam चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED संयम से रक्षा : असंयम से विनाश चित्र : १४ मौका पाकर दोनों धूर्त सियार कछुओं की तरफ लपके। खतरा देखते ही कछुओं ने अपने शरीर के अंग-गर्दन, पाँव आदि सिकोड़ लिए और गेंद की तरह चुपचाप स्थिर हो गये। नज़दीक आकर शृगालों ने उन्हें उठाया-पटका किन्तु उनका कुछ भी जोर नहीं चला। शृगाल जाकर वापस झाड़ियों में छुप गये। थोड़ी देर बाद एक कछुए ने अपनी गर्दन और पाँव बाहर निकाले। इधर-उधर देखकर वह आगे दौड़ने को हुआ तभी धूर्त शृगालों ने आकर उसको दबोच लिया और मार डाला। दूसरा कछुआ पहले की भाँति ही अपने शरीर के अंगों का संगोपन (छुपाये) किये रहा। पापी शृगाल उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। एक असंयम के कारण नष्ट हो गया। दूसरा संयम के कारण सुरक्षित रहा। (अध्ययन ४) DISCIPLINE PROTECTS: INDISCIPLINE DESTROYS ILLUSTRATION : 14 At an opportune moment the jackals pounced. Seeing the danger the turtles withdrew their limbs and necks inside the shell and became absolutely immobile like a stone. The jackals tried their best but failed to cause any damage or pain due to the hard outer shell. Dejected, they returned to their lonely den and waited quietly. After sometime one of the turtles slowly pushed out its limbs and neck and looked around with an intention to run. The waiting jackals at once pounced, tore the turtle apart and killed it. The other turtle did not push out any of its limbs and so the jackals failed to do any damage. Indiscipline destroyed the first and discipline saved the second. (CHAPTER-4) - - JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BO चतुर्थ अध्ययन : कूर्म निष्कर्ष : उपनय सूत्र ९. एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाई अगुत्ताइं भवंति, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि जाव अणुपरियट्टा, जहा कुम्मए अगुत्तिंदिए । ( २२५ ) सूत्र ९. हे आयुष्मान श्रमणो ! इसी प्रकार हमारे जो साधु-साध्वी दीक्षित होने के बाद पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते, वे इसी भव में अनेक साधुओं आदि द्वारा निन्दनीय आदि ( पूर्व सम) होते हैं, परलोक में भी दंड भोगते हैं और अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। THE LESSON 9. Long-lived Shramans ! The same way those of our ascetics who, after getting initiated, do not keep their five sense organs disciplined become the objects of criticism, public contempt, hatred and disrespect in this life. Besides this they also suffer misery in the next life and are caught in the cycle of rebirth indefinitely. शांत स्वभाव का फल सूत्र १०. तए णं ते पावसियालया जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं कुम्मयं सव्वओ समंता उव्वत्तेंति जाव दंतेहिं अक्खुडंति जाव करित्तए । तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जाव नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा जाव छविच्छेयं वा करित्तए, ताहे संता तंता परितंता निव्विन्ना समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया । सूत्र १०. दोनों दुष्ट सियार फिर दूसरे कछुए के पास पहुँचे और उसे फिर पहले की तरह चीरने - फाड़ने की चेष्टा करने लगे । असफल होने पर वे फिर एकान्त में जाते और फिर कुछ देर में वही चेष्टा करते। पर इस कछुए ने अपने अंग बाहर नहीं निकाले इस कारण सियार उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सके। अन्त में वे थक-हारकर खिन्न हो अपने स्थान को लौट गए। THE PATIENT TURTLE 10. Both those evil jackals then went near the other turtle and once again tried to tear it apart and kill it. When they failed they returned CHAPTER-4: KURMA Opaz 106 For Private Personal Use Only ( 225 ) OMO Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र M to their hiding place and after some time resumed their efforts. But this turtle did not push out any of its limbs and so the jackals failed to do any damage. Tired and defeated they returned into their den dejected. __सूत्र ११. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेइ, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करित्ता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंध-परियणेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था। सूत्र ११. कछुए ने बहुत देर बाद, यह जानकर कि वे सियार बहुत दूर चले गये हैं, धीरे-धीरे अपनी गर्दन निकालकर सावधानी से चारों ओर देखा। फिर चारों पैर एक साथ बाहर निकाले और अपनी सामर्थ्य के अनुसार उत्कृष्टतम गति से दौड़ता-दौड़ता झील में जा उतरा और अपने स्वजनों से जा मिला। 11. After some time, when the turtle realized that the jackals had gone far away, it slowly stretched its neck out and carefully watched all around. Finding no danger lurking nearby, it at once pushed out all its four limbs, ran with all its power and the speed it could gather, entered the lake and reached its kin-folk safe. उपसंहार सूत्र १२. एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाइं गुत्ताइं भवंति, जाव-जहा से कुम्मए गुतिदिए। सूत्र १२. हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो साधु-साध्वी दीक्षित होने के | बाद अपनी पाँचों इन्द्रियों को उस दूसरे कछुए के समान गोपन रखता है वह इसी भव में अनेक श्रमणों आदि द्वारा अर्चनीय आदि होता है और संसार के भव-बंधन से मुक्त हो जाता है (विस्तार पूर्व सम)। CONCLUSION 12. Long-lived Shramans ! The same way those of our ascetics who after getting initiated keep their five sense organs disciplined like the second turtle, become objects of reverence for all the ascetics in this life and finally cross the ocean of rebirth. (226) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : कूर्म (२२७४ - सूत्र १३. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि। सूत्र १३. हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ। ____13. Jambu ! This is the text and the meaning of the fourth chapter | of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. ॥ चउत्थ अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE FOURTH CHAPTER || उपसंहार ज्ञातासूत्र की इस चौथी कथा में इन्द्रिय-संयम के महत्त्व को एक सटीक उदाहरण से समझाया है। जो साधक इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को संयम के कवच में समेटे रखता है वह आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ता रहकर ध्येय को प्राप्त करने में सक्षम होता है। इसके विपरीत जो साधक इन्द्रियों की चंचल प्रवृत्तियों को संयम के कवच से बाहर निकाल देता है वह विकारों से ग्रसित हो वीभत्स अन्त को प्राप्त होता है। अतः चंचलता, कौतूहल और अस्थिरता का त्याग कर स्थिरता, एकाग्रता और संयम को अपनाना ही साधक के लिए श्रेय है। उपनय गाथा विसयेसु इंदियाई रुंभंता राग-दोस निम्मुक्का । पावंति निव्वुइ सुहं कुम्मुव्व मयंगदहसोक्खं ॥ अवरे उ अणरत्थ परंपराउ पावंति पाव कम्मवसा। संसार सागर गया गोमाउग्गसिय-कुम्मोव्व ॥ इन्द्रिय विषयों में आसक्ति नहीं रखते हुए राग-द्वेष से रहित साधक संयम द्वारा अपनी आत्मा को रक्षित करते हुए मोक्षसुख की प्राप्ति करते हैं। जैसे कछुए ने इन्द्रिय-गोपन करके मृतगंगा तीर पर पहुंचकर सुख प्राप्त किया। क தயா DAR RIED CHAPTER-4 : KURMA (227) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 69 JRATIO ORMERIORD B4m GANA N इसके विपरीत जो इन्द्रिय सुखों में आसक्त होकर संयम नहीं रख सकता, वह संसार सागर में गोतेखाते हुए शृगालों (पापों) द्वारा ग्रस्त होकर कछुए की तरह दुखी होते हैं। CONCLUSION This fourth story of Jnata Dharma Katha explains the importance of the discipline of the sense organs with the help of an appropriate example. Those practicers who keep their five sense organs withdrawn within the shield of discipline progress on the spiritual path and attain their goal. But those who bring the ever indulgent senses out of the shield of discipline are trapped by perversions and meet a horrible end. As such it is to the benefit of a practicer to abandon the tendencies of wavering, curiosity, and instability and acquire stability, concentration, and discipline. THE MESSAGE Saving the soul from sensual pleasures as well as attachment and aversion with the help of discipline a practicer attains the ultimate pleasure of liberation. Just as the tortoise reached its abode in the Mayangteer-drah after saving itself by withdrawing within its protective shell. On the other hand he who does not discipline its senses is consumed by miseries of the eternal cycle of rebirth. Just as the other tortoise was consumed by the jackals. परिशिष्ट मयंगतीर द्रह-टीकाकारों ने मयंग शब्द की उत्पत्ति मृतगंगा से की है और उसका अर्थ किया है-वह स्थान जहाँ गंगा का पानी खूब गहरा व अधिक हो। आवश्यकचूर्णि में मृतगंगा के विषय में कहा है-गंगा जहाँ समुद्र में मिलती है वहाँ प्रत्येक वर्ष अपना पाट बदलती है। यहाँ गंगा का जो मुहाना सबसे प्राचीन है उसे मृतगंगा कहते हैं। वाराणसी समुद्र के निकट नहीं है और फिर मयंग शब्द की मृतगंगा शब्द से उत्पत्ति भी किसी पद्धति से पुष्ट नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि उस तट विशेष पर किसी समय मयंग या मतंग नामक कोई ऋषि रहते होंगे। उन्हीं के नाम से इस स्थान का नाम मतंग तीर अथवा मयंग तीर पा गया होगा। OTHO क am कव Ama (228) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORG चतुर्थ अध्ययन कूर्म वाराणसी - भारत की उन प्राचीन नगरियों में संभवतः सर्व प्रसिद्ध है, जो उस काल से आज तक सदा जीवन्त रही हैं। सांस्कृतिक तथा राजनैतिक गतिविधियों के अतिरिक्त यह नगरी आध्यात्मिक तथा दार्शनिक गतिविधियों का भी महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। जैन, बौद्ध तथा वैदिक सभी परम्पराओं में इसे श्रेष्ठ और पावन तीर्थ स्थल माना है। पत्रवणासूत्र तथा भगवतीसूत्र में वर्णित साढ़े पच्चीस आर्य देशों तथा सोलह महाजनपदों में काशी का उल्लेख है। यह भारत की दस प्रमुख राजधानियों में से एक है। यह काशी जनपद की राजधानी थी वरुणा तथा असी इन दो नदियों के बीच अवस्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। APPENDIX Mayangteer-drah-The commentators have interpreted that the term Mayang has its origin in the Sanskrit word Mrit-ganga. With this interpretation the meaning of the term is the place where the Ganges is very deep and voluminous. In the Avashyak-churni it is mentioned that the Ganges shifts its bed every year near its delta. Around that area the oldest mouth is called Mrit-ganga. However, Varanasi is nowhere near the sea and as such this interpretation does not hold good. Moreover, there is hardly any etymological or grammatical support for the derivation of Mayang from Mritganga. As such the only other possible explanation is that at some point of time some sage with the name Mayang or Matang must have lived at that particular spot. Consequently the place must have taken the name. ( २२९ ) Varanasi-The most famous of the ancient cities in India that have had in uninterrupted habitation since the remote past. It has been an important centre of philosophical and spiritual activities besides cultural and political activities. In all the three important religious schools it has been accepted as foremost among the pious centres of pilgrimage. In Pannavana Sutra and Bhagavati Sutra Kashi (name of the republic state whose capital was Varanasi; at present more popular as another name of Varanasi) is included in the list of twenty five and a half Arya countries and sixteen great republics. This is also one of the ten prominent capital cities of ancient India. As it was situated between two rivers named Varuna and Asi it got the name Varanasi. CHAPTER-4: KURMA ( 229 ) ORMS Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) aor - - VANAL पंचम अध्ययन : शैलक: आमुख शीर्षक-सेलए-शैलक-नाम विशेष। शैलकपुर नाम के नगर का राजा जो वैराग्य से प्रेरित हो सवच्चा पुत्र का शिष्य बना। उनके श्रमण जीवन में भौतिक सुविधाओं के कारण शैथिल्य आ गया था। शिथिलाचार से पुनः संयम की ओर मुड़ने के महत्त्व को इस कथा से समझाया गया है। ___ कथासार-द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव का राज्य था। वहाँ थावच्चा नाम की धनाढ्य महिला पुत्र सहित रहती थी। भगवान नेमिनाथ के एकदा द्वारका आने पर थावच्चा-पुत्र उनकी देशना से प्रभावित हुआ और उनके पास दीक्षा लेने का निश्चय किया। माता तथा कृष्ण वासुदेव के समझाने पर भी वह | अपने निश्चय से डिगा नहीं और भगवान नेमिनाथ से दीक्षा ग्रहण कर ली। थावच्चा-पुत्र द्वारका से निकल अनेक स्थानों पर विहार करते शैलकपुर नगर में आये। वहाँ का राजा शैलक तथा उसके मंत्री सभी थावच्चा-पुत्र के उद्बोधन से प्रभावित हो व्रतधारी श्रावक बन गये। उसी काल में सौगंधिका नाम की नगरी में सुदर्शन नामक एक सेठ रहता था। सांख्य दर्शन में | निष्णात शुक नाम के एक परिव्राजक का उपदेश सुन सुदर्शन ने शुक परिव्राजक का शौच मूलक मत अंगीकार कर लिया। इसके बाद उस नगरी में थावच्चा-पुत्र भी विहार करते-करते पधारे। उनके उपदेश सुनकर तथा उनसे चर्चा करके सुदर्शन सेठ ने अपना मत त्याग विनयमूलक श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया। ___ कालक्रम से शुक परिव्राजक पुनः सौगंधिका आया और उसने जब जाना कि सुदर्शन ने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया है, वह उसे साथ ले थावच्चा-पुत्र के पास गया। उनसे प्रश्न पूछे। जिज्ञासा शांत होने पर वह थावच्चा-पुत्र के पास दीक्षित हो गया। शुक परिव्राजक ने अपने गुरु के पास शिक्षा प्राप्त कर घरम ज्ञान प्राप्त कर लिया। थावच्चा-पुत्र समाधिमरणपूर्वक मोक्ष गये। शुक अपने शिष्यों सहित शैलकपुर आया और उसकी देशना सुन शैलक राजा को वैराग्य हो आया। इन्होंने अपने पाँच सौ मंत्रियों सहित शुक के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। शुक मुनि अपने एक हजार साधु | शिष्यों सहित अन्तिम समाधि के लिए शत्रुजय पर्वत पर चले गये। शैलक मुनि को श्रमणों का कठोर जीवन रास नहीं आया और वे क्षीण तथा रोगी हो गये। एक बार जब वे शैलकपुर आये तो उनके पुत्र ने उनकी दशा देख उन्हें अपनी वाहनशाला में आ ठहरने का आग्रह किया और वहाँ आने पर उनके उपचार की व्यवस्था तथा अन्य सभी सुविधायें जुटा दीं। यहाँ शिलक मुनि का स्वास्थ्य तो सुधरा पर उनकी उन सभी उपलब्ध सुविधाओं पर आसक्ति हो गई। वे प्रमादी बन गये और वहाँ से विहार करने की सोचना भी बन्द कर दिया। इस पर उनके शिष्य साधुओं में पंथक मुनि को उनकी सेवा में छोड़ वहाँ से प्रस्थान कर दिया। __ एक बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन संध्या के समय जब शैलक मुनि सो रहे थे तब पंथक ने प्रतिक्रमण के पश्चात् उनसे क्षमा याचना हेतु उनके चरणों का अपने सिर से स्पर्श किया। शैलक मुनि A (230) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन: शैलक क्रोधित हो उठे तो पंथक ने चातुर्मासिक क्षमापना का कारण बताया। पंथक की बात सुन शैलक को बहुत पश्चात्ताप हुआ। वे तत्काल पुनः संयमी जीवन में जुट गये और वहाँ से विहार किया। उनके शेष शिष्य भी उनसे आ मिले और अंततः वे भी विशुद्ध श्रमण आचार का पालन करके मोक्षगामी हुए। FIFTH CHAPTER: SHAILAK: INTRODUCTION Title Shailak is the name of the king of a town named Shailakpur. Inspired by the feeling of detachment he became a disciple of Thavacchaputra. He became lax in his ascetic conduct due to the mundane comforts. This story highlights the importance of returning back to discipline from a life of lax conduct. Gist of the Story-Krishna Vasudev ruled over the city of Dwarka. In the town of Dwarka lived a prosperous lady, Thavaccha, with her son. Once Arhat Arishtanemi arrived there. Inspired by his discourse Thavacchaputra decided to get initiated. His mother and Krishna Vasudev failed to stop him and he took Diksha from Arhat Arishtanemi. ( २३१ ) During his wanderings Thavacchaputra once arrived at Shailakpur. Impressed by Thavacchaputra's sermons King Shailak and his ministers took the required vows and became Shravaks (followers of Shramans). During that period of time Sudarshan merchant lived in Saugandhika town. In that town Shuk Parivrajak preached about the ideals of the Sankhya school. Impressed with his discourse Sudarshan embraced the cleansing based religion of Shuk. Thavacchaputra also arrived in Saugandhika city. Sudarshan also went to his discourse. The preaching of Thavacchaputra influenced Sudarshan. Leaving the cleansing based religion he joined the discipline based religion of the Shramans and became a Shravak. When Shuk came to know about this incident he took Sudarshan with him, came to Thavacchaputra and asked some questions. When his doubts were removed he became a disciple of Thavacchaputra. He studied the complete canonical text and became a great scholar. Thavacchaputra went to the Shatrunjaya hills and after a month long fast got liberated. Lermonto Ascetic Shuk once arrived in Shailakpur with his disciples. On listening to his discourse King Shailak renounced the world and took Diksha along with his five hundred ministers. Ascetic Shuk and one thousand of his disciples went to Shatrunjaya hills and attained liberation after taking the ultimate vow. The harsh ascetic life did not suit ascetic Shailak and he became sick and Janaemic. Ascetic Shailak once arrived in Shailakpur town. When his son, king CHAPTER-5 : SHAILAK ( 231 ) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (737) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र a Gye 04 Manduk, saw ailing Shailak he requested the ascetic to come to stay in his garage. There the king arranged for all the required facilities for his treatment. The treatment cured Ascetic Shailak but he became lethargic and habituated to an easy way of life. He was unable to resume his itinerant way of life. Under these circumstances all the five hundred disciples gave the responsibility of his care to ascetic Panthak and left the place to resume their itinerant life. One evening during the month of Kartic, after a heavy dinner and a doze of sedative, Ascetic Shailak was sleeping in all comfort. At that time ascetic Panthak arrived there after finishing his Pratikraman and touched the feet of Ascetic Shailak with his forehead in order to seek the formal forgiveness. This disturbed Shailak and he angrily shouted. Panthak explained him the reason for touching his feet. Ascetic Shailak was forced to a sincere introspection. He repented for his gross neglect and resumed his harsh itinerant life. Other disciples of Ascetic Shailak also joined back. Later they all went to The Shatrunjaya Hills and attained liberation after taking the ultimate vow like Thavacchaputra. (232) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dig DEU सूत्र १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? ( २३३ ) सूत्र १. जम्बू स्वामी ने पूछा - "भंते ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" पंचमं अज्झयणं : सेलए पंचम अध्ययन : शैलक FIFTH CHAPTER : SHAILAK 1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the fifth chapter according to Shraman Bhagavan Mahavir?" सूत्र २. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं बारवती नामं नयरी होत्था, पाईण-पडीणायया उदीण - दाहिणवित्थिन्ना नवजोयणवित्थिन्ना दुवालसजोयणायामा धणवइ-मइ-निम्मिया चामीयर-पवर- पायारणाणामणि- पंचवण्ण- कविसीसगसोहिया अलकापुरिसंकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं देवलोयभूया | सूत्र २. जम्बू ! काल के उस भाग में द्वारवती (द्वारका) नाम की एक नगरी थी । वह पूर्व से पश्चिम में बारह योजन लम्बाई में और उत्तर से दक्षिण में नौ योजन चौड़ाई में फैली थी। उसे कुबेर की अभिकल्पना के अनुरूप बनाया गया था। सोने के उत्तम परकोटे और पंचरंगी मणियों से सजे कंगूरों से शोभित थी और इन्द्र की अलकापुरी जैसी सुन्दर लगती थी। उसके निवासी प्रफुल्ल और उत्साही थे । वह साक्षात् देवलोक जैसी थी । हे 2. Sudharma Swami narrated-Jambu! During that period of time there existed a town named Dwaravati (Dwarka). It was spread in an area measuring twelve yojan (an ancient measure of distance) eastwest and nine yojan north-south. It was constructed according to the concept of Kuber, the god of wealth. Its parapet wall was golden and gem studded. In beauty it matched Alkapuri, the city of Indra, the king of gods. Its inhabitants were charming and energetic. All this made it look like a heavenly town. ( 233 ) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र M । सूत्र ३. तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पव्वए होत्था; तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुच्छ-गुम्म-लया-वल्लि-परिगए हंस-एस-मिग-मयूर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसार-कोइलकुलोववेए अणेगतडाग-वियरउज्झरय-पवाय-पब्भार-सिहरपउरे अच्छरगण-देव-संघ-चारण-विज्जाहर-मिहुणसंविचिन्ने निच्चच्छणए दसार-वरवीर-पुरिसतेलोक्क-बलवगाणं सोमे सुभगे पियदसणे सुरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। सूत्र ३. नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में रैवतक नाम का गगनचुम्बी पर्वत था। वह तरह-तरह के झाड़ी, झुरमुट, लता, बेल आदि से भरा पड़ा था। उसमें हंस, मृग, मयूर, कौंच, सारस, चकवा, मैना, कोयल आदि पशु-पक्षी झुण्ड बनाकर रहते थे। उसमें बहुत से तालाब, खोह, झरने, प्रपात, नीची-ऊँची चोटियाँ थीं। वहाँ अप्सरायें, देव, चारण, विद्याधर युगल आदि के समूह निरन्तर उत्सवरत रहते थे। वहाँ दशारवंशी वीर त्रिलोक का बल लिये विचरते थे। वह पर्वत सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप था तथा दर्शनीय आदि था। 3. There was a high mountain range outside the town in the northpast direction. Its lush greenery included a variety of shrubs, bushes, vines, creepers, etc. Animals and birds including swans, deer, peacocks, franes, cuckoos, starlings, etc. inhabited this valley and moved around In flocks. There were numerous ponds, gorges, streams, water-falls, peaks and summits in that area. A variety of divine couples lead by Apsaras, Charans, and Vidyadhars always indulged in group festivities there. That mountain range was tranquil, serene, beautiful, Ienchanting, and attractive. । सूत्र ४. तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं णंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था सव्योउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झभागे सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्था दिव्ये, वन्नओ। सूत्र ४. रैवतक पर्वत के आसपास नन्दनवन नाम का एक उद्यान था। वह सर्व-ऋतु फल-फूलों से भरा पड़ा था और नन्दनकानन जैसा दर्शनीय आदि था। उद्यान के बीचोंबीच |सुरप्रिय नाम का एक दिव्य यक्षायतन था, ऐसा वर्णन मिलता है (औपपातिक सूत्र)। | 4. Near the Raivatak mountain was a garden named Nandanvan. It was filled with all-season flowering trees and was as beautiful as Nandan Kanan (the divine garden). At the centre of this garden was a Jdivine temple. (All this is detailed in the Aupapatik Sutra). Aam dans QHMINS amupane (234) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २३५) Cm ल कृष्ण वासुदेव __ सूत्र ५. तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ। से णं तत्थ समुद्दविजय-पामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसहस्साणं' पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अन्नसिं च बहूणं ईसर-तलवर जाव सत्थवाहपभिईणं वेयड्ड-गिरिसायरपेरंतस्स य दाहिणड्ढभरहस्स बारवईए य नयरीए आहेवच्चं जाव पालेमाणं विहरइ। सूत्र ५. द्वारका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा निवास करते थे। कृष्ण वासुदेव अपनी अपार समृद्धि और सामर्थ्य सहित उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत और अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का आधिपत्य आदि करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे। उनके आधीन लोगों का वर्णन इस प्रकार है-समुद्रविजय आदि दस दशार, बलदेव आदि पाँच महावीर, उग्रसेन आदि सोलह हज़ार राजा, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ राजकुमार, शाम्ब आदि साठ हज़ार दुर्दान्त योद्धा, वीरसेन आदि इक्कीस हज़ार महापुरुषार्थी, महासेन आदि छप्पन हज़ार महाबली, रुक्मिणी आदि बत्तीस हज़ार रानियाँ, अनंगसेना आदि हज़ारों गणिकाएँ और अन्य अनेक श्रेष्ठी, तलवर, सार्थवाह आदि जन। KRISHNA VASUDEV 5. The city of Dwarka was ruled by king Krishna Vasudev whose jempire extended from the Vaitadhya mountain in the north to the Lavana sea in the three remaining directions. He ruled this large land mass known as Dakshinardha Bharat ably with all his power and grandeur. The details of the people under his reign are the ten Dashar kings lead by Samudravijaya, five great warriors lead by Baldev, sixteen thousand kings lead by Ugrasen, thirty five million princes lead by Pradyumna, sixty thousand fiery warriors lead by Shamb, twenty one thousand great achievers lead by Virsen, fifty six thousand great warriors lead by Mahasen, thirty two thousand queens lead by Rukmini, thousands of courtesans lead by Anangasena and a Imultitude of merchants, traders, etc. स CHAPTER-5 : SHAILAK (235) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ----JAm - सूत्र ६. तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा णाम गाहावइणी परिवसइ, अड्डा जाव अपरिभूया। तीसे णं थावच्चाए गाहावइणीए पुत्ते थावच्चा-पुत्ते णामं सत्थवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे। तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारयं साइरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इब्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेइ, बत्तीसओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धिं विउले सद्द-फरिस-रस-रूव-वन्न-गंधे जाव भुंजमाणे विहरइ। सूत्र ६. द्वारका नगरी में थावच्चा नाम की एक समृद्धिशाली और सामर्थ्यवान गृहस्थ महिला रहती थी। उसके थावच्चापुत्र नाम का एक बेटा था जो सुकुमार अंगों वाला और रूपवान था। जब वह बालक आठ वर्ष से अधिक आयु का हुआ तो थावच्चा गाथापत्नी ने उसे शुभ मुहूर्त देख कलाचार्य के पास भेजा। कालान्तर में युवा हो जाने पर उसका विवाह एक साथ बत्तीस कुलीन कुमारियों से करा दिया और बत्तीस सुसज्जित सभी सुविधायुक्त महल उसे दे दिये। थावच्चापुत्र अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ मानवोचित सभी भोग-उपभोगों का आनन्द लेता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। 6. In the town of Dwarka there lived a prosperous and resourceful lady named Thavaccha. She had a son named Thavacchaputra who was handsome and delicate. When this boy became eight years old Thavaccha sent him to a teacher at the opportune moment. Later, when he grew to be a young man he was married to thirty two young girls belonging to good families and, was given thirty two well furnished palaces. Thavacchaputra spent his time enjoying all earthly pleasures along with his thirty two wives. अर्हत् अरिष्टनेमि का आगमन सूत्र ७. तेणं कालेणं तेणं समए णं अरहा अरिट्ठनेमी सो चेव वण्णओ. दसधणस्सेहे. नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पयासे, अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव बारवई नयरी, जेणेव रेवयगपव्वए, जेणेव नंदणवणे उज्जाणे, जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। O SONICE (236) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sparc पंचम अध्ययन : शैलक सूत्र ७, काल के उस भाग में अरिहन्त अरिष्टनेमि वहाँ पधारे (विस्तृत वर्णन पूर्व सम) । वे दस धनुष ऊँचे थे और नील कमल, भैंस के सींग, नीली गोली और अलसी के फूल जैसी नीली कांति वाले थे। उनके साथ अठारह हजार साधु तथा चालीस हजार साध्वियाँ थीं। वे एक के बाद एक अनेक स्थानों पर विहार करते हुए द्वारका नगरी के बाहर गिरनार पर्वत के पास नन्दनवन उद्यान में सुरप्रिय यक्षायतन के निकट अशोक वृक्ष के पास पधारे। वहाँ वे संयम और तप की साधना करते हुए रहने लगे। जनसमूह मंडलीबद्ध हो उनके पास आया और उन्होंने धर्मोपदेश दिया। ARRIVAL OF ARHAT ARISHTANEMI 7. During that period of time Arhat Arishtanemi arrived there (details as mentioned earlier). He was ten Dhanush (an ancient linear measure) tall and his complexion was blue like blue-lotus, buffalo horn, blue bead, or Alsi flower (linseed/Linum usitatissimum). He was accompanied by eighteen thousand male and forty thousand female ascetic disciples. Visiting many places one after another he arrived and stayed under an Ashoka tree near the Surpriya temple in the Nandanavan garden near Girnar mountain. He started his spiritual practices of discipline and penance. People came to him in groups and he preached to them. ( २३७ ) कृष्ण की उपासना सूत्र ८. तए णं से कहे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्ठे समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - " खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसद्दं कोमुदियं भेरिं तालेह ।” तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव मत्थए अंजलिं कट्टु ‘एवं सामी ! तह' त्ति जाव पडिसुर्णेति । पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरं महुरसद्दं भेरिं तालेंति । तओ निद्ध-महुर-गंभीरपडिए णं पिव सारइए णं बलाहए णं अणुरसियं भेरीए । तए णं तीसे कोमुइयाए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिन्नाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडग-तिय- चउक्क-चच्चर-कंदर-दरी- विवर-कुहर CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only ( 237 ) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र/ Oc BIDIO HILDHOODS गिरिसिहर-नगर-गोउर-पासाय-दुवार-भवण-देउल-पडिसुयासयसहस्ससंकुलं सदं करेमाणे। बारवई नगरिं सब्भितर-वाहिरियं सव्वओ समंता से सद्दे विप्पसरित्था। सूत्र ८. कृष्ण वासुदेव ने यह समाचार सुना तो सेवकों को बुलाकर कहा"देवानुप्रियो ! जल्दी से सुधर्मा सभा में जाकर मेघ गर्जन जैसी गम्भीर और मधुर ध्वनि || वाली कौमुदी नाम की भेरी बजाओ।" सेवक आज्ञा सुनकर प्रसन्न हुए और वहाँ से निकलकर सुधर्मा सभा में कौमुदी भेरी के निकट आये। वहाँ आकर उन्होंने वह भेरी | बजाई। उस भेरी से कोमल, मधुर पर शरद ऋतु के मेघ जैसी गम्भीर ध्वनि निकली और नौ योजन चौडी, बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृंगाटक आदि (पूर्व सम) सभी स्थानों में असंख्य प्रतिध्वनियाँ करती भीतर-बाहर सभी भागों में गूंजती वह ध्वनि चारों और फैल गई। WORSHIP OF KRISHNA 8. When Krishna Vasudev heard this news he called his attendants ! and said, “Beloved of gods! Rush to the Sudharma assembly hall and blow the Kaumudi trumpet that emits booming but melodious sound like thunder of clouds." The attendants happily went and did as ordered. The trumpet emitted a soft and melodious sound but as booming as the thunder of winter clouds. With innumerable echoes the sound spread all around in each and every part of the one hundred and nine square Yojan expanse of the city of Dwarka and beyond. सूत्र ९. तए णं बारवईए नयरीए नवजोयणवित्थिनए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव गणियासहस्साइं कोमुईयाए भेरीए सई सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठा जाव ण्हाया आविद्धवग्घारियमल्लदामकलावा अहतवत्थ-चंदणोक्किन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह-सीया-संदमाणीगया, अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउब्भवित्था। सूत्र ९. द्वारका नगरी में समुद्रविजय आदि सभी महत् गौण नागरिकों ने वह भेरी की गूंज सुनी और प्रसन्न हुए। सबने स्नानादि कर्म किये, नवीन वस्त्र धारण किये, चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य लगाये और लम्बी मालाएँ पहनकर तैयार हुए। फिर कोई घोड़े पर, कोई हाथी पर, तो कोई रथ और पालकी पर सवार हुए और कृष्ण वासुदेव के पास गये। बहुत से लोग तो समूह बनाकर पैदल ही वहाँ पहुँचे। ago Famma (238) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '201 पंचम अध्ययन शैलक 9. All the citizens of Dwarka, important or ordinary, including Samudravijaya, heard this echo and were filled with joy. They all took their bath and got ready adorning themselves with new dresses, perfumes like sandal wood paste, and long garlands. They came to Krishna Vasudev riding elephant, horse, chariot or palanquin. Many of them formed groups and arrived walking. ( २३९ )/ सूत्र १०. तए णं कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव अंतिय पाउब्भवमाणे पासइ । पासित्ता हट्ट तुट्ट जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - " खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरंगिणिं सेणं सज्जेह, विजयं च गंधहत्थि उagaह ।" ते वि तह त्ति उवट्ठवेंति, जाव पज्जुवासंति । सूत्र १०. इन सबको देख कृष्ण वासुदेव प्रसन्न हुए और अपने सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी - “देवानुप्रियो ! जल्दी से चतुरंगिनी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को ले आओ।” सेवकों ने उनकी आज्ञा का पालन किया। कृष्ण वासुदेव तैयार हुए और गंधहस्ती पर सवार हो अपने वैभव सहित अर्हत् अरिष्टनेमि के पास पहुँचे। वहाँ उन्होंने तीर्थंकर के अष्ट-प्रातिहार्य आदि देखे । वे गंधहस्ती से नीचे उतरे और पाँच अभिग्रह पूर्वक भगवान अरिष्टनेमि के निकट पहुँच यथाविधि वन्दना करके उपासना करने लगे । DO 10. Krishna Vasudev was pleased to see them. He called his servants and ordered-"Beloved of gods! Prepare the armed forces to march and bring my great elephant Vijay immediately." The servants followed the orders. Krishna Vasudev got ready and came to Arhat Arishtanemi riding his elephant and with all his glory and grandeur. There he witnessed the eight divine insignia of the Tirthankar. He got down from the elephant. Taking five ritual vows he approached Arhat Arishtanemi and after performing formal obeisance worshipped the Tirthankar. थावच्चापुत्र का वैराग्य सूत्र ११. थावच्चापुत्ते वि निग्गए, जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा णिसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, पायग्गहणं करे । जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा । जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहि आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा, ताहे अकामिया चैव थावच्चापुत्तदारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था। नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो । तए णं से थावच्चापुत्ते तुसिणीए संचिट्ठा । CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only (239) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र RATRO TOS GA सूत्र ११. थावच्चापुत्र भी भगवान की वन्दना के लिये गया। उसे वैराग्य हो आया और वह अपनी माता से आज्ञा लेने गया। माता के बहुत समझाने पर भी जब वह अपने निश्चय से नहीं डिगा तो माता ने आज्ञा दे दी। (यह समस्त घटना उसी प्रकार समझें जैसे मेघकुमार की कथा में वर्णित है।) थावच्चा ने आज्ञा देने के बाद कहा कि वह दीक्षा महोत्सव देखना चाहती है। थावच्चापुत्र ने मौन रहकर माँ की बात मान ली। DETACHMENT OF THAVACCHAPUTRA 11. Thavacchaputra also came for obeisance of the Tirthankar. Filled with the feeling of detachment he went to his mother to seek her permission for renunciation. When all her efforts to dissuade him failed to penetrate his resolve, the mother gave him permission (the details of this incident are same as those in the story of Megh Kumar). She then expressed her desire to be a witness to the Diksha ceremony. In acceptance Thavacchaputra remained silent. सूत्र १२. तए णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता महत्थं महग्घं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त जाव सद्धिं संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पडिहारदेसिए णं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल. वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी__ एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इढे जाव से णं संसारभयउव्विग्गे इच्छइ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स जाव पव्वइत्तए। अहं णं निक्खमणसक्कार करेमि। इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउड-चामराओ य विदिन्नाओ। सूत्र १२. गाथापत्नी थावच्चा अपने आसन से उठी और महापुरुषों तथा राजाओं को भेंट करने के योग्य उत्तम और बहुमूल्य भेंट साथ में ली। अपने स्वजनों के साथ वह कृष्ण वासुदेव के महल के मुख्य द्वार के सामने आई। फिर प्रतिहारों के द्वारा दिखाये मार्ग से कृष्ण वासुदेव के पास गई, हाथ जोड़ 'जय हो, विजय हो' बोलकर उन्हें बधाई दी और अपने साथ लाई भेंट उनके सामने रखकर बोली___ "हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नाम का एक ही पुत्र है। वह मुझे इष्ट, कान्त आदि है। वह संसार के भय से उद्विग्न होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर अनगार होना चाहता है। मैं उसके अभिनिष्क्रमण पर उसका सत्कार करना चाहती हूँ। अतः हे देवानुप्रिय आप उसके लिये छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें यह मेरी अभिलाषा है।'' - MARA CS (240) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २४१) Shroatia 12. Thavaccha got up from her seat and collected good and costly gifts meant for important people like kings. Accompanied by friends and some members of her family she arrived at the gate of the palace of Krishna Vasudev. Guided by the gate keepers she reached Krishna Vasudev and greeted him with hails of victory. She placed the gifts she had brought before him and said____ “Beloved of gods! I have a son named Thavacchaputra. He is very dear (etc. ) to me. Disturbed by the worldly life, he desires to accept Diksha (get initiated as an ascetic) from Arhat Arishtanemi and renounce the world. I want to felicitate him at the time of his renunciation. As such, I beseech you, O Beloved of gods! to give me your crown, canopy, and whisks for him." सूत्र १३. तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावइणिं एवं वयासी-“अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए ! सुनिव्वुया वीसत्था, अहं णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि।' ___ सूत्र १३. कृष्ण वासुदेव ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिये ! तुम निश्चिन्त रहो और आश्वस्त होओ। मैं स्वयं थावच्चापुत्र का दीक्षा सत्कार करूँगा।" ___13. Krishna Vasudev replied, “Beloved of gods! Don't worry. Rest assured that I shall felicitate Thavacchaputra myself at the time of his renunciation." कृष्ण-थावच्चापुत्र संवाद सूत्र १४. तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी-“मा णं तुमे देवाणुप्पिया ! मुंडे भवित्ता पव्वयाहि, भुंजाहि णं देवाणुप्पिया ! विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुच्छायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स। अहं णो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं निवारित्तए। अण्णे णं देवाणप्पियस्स जं किंचि वि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ तं सव्वं निवारेमि।" सूत्र १४. कृष्ण वासुदेव विजयहस्ती पर सवार हो अपनी चतुरंगिनी सेना साथ ले थावच्चा गाथा पत्नी के भवन पर आये और थावच्चापुत्र से बोले-“हे देवानुप्रिय ! तुम मुंडित होकर प्रव्रज्या मत ग्रहण करो। मेरी भुजाओं की छाया में मानवोचित सभी कामभोगों R SAMAJammatinBIGRANDIA (241) CHAPTER-5: SHAILAK Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Sams Dance - SNRTNeerana -- - - B का भोग करो। मैं वायुकाय को तुम्हारे ऊपर से जाने से नहीं रोक सकता शेष जो भी कष्ट या पीड़ा तुम्हें होगी उस सबका मैं निवारण करूँगा।" TEST BY KRISHNA-THAVACCHAPUTRA 14. Riding his great elephant Vijay and accompanied by his guards Krishna Vasudev arrived at the house of Thavaccha and asked Thavacchaputra, “Beloved of gods! Please don't shave your head and become an ascetic. Come under my protection and enjoy all the pleasures of worldly life. I cannot stop the movement of air around you, except this I will ensure that you are not plagued by any pain or misery." सूत्र १५. तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेव एवं वयासी-"जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम जीवियंतकरणं मच्चं एज्जमाणं निवारेसि, चरं वा सरीररूव-विणासिणिं सरीरं अइवयमाणिं निवारेसिं, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि।" ___ सूत्र १५. थावच्चापुत्र ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिय ! आप मेरे जीवन का अन्त करने वाली मृत्यू से मेरी रक्षा कर सकें और शरीर को जर्जर कर उसके सौन्दर्य का नाश करने वाले बुढ़ापे से मुझे दूर रख सकें तो अवश्य ही आपके संरक्षण में रहकर मानवोचित आनन्द का भोग करने को तैयार हूँ।" ___15. Thavacchaputra said, “Beloved of gods! If it is possible for you to protect me from death that terminates life and keep me untouched by old age that turns the body frail and destroys its beauty, I am certainly prepared to come under your protection and enjoy all the pleasures of worldly life.” सूत्र १६. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-“एए णं देवाणुप्पिया ! दुरइक्कमणिज्जा, णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खए णं।" __ सूत्र १६. इस पर कृष्ण वासुदेव ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! जरा और मरण का उल्लंघन महान् बलशाली देव अथवा दानव भी नहीं कर सकते। स्वयं अपने द्वारा उपार्जित पूर्व-कर्मों का क्षय ही इन्हें बाधित कर सकता है।" 16. At this, Krishna Vasudev said, “Beloved of gods! Even the most powerful gods or demons cannot overcome aging and death. They can only be countered by shedding the acquired Karmas." RAMAND जा (242) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15 min Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांताधर्मकथांग सूत्र LICIE NeumOORDPRERARRELAENTERNONS AR चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED - - जरा-मृत्यु से कौन रक्षा करेगा ? चित्र : १५ ___ गाथापत्नी थावच्चा वासुदेव श्रीकृष्ण की राजसभा में उपस्थित हुई और प्रार्थना करने लगीमहाराज ! भगवान अरिष्टनेमि से प्रतिबोध प्राप्त कर मेरा पुत्र दीक्षा लेना चाहता है। मैं उसका भव्य दीक्षा महोत्सव करना चाहती हूँ। अतः इसके लिए राजकीय छत्र-मुकुट-चामर आदि प्रदान करने का अनुग्रह करें। श्रीकृष्ण ने कहा-मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र का अभिनिष्क्रमण समारोह करूँगा। फिर श्रीकृष्ण थावच्चा पुत्र से मिलने आये और कहा-तुम संसार के सुख-भोगो, तुम्हारी कोई भी आपत्ति व विघ्न, बाधाएँ होंगी तो उनका निवारण मैं करूँगा। __थावच्चा पुत्र ने निवेदन किया हे देवानुप्रिय ! यदि आप मृत्यु तथा जरा को रोक देवें तो मैं आपकी छत्रछाया में सुखों का निर्विघ्न भोग कर सकता हूँ। ___थावच्चा पुत्र का कथन सुनकर चकित हुए वासुदेव बोले-देवानुप्रिय ! इनका निवारण तो देव-दानव आदि किसी के भी सामर्थ्य से बाहर है। केवल तप द्वारा कर्म क्षय करके ही जरा एवं मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है। (अध्ययन ५) WHO CAN PROTECT FROM DEATH AND AGING ? ILLUSTRATION : 15 In Dwarka wealthy Thavaccha collected rich gifts, went to Krishna Vasudev and requested—“Maharaj! my only son desires to get initiated as an ascetic in the order of Arhat Arishtanemi. I want to felicitate him on the occasion of his renunciation. As such, I request you to give me your crown, canopy, and whisks for him." Krishna Vasudev replied, "Rest assured that I shall felicitate Thavacchaputra myself on that auspicious occasion." Krishna Vasudev went to meet Thavacchaputra and said, "Please continue to enjoy pleasures of worldly life. I will ensure that you are not plagued by any pain or misery." ___Thavacchaputra said, “Beloved of gods! If you can protect me from death and keep me untouched by old age, I shall come under your protection and enjoy pleasures of worldly life." Krishna said, “Beloved of gods! Even the most powerful gods or demons cannot overcome aging and death. These two can only be countered by shedding the acquired Karmas." (CHAPTER-5) SAMum JNĀTĀ DHARMA KATHÄNGA SUTRA Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व पंचम अध्ययन : शैलक सूत्र १७. तए णं से थावच्चे पुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - जइ णं एते णं दुरतिकमणिज्जा णो खलु सक्का जाव णन्नत्थ अप्पणा कम्मक्खएणं । “तं इच्छामि ण देवाणुप्पिया ! अन्नाण-मिच्छत्त- अविरइ - कसाय- संचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए । " सूत्र १७. तब थावच्चापुत्र ने श्रीकृष्ण वासुदेव को इस प्रकार उत्तर दिया - "देवानुप्रिय ! यदि जरा और मृत्यु का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है, और वैसा स्वयं अपने द्वारा कर्म क्षय करने पर ही हो सकता है तो हे देवानुप्रिय ! मैं भी अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित अपने कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ ।" 17. Thavacchaputra replied, “Beloved of gods ! You have rightly said that death and aging can be transgressed by no other means but shedding the acquired Karmas through ones own efforts; and that is the reason I want to shed the Karmas I have accumulated through ignorance, misconceptions, indulgence, and passions.” ( २४३ ) सूत्र १८. तए णं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - " गच्छह णं देवाणुप्पिया ! बारवईए नयरीए सिंघाडगतिय- चउक्क - चच्चर जाव हत्थिखंधवरगया महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेह एवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्ते संसारभउव्विग्गे, भीए जम्मणमरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए । तं जो खलु देवाणुप्पिया ! राया वा, जुवराया वा, देवी वा, कुमारे वा, ईसरे वा, तलवरे वा, कोडुंबिय - माडंबिय - इब्भ-सेट्ठि सेणावई - सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयइ, तस्स हे वासुदेवे अणुजाणाइ पच्छातुरस्स वि य से मित्त-नाइ - नियग- संबंधि - परिजणस्स जोगक्खेमं वट्टमाणीं पडिवहइ त्ति कट्टु घोसणं घोसेह ।" जाव घोसंति । सूत्र १८. इस पर कृष्ण वासुदेव ने सेवकों को बुलाकर कहा - " - "देवानुप्रियो ! उत्तम हाथी पर सवार होकर जाओ और द्वारका नगरी के श्रृंगाटक आदि सभी स्थलों पर ऊँची ध्वनि में यह घोषणा करो - 'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न हो, जन्म-मरण से भयभीत हो थावच्चापुत्र अर्हत् अरिष्टनेमि के पास मुंडित हो दीक्षा लेना चाहता है। इस अवसर पर राजा-रानी आदि द्वारका के सभी नागरिकों में से जो भी थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करना चाहें उन्हें कृष्ण वासुदेव की अनुमति है। उनके पीछे रहे परिवारादि स्वजनों के वर्तमान जीवन के क्षेम - कुशल का उत्तरदायित्व कृष्ण वासुदेव लेंगे।” सेवकों ने उनकी आज्ञा का पालन किया। 18. Now, Krishna Vasudev called his attendants and said, “Beloved of gods! ride a good elephant and going to every nook and corner of CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only ( 243 ) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) Dwarka make this announcement in loud voice-'O Beloved of gods! Disturbed by the worldly life and fearful of the cycle of rebirths, Thavacchaputra desires to get his head shaved and accept Diksha from Arhat Arishtanemi. At this opportune moment Krishna Vasudev extends a general permission to all those citizens of Dwarka, including the ruling class, who wish to renounce the world and accept Diksha along with Thavacchaputra. Krishna Vasudev will take care of all the members of their family left behind." The attendants followed the order and made the announcement. सूत्र १९. तए णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं णिक्खमणाभिमुहं हायं सव्वालंकार- विभूसियं पत्तेयं पत्तेयं पुरिससहरसवाहिणीसु सिवियासु दुरूढं समाणं मित्त-णाइ- परिवूड थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भूयं । तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउब्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापीएहिं कलसेहिं हावे । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र तणं से थावच्चापुत्ते सहस्सपुरिसेहिं सद्धिं सिवियाए दुरूढे समाणे जाव रवेण बारवइणयरिं मज्झमज्झेणं जाव अरहओ अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता सिवियाओ पच्चोरुहति । सूत्र १९. थावच्चापुत्र पर अनुराग से प्रेरित एक हजार पुरुष निष्क्रमण के लिये तत्पर हो गये। वे स्नानादि आवश्यक कर्मों से निवृत्त हो वस्त्रालंकार धारण कर, पुरिसहरस वाहन पर चढ़, पुत्रादि स्वजनों से घिरे, थावच्चापुत्र के यहाँ आये। उन्हें देख कृष्ण वासुदेव ने सेवकों को बुलाकर थावच्चापुत्र को अभिनिष्क्रमण के लिये तैयार करने की आज्ञा दी । थावच्चापुत्र यथाविधि तैयार होकर द्वारका नगरी के बीच होता हुआ उन एक हज़ार पुरुषों के साथ जहाँ भगवान अरिष्टनेमि विराजमान थे उधर बढ़ा। भगवान के छत्र पर छत्र, पताका पर पताका लहराती आदि अतिशयों को देखा। विद्याधरों, चारण मुनियों एवं देवताओं को आते-जाते देखा तथा वह पालकी से नीचे उतरा (विस्तृत वर्णन मेघकुमार के अभिनिष्क्रमण के समान ) । 19. Inspired by their affection for Thavacchaputra one thousand individuals became ready to renounce the world. They dressed up after taking their bath and surrounded by friends and relatives they arrived at Thavacchaputra's house riding Purisasahassa palanquins. Seeing (244) For Private JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - TA A DAN UND ASI OXY Y LT ..D . PAK'SHI 16 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED दीक्षा महोत्सव चित्र : १६ ___ वासुदेव श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार थावच्चा पुत्र का भव्य निष्क्रमणमहोत्सव किया गया। एक हजार पुरुषों द्वारा उठाई जावे ऐसी एक हंसमुखी विशाल शिविका में थावच्चा पुत्र बैठे हैं। उनके दोनों तरफ दो सुहासिनी चँवर बीज रही है। वासुदेव की चतुरंगिणी सेना एवं द्वारिका के श्रेष्ठी-सार्थवाह सेनापति आदि सभी वर्ग के नागरिक दीक्षा शोभा यात्रा में सम्मिलित होकर अर्हत् अरिष्टनेमि के सानिध्य में पहुँच - (अध्ययन ५) RENUNCIATION CEREMONY ILLUSTRATION : 16 A grand renunciation ceremony is organized as per the instructions of Krishna Va:zudev. Thavacchaputra is riding a swan shaped palanquin lifted by a thousand persons. Two beautiful maids standing on his flanks are plying whisks. The procession, attended by citizens from all walks of life as well as the Vasudev's army, reaches near Arhat Arishtanemi. (CHAPTER-5) COM जा JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक this Krishna Vasudev called his staff and instructed them to prepare Thavacchaputra for the renunciation. After getting ready, Thavacchaputra, accompanied by those one thousand individuals, moved through the city of Dwarka towards the place where Arhat Arishtanemi was stationed. He witnessed the triple canopy, the flags fluttering one over the other, and other divine signs associated with the Tirthankar. He saw various gods and ascetics arriving and departing. He, then, got down from the palanquin (details as mentioned in the story of Megh Kumar). कृष्ण द्वारा शिष्य - भिक्षा सूत्र २०. तए णं से कहे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिट्ठनेमी, सव्वं तं चेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ । ( २४५ ) तए णं से थावच्चा गाहावइणी हंसलक्खणेणं पडसाइए णं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ। पडिच्छित्ता हार-वारिधार - सिंदुवार छिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूणि विणिम्मुंचमाणी विणिम्मुंचमाणी एवं वयासी - "जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया ! असि च णं अट्टे णो पमाएव्वं" जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया । सूत्र २०. कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र को आगे किया और अरिहन्त अरिष्टनेमि के पास पहुँचकर यथाविधि वन्दना आदि कर प्रार्थना की, "भंते ! यह थावच्चापुत्र अपनी माता का इकलौता अत्यन्त प्रिय पुत्र है। संसार से वैराग्य प्राप्त कर यह दीक्षा लेना चाहता है, आप इसे शिष्य - भिक्षा के रूप में स्वीकारें ।” इन शब्दों में उनसे थावच्चापुत्र को शिष्य-भिक्षा स्वरूप स्वीकार करने का अनुरोध किया (विस्तृत विवरण मेघकुमार की शिष्य - भिक्षा के समान ) । अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना स्वीकार की तो थावच्चापुत्र ने वहाँ से ईशाणकोण में जाकर वस्त्रालंकारों का त्याग किया। थावच्चा सार्थवाही ने परम्परानुसार उज्ज्वल श्वेत वस्त्र में इन्हें ग्रहण कर लिया। फिर वह आँसू बहाती हुई बोली - " हे पुत्र ! इस प्रव्रज्या को यत्न से निभाना । हे पुत्र ! साधना में संलग्न रहना, पराक्रम करना । हे पुत्र ! इस सबमें तनिक भी प्रमाद मत करना।" यह कहकर वह वहाँ से लौट आई। DISCIPLE DONATION BY KRISHNA 20. Keeping Thavacchaputra ahead of him, Krishna Vasudev approached Arhat Arishtanemi and after offering due obeisance CHAPTER-5: SHAILAK (245) CMC Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - - dh Brain कि submitted, “Bhante! This is Thavacchaputra, the only and beloved son of his mother. He desires to get detached from the worldly affairs and get initiated into your order. Kindly accept him as a disciple-donation from me." With these words he appealed to Arhat Arishtanemi to accept Thavacchaputra as a disciple. (details as mentioned in the story of Megh Kumar) When Arhat Arishtanemi accepted the request of Krishna Vasudev, Thavacchaputra proceeded in the north-east direction and shed his ornaments and cloths. According to the tradition his mother Thavaccha collected all these in a white cloth. With tear filled eyes she said, "Son! Follow the discipline of the order with due care. Son! indulge in the practices with resolve and courage and don't show even a trace of negligence and lethargy." Expressing her feelings thus, she returned. सूत्र २१. तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, जाव पव्वइए। तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए जाव विहरइ। सूत्र २१. थावच्चापुत्र ने एक हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया और यथाविधि दीक्षा लेकर अनगार हो गया। ईर्यासमिति, भाषासमिति आदि सभी श्रमण नियमों का पालन करता विचरने लगा। 21. Pulling out all the hair from the head (formally termed as fivefistful pulling out of hair) Thavacchaputra and the accompanying one thousand persons took Diksha in the prescribed manner and became ascetics. They took to the ascetic way of life following the discipline of movement, discipline of speech, and all the other rules of the order. सूत्र २२. तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिट्ठनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाई अहिज्जइ। अहिज्जित्ता बहूहिं जाव चउत्थेणं विहरइ। तए णं अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इब्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ। सूत्र २२. अरिहन्त अरिष्टनेमि के वरिष्ट स्थविरों की निश्रा में थावच्चापुत्र ने सामायिकादि से आरंभ कर चौदह पूर्वो तक सभी विषयों का अध्ययन किया। वे RETC (246) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २४७) मि अष्टभक्तादि अनेक तप करते हुए विचरने लगे। फिर अर्हत् अरिष्टनेमि ने उन्हें उनके साथ दीक्षित होने वाले इभ्यादि एक हजार श्रमण शिष्य-रूप में प्रदान किये। 22. Under the tutelage of the senior ascetic disciples of Arhat Arishtanemi, Thavacchaputra studied all the subjects beginning from Samayik and concluding with the fourteen Purvas (sublime canons). He started doing various penances including fasts and followed the ascetic way of life. Later Arhat Arishtanemi gave him charge of the one thousand ascetics who were initiated with him. थावच्चापुत्र का विहार ___ सूत्र २३. तए णं से थावच्चापुत्ते अन्नया कयाई अरहं अरिट्ठनेमि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया !' सूत्र २३. एक बार थावच्चापुत्र ने अर्हत् अरिष्टनेमि को यथाविधि वन्दना करके कहा"भन्ते ! यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने एक हजार अनगार शिष्यों के साथ जनपदों में विहार करना चाहता हूँ।" __भगवान ने कहा-“जिसमें तुम्हें सुख लगे वह करो देवानुप्रिय !" WANDERINGS OF THAVACCHAPUTRA 23. One day, after formal greetings, Thavacchaputra requested Arhat Arishtanemi, “Bhante! If you grant permission, I would like to wander around various populated areas with my one thousand disciples." “You may do as you please, O Beloved of gods!" consented the Lord. सूत्र २४. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहार विहरइ। ___ सूत्र २४. अनुमति प्राप्त कर थावच्चापुत्र अपने शिष्यों सहित उदार, उग्र, अर्हत् द्वारा प्रदत्त और स्वयं द्वारा ग्रहण किये श्रमण नियमों का पालन करते हुए विभिन्न जनपदों में विचरने लगे। ___24. After getting the permission Thavacchaputra and his one thousand disciples commenced the itinerant way of life following the लाख PAN - CHAPTER-5 : SHAILAK (247) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A) (२४८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र MAIDABAD PARDAMOSHRADEMARAwtarnamainam elaborate and harsh rules of ascetic discipline prescribed by Arhat Arishtanemi and accepted by them. राजा शैलक का श्रावक बनना सूत्र २५. तेणं कालेणं तेणं समए णं सेलगपुरे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया, पउमावई देवी, मंडुए कुमारे जुवराया। ___ तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वेणइयाए पारिणामियाए कम्मियाए चउव्विहाए बुद्धीए उववेया रज्जुधुरचिंतया वि होत्था। थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया णिग्गते। धम्मकहा। सूत्र २५. काल के उस भाग में शैलकपुर नाम का एक नगर था जिसके बाहर सुभूमिभाग नाम का एक उद्यान था। उस नगर के राजा का नाम शैलक, रानी का नाम पद्मावती और युवराज का नाम मंडुक था। शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे जो औत्पत्तिक आदि चारों प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न थे और राज्य का संचालन करते थे। थावच्चापुत्र अनगार अपने शिष्यों सहित इसी शैलकपुर में पधारे। वन्दना करने आये राजा को उन्होंने धर्मोपदेश दिया। KING SHAILAK BECOMES A FOLLOWER 25. During that period of time there was a town named Shailakpur. Outside this town there was a garden named Subhumi. The names of the king, queen and the prince of this town were Shailak, Padmavati, and Manduk respectively. King Shailak had five hundred ministers lead by Panthak. They were endowed with four types of wisdom and ruled the kingdom ably. Thavacchaputra and his disciples arrived at Shailakpur. When the king came to pay his respects to the ascetic he listened to Thavacchaputra's sermons. सूत्र २६. धम्म सोच्चा “जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइया, तहा णं अहं नो संचाएमि पव्वइत्तए। तओ णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइय जाव समणोवासए, जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया। थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरइ। samanawwwseemas o marwmummusummem (248) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २४९ ) RAMITA momamaRDSMILAIMERaceaeemseas सूत्र २६. उनका उपदेश सुन राजा शैलक ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! जैसे आपके पास अनेक उग्रादि कुलों के पुरुषों ने अपना वैभव त्यागकर दीक्षा ग्रहण की है, वैसा करने में तो मैं समर्थ नहीं हूँ। किन्तु मैं आपसे अणुव्रतादि को धारणकर श्रमणोपासक बनना चाहता हूँ।" और वह राजा जीव-अजीव आदि का ज्ञाता हो संयम से आत्मा को भावित करता जीवन बिताने लगा। फिर पंथक आदि पाँच सौ मंत्री भी श्रावक बन गये। थावच्चापुत्र अणगार वहाँ से विहार कर अन्य जनपदों में घूमने लगे। 26. After hearing the sermons the king said, “Beloved of gods! Many persons from higher classes (like Ugra, etc. ) have abandoned wealth and grandeur and taken Diksha from you, but I don't find myself fit for that. However, I wish to take minor vows under your guidance and become a follower of the Shramans." And the king took the vows after knowing the fundamentals like soul and matter and started leading a disciplined life. After this, Panthak and other ministers also became Shravaks (followers of Shramans). Ascetic Thavacchaputra resumed his itinerant way. __ सूत्र २७. तेणं कालेणं तेणं समए णं सोगंधिया नामं नयरी होत्था, वण्णओ। नीलासोए उज्जाणे, वण्णओ। तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नगरसेट्टी परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए। सूत्र २७. काल के उस भाग में सौगंधिका नाम की नगरी का वर्णन मिलता है (औपपातिक सूत्र)। उस नगरी के बाहर नीलाशोक नाम के उद्यान का भी वर्णन है। सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नाम का नगरसेठ रहता था। वह समृद्धिवान (आदि) और समादृत था। 27. During that period of time there was a town named Saugandhika (Aupapatik Sutra). There is also a mention of a garden named Nilashok outside this town. In this town lived a merchant named Sudarshan. He was wealthy (etc.) as well as respected. शुक परिव्राजक सूत्र २८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नाम परिव्वायए होत्था-रिउव्वेय-जजुब्वेय सामवेय-अथव्वणवेय-सद्वितंतकुसले, संखसमए लद्धटे, पंचजम-पंचनियमजुतं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्त-छन्नालियंकुस-पवित्तय RADE LAH CHAPTER-5 : SHAILAK (249) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM धर ( २५० ) केसरिहत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसह तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करे, करित्ता संखसमए णं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । सूत्र २८. उसी समय में शुक नाम का एक परिव्राजक था। वह ऋक् आदि चारों वेद और षष्ठितंत्र का पारंगत था । सांख्य दर्शन के अर्थ का ज्ञाता था । पाँच यम और पाँच नियम का पालन करता था और शौच मूलक दस प्रकार के परिव्राजक धर्म, दान धर्म, शौच धर्म और तीर्थाभिषेक का उपदेश देता और प्रचार करता था। वह त्रिदंड, कमंडल, छत्र, छन्नालिका (काठ का एक उपकरण), अंकुश, ताँबे की अंगूठी और चीवर - ये सात उपकरण धारण करता था। यह शुक परिव्राजक अपने एक हजार शिष्य परिव्राजकों के साथ सौगंधिका नगरी के एक मठ में आकर ठहरा और अपने उपकरण रखे। वहाँ वह सांख्य मतानुसार साधना करता हुआ रहने लगा। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SHUK PARIVRAJAK 28. During the same period there was a Parivrajak (a specific class of monks) named Shuk. He was an accomplished scholar of all the four Vedas and the Shashtitantra. He followed the discipline of five Yamas and five Niyams. He propagated the ten cleansing based tenets of the Parivrajak sect and preached for indulgence in charity, cleansing, and annointing of/at places of pilgrimage. He used to carry seven accouterments prescribed for a Parivrajak, namely a trident, a Kamandal (a vessel made of gourd shell), an umbrella, Chhannalika (a wooden instrument ), an Ankush (a lancet ), a copper ring, and a piece of cloth. This Shuk Parivrajak arrived in the town of Saugandhika with one thousand of his Parivrajak disciples and stayed in a Math (a specific type of religious abode). There he started his practices based on the Sankhya ideals. सूत्र २९. तए णं सोगंधियाए सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चर चउम्मुह - महापह- पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ - एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरइ । परिसा निग्गया । सुदंसणो निग्गए । सूत्र २९. सौगंधिका नगरी के श्रृंगाटक आदि सर्व स्थानों पर लोगों के झुण्ड एकत्र हो उसके आने और ठहरने की चर्चा करने लगे। नागरिकों की परिषद निकलकर मठ में पहुँची। वहीं सुदर्शन सेठ भी आया । ( 250 ) JNÄTÄ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only HEEREYOND Oreo Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक 29. In every nook and corner of the town throngs of people collected and started gossiping about the arrival and stay of this Parivrajak. A delegation of citizens went to visit the religious man in the Math. Sudarshan Seth was also among them. शुक की धर्मदेशना सूत्र ३०. तए णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसिं च बहूणं संखाणं परिकs - एवं खलु सुदंसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते । से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वसोए य भावसोए य। दव्वसोए य उदए णं मट्टियाए य। भावसोए दहि य मंतेहि य । जं णं अम्हं देवाणुप्पिया ! किंचि असुई भवइ, तं सव्व सज्जो पुढवीए आलिप्पइ, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ तं असुई सुई भवइ । एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति । तए णं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हट्टे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेण असण- पाणखाइम- साइम-वत्थेणं पडिलाभेमाणे जाव विहरइ | ( २५१ ) तए णं से सुए परिव्वायए सोगंधियाओ नयरीओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । सूत्र ३०. शुक परिव्राजक ने सुदर्शन सहित उस परिषद को सांख्य मत का उपदेश दिया - " हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौच मूलक धर्म कहा गया है। यह शौच दो प्रकार का बताया गया है - द्रव्य शौच और भाव शौच । द्रव्य शौच जल और मिट्टी से होता है तथा भाव - शौच दर्भ (घास/नारियल) और मंत्र से होता है। हे देवानुप्रिय ! हमारे मतानुसार हमारी जो भी वस्तु अपवित्र हो जाती है उसे पहले मिट्टी से माँज दिया जाता है और फिर शुद्ध जल से धो लिया जाता है। इससे वह अपवित्र वस्तु पवित्र हो जाती है। इसी प्रकार प्राणी भी जलाभिषेक से, जल स्नान से आत्मा को पवित्र कर निर्विघ्न स्वर्ग प्राप्त करता है । " सुदर्शन धर्मवाचना सुनकर प्रसन्न हुआ और उसने शुक से शौचमूलक धर्म स्वीकार किया। वह परिव्राजकों को प्रचुर आहार सामग्री और वस्त्रादि दान करता जीवन बिताने लगा। कालांतर में शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से निकल अन्य जनपदों में घूमने लगा । ONIC THE PREACHING OF SHUK 30. Shuk Parivrajak preached about the ideals of the Sankhya school before the gathering including Sudarshan CHAPTER-5 : SHAILAK For Private Personal Use Only (251) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gapp ( २५२ ) "Sudarshan! The religion I preach is known as cleansing based religion. The cleansing is said to be of two types-physical cleansing and spiritual cleansing. The physical cleansing is done with the help of water and sand and the spiritual one with the help of grass or coconut and mantra. O Beloved of gods! According to our tenets anything that becomes impure is first rubbed with sand and then washed with pure water. This process turns impure into pure. Similarly a being purifies its soul by annointing or taking bath with water and crossing every hurdle reaches the heaven." Pleased with this discourse Sudarshan embraced the cleansing based religion of Shuk. He started giving ample food, cloths, and other things as alms to Parivrajaks. After some time Shuk Parivrajak left Saugandhika and started wandering in other populated areas. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र थावच्चापुत्र सुदर्शन संवाद सूत्र ३१. तेणं कालेणं तेणं समए णं थावच्चापुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं पुव्वाणुपुवि चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सोगंधिया नयरी, जेणेव नीलासोए उज्जाणे, तेणेव समोसढे । परिसा निग्गया । सुदंसणो वि णिग्गए । थावच्चापुत्तं नामं अणगारं आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - तुम्हाणं किंमूलए धम्पन्नत्ते ? तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासी - " सुदंसणा ! विणमूले धम्मे पण्णत्ते से वि य विणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अगारविणए य अणगारविणए य। तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुव्वयाई, सत्तसिक्खावयाई, एक्कारस उवासगपडिमाओ । तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महव्वयाइं पन्नत्ताई, तं जहा - सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं, जाव मिच्छादंसणसल्लाओ वेरमणं, दसविहे पच्चक्खाणे, बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चे णं दुविहेणं विणयमूलए णं धम्मेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्गपइट्ठाणे भवति । ( 252 ) JNÄTÄ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only 07450 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Campc पंचम अध्ययन : शैलक सूत्र ३१. काल के उस भाग में थावच्चापुत्र अनगार अपनी शिष्य संपदा सहित सौगंधिका नगरी के नीलाशोक उद्यान में आकर ठहरे। उनके आने पर परम्परानुसार परिषद धर्म सुनने निकली। सुदर्शन भी वहाँ आया और यथाविधि वंदना करके पूछा - " आपके धर्म का मूल क्या है ?" ( २५३ ) थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन को उत्तर दिया - " हे सुदर्शन ! हमारा धर्म विनयमूलक बताया गया है। यह विनय दो प्रकार का कहा है- आगार विनय अर्थात् गृहस्थ का चारित्र और अणगार विनय अर्थात् श्रमण का चारित्र । आगार विनय पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक - प्रतिमा रूप है तथा अणगार विनय पाँच महाव्रत रूप है । पाँच महाव्रत हैं- समस्त प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का त्याग। साथ ही रात्रि भोजन तथा समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण । इनके साथ ही दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमायें भी अणगार विनय में सम्मिलित हैं। इन दो प्रकार के विनयमूलक धर्म के पालन से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय कर जीव लोकाग्र अर्थात् मोक्ष में स्थान पाता है। DIALOGUE BETWEEN THAVACCHAPUTRA AND SUDARSHAN 31. During that period of time Thavacchaputra arrived with all his disciples and stayed at the Nilashok garden of Saugandhika city. As per the norms, on his arrival a delegation came to attend his discourse. Sudarshan also arrived there and after formal obeisance he asked, "What is the fundamental principle of your religion?" Thavacchaputra replied, "Sudarshan! My religion is based on discipline. The discipline is of two types-Agar-discipline or the way of life of the laity and Anagar-discipline or the way of life of the ascetic. The first includes five minor-vows, seven preparatory vows and eleven prescribed practices for the citizen. The second includes the five great vows. These great vows arecomplete abstainment from acts and feelings of destruction of life, falsehood, acquisition, sex, and possession. Also included are refraining from eating at night and pursuing misconceptions. Besides these, ten types of reversions and twelve prescribed practices for the ascetic are also added to these disciplines. CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only (253) 4 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) By following this religion, based on two types of discipline, a being sheds all the eight categories of Karma in due course and attains liberation." सुदर्शन का धर्म-परिवर्तन सूत्र ३२. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - "तुब्भे णं सुदंसणा ! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ? " “अम्हाणं देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते, जाव सग्गं गच्छति । ” सूत्र ३२. फिर थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा - " हे सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ?" ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र उसने उत्तर दिया- "देवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है और इसी से जीव स्वर्ग में जाते हैं (शुक के कथन के समान ) । " CONVERSION OF SUDARSHAN 32. Now Thavacchaputra asked Sudarshan, "Sudarshan! What is the basis of your religion?" He replied, "Beloved of gods! my religion is based on cleansing and, a being goes to heaven only by practicing it. (details as per Shuk's statement) सूत्र ३३. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी - " सुदंसणा ! जहानामए केई पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अत्थि कोइ सोही ? " " णो तिणट्टे समट्टे ।" सूत्र ३३. थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से प्रश्न किया- " हे सुदर्शन ! कोई पुरुष रक्त के दाग वाले एक वस्त्र को रक्त से ही धोये तो क्या वह स्वच्छ-शुद्ध हो जायेगा ?" सुदर्शन ने उत्तर दिया- " यह ठीक नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता । " 33. Thavacchaputra put a question before Sudarshan, "Sudarshan! If a person washes a blood stained cloth with blood only, would it become clean and pure?" Sudarshan replied, "That is not right and it is not possible." (254) For Private JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २५५ ) स्या m GARH आउटस्टा EN C सूत्र ३४. एवामेव सुदंसणा ! तुब्भं पि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही। __ "सुदंसणा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता पयणं आरुहेइ, आरुहित्ता उण्हं गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा से णूणं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स सोही भवइ ?" “हंता भवइ।" एवामेव सदसणा ! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अत्थि सोही, जहा वि तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अत्थि सोही। सूत्र ३४. "उसी प्रकार, हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात आदि कर्मों द्वारा शुद्धि नहीं हो सकती। ___ "हे सुदर्शन ! कोई व्यक्ति एक रक्त से सने कपड़े को खार के पानी में भिगोये, चूल्हे पर चढ़ाकर उबाले और तब स्वच्छ जल से धोवे तो निश्चय ही वह रक्त सना वस्त्र स्वच्छ-शुद्ध हो जाता है या नहीं?" “जी हाँ ! हो जाता है।" ___ "उसी प्रकार, हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी अहिंसा आदि से शुद्धि हो जाती है।" 34. “Similarly Sudarshan! Even according to your views purity cannot be achieved through such acts as violence. "Sudarshan! If a person puts a blood stained cloth in a solution of caustic soda, boils it, and then rinses it with clean water, would that blood stained cloth become clean and pure or not?" “Yes, it certainly would." “Similarly, Sudarshan! according to my religion purity is achieved through the practice of disciplines like Ahimsa." SARANG BARMINGI सपना SH CHAPTER-5 : SHAILAK (255) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Opero ( २५६ ) सूत्र ३५. तत्थ णं सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - " इच्छामि णं भंते ! धम्मं सोच्चा जाणित्तए, जाव समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पडिला भेमाणे विहरइ ।" सूत्र ३५. सुदर्शन को इन बातों से प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को यथाविधि वन्दना करके कहा - "भन्ते ! मैं सच्चे धर्म को सुनना और जानना चाहता हूँ ।" और थावच्चापुत्र का उपदेश सुन वह श्रावक बन गया, जीव- अजीव का ज्ञाता हो गया और धर्म पालन करता हुआ जीवन बिताने लगा । 35. This dialogue enlightened Sudarshan. He formally bowed before Thavacchaputra and submitted, "Bhante! I want to hear and understand true religion." And after listening to the preaching of Thavacchaputra and knowing the fundamentals like soul and matter, Sudarshan became a Shravak and started leading a disciplined life. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शुक का पुनरागमन सूत्र ३६. तए णं तस्स सुयस्स परिव्वायगस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्मं विष्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने । तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिट्ठि वामेत्तए, पुणरवि सोयमूलए धम्म आघवित्तति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेइ, करित्ता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवुडे परिव्वायगावसहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे, जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ । सूत्र ३६. शुक परिव्राजक को इस घटना की सूचना मिली तो उसके मन में विचार उठा - " सुदर्शन ने शौचधर्म का त्यागकर विनयमूलधर्म स्वीकार कर लिया है। उसकी इस नई श्रद्धा से उसे मुक्त कर पुनः शौच-मूलक धर्म का उपदेश देना मेरे लिए हितकर होगा ।" यह विचार आने पर वह अपने एक हजार शिष्यों के समूह सहित सौगन्धिका नगरी में आकर मठ में ठहरा। फिर गेरुए वस्त्र पहने और अपने कुछ शिष्यों सहित वह मठ से निकलकर सुदर्शन के घर गया। RETURN OF SHUK 36. When Shuk Parivrajak came to know about this incident he thought, "Sudarshan has been converted from the cleansing based 256) For Private JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only ISANONEND Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २५७ ) कर * religion to the discipline based religion. It would be good to preach and bring him back to my order." Thinking thus he came back to Saugandhika town and stayed in the Math. Taking a few of his disciples dressed in ochre coloured garbs he came out of the Math and went to Sudarshan's house. सूत्र ३७. तए णं सुदंसणे तं सुयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुट्टेइ, नो पच्चुग्गच्छइ नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो वंदइ, तुसिणीए संचिट्टइ। तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणब्भुट्ठियं पासित्ता एवं वयासी-“तुमं णं सुदंसणा ! अन्नया ममं एज्जमाणं पासित्ता अब्भुट्टेसि जाव वंदसि, इयाणिं सुदंसणा ! तुमं मम एज्जमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि, तं कस्स णं तुमे सुदंसणा ! इमेयारूवें विणयमूलधम्मे पडिवन्ने ?' ___ सूत्र ३७. सुदर्शन ने शुक परिव्राजक को आते देखकर न तो खड़े होने का उपक्रम किया, न आगे बढ़ा, न आदर किया, न परिचित होने का प्रदर्शन और न ही वन्दना। वह मौन ही रहा। __ इस पर शुक परिव्राजक ने कहा-“हे सुदर्शन ! पहले तो तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे और आगे बढ़कर आदर आदि करते थे। परन्तु आज तो तुमने वह सब व्यवहार नहीं किया। हे सुदर्शन ! बताओ तुमने किसके पास विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ?" 37. Even when he saw Shuk Parivrajak approaching, Sudarshan neither stood up, went forward, greeted, nor bowed to him; he did not even recognize Shuk. He just remained silent. ___Disturbed by this neglect, Shuk Parivrajak said, "Sudarshan! In the past when I came, you would stand up and come forward to greet me. But today you have not extended that courtesy. Tell me, Sudarshan! who has initiated you into the discipline based religion?" सूत्र ३८. तए णं से सुदंसणे सुए णं परिव्वायए णं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता करयल सुयं परिव्वायगं एवं वयासी–“एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए, इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने।" ___ सूत्र ३८. यह सुनकर सुदर्शन आसन से उठा और हाथ जोड़कर शुक परिव्राजक से बोला-“देवानुप्रिय! अर्हत् अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र नाम के अनगार विहार - - CHAPTER-5: SHAILAK (257) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र admin करते हुए यहाँ आये हैं और नीलाशोक नामक उद्यान में ठहरे हैं। मैंने उन्हीं के पास विनयमूल धर्म स्वीकार किया है।" 38. Sudarshan got up from his seat and joining his palms replied, “Beloved of gods! An itinerant ascetic Thavacchaputra, a disciple of Arhat Arishtanemi, has come to the town and is staying at the Nilashok garden. I have been initiated into the discipline based religion by him." सूत्र ३९. तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासी-"तं गच्छामो णं सुदंसणा ! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो। इमाइं च णं एयारूवाई अट्ठाइं हेऊइं पसिणाइं कारणाइं वागरणाई पुच्छामो। तं जइ णं मे से इमाई अट्ठाई जाव वागरइ, तए णं अहं वंदामि नमसामि। अह मे से इमाइं अट्ठाइं जाव नो वागरेइ, तए णं अहं एएहिं चेव अटेहिं हेऊहिं निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि।" __सूत्र ३९. शुक परिव्राजक ने कहा-“हे सुदर्शन ! चलो हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के पास चलें और उनसे अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण तथा व्याकरण-देशना का समाधान प्राप्त करें। यदि वे समाधान कर देंगे तो मैं उन्हें वंदनादि करूँगा और यदि वे समाधान नहीं दे पाये तो मैं इन्हीं अर्थ आदि से उन्हें निरुत्तर कर दूंगा।" 39. Shuk Parivrajak said, “Sudarshan! come, let us go to your preceptor, Thavacchaputra and seek his explanations on some topics with reference to meaning, cause, question, reason and grammar. If he is able to explain I shall become his follower and bow before him but if he fails to explain I shall strike him dumb by my arguments on the same parameters." शुक-थावच्चापुत्र संवाद ___ सूत्र ४0. तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे, जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी-“जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं ते ? अव्वाबाहं पि ते ? फासुयं विहारं ते ?" तए णं से थावच्चापुत्ते सुए णं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वयासी-“सुया ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे।" wo - CRPAN (258) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २५९) BAR सूत्र ४0. तत्पश्चात् शुक परिव्राजक अपने एक हजार शिष्यों के समूह तथा सुदर्शन सेठ के साथ थावच्चापुत्र के पास आया और उनसे कहा-"भन्ते ! यह आपकी यात्रा है, यापनीय है, अव्याबांध है, अथवा प्रासुक विहार हो रहा है ? थावच्चापुत्र ने उत्तर दिया-“हे शुक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी और प्रासुक विहार भी।" DIALOGUE BETWEEN SHUK AND THAVACCHAPUTRA ___40. After this, Shuk Parivrajak, along with his one thousand disciples and merchant Sudarshan, came to Thavacchaputra and said, “Bhante! You are in a state of movement (Yatra), ritual practices (Yapaniya), undisturbed suspension (Avyabadh), or rootless roving (Prasuk Vihar) ?" Thavacchaputra replied, "Shuk! I am in all these four states at the same time." सूत्र ४१. तए णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासी-"किं भंते ! जत्ता ?" “सुया ! जं णं मम णाण-दसण-चरित्त-तव-संजममाइएहिं जोएहिं जयणा से तं जत्ता।" ___ “से किं तं भंते ! जवणिज्जे ?" ___ “सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इंदियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य।" “से किं तं इंदियजवणिज्जे ?" “सुया ! जं णं मम सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फासिंदियाई निरुवहयाइं वसे वटुंति, से तं इंदियजवणिज्ज।" "से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ?" “सुया ! जन्नं कोह-माण-माया-लोभा खीणा, उवसंता, नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे।" सूत्र ४१. शुक-"भंते ! आपकी यात्रा क्या है ?" थावच्यापुत्र-“हे शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम आदि से सभी प्रवृत्तियों में यतना का पालन करना हमारी यात्रा है।" - CHAPTER-5: SHAILAK (259) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र -- BE शुक-"भंते ! यापनीय क्या है ?" थावच्चापुत्र-“शुक ! यापनीय दो प्रकार का है-इन्द्रिय-यापनीय तथा नोइन्द्रिययापनीय।" शुक-“इन्द्रिय-यापनीय क्या है ?" थावच्चापुत्र-“शुक ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय मेरे वश में हैं, कोई उपद्रव नहीं करतीं। यह इन्द्रिय-यापनीय है।" शुक-“नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ?" थावच्चापुत्र-“हे शुक ! नोइन्द्रिय मन का विषय है अतः यह जो हमारे क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषाय क्षीण हो गये हैं, उपशांत हो गये हैं और उदय में नहीं आ रहे, यही हमारा नोइन्द्रिय-यापनीय है।" 41. Shuk, “Bhante! How do you define your state of movement?” Thavacchaputra, “Shuk! Indulgence in activities like knowledge, conduct, penance, and discipline with due care is the state of movement for us." Shuk, “What about the state of ritual practices?” Thavacchaputra, "Shuk! There are two types of the state of ritual practices; one is related to the senses and the other to the para-senses." Shuk, “Explain the one related to the senses." Thavacchaputra, “Shuk! All my five senses, namely ears, eyes, nose, tongue, and skin are under my complete control; they do not cause any disturbance to me. For us this is the state of ritual practices related to the senses." Shuk, “The one related to the para-senses?" Thavacchaputra, “Shuk! the para-senses are the subjects of mind. As such, for us the state in which our passions; namely anger, conceit, illusion, and greed; are subdued and not precipitating is the state of ritual practices related to the para-senses. सूत्र ४२. “से किं तं भंते ! अव्वाबाहं ?" "सुया ! जन्नं मम वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायंका णो उदीरेंति, ते तं अव्वाबाह।" CERING - साथ (260) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन :शैलक (२६१) mro - - - - - - -- - - - “से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?" "सुया ! जन्नं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पवासु इत्थि-पसुपंडगवियज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं उग्गिण्हित्ता णं विहरामि, से तं फासुयविहारं।" सूत्र ४२. शुक ने कहा-“भंते ! अव्याबाध क्या है ?" थावच्चापुत्र-हे शुक ! वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक उदय में न आवें, यही हमारा अव्याबाध है।" शुक-"भंते ! प्रासुक विहार क्या है ?" थावच्चापुत्र-“शुक ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्याऊ, स्त्री-पुरुष-नपुंसकविहीन उपाश्रय आदि में हम जो वापस लौटा देने के लिये पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि वस्तुएँ ग्रहण करके विहार करते हैं वही हमारा प्रासुक विहार है।" 42. Shuk asked, “Bhante! How do you define the state of undisturbed suspension?" Thavacchaputra, "Shuk! To remain unaffected by ailments and fears caused by the three humours (wind, bile, and phlegm) and their morbid state is for us the state of undisturbed suspension." Shuk asked, "Bhante! How do you define the state of rootless roving?" Thavacchaputra, "Shuk! In places like house, garden, temple, hall, water-hut, and other uninhabited places meant for itinerant ascetics, our temporary stay using returnable facilities like divan, seat, bed, and cot is for us the state of rootless roving." सूत्र ४३. “सरिसवया ते भंते ! भक्खेया अभक्खेया ?' “सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।" से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ? सया ! सरिसवया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहजायया, सहवड्डियया सहपंसुकीलियया। ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य। तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया तं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। a witomadamusmaamananem मार bANDSOMETRAurme a s CHAPTER-5: SHAILAK (261) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CS ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( २६२ ) 40mm - mawoliwow.Lamaa m ana तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा-फासुगा य अफासुगा य। अफासुगा णं सुया ! नो भक्खेया। तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-जाइया य अजाइया य। तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहाएसणिज्जा य अणेसणिज्जा या तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-लद्धा य अलद्धा य। तत्थ णं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि। सूत्र ४३. शुक-"भंते ! सरिसवया भक्ष्य है अथवा अभक्ष्य ?" थावच्चापुत्र-“शुक ! सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी।" शुक-“यह कैसे, भंते ?" थावच्चापुत्र-"शुक ! सरिसवया दो प्रकार के कहे गए हैं-मित्र-सरिसवया (समान आयु वाले) और धान्य-सरिसवया (सर्षप अर्थात् सरसों)। इनमें से मित्र-सरिसवया तीन प्रकार के हैं-साथ जन्मे हुए, साथ बड़े हुए और साथ-साथ खेले हुए। ये तीनों प्रकार के मित्र सरिसवया श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं अर्थात् त्याज्य हैं। धान्य-सरिसवया दो प्रकार के हैंशस्त्र परिणत और अशस्त्र परिणत। इनमें जो अशस्त्र परिणत हैं अर्थात् जो सचित्त हैं वे श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं। जो शस्त्र परिणत हैं वे भी दो प्रकार हैं-प्रासुक तथा अप्रासुक। अप्रासुक अथवा सचित्त अभक्ष्य हैं। जो प्रासुक हैं वे दो प्रकार के हैं-याचित और अयाचित। अयाचित अभक्ष्य हैं। जो याचित हैं वे भी दो प्रकार के हैं-एषणीय और अनेषणीय। अनेषणीय अर्थात जो गवेषणा करके ग्रहण करने योग्य नहीं हो वे अभक्ष्य हैं। जो एषणीय हैं वे भी दो प्रकार के हैं लब्ध और अलब्ध। अलब्ध (अप्राप्त) अभक्ष्य हैं। जो लब्ध (प्राप्त) है केवल वही श्रमणों के लिये भक्ष्य हैं। "हे शुक ! मैंने इसीलिये कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी। 43. Shuk, “Bhante! Is Sarisavaya (this term has two meanings that are explained in the reply) acceptable or not?" Thavacchaputra, "Shuk! Sarisavaya is acceptable as well as unacceptable." Shuk, “How so, Bhante!" Raut RA (262) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २६३ ) Galitima ) स्म Thavacchaputra, “Shuk! There are two types of Sarisavaya--friendSarisavaya (here this term means of same age') and grain-Sarisavaya (here this term means mustard). "The first or friend Sarisavaya are of three types-born together, grown together, and played together. For the Shramans all these three types of friend Sarisavaya are not acceptable. "The second or the grain Sarisavaya are of two types-harvested and non-harvested. For the Shramans the non-harvested or the living are not acceptable. The harvested are of two types—contaminated or non-contaminated. The contaminated are unacceptable. The noncontaminated are again of two types-solicited and unsolicited. The unsolicited are unacceptable. The solicited are of two types-tested and found suitable and unsuitable. The unsuitable are unacceptable. The suitable again are of two types—readily available and unavailable. The unavailable including that which is specifically made available for the Shraman is not acceptable. For a Shraman only the available one is acceptable. "Shuk! that is why I said that Sarisavaya is acceptable as well as unacceptable. सूत्र ४४. एवं कुलत्था वि भाणियव्वा। नवरि इमं नाणत्तं-इत्थिकुलत्था य धन्नकुलत्था य। इत्थिकुलत्था तिविहा पन्नत्ता, तं जहा–कुलवधुया य, कुलमाउया य, कुलधूया य। धन्नकुलत्था तहेव। ___ एवं मासा वि। नवरि इमं नाणत्तं-मासा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-कालमासा य, अत्थमासा य, धन्नमासा य। तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहा-सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खेया। अस्थमासा दुविहा पन्नत्ता, तं जहाहिरन्नमासा य सुवण्णमासा य। ते णं अभक्खेया। धन्नमासा तहेव।। ___ सूत्र ४४. “उपरोक्त विवेचन कुलत्था के सम्बन्ध में भी लागू होता है। कुलत्था के दो भेद हैं-स्त्री-कुलत्था तथा धान्य-कुलत्था। स्त्री-कुलत्था तीन प्रकार की हैं-कुलवधू, कुलमाता और कुलपुत्री। ये तीनों श्रमण के लिए अभक्ष्य हैं। धान्य-कुलत्था के विषय में वही नियम है जो सरिसवया के लिये बताया है। ___ “ऐसा ही विवेचन मास का है। मास तीन प्रकार के होते हैं-कालमास, अर्थमास और धान्यमास। कालमास (महीना) बारह हैं-श्रावण से आषाढ़ तक वर्ष के बारह मास। ये सब Aham aaman CHAPTER-5 : SHAILAK (263) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Primer ( २६४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / GAUMAR HINES अभक्ष्य हैं। अर्थमास (माशा-तोल का माप) दो प्रकार के हैं-चाँदी का और सोने का ये दोनों अभक्ष्य हैं। धान्यमास (उड़द) के विषय में वही नियम है जो सरिसवया के लिये बताया है।" 44. "The same rule is applicable to the term Kulattha which is of two types--woman-Kulattha (a female of the family) and grainKulattha (a type of bean). The first are of three types--wife, mother, and daughter. All these are not acceptable for a Shraman. To the second the aforesaid rule meant for Sarisavaya is applicable. "Same is true for the term Mas which is of three types-time-Mas, wealth-Mas, and grain-Mas. There are twelve time-Mas (month). All these are unacceptable for a Shraman, in other words he is not guided in his spiritual pursuit by any social or other norms pertaining to any specific month. There are two wealth-Mas (a small measure of weight) for silver and for gold. These both are unacceptable. To the grain-Mas the aforesaid rule meant for Sarisavaya is applicable.” सूत्र ४५. “एगे भवं ? दुवे भवं ? अणेगे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं ? अणेगभूयभावभविए वि भवं?" "सुया ! एगे वि अहं, दुवे वि अहं, जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं।" “से केणटेणं भंते ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ?" "सुया ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्टयाए दुवे वि अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं।" सूत्र ४५. शुक परिव्राजक–“आप एक हैं, दो हैं, अनेक हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, अथवा भूत-भाव-भावी (अनित्य) हैं ?" थावच्चापुत्र-"शुक ! मैं यह सभी हूँ।" शुक-“वह कैसे भंते ?" थावच्चापुत्र-“हे शुक ! मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ। ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ। आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय भी और अवस्थित भी। और उपयोग अथवा प्रवृत्ति की अपेक्षा से भूत-भाव-भावी अर्थात् अनित्य भी हूँ।" - CO avina (264) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २६५) .. 45. Shuk Parivrajak, “You are one, two, many, imperishable, immutable, permanent, or transitory (having past, present, and future)?" Thavacchaputra, “Shuk! I am all these." Shuk, "How so, Bhante!" Thavacchaputra, "Shuk! In context of fundamentals I am one (soul). In context of knowledge and perception I am two. In context of soulsegments I am many as well as imperishable, immutable and permanent. And in context of attitude or indulgence I am transitory (having past, present, and future) also.” शुक की प्रव्रज्या सूत्र ४६. एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते ! तुब्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए। धम्मकहा भाणियव्वा।" तए णं सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वयासी"इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया !" जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे तिदंडयं जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेइ, एडित्ता सयमेव सिहं उप्पाडेइ, उपाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अन्तिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए। सामाइयमाइयाई चोहसपुव्वाइं अहिज्जइ। तए णं थावच्चापुत्ते सयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ। सूत्र ४६. थावच्चापुत्र के इन उत्तरों से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उसने उन्हें यथाविधि वन्दना की और कहा-"भंते ! मैं आपसे केवली प्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूँ।" थावच्चापुत्र ने धर्मकथा कही (औपपातिक सूत्र के अनुसार)। धर्मकथा सुन-समझकर शुक ने कहा-"भंते ! मैं एक हजार परिव्राजकों सहित आपके पास दीक्षा लेना चाहता हूँ।" थावच्चापुत्र ने कहा-“देवानुप्रिय ! जिसमें तुम्हें सुख मिले वह करो।" शुक परिव्राजक तब उत्तर पूर्व दिशा में गये, अपने वस्त्र-उपकरण त्याग दिये और अपनी शिखा उखाड़ दी। ms BEED CHAPTER-5 : SHAILAK (265) Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am ( २६६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र TAGE SULO मुंडित हो थावच्चापुत्र के पास जा वह दीक्षित हो गये। सामायिक से चौदह पूर्व तक पूरी वाचना का अध्ययन किया। इसके बाद थावच्चापुत्र ने उसके साथ दीक्षित हुए एक हजार श्रमणों को शिष्य रूप में उसे प्रदान किया। INITIATION OF SHUK 46. Shuk Parivrajak was enlightened by these explanations provided by Thavacchaputra. He formally bowed and said, “Bhante! I want to listen to the tenets propagated by the omniscient." Thavacchaputra gave a religious discourse for his benefit (Aupapatik Sutra). Listening to and absorbing the tenets Shuk said, “Bhante! Along with my one thousand Parivrajak disciples I want to take Diksha from you.” ___Thavacchaputra replied, “Beloved of gods! Do as you please." Now Shuk Parivrajak proceeded in the north-east direction, got rid of all his belongings including his garb, and pulled out the lock of hair on the crown of his head. Bald-headed he came to Thavacchaputra and got initiated. Beginning from Samayik he studied the complete canonical text including the fourteen sublime canons. After this Thavacchaputra promoted him to be the leader of one thousand Shramans who had been initiated along with him. सूत्र ४७. तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नयरीओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ। दुरूहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं समणुवने। तए णं से थावच्चापुत्ते बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे। सूत्र ४७. तब थावच्चापुत्र अनगार सौगंधिक नगर से निकल विभिन्न जनपदों में विचरण करने लगे। अंत में वे एक हजार साधुओं सहित पुण्डरीक (शत्रुजय) पर्वत के पास आये और धीरे-धीरे उस पर्वत पर चढ़े। वहाँ उन्होंने मेघ सम काली शिला का प्रतिलेखन कर यथाविधि पादोपगमन अनशन ग्रहण किया। अनेक वर्षों का साधु जीवन व्यतीत कर - Cums PA न (S (266) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २६७) स्म GAR - अंत में एक माह की संलेखना करके साठ भक्त अनशन कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर वे सिद्ध हुए। __47. Now Thavacchaputra left Saugandhika town and resumed his itinerant life. At last he and one thousand of his disciples arrived at the foot of the Shatrunjaya hills. They slowly climbed to the summit. There they searched a large rock black as clouds. After properly cleaning this rock they sat on it and took the ultimate vow of meditation and fast till death following the prescribed procedure. After a month long fast they attained Keval Jnana and Keval Darshan and got liberated terminating a long ascetic life. - राजा शैलक का वैराग्य सूत्र ४८. तए णं सुए अन्नया कयाइं जेणेव सेलगपुरे नयरे, जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया, सेलओ निग्गच्छइ। धम्म सोच्चा जं णवरं“देवाणुप्पिया ! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाइं आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वयामि।" "अहासुहं देवाणुप्पिया !" सूत्र ४८. शुक अनगार एक बार शैलकपुर नगर के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। वहां परिषद निकली और राज शैलक भी आये। धर्मोपदेश सुनकर उन्होंने कहा-"हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लूँ, और मंडुक कुमार को राज्य दे दूं फिर गृह त्यागकर आपके पास दीक्षा लूँगा।" शुक अनगार ने कहा-“जिसमें तुम्हें सुख मिले वही करो।" KING SHAILAK GETS DETACHED 48. Ascetic Shuk once arrived at the Subhumibhag garden in Shailakpur. King Shailak and a delegation of the townsfolk came for his discourse. After the discourse the king said, “Beloved of gods! I would like to renounce the world and take Diksha from you, but first I shall go and seek opinion of my ministers including Panthak. I would also like to handover the kingdom to prince Manduk Kumar." Ascetic Shuk replied, “Do as you please." - - Alim REP -- - - - CHAPTER-5 : SHAILAK (267) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J ( २६८ ) सूत्र ४९. तए णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणं सन्निसन्ने। तणं से सेल राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी“एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे मए इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए । अहं णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विग्गे जाव पव्वयामि । तुभे णं देवाणुप्पिया ! किं करेह ? किं बसेह ? किं वा ते हियइच्छिए त्ति ?" ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र तए णं तं पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं वयासी - “ जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विग्गे जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया ! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा ? अम्हे वियणं देवाप्पिया ! संसारभयउव्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुप्पिया ! अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य जाव तहा णं पव्वइयाण वि समाणाणं बहूसु जाव चक्खुभूए । सूत्र ४९. शैलक राजा अपने नगर में प्रवेश कर अपने महल की राजसभा में गया और सिंहासन पर बैठा । उसने पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों को बुलाया और कहा - "हे देवानुप्रियो ! मैंने शुक अनगार से धर्म सुना है, वह मुझे रुचा है और मैंने उसकी इच्छा की है। अतः हे देवानुप्रियो ! मैं संसार के भय से उद्विग्न आदि होकर ( पूर्व सम) दीक्षा ले रहा हूँ। तुम क्या करोगे ? कहाँ रहोगे ? तुम्हारी हार्दिक इच्छा क्या है ?" CH पंथक आदि मंत्रियों ने कहा - "हे देवानुप्रिय ! जब आप प्रव्रजित होना चाहते हैं तो हमारा अन्य कौन-सा आधार है, कौन आलंबन है ? अतः हम भी दीक्षा अंगीकार करेंगे। हे देवानुप्रिय ! जैसे आप गृहस्थावस्था में हमारे समस्त कार्यों और कारणों में मार्गदर्शक हैं - वैसे ही दीक्षित अवस्था में भी मार्गदर्शक रहेंगे। 49. King Shailak entered his town, went into his palace and sat on his throne in the assembly hall. He called his five hundred ministers including Panthak and said, "Beloved of gods! I have listened to the discourse of ascetic Shuk, I have liked it and I wish to embrace his religion. As such, Beloved of gods! being disturbed by the sorrows of the world (etc., as mentioned earlier) I shall get initiated into his order. What shall you do? Where shall you live? What is your true desire?" Panthak and the ministers replied, "Beloved of gods! Once you renounce the world and become an ascetic we will be without a support ( 268 ) For Private JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only মজত Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक “ and protection. As such, we shall also take Diksha. Beloved of gods! As you have been our guide in all our worldly activities so you shall be in our ascetic activities." सूत्र ५०. तए णं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं वयासी - "जइ णं देवाप्पिया ! तुभे संसारभयउव्विगा जाव पव्वयह, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! सएस ससु कुडुंबे जेट्ठे पुत्ते कुटुंबमज्झे ठावेत्ता पुरिस-सहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउब्भवह" त्ति । तहेव पाउब्भवंति । Dear ( २६९ ) सूत्र ५०. शैलक राजा ने उनसे कहा - "हे देवानुप्रियो ! यदि तुम भी दीक्षा लेना चाहते हो तो जाओ और अपने-अपने कुटुम्बों में अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को कुटुम्ब का उत्तरदायित्व सौंपो और पुरिससहस्स वाहनों पर बैठकर मेरे पास लौटो ।” सब मंत्री अपने-अपने घर गये और राजाज्ञा का पालन कर लौट आए।" 50. King Shailak said, “Beloved of gods! If you want to take Diksha go and bid good bye to your families after handing over the responsibilities of your families to your eldest sons. After this, return here sitting in the Purisasahassa palanquins." All the ministers went away and complying the king's order returned back. सूत्र ५१. तए णं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउब्भवमाणाइं पासइ, पासित्ता कोडुंबियपुर सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - " खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस कुमारस महत्थं जाव रायाभिसेयं उवट्ठवेह |" अभिसिंचइ जाव राया जाए, जाव विहरइ | सूत्र ५१. राजा ने प्रसन्न होकर अपने सेवकों को बुलाया और कहा - " - "देवानुप्रियो ! जल्दी से मंडुक - कुमार के वैभवपूर्ण राज्याभिषेक की तैयारी करो। " सेवकों ने आज्ञा का पालन किया। शैलक राजा ने कुमार का राज्याभिषेक किया और मंडुक राजा सुखपूर्वक रहने लगा। 51. The king, with all enthusiasm, called his attendants and said, "Beloved of gods! Immediately make all arrangements for a grand coronation of prince Manduk." The attendants did as told. King Shailak crowned the prince and left him to enjoy the power and pleasures of the new life. शैलक की दीक्षा सूत्र ५२. तए णं से सेलए मंडुयं रायं आपुच्छइ । तए CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only से मंडुए राया (269) Orm Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव सेलगपुरं नयरं आसित्त जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करित्ता कारवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।" __तए णं से मंडुए दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी“खिप्पामेव सेलगस्स रण्णो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव, णवरं पउमावई देवी अग्गकेसे पडिच्छइ। सव्वे वि पडिग्गहं गहाय सीयं दुरूहँति, अवसेसं तहेव, जाव सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।" सूत्र ५२. तब शैलक ने मंडुक राजा से दीक्षा लेने की आज्ञा माँगी। मंडुक राजा ने सेवकों को बुलाकर कहा-“जल्दी से शैलकपुर नगर की सफाई करवाकर रमणीय बना दो (पूर्व सम) और कार्यपूर्ति की सूचना दो।" । यह काम हो जाने पर राजा ने पुनः सेवकों को बुलाया और कहा-"जल्दी से शैलक महाराज के वैभवपूर्ण दीक्षाभिषक की तैयारी करो।" दीक्षोत्सव का समस्त विवरण वैसा ही है जैसा मेघकुमार की दीक्षा में हुआ था। विशेष घटना यह है कि शैलक के अग्रकेश पद्मावती देवी ने ग्रहण किये। दीक्षा के पश्चात् शैलक अनगार ने अध्ययन किया और फिर बहुविध तपस्या करते हुए विहार करने लगे। DIKSHA OF SHAILAK 52. Now Shailak sought permission for Diksha from king Manduk. King Manduk called his staff and said, "Go and make immediate arrangements for the cleaning (etc. ) of Shailakpur town and report back." When this work was done the king once again called his staff and said, “Make all necessary arrangements for a grand initiation ceremony for Maharaj Shailak.” The detailed description of this ceremony is same as that mentioned in the story of Megh Kumar. The only difference is that the pulled locks of hair were collected by Padmavati Devi. After being initiated Shailak Anagar completed his studies and commenced his itinerant life doing a variety of penances. सूत्र ५३. तए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथयपामोक्खाइं पंच अणगारसयाइं सीसत्ताए वियरइ। तए णं से सुए अन्नया कयाइं सेलगपुराओ नगराओ सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। / (270) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक तए णं से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं विहरमाणे जेणेव पुंडरीए पव्वए जाव । मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे । ( २७१ ) सूत्र ५३. शुक अनगार ने शैलक अनगार को पंथक आदि पाँच सौ श्रमण शिष्य रूप में प्रदान किये। शैलक मुनि शैलक नगर में निकलकर विभिन्न जनपदों में विहार करने लगे । शुक अनगार अपनी एक हजार श्रमणों की शिष्य संपदा सहित एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते अंत में पुंडरीक पर्वत पर पधारे और एक मास की संलेखना लेकर केवलज्ञान प्राप्त करके अन्त में सिद्ध पद को प्राप्त हुए ( वर्णन पूर्व सम ) | 53. Ascetic Shuk awarded the leadership of five hundred ascetics including Panthak to ascetic Shailak who left Shailak town and started moving from one populated area to another. At the end of his itinerant life Ascetic Shuk and one thousand of his disciples went to Shatrunjaya hills and attained liberation after taking the ultimate vow (details as mentioned earlier). शैलक मुनि की रुग्णता सूत्र ५४. तए णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहि अंतेहि य, पंतेहि य, तुच्छेहि य, लूहि य अरसेहि य, विरसेहि य, सीएहि य, उण्हेहि य, कालाइक्कतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य णिच्चं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव दुरहियासा, कंडुयदाहपित्तज्जर - परिगयसरीरे यावि विहरइ । तए से सेलए तेण रोगायंकेणं सुक्के जाए यावि होत्था । सूत्र ५४. उधर शैलक श्रमण को सदा अन्त, प्रान्त, तुच्छ, रूक्ष, अरस, विरस, ठंडा-गरम, असमय और अल्पाधिक आहार मिलने के कारण शरीर में व्याधि हो गई। उसकी वेदना उत्कट और दुस्सह थी । उनको पित्त ज्वर हो आया जिससे शरीर में खुजली और दाद हो जाते हैं। शैलक श्रमण बीमारी से सूख गये । AILING SHAILAK 54. In the mean time Ascetic Shailak became sick due to getting terminal, left over, low value, dry, insipid, unpalatable, too hot, too cold, untimely, too little or too much food. The pain he suffered was CHAPTER-5: SHAILAK For Private Personal Use Only (271) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mi ( २७२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र m acute and intolerable. He suffered from bile fever that causes eczema and itching in the whole body. Ascetic Shailak became anaemic due to this disease. सूत्र ५५. तए णं से सेलए अन्नया कयाइं पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव विहरइ। परिसा निग्गया, मंडुओ वि निग्गओ, सेलयं अणगारं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पज्जुवासइ। __तए णं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुकं भुक्कं जाव सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-“अहं णं भंते ! तुब्भं अहापवित्तेहिं तिगिच्छएहिं अहापवित्तेणं ओसहभेसज्जेणं भत्तपाणेणं तिगिच्छं आउट्टामि, तुब्भे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह, फासुअं एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं ओगिण्हित्ताणं विहरइ।" सूत्र ५५. शैलक मुनि विहार करते हुए शैलकपुर के सुभूमिभाग उद्यान में आकर ठहरे। परिषद निकली, मंडुक राजा भी आये। सभी ने शैलक अनगार को यथाविधि वन्दना की और उपासना करने लगे। मंडुक राजा ने शैलक मुनि का निस्तेज, सूखा और रोग से जर्जर शरीर देखा तो बोले-"भंते ! मैं आपकी ऐसे चिकित्सक, औषध, भेषज और भोजन-पान द्वारा चिकित्सा करवाना चाहता हूँ जिसे स्वीकार करने में साधु के लिये कोई आपत्ति नहीं हो। भंते ! आप मेरी यानशाला में पधारिये और प्रासुक तथा एषणीय पीठादि ग्रहण करके रहिये।" 55. During his roving Ascetic Shailak once arrived in Shailakpur town and stayed in the Subhumibhag garden. King Manduk came to visit him along with a delegation of citizens and they started worshipping him after the formal bowing. When king Manduk observed the dull, anaemic, deteriorated and ailing body of Ascetic Shailak he commented, “ Bhante! I wish to get you treated by such a doctor, medicines, and diet that are not prohibited for an ascetic. Bhante! Please come to my garage and stay there accepting seat, bed, etc. prescribed for an ascetic." सूत्र ५६. तए णं से सेलए अणगारे मंडुयस्स रण्णो एयमद्वं तह त्ति पडिसुणेइ। तए णं से मंडुए सेलयं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। EDI (272) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन :शैलक ( २७३) PATRO KRIT - M - तए णं से सेलए कल्लं जाव जलंते सभंडमत्तोवगरणमायाय पंथगपामोक्खेहिं पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुर-मणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता फासुयं पीढं जाव विहरइ। सूत्र ५६. शैलक अनगार ने 'ऐसा ही हो' कहकर मंडुक राजा के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। राजा वन्दना करके लौट गया। दूसरे दिन सुबह होने पर शैलक अनगाार अपने पाँच सौ शिष्यों व पंथक के साथ नगर में गये और मंडुक राजा की यानशाला में पहुँच प्रासुक उपकरण स्वीकार कर रहने लगे। 56. Ascetic Shailak uttered—"May it be so", and accepted the request of king Manduk. The king returned after paying his respects. Next morning Ascetic Shailak and his five hundred disciples including Panthak entered the town, went to the kings garage and stayed there accepting things prescribed for an ascetic. सूत्र ५७. तए णं मंडुए राया चिगिच्छए सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-"तुब्बे णं देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुय-एसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउटेह।" तए णं तेगिच्छया मंडुए णं रण्णा एवं वुत्ता समाषा हट्टतुट्ठा सेलयस्स रायरिसिस्स अहापवित्तेहिं ओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउटेंति। मज्जपाणयं च से उवदिसंति। तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहिं जाव मज्जपाणेणं रोगायके उवसंते होत्था, हड्ढे जाव बलियसरीरे जाए ववगयरोगायंके। सूत्र ५७. मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाकर कहा-“देवानुप्रियो ! शैलक मुनि की प्रासुक औषध आदि द्वारा उचित चिकित्सा करो।" राजा की आज्ञा सुन चिकित्सक कृतकृत्य हुए और आवश्यक औषध आदि सुझाई। साथ ही मद्यपान (नींद की औषधि) लेने को भी कहा। चिकित्सकों के मतानुसार चिकित्सा करने से शैलक राजर्षि का रोग शान्त हो गया। वे स्वस्थ निरोग और बलवान् हो गये। 57. King Manduk called the doctors and said, “Beloved of gods! Start proper treatment of Ascetic Shailak with medicines (etc. ) that are acceptable to ascetics." The doctors felt honoured ty getting this order from the king and prescribed suitable medicines. They also advised the ascetic to take sedatives. The treatment cured Ascetic Shailak and he became disease free, healthy and strong. BARAO CHAPTER-5: SHAILAK (273) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OTOS शैलक क प्रमाद सूत्र ५८. तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतंसि समाणंसि, तंसि विप्लंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्थे पासत्थविहारी, कुसीले कुसीलविहारी, पमत्ते पमत्तविहारी, संसते संसत्तविहारी, उउबद्धपीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरइ। नो संचाएइ फासुयं एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। __सूत्र ५८. निरोग हो जाने के बाद शैलक राजर्षि प्रचुर आहार और मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये। वे आलसी हो गये और आलस्यमय जीवन बिताने के आदी हो गये। वे कर्तव्यच्युत हो गये और कर्तव्यविहीन जीवन बिताने के आदी हो गये। वे शीलविरोधी हो गये और शील- विरोधी जीवन बिताने के आदी हो गये। वे प्रमादी हो गये और प्रमादमय जीवन शैली के आदी हो गये। वे शिथिलाचारी हो गये और वैसे ही जीवन के आदी हो गये। वे चातुर्मास के बाद भी शैय्या आदि उपकरण का उपयोग करने लगे और इस कारण वे राजा से अनुमति ले जनपदों में विहार करने में असमर्थ हो गये। LETHARGY OF SHAILAK 58. When Ascetic Shailak regained his health, the continued consumption of sumptuous food and sedatives made him tight, tipsy, and intoxicated to the point of addiction. He became lethargic and habituated to an easy way of life. He drifted from his goal, went against discipline, became illusioned and lax in his conduct and got trapped in a goalless, undisciplined, illusioned, and unruly way of life. Even when the prescribed period of monsoon stay came to an end, he continued the use of facilities like bed and, as such, was unable to resume his itinerant way of life seeking permission form the king. सूत्र ५९. तए णं तेसिं पंथयवज्जाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए, विपुलं णं असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए, नो संचाएइ जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खल देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा - - (274) JNĀTA DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक ( २७५ ) RA SAN संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकर ठवेत्ता बहिया अब्भुज्जए णं जाव विहरित्तए।'' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता कल्लं जेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावेंति, ठावित्ता बहिया जाव विहरंति। __सूत्र ५९. ऐसी स्थिति में पंथक के अतिरिक्त शेष पाँच सौ अनगार एक मध्य-रात्रि को एकत्र हो बैठे और विचार किया-"शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए हैं किन्तु विपुल आहारादि तथा मद्यपान में लिप्त हो गये हैं, भ्रमित हो गये हैं और जनपद-विहार करने में असमर्थ हैं। देवानुप्रियो ! श्रमणों के लिये प्रमादी होकर एक स्थान पर रहना नहीं कल्पता। अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल ही शैलक राजर्षि से आज्ञा ले, उपकरण वापस लौटाकर, पंथक अनगार को उनकी सेवा में नियुक्त कर यहाँ से चलें और जनपदों में विहार करें।" यह निश्चय कर दूसरे दिन प्रात:काल वे शैलक राजर्षि के पास गये। उनकी आज्ञा ली और उपकरण वापस कर दिये। पंथक अनगार को उनकी सेवा में नियुक्त किया और वहाँ से विहार कर गये। 59. Under these circumstances all the five hundred disciples leaving aside Panthak convened a meeting one night and conferred “Although king Shailak has become an ascetic after abandoning his kingdom (etc.) he has become addicted to sumptuous food and sedatives. He has lost his direction and is unable to wander about. Beloved of gods! It is not proper for the ascetics to become lethargic and stay at one place. As such, it would be good for us if with the break of the dawn we go to Ascetic Shailak, seek his permission, return all the equipment, give the responsibility of his care to ascetic Panthak and resume our itinerant way of life.” Once a decision was reached they acted accordingly next morning and left the place. प्रमाद भंग सूत्र ६०. तए णं से पंथए सेलयस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल-संघाणमत्त ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणए णं अगिलाए विणए णं वेयावडियं करेइ। __तए णं से सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असण-पाण-खाइम| साइमं आहारमाहारिए सबहु मज्जपाणयं पीए पुव्वावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते। Comgr> Syo /CHAPTER-5 : SHAILAK (275) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र तए णं से पंथए कत्तियचाउम्मासिसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिकंते चाउम्मासियं पडिक्कमिउंकामे सेलयं रायरिसिं खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संघट्टेइ। ___ तए णं से सेलए पंथए णं सीसेणं पाएसु संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव मिसमिसेमाणे उढेइ, उद्वित्ता एवं वयासी-“से केस णं भंते ! एस अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जे णं ममं सुहपसुत्तं पाएसु संघट्टेइ ?' ___ सूत्र ६0. पंथक अनगार सब प्रकार से शैलक राजर्षि की विनयपूर्वक और बिना ग्लानि के सेवा करने लगे। एक बार शैलक राजर्षि चातुर्मास के कार्तिक महीने में संध्या समय खूब भोजन और मद्यपान कर आराम से सो रहे थे। __उसी समय पंथक मुनि ने दिन का कायोत्सर्ग तथा प्रतिक्रमण कर लेने के बाद चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने से पूर्व शैलक राजर्षि से क्षमायाचना हेतु अपने मस्तक से उनके चरणों को छूया। इस पर शैलक कुपित हो गये और क्रोध से तिलामिलाकर उठ गये। वे उग्र हो चिल्लाये-“अरे कौन श्रीहीन है जो अपनी अकाल मृत्यु की इच्छा रखता है ? किसने मेरे पैरों का स्पर्श कर मुझे सुख भरी नींद से जगा दिया?" - BREAKING OF THE TRAP 60. Ascetic Panthak served Ascetic Shailak with all humility and without any reservations. One evening during the month of Kartic, the last month of the monsoon stay, after a heavy dinner and a doze of sedative, Ascetic Shailak was sleeping in all comfort. At that time ascetic Panthak arrived there after finishing his day time meditation and Pratikraman (the ritual reviewing of the deeds of the day) and touched the feet of Ascetic Shailak with his forehead in order to seek the formal forgiveness before commencing the Chaturmasik Pratikraman (the ritual reviewing of the deeds of the year). This disturbed Shailak and consumed by anger he got up. He shouted angrily, “Who is the ill fated one that desires for an untimely death? Touching my feet, who has woken me up from my pleasant sleep?" सूत्र ६१. तए णं से पंथए सेलए णं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-“अहं णं भंते ! पंथए Cee (276) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन : शैलक ( २७७ ) कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मासियं पडिक्कते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि। तं खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खमंतु मेऽवराहं, तुमं णं देवाणुप्पिया ! णाइभुज्जो एवं करणयाए" ति कट्ट सेलयं अणगारं एयमटुं सम्म विणए णं भुज्जो खामेइ। सूत्र ६१. क्रोध के इस उग्र प्रदर्शन से पंथक मुनि भय से अवाक् हो गये। उनका मन त्रास और खेद से भर गया। वे हाथ जोड़कर बोले-“भंते ! मैं पंथक हूँ। मैं कायोत्सर्ग और दैवसी प्रतिक्रमण के बाद चातुर्मास प्रतिक्रमण करने जा रहा था। अतः चातुर्मासिक क्षमायाचना के लिये आपको वन्दना करते समय मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया था। अतः हे देवानुप्रिय ! क्षमा करें। मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूँगा। मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिये।" पंथक मुनि हाथ जोड़ विनयपूर्वक बार-बार खमाने लगे। 61. Ascetic Panthak was awe-struck by this violent display of anger. He was filled with panic and repentance. Joining his palms he said, "Bhante! It is I, Panthak. I was proceeding to commence the Chaturmasik Pratikraman after concluding the daily one. As such, I touched your feet with my forehead in order to seek the annual forgiveness. I am sorry, Beloved of gods! I will never repeat this mistake. Kindly pardon my misdeed.” With joined palms and all humility Panthak sought pardon again and again. शैलक का पुनर्जागरण सूत्र ६२. तए णं सेलयस्स रायरिसिस्स पंथए णं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु अहं रज्जं च जाव ओसन्नो जाव उउबद्धपीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते विहरामि। तं नो खलु कप्पइ समणाणं णिग्गंथाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए। तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता पंथए णं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जए णं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए।" एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव विहरइ। सूत्र ६२. पंथक के इस कथन पर राजर्षि शैलक के मन में विचार उठे–“मैं राज्यादि का त्याग करके भी प्रमादी होकर अपने अन्त समय में भी उपकरणों का उपभोग करता हुआ रह रहा हूँ। श्रमणों को इस तरह का शिथिलाचार नहीं कल्पता। अतः कल मंडुक राजा की अनुमति लेकर, उपकरण लौटाकर पंथक अनगार के साथ उग्र विहार करना ही मेरे लिये श्रेयस्कर होगा।" यह निश्चय कर दूसरे दिन प्रातःकाल वे यथाविधि वहाँ से विहार कर गये। CADHA A CHAPTER-5 : SHAILAK (277) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORTO ( २७८ ) REAWAKENING OF SHAILAK 62. This statement of panthak forced Ascetic Shailak to think, “In spite of abandoning my kingdom (etc.) I still continue to enjoy these worldly facilities during the last part of my life. It is not proper for an ascetic to be so lax in conduct. As such, it would be best for me to seek permission from king Manduk, return all the equipment, and commence the harsh itinerant ascetic life tomorrow itself taking along Panthak with me." Once the decision was reached he acted accordingly and left the place. सूत्र ६३. एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंधी वा ओसने जाव संथारए पत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे संसारो भाणियव्वो । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ६३. " हे आयुष्मानो ! इसी प्रकार जो श्रमण श्रमणी आलस्य से उपकरण आदि में आसक्त होकर रहता है वह इसी लोक में अनेक श्रमणों-श्रावकों की अवहेलना का पात्र होता है और चिरकाल तक संसार-चक्र का भ्रमण करता है । " 63. Similarly, O blessed ones! the ascetics who are trapped by the fondness of equipment and the consequent lethargy become the object of disdain of numerous ascetics of this land and are sucked in within the vortex of the unending cycle of rebirth. सूत्र ६४. तए णं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीस कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी - "सेलए रायरिसी पंथए णं बहिया जाव विहरइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।" एवं संपेर्हेति, संपेहित्ता सेलयं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । तए णं ते सेलगपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता जेव पोंडरी पव्व तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा । सूत्र ६४. पंथक के अतिरिक्त उनके अन्य शिष्यों ने ये समाचार सुने तो सभी एकत्र हो विचार करने लगे - " शैलक राजर्षि तथा पंथक अनगार उग्र विहार कर रहे हैं अतः अब हमें उनके निकट ही विचरना चाहिए ।" यह निश्चय कर वे राजर्षि शैलक के पास लौटे और उनके साथ ही विहार करने लगे । कालान्तर में वे सभी शत्रुंजय पर्वत पर जा संलेखना कर थावच्चापुत्र की भाँति सिद्ध हुए। (278) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन शैलक (२७९) Orao ANAM 64. When the other disciples of Ascetic Shailak heard the news they assembled and thought, "Now that Ascetic Shailak and Panthak have resumed the harsh itinerant life we should join them." And they joined back Ascetic Shailak. Later they all went to the Shatrunjaya Hills and attained liberation after taking the ultimate vow like Thavacchaputra. उपसंहार सूत्र ६५. एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव विहरिस्सइ., एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नते त्ति बेमि। सूत्र ६५. हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु ऐसा आचरण करेगा वह अंततः संसार भ्रमण से मुक्ति प्राप्त करेगा। _हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवें ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ। CONCLUSION 65. Blessed ones! The ascetic who follows such conduct gets liberated in the end. Jambu! This is the text and the meaning of the fifth chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. ॥ पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ पंचम अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE FIFTH CHAPTER || उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की इस पाँचवीं कथा में शिथिलाचार के दोष को प्रकट किया है। साधु अथवा संयम के मार्ग पर चलने का नियम ले लेने वाला निरन्तर साधना के पथ पर विकास की दिशा में गतिमान होता है। उसे शैल खण्ड के समान गतिहीन अथवा शिथिल नहीं होना चाहिए। प्रमादग्रस्त हो शिथिल हो जाने वाला अपना इहलोक ही नहीं परलोक भी खराब कर लेता है और संसार चक्र में उलझ जाता है। मुक्ति प्राप्त करने का साधन है निरन्तर अप्रमत्त GAMIRVAS PANDUNICISRO CHAPTER-5 : SHAILAK (279) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ASTER साधना। थावच्चा-पुत्र तथा शुक परिव्राजक के संवाद में साधु जीवन के मुख्य बिन्दुओं पर 7 संक्षिप्त और सरल किन्तु सारगर्भित विवेचना प्रस्तुत की गई है। | उपनय गाथा । सिदिलिय संजम कज्जा वि होइउं उज्जमं ति जइ पच्छा। संवेगाओ तो सेलउव्व आराहया होति। प्रमाद की बहुलता से यदि कोई साधक संयम चर्या में शिथिल हो जाते हैं, परन्तु बाद में संवेग-वैराग्य व ज्ञान के प्रभाव से पुनः संयम में उद्यत हो जाते हैं तो वे शैलक राजर्षि की तरह आराधक माने जाते हैं। 0 CONCLUSION D This fifth story of Jnata Dharma Katha elaborates the vice of laxity of conduct. An ascetic or the individual who has opted for the path of discipline has to be ever active in the right direction for his spiritual upliftment. He cannot afford to be inactive or static like a rock. Encumbered by a lethargic attitude if he becomes inactive or lax in observance of conduct he spoils not only this life but also the one beyond and remains entrapped in the unending cycle of rebirths. Vigorous and unimpeded practice is the means of attaining liberation The story also includes simple and brief but significant details about the salient features of ascetic life style in the form of the dialogue between Shuk Parivrajak and Thavacchaputra. THE MESSAGE If some practicer becomes lax in his conduct due to excess of lethargy but amends his ways due to the inherent craving for the goal, he is accepted as a spiritualist like ascetic Shailak. परिशिष्ट द्वारका-सौराष्ट्र की मुख्य प्राचीन नगरी (पन्नवणासूत्र)। यह समुद्र तट पर स्थित द्वारका से भिन्न है। महाभारत के अनुसार जरासंध से आक्रान्त मथुरा के यादव, श्रीकृष्ण की सैन्य योजना के अनुसार अपने मूल स्थान को छोड़ रैवतक पर्वत के निकट कुशस्थली में आ गये थे। यहाँ उन्होंने अनेकों द्वार वाली एक नगरी बसाई जिसका नाम द्वारका पड़ गया। द्वार का अर्थ गुजराती में बन्दरगाह भी है। अतः यह S Mamma ANDNA - - AMIT (280) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ se पंचम अध्ययन : शैलक ( २८१) Homse nanga अनुमान किया जाता है कि यह नगरी रैवतक पर्वत के निकट न होकर समुद्र तट पर बसी होगी। इस विषय पर अनेक इतिहासज्ञों ने विभिन्न मत प्रकट किये हैं। सम्प्रति कच्छ की खाड़ी में एक जलमग्न नगर के अवशेष भी मिले हैं और वहाँ एक टापू भी है जिसे बेट द्वारका कहते हैं। वायुपुराण का यह वर्णन कि महाराजा रेवत ने समुद्र के मध्य कुशस्थली नगरी बसाई थी जो श्रीकृष्ण के समय द्वारका नाम से प्रसिद्ध हो गई, इस नई खोज से पुष्ट होता है। ऐसे विभिन्न वर्णनों से एक संभावना यह भी उभरकर आती है कि किसी काल में द्वारिका एक विशाल भू-भाग में फैला एक महानगर रहा होगा जो रैवतक पर्वत की तराई से समुद्र तट तक फैला हुआ होगा। आज जिन सीमित क्षेत्रों को हम द्वारका और बेट द्वारका के नाम से जानते हैं वे उस महानगर के उपनगरीय भाग रहे होंगे। ___ रैवतक पर्वत-सौराष्ट्र में द्वारका के निकट का पर्वत जो वर्तमान में गिरनार नाम से अधिक प्रसिद्ध है। जैनों का पवित्र तीर्थ-स्थल है क्योंकि वाइसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का निर्वाण यहीं हुआ था। इसके अन्य नाम हैं-उज्जयंत, उज्ज्वल तथा गिरिणाल। प्रतिमा-यह एक प्रकार का तप है जिसमें आहार की मात्रा तथा आसन विशिष्ट करने के कुछ नियम होते हैं। कौन-सी प्रतिमा कितने दिन तक रखनी होती है इस काल का परिमाण भी निश्चित नियम के अनुसार होता है। APPENDIX Dwarka-Important ancient metropolis of the Saurashtra area in western India (Pannavna Sutra). This is not the same as the coastal Dwarka. According to the Mahabharat the Yadavs of Mathura oppressed by Jarasandh left their place of origin and according to the strategic plan of Shri Krishna they migrated to Kushasthali near the Raivatak mountain. Here they constructed a large and beautiful town with numerous gates (Dwars). It became popularly known as Dwarka. In the Gujarati language the word Dwar also means port. As such another inference that Dwarka must have been situated at the sea-coast and not near the Raivatak mountain gained popularity. Different historians have presented different theories on this subject. Recently evidences of a submerged town have been found in the bay of Kuccha; nearby is an island named Bait Dwarka. These recent findings support the story from Vayupurana that King Raivat founded Kushasthali city in the middle of the sea and it became popular as Dwarka.' All these divergent theories give rise to another concept-that in the remote past Dwarka must have been a great metropolis occupying a very large tract of land spread between the Raivatak mountain and the sea. Those smaller areas we now know as Dwarka and Bait Dwarka could have been the suburbs of that great metropolis. Raivatak mountain-The mountain range near Dwarka in Saurashtra now popularly known as Girnar. It is a pious pilgrimage centre of Jains because the twenty second Tirthankar Bhagavan Neminath attained nirvan here. Other names Ujjayant, Ujjval, Girinal. Pratima - This is a category of penance where there are some prescribed rules regarding the quantity of food and the posture of meditation. The duration of various penances in this category also follows specified rules. - CHAPTER-5 : SHAILAK (281) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२) SPORT छठा अध्ययन : तुम्बक: आमुख शीर्षक-तुंबए-तुम्बक-तूम्बा-एक फल विशेष जिसकी ऊपरी खाल सख्त होती है। इसे भीतर से खाली कर पात्र बनाया जाता है जिसको सामान्यतया साधु-सन्यासी काम में लेते हैं। खाली करके इसके मँह को भली प्रकार बन्द कर दें तो यह भीतर की हवा के कारण पानी में डबता नहीं अथवा हल्का हो जाता है। गुरुता-लघुता या हल्कापन-भारीपन आत्मा के संदर्भ में समझाने के लिए यह सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। कथासार-श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगरी में आये हुए हैं। उनके पट्ट शिष्य गणधर गौतम वहाँ उनसे शंका समाधान हेतु प्रश्न करते हैं कि आत्मा गुरुता और लघुता को कैसे प्राप्त होता है। भगवान महावीर बताते हैं कि जैसे मिट्टी और घास की आठ पर्ते चढ़ने पर तूम्बा भारी होकर पानी में डूब जाता है वैसे ही कर्मबंधन की आठ पर्ते चढ़ने पर आत्मा गुरुता को प्राप्त होती है और नीचे डूबकर नरक में पहुँच जाती है। जिस प्रकार घास और मिट्टी की पर्ते पानी में घुलकर नष्ट होने पर तूम्बा ऊपर उठकर जल की सतह पर आ जाता है वैसे ही कर्मों की पर्तों का नाश होने पर आत्मा लघुता को प्राप्त कर ऊपर उठती है और लोकाग्र पर पहुँच जाती है। SIXTH CHAPTER : TUMBAK: INTRODUCTION - Title-Tumbae or Tumbak or Tumba is the name of a fruit having a hard outer shell; gourd. When it is ripe it is emptied, cleaned and dried and used as a pot particularly by monks and mendicants. When empty, if its mouth is closed and sealed, it becomes lighter than water and does not sink. It has been used as an appropriate example to explain the terms heavy and light in context with soul. Gist of the Story--Shraman Bhagavan Mahavir arrives in Rajagriha city. His chief disciple ascetic Indrabhuti puts a question that how does a being quickly reach the heavy state (of soul) and the light state (of soul) ? Bhagavan Mahavir replies, "Gautam! As a gourd, made heavy with eight layers of fibers and mud, sinks in water, similarly a being fused with eight types of Karmas reaches the heavy state and sinks to the hell. When all the eight layers of fibers and mud are washed off the gourd rises to the surface of the water body. Similarly when a being destroys the fused eight types of Karmas, it rises to the zenith of the living universe. (282) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) छट्टं अज्झयणं : तुंबए छठा अध्ययन : तुम्बक SIXTH CHAPTER: TUMBAK - THE GOURD सूत्र १. “ जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? "" सूत्र १. जम्बूस्वामी ने पूछा - "भंते ! श्रमण भगवान महावीर ने छठे ज्ञाता अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" 1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the sixth chapter according to Shraman Bhagavan Mahavir?" सूत्र २. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं रायगिहे णामं नयरे होत्था । तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नामं राया होत्था । तस्स णं रायगिहस्सा बहिया उत्तरपुरत्थि दिसीभाए एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था । तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव जेणेव रायगि णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे । अहापडिरूवं उग्गहं गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । परिसा निग्गया, सेणिओ वि निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया । सूत्र २. सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया- हे जम्बू ! काल के उस भाग में राजगृह नाम के नगर में श्रमण भगवान महावीर पधारे। वहाँ श्रेणिकराज सहित परिषद निकली और भगवान ने देशना दी । (विस्तृत विवरण पूर्व सम ) 2. Sudharma Swami narrated-Jambu! During that period of time Shraman Bhagavan Mahavir, wandering from one village to another, arrived in Rajagriha city and stayed at a proper place in the Gunasheel temple complex. A delegation of citizens led by King Shrenik arrived there and Bhagavan gave a discourse (details as before ). ( 283 ) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ omg CM ( २८४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 60 6410 सूत्र ३. तेणं कालेणं तेणं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ। तए णं से इंदभूई नाम अणगारे जायसढे जाव एवं वयासी-“कहं णं भंते ! जीवा गुरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्यमागच्छंति ?" सूत्र ३. काल के उस भाग में भगवान के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार भी उनके पास ध्यान साधना में लीन रहते थे। जिज्ञासा एवं श्रद्धा से अभिभूत इन्द्रभूति ने भगवान से प्रश्न किया-"भंते ! जीव शीघ्र ही गुरुता तथा लघुता को कैसे प्राप्त होता है ?" 3. During that period of time the chief disciple of Bhagavan, ascetic Indrabhuti, was also there. He used to be engrossed in his spiritual practices under the guidance of Shraman Bhagavan Mahavir. With absolute faith Indrabhuti put a question to Bhagavan, “Bhante! How does a being quickly reach the heavy states (of soul) and the light state (of soul)?" गुरुता का कारण ___ सूत्र ४. “गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कं तुंबं णिच्छिदं निरुवहयं दब्भेहिं कुसेहिं वेढेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपड़, उण्हे दलयइ, दलइत्ता सुक्कं समाणे दोच्चं पि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उण्हे सुक्के समाणं तच्चं पि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ। एवं खलु एएणुवाए णं अंतस वेढेमाणे अंतरा लिंपेमाणे, अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अहिं मट्टियालेवेहिं आलिंपइ, अत्थाह-मतार-मपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा। से णूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं गुरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ। एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाए णं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणंति। तासिं गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरिणयलमइवइत्ता अहे नरगतलपइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति।" __सूत्र ४. “गौतम ! यदि कोई व्यक्ति एक बड़ा-सा बिना छेद वाला, बिना टूटा तुम्बा ले, उस पर नारियल के रेशे और दूब लपेटे तथा ऊपर से मिट्टी का लेप करे और धूप में रख | Pr स R4uVA (284) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : तुम्बक ( २८५) CSC THAUMOTOS रख दे। जब वह सूख जावे तो उस पर पुनः घास व मिट्टी लपेटकर फिर धूप में रख दे। इसी प्रकार घास और मिट्टी का लेप आठ बार उस तुम्बे पर चढ़ाये। इसके बाद उस तुम्बे को ले जाकर ऐसे जल में डाले जो पुरुष की ऊँचाई से भी बहुत गहरा हो और तैरने में कठिन हो। हे गौतम ! मिट्टी के आठ लेपों के भार से गुरु हुआ वह तुम्बा पानी में डूबकर तल में पहुँच जायेगा। __इसी प्रकार जीव भी हिंसा आदि अठारह पाप स्थानकों में लिप्त होने के कारण आठ कर्म-प्रकृतियों का बंध करता है। उन कर्म-प्रकृतियों के भार से गुरु होकर मृत्यु होने पर पृथ्वी (तिर्यक लोक) की सतह से गिरकर नरक (अधोलोक) की सतह पर पहुँच जाता है। गौतम ! जीव इस प्रकार गुरुता को प्राप्त होता है। THE HEAVY STATE 4. "Gautam! Let someone take a large pot of hollowed gourd that is without a hole or a crack. Wrap coconut fibers and grass around it. Cover it with a paste of sticky mud and put it in sun. When it dries, again wrap fibers around it, cover it with mud and let it dry. This way cover it with these layers eight times. After this, take this gourd and throw it in a pond or lake that is much deeper than a man's height and difficult to swim across. Gautam! made heavy with the eight layers of mud, that gourd will sink and reach the bottom of the water body. "Similarly a being (soul) is fused with eight types of Karmas as a result of his indulgence in eighteen types of sinful activities including violence. Due to the weight of these Karmas it reaches the heavy state and after death sinks below the surface of the earth and reaches the bottom level of the living universe, the hell. Gautam! This is how a being reaches the heavy state. लघुता का कारण सूत्र ५. अह णं गोयमा ! से तुंबे तंसि पढमिल्लुगंसि मट्टियालेवंसि तित्तंसि कुहियंसि पडिसडियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पइत्ता णं चिट्ठइ। तयाणंतरं च णं दोच्चं पि मट्टियालेवे जाव उप्पइत्ता णं चिट्ठइ। एवं खलु एए णं उवाए णं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे धरिणियलमइवइत्ता उप्पिं सलिलतलपइटाणे भवइ। aara ar CHAPTER-6 : TUMBAK 12 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र RADHA ABIR The __एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसण-सल्लवेरमणेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपइटाणा भवंति। एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति। __सूत्र ५. “हे गौतम ! अब यदि गीला होने के कारण उस तूंबे का ऊपरी लेप गलकर नष्ट हो जाये तो वह तूंबा उस जलराशि से नीचे रही धरती की सतह से कुछ ऊपर उठ आता है। इसी प्रकार एक के बाद एक आठों लेप नष्ट हो जाने पर वह तूंबा निर्लेप या बन्धनहीन होकर ऊपर उठता जाता है और जल की सतह पर आ जाता है। __"हे गौतम ! इसी प्रकार हिंसा आदि अठारह पाप स्थानकों को नष्ट करने से, त्याग देने से जीव क्रमशः आठ कर्म-प्रवृत्तियों का क्षय करता है और आकाश में उड़कर लोकाग्र पर पहुँच जाता है। जीव इस तरह शीघ्र ही लघुता को प्राप्त होता है।" THE LIGHT STATE 5. "Gautam! Now, if the uppermost layer is softened by the surrounding water and washes off, the gourd rises a little from the bottom. One by one when all the eight layers are washed off the gourd becomes clean and light and rises to the surface of the water body. "Gautam! Similarly when a being destroys or refrains from indulgence in the eighteen sinful activities he sheds the fused eight types of Karmas, rises above the surface of the earth and reaches the zenith of the living universe. This is how a being reaches the light state." उपसंहार __ सूत्र ६. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते ति बेमि। सूत्र ६. हे जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने छठे ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ। CONCLUSION 6. Jambu! This is the text and the meaning of the sixth chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. ॥छट्टे अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ षष्ठ अध्ययन समाप्त || || END OF THE SIXTH CHAPTER || E /(286) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAM 23. 56 www Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Cg %D Ramna - चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED । लघु-गुरु का रहस्य चित्र : १७ गणधर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न कियाभन्ते ! आत्मा गुरु (भारी) और लघु (हल्का) किस कारण होता है ? उत्तर में भगवान उदाहरण देते हैं एक व्यक्ति बड़ा सूखा तुम्बा लेकर उस पर घास आदि लपेटता है, फिर मिट्टी का लेप लगाकर धूप में सुखा देता है। दुबारा, तिबारा यों आठ बार इसी प्रकार लेप आदि करके सुखाने के बाद वह उस तुम्बे को जल में डालता है तो वह भारी बना तुम्बा गहरे जल में डूब जाता है। जब धीर-धीरे मिट्टी के लेप उतरते हैं तो तुम्बा क्रमशः जल के ऊपर आता है। जब आठों लेप उतर जाते हैं तो निर्लेप तुम्बा अपने आप एकदम हल्का होकर जल पर तैरने लगता है। इसी प्रकार आठ कर्मों से भारी होने पर जीव संसार समुद्र में डूबता है, नीची गतियों में जाता है। क्रमशः कर्म मुक्त होकर हल्का होते-होते वह ऊँची गति में आता है और सर्वथा लेप मुक्त होने पर ऊर्ध्वगति-मोक्ष में चला जाता है। (अध्ययन ६) THE SECRET OF HEAVINESS AND LIGHTNESS ILLUSTRATION: 17 Shraman Bhagavan Mahavir arrives in Rajagriha city. His chief disciple Ganadhar Indrabhuti Gautam asks Bhagavan Mahavir, “Bhante! How does a being quickly reach the heavy state (of soul) and the light state (of soul)?" Bhagavan Mahavir replies, "Gautam! If a person takes a gourd, wraps fibers around it, coats it with mud or slime and puts it in sun to dry; repeats this process eight times and puts this gourd in a water body: the gourd, made heavy with cight layers of fibers and mud, sinks in water. As the layers of mud dissolve in water the gourd starts rising. When all the eight layers get removed the gourd rises to the surface of the water body. Similarly a being fused with eight types of Karmas reaches the heavy state and sinks to the hell. And when a being destroys the fused eight types of Karmas, it rises to the zenith of the living universe or gets liberated. (CHAPTER-6) JNĀTĀ DHARMA KATHÁNGA SUTRA Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : तुम्बक ( २८७) ल RRIDO -- - - - उपसंहार ज्ञातासूत्र की इस छठी कथा में एक उदाहरण द्वारा एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर समझाया है। कोई प्राणी जब पापकर्म में लिप्त होता है तो उसकी आत्मा कर्म-बन्धन करती है। आठ कर्म प्रकृतियों के इस मल से आत्मा बोझिल होकर नीचे गिरती है और नरकगति तक जा पहुँचती है। यह गुरुता है और हेय है। जब साधना तथा सत्कर्म के जल से यह कर्म-मल धोया जाता है तो आत्मा हल्की हो ऊपर उठती है। पूर्ण निर्मल होने पर वह लोकाग्र में पहुँच सिद्धगति को प्राप्त होती है। यह लघुता है और श्रेय है। | उपनय गाथा जह मिउलेखालित्तं गरुयं तुंब अहोवयइ एवं । आसव कय-कम्म गुरु जीवा वच्चंति अहरगई ।। तं चेव तब्धिमुक्कं, जलोवरि ठाइ जाय लहुभावं । जह तह कम्म विमुक्का, लोयग्ग पइट्टिया होंति ।। -जैसे मिट्टी के लेप से भारी होकर तुम्बा जल के तल में चला जाता है, इसी प्रकार आम्रव द्वारा उपार्जित कर्मों से भारी होकर जीव अधोगति में जाता है।। ___-जैसे वही तुम्बा मिट्टी के लेप से विमुक्त होने पर, लघु होकर जल के ऊपर स्थित होता है, वैसे ही कर्मविमुक्त जीव लोक के अग्र अर्थात ऊपरी भाग में विराजमान हो जाते हैं।२। CONCLUSION This sixth story of Jnata Dharma Katha gives answer to an important question with the help of a suitable example. When an individual indulges in sinful activity his soul binds karmas. Encumbered by the dirt of the eight categories of karmas this soul starts falling down and may reach the hell. This is known as heaviness and is detestable. If this dirt of karmas is washed away with the help of water of pious activity and spiritual practice the soul becomes light and starts rising up. When it becomes absolutely clean and pure it Tolog spx CHAPTER-6: TUMBAK (281) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORRES oratime reaches the edge of the universe attaining the Siddha status. This is known as lightness and is desirable. THE MESSAGE As a gourd, made heavy by layers of mud, sinks to the bottom of a water body, so a being, made heavy by in flow of karmas sinks to lowest dimension (the hell). As the same gourd becoming light by getting free of the mud, rises to the surface of the water-body, so a being getting free of the karmas rises and reaches the edge of the universe (Siddha status). परिशिष्ट = इन्द्रभूति-भगवान महावीर के प्रथम तथा पट्ट शिष्य जो गणधर गौतम के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्द्रभूति गौतम गोत्रीय थे और उस काल के मूर्धन्य वैदिक विद्वान्। भगवान महावीर की प्रथम देशना के समय उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने का उद्देश्य ले ये समवसरण में आये थे। किन्तु स्वयं अपने मन के सन्देह मिटा महावीर के प्रथम शिष्य के रूप में प्रवजित हुए। महावीर के निर्वाण के तत्काल बाद इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और एक वर्ष बाद इनका निर्वाण हुआ। APPENDIX Indrabhuti-The first and senior most disciple of Bhagavan Mahavir who became famous as Ganadhar Gautam. He was the foremost Vedic scholar of his time and belonged to the Gautam clan. During the first discourse of Bhagavan Mahavir he came to win over Mahavir in debate. However, Mahavir removed the ambiguities that plagued Gautam's mind and then initiated him as his first disciple. He became omniscient immediately after Mahavir's nirvana and got liberated one year later. - 15 BABI (288) मा JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0530 ( २८९ ) सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात: आमुख शीर्षक- रोहिणीणाए - रोहिणी ज्ञात अर्थात संवर्धन करने वाली या बढ़ाने वाली की कथा । आत्मा का लक्ष्य है विकास पथ पर निरन्तर बढ़ते रहना और यह प्रयत्न से होता है। प्रयत्न करने की प्रवृत्ति के अभाव में हास होता है। इस कथा में धन सार्थवाह की चार पुत्र-वधुओं के उदाहरण से विवेकपूर्ण अध्यवसाय के महत्त्व को दर्शाया गया है। कथासार - राजगृह नगर में धन सार्थवाह रहता था । उसकी चार पुत्र-वधुओं का नाम क्रमशः उज्झिका, भोगवती, रक्षिका तथा रोहिणी था। एक बार धन सेठ चिन्ता हुई कि उसके बाद उसके घर-परिवार की सुचारु व्यवस्था का उत्तरदायित्व कौन ले सकेगा? उसने अपनी पुत्र-वधुओं की योग्यता परीक्षा लेने की योजना बनाई। अपने सगे-सम्बन्धियों को आमन्त्रण दे उनके सामने उसने प्रत्येक बहू को पाँच-पाँच दाने चावल के दिये और कहा कि इन्हें सँभालकर मंजूषा में रखना। जब भी वह उन दानों को माँगे तो वापस देने होंगे। उज्झका दाने लेकर भीतर गई और यह सोचकर कि भण्डार में ढेरों चावल पड़ा रहता है जब ससुर जी माँगेंगे, पाँच दाने उठाकर दे दूँगी, उसने वे पाँचों दाने फेंक दिये। ठीक यही विचार भोगवती के मन में उठे। पर उसने वे दाने फेंकने की जगह मुँह में रखे और निगल गई। रक्षिका ने सोचा कि ससुर जी की बात में अवश्य कोई रहस्य है जो समझ में नहीं आ रहा है। अतः ये दाने सँभालकर रखने चाहिए और उसने वे दाने सहेज- सँभालकर रख दिये । चौथी बहू रोहिणी ने सोचा कि अवश्य ससुर जी ने किसी विशेष उद्देश्य से ये पाँच दाने दिये हैंफिर भी पड़े-पड़े क्या होगा। इनका संवर्धन करना चाहिए और उसने अपने पीहर वालों को बुलाकर वे दाने दिये और कहा कि उन्हें खेत में अलग से बोने का प्रबन्ध करें। जब तक वह उन दानों को वापस न माँगे वे उन दानों से उपजी फसल को पुनः पुनः बोते रहें और धान बढ़ाते रहें। पाँच वर्ष बीत जाने पर धन सार्थवाह ने पुनः अपने सम्बन्धियों को बुलाया और उनके सामने चारों बहुओं से दाने वापस माँगे। पहली बहू के यह बताने पर कि उसने दाने फेंक दिये हैं सेठ ने उसे घर की सफाई आदि के काम पर नियुक्त कर दिया। दूसरी, जिसने दाने खा लिये थे, को रसोई आदि की व्यवस्था पर लगा दिया और तीसरी, जिसने दाने सँभालकर रखे थे, उसे घर भण्डार की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंप दिया। CHOIC चौथी बहू से जब दाने माँगे तो उसने कहा कि दाने वापस करने के लिए उसे गाड़ियों की आवश्यकता पड़ेगी तो सेठ आश्चर्यचकित हो गया। उसके पूछने पर रोहिणी ने सारी बात बताई। सेठ ने प्रसन्न हो उसे घर का मुखिया बना दिया । (289) For Private Personal Use Only DU Cro Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९० ) SEVENTH CHAPTER: ROHINI JNATA: INTRODUCTION Title-Rohini Naye or Rohini Jnata or the story of Rohini or the story of the enhancer. The aim of a soul is to continue moving on the path of progress. These is done with the help of endeavour. In the absence of the will to work the direction changes to regression. In this story the importance of rational endeavour has been presented with the help of the story of Dhanya Merchant and his four daughters-inlaw. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Gist of the Story-In Rajagriha lived a wealthy merchant named Dhanya. The names of his daughters-in-law were-Ujjhika, Bhogvati, Rakshika, and Rohini respectively. Dhanya Merchant was worried that after him who will take responsibility of the household and properly look after and support his family. He made a plan to test the wisdom of his daughters-in-law. He invited his friends and relatives and in their presence gave five grains of rice to each daughter-in-law for safe keeping and returning back when desired. Ujjhika took the grains and went inside. Thinking that as there are heaps of rice lying in the family godown, whenever father asks I will collect five grains and give him back, she threw away those five grains. Bhogvati also had the same thoughts. However, instead of throwing the grains she swallowed them. Rakshika thought that there must be some secret purpose for such instructions. Accordingly she wrapped the grains and put the packet at a safe place. The fourth daughter-in-law, Rohini, thought, "There must be some secret behind this act of giving rice grains. However, what is the use of just keeping them aside in safety. I should not only protect them but also multiply them." Accordingly she called her maternal people and asked them to sow the grains in a separate plot. As long as she did not ask they were to sow the yield again and again and multiply the produce. When five years passed Dhanya Merchant invited his friends and relatives, called the daughters-in-law and asked them to return the rice grains. When the first one informed that she had thrown away the grains Dhanya appointed her as incharge of deprecatory duties like sweeping and cleaning. The second one who had. swallowed the grains was appointed the in-charge of household duties connected with the kitchen. The third one who had kept the grains safe and secured was appointed the in-charge of all the valuables of the household. When Dhanya asked back the five grains from the fourth one, she wanted numerous carts to return the grains. When Dhanya expressed his surprise Rohini told the whole story of how she had multiplied the grains. Dhanya was pleased and he appointed Rohini as the head of the household. (290) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१) - - सत्तमं अज्झयणं : रोहिणीणाए सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात Y SEVENTH CHAPTER : ROHINI JNATA - THE STORY OF ROHINI सूत्र १. “जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पण्णत्ते ?" सूत्र १. जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-"भंते ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें ज्ञाता अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" 1. Jambu Swami inquired, “Bhante! What is the meaning of the seventh chapter according to Shraman Bhagavan Mahavir?" __ सूत्र २. “एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समए णं रायगिहे नामं नयरे होत्था। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए नाम राया होत्था। तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभागे उज्जाणे होत्था। ___ तत्थ णं रायगिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए। तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था, अहीणपंचिंदियसरीरा जाव सुरूवा।" ___ तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया होत्था, तं जहा-धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरक्खिए। तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्या, तं जहा-उझिया, भोगवइया, रक्खिया, रोहिणिया। सूत्र २. सुधर्मा स्वामी ने बताया-“हे जम्बू ! काल के उस भाग में राजगृह नाम का एक नगर था जिसके बाहर सुभूमिभाग नामका उद्यान था। राजगृह में धन्य नाम का एक समृद्धिशाली सार्थवाह रहता था। उसकी परिपूर्ण शरीर वाली सुन्दरी भार्या का नाम भद्रा था।" धन्य सार्थवाह और भद्रा के चार पुत्र थे-धनपाल, धनदेव, धनगोप तथा धनरक्षित। उनकी पत्नियों के नाम थे-उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। WHA T RAMME लाल RAIN एमसारखा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dattor ( २९२ ) 2. Sudharma Swami narrated-"Jambu! During that period of time there was a town named Rajagriha outside which there was a garden named Subhumibhag. King Shrenik was the ruler of that town. In Rajagriha lived a wealthy merchant named Dhanya whose beautiful wife was Bhadra. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Dhanya Merchant and Bhadra had four sons-Dhanpal, Dhandev, Dhangope, and Dhanrakshit. The names of their wives were – Ujjhika, Bhogvati, Rakshika, and Rohini respectively. सूत्र ३. तए णं तस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था - "एवं खलु अहं रायगिहे णयरे बहूणं राईसर-तलवर- माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं सयस्स य कुटुंबस्स बहुसु कज्जेसु य, करणिज्जेसु य, कुडुंबेसु य, मंतणेसु य, गुज्झेसु य, रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढी, पमाणे, आहारे, आलंबणे, चक्खू, मेढीभूए, पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्खूभूए सव्वकज्जवड्ढावए । तं ण णज्जइ जं मए गयंसि वा, चुयंसि वा, मयंसि वा, भग्गंसि वा, लुग्गंसि वा, सडियंसि वा, पडियंसि वा, विदेसत्यंसि वा विप्पवसियंसि वा, इमस्स कुटुंबस्स किं मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सइ ? तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ-णियग-सयण-संबंधि - परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्तणाइ-णियग-सयण-संबंधि परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असण- पाणखाइम- साइमेणं धूवपूष्फवत्थगंध जाव सक्कारेत्ता सम्माणेता तस्सेव मित्त-णाइ - नियगसयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ चउन्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए पंच पंच सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं वा सारक्खेइ वा, संगोवेइवा, संवइ वा ? सूत्र ३. एक बार मध्य रात्रि के समय धन्य सार्थवाह के मन में विचार उठा - " मैं राजगृह नगर के अनेक ऐश्वर्यशाली निवासियों और अपने स्वजनों के अनेक कार्यों-व्यवहारों में मार्गदर्शक-सलाहकार ( विस्तार पूर्व सम) स्वरूप हूँ । परन्तु मेरे कहीं चले जाने पर स्थान च्युत हो जाने पर, मर जाने पर, असमर्थ हो जाने पर, रोगी हो जाने पर, क्षीण हो जाने पर, चोटग्रस्त हो जाने पर, विदेश-परदेश जाकर रहने पर मेरे कुटुम्ब का (292) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only JAME Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( २९३ ) S RAAT - - पृथ्वी के समान आधार कौन बनेगा ? झाडू की सींकों की तरह उसे बाँधकर रखने वाली रस्सी कौन बनेगा ? “अतः मेरे लिये यह उचित होगा कि कल सूर्योदय होने पर भोज सामग्री तैयार कराऊँ और अपने स्वजनों आदि तथा चारों वधुओं के मायके वालों को निमंत्रण देकर बुलाऊँ। उनको भोजन कराऊँ तथा उनका यथोचित सम्मान-सत्कार करूँ। फिर उन सबके सामने पुत्र-वधुओं की परीक्षा लेने के लिए उन्हें पाँच-पाँच चावल के दाने दूँ। इससे मैं यह जान पाऊँगा कि कौनसी पुत्रवधू किस प्रकार उन दानों का संरक्षण-संवर्धन करती है।" 3. Once at midnight Dhanya Merchant thought, “I am like a confidante and adviser to many a wealthy citizens of Rajagriha as well as my relatives, in various matters (details as before). But who will be the support of my family, as the earth is of beings, when I go away, loose my position, breathe my last, become disabled, sick, weak, or injured, or live abroad? Who will act like the string of a broom that keeps the straws tied together? As such, it would be proper if in the morning I make arrangements for a feast and invite my friends as well as the parents and relatives of the four daughters-in-law. Offer them food and due honour. After the feast, I give five grains of rice each to the four daughters-in-law in order to test their wisdom. This way I will know which one takes what care of those grains.” पुत्र-वधू परीक्षा सूत्र ४. एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्हं सुण्हाणं कुलवरवग्गं आमतेइ, आमंतित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ। तओ पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए मित्त-णाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणेणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमसाइमं आसादेमाणे जाव सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-णाइनियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेठं सुण्हं उज्झिइयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"तुमं णं पुत्ता ! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, गेण्हित्ता अणुपुवेणं सारक्खेमाणी संगोमाणी विहराहि। जया णं अहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए RE.SINHAKAnestNNERDREAM CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (293) Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र HTRA a LA HOME AR जाएज्जा, तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्झाएज्जासि" त्ति कटु सुण्हाए हत्थे दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ। सूत्र ४. दूसरे दिन अपनी योजनानुसार उसने अपने स्वजनों तथा चारों पुत्र-वधुओं के पीहर वालों को आमंत्रित किया और भोज-सामग्री तैयार करवाई। ___ तब धन्य सार्थवाह स्नानादि कर भोजन मंडप में अच्छे आसन पर बैठा और उसने सब अतिथियों के साथ सुखपूर्वक भोजन किया। अतिथियों का पुष्प-गंधादि से यथोचित सम्मान करने के बाद उनके सामने ही हाथ में चावल के पाँच दाने लिये और बड़ी पुत्र-वधू उज्झिका को बुलाकर कहा-“हे पुत्री ! तुम मेरे हाथ से ये पाँच चावल के दाने ले लो और इनको पूरी सार-सँभाल से अपने पास रखो। भविष्य में जब भी मैं ये पाँच दाने माँगें तब मुझे यही पाँच दाने वापस लौटाना।" यह कहकर उसने वे दाने उज्झिका के हाथ में दिये और उसे विदा कर दिया। TESTING THE DAUGHTERS-IN-LAW 4. Next day as per his plan he made arrangements for the feast and invited his friends as well as the parents and relatives of the four daughters-in-law. Dhanya Merchant got ready after taking his bath, came and took a seat at an appropriate place in the pavilion prepared for the feast. He enjoyed the food with his guests and then, honoured them with flowers, perfumes, etc. He then took five grains of rice in his hand, called the eldest daughter-in-law and said, “Daughter! Take these five grains of rice and keep them with you taking all possible care. In future when I ask for these, you should return me the very same five grains.” He handed over those five grains and told her to go. सूत्र ५. तए णं सा उज्झिया धण्णस्स तह ति एयमढें पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जेत्था-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि" ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए एगंते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था। Biha (294) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 Hote Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र RAILO चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED योग्यता की परीक्षा चित्र : १८ गजगृह निवासी धन नामक सार्थवाह ने पुत्रवधुओं को घर की जिम्मेदारी सौंपने के लिए उनकी योग्यता की परीक्षा लेने का एक आयोजन किया। धनपाल आदि चारों पुत्रों व स्वजन मित्रों के समक्ष चारों पुत्रवधुओं को पाँच-पाँच शालिकण (धान के दाने) सौंपते हुए सेठ ने कहा-जब मैं माँयूँ तब मुझे ये कण वापस दे देना। चारों पुत्रवधुओं के क्रमशः नाम हैं-१, उज्झिया, २. भोगवती, ३. रक्षिता और ४ रोहिणी। सर्व प्रथम बड़ी बहू दाने ले रही है। (अध्ययन ७) TEST OF ABILITIES ILLUSTRATION : 18 In Rajagriha, Dhanya Merchant made a plan to test the wisdom of his daughters-in-law in order to entrust them with various duties of the household. In presence of his four sons including Dhanpal, and friends and relatives he gave five grains of rice to each daughter-in-law for safe keeping and returning back when desired. The names of his daughters-in-law were-Ujjhika, Bhogvati, Rakshika, and Rohini respectively. First of all Ujjhika is taking the grains. (CHAPTER-7) BEREDO प्राणायाम PALI - - JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ZINDEC सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात सूत्र ५. उज्झिका ने धन्य सार्थवाह के आदेश को 'जो आज्ञा' कहकर स्वीकार किया, उसके हाथ से पाँच दाने चावल लिये और वहाँ से चली गयी। अकेली होने पर उसने मन ही मन सोचा - " पिताजी के भण्डार में चावलों के अनेक पल्य हैं ( साढ़े तीन मन ) । जब भी वे मुझसे ये पाँच दाने माँगेंगे मैं किसी भी ढेर में से पाँच दाने लेकर उन्हें दे दूँगी।" यह सोचकर उसने वे पाँच दाने एक ओर फेंक दिये और अपने काम में लग गई। 5. Ujjhika accepted the instructions saying, “ As you say, father. " Taking the grains from Dhanya Merchant's hand she left. When she was alone she thought, "There are many Palyas (one and a half quintal approx.) of rice in papa's godown. Whenever he asks these grains back I will collect five grains from any of those heaps of rice and give him back." She threw away those five grains and resumed her routine work. ( २९५ ) सूत्र ६. एवं भोगवइयाए वि, णवरं सा छोल्लेइ, छोल्लित्ता अणुगिलइ, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया । एवं रक्खिया वि, णवरं गेहइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाइ चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सद्दावेत्ता एवं वयासी - " तुमं णं पुत्ता ! मम हत्थाओ जाव पडिनिज्जारज्जासि" त्ति कट्टु मम हत्थंसि पंच- सालिअक्खए दलयइ, तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेइ, ठावित्ता तिसंझ पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहर। सूत्र ६. इसी प्रकार धन्य ने दूसरी पुत्र- वधू भोगवती को बुलाकर पाँच दाने चावल के दिये। उसके मन में भी वैसे ही विचार उठे पर वह दानों को फेंकने के स्थान पर उन्हें निगल गई और अपने काम में लग गई। तीसरी पुत्र-वधू रक्षिका के मन में विचार उठा - " मेरे स्वसुर ने स्वजनों और सम्बन्धियों के सामने बुलाकर ये दाने दिये हैं और इनकी रक्षा करने को कहा है। अवश्य ही इसमें कोई महत् कारण होगा।" यह सोचकर उसने उन पाँच दानों को साफ कपड़े में बाँधा और अपने गहनों के डिब्बे में रख उस डिब्बे को बिस्तर के सिराहने रख दिया। सुबह-दोपहर-शाम वह उनकी सार-सँभाल करने लगी । 6. Similarly Dhanya Merchant called the second daughter-in-law, Bhogvati and gave her five grains of rice. She also had almost the same thoughts as the first one. However, instead of throwing the grains she swallowed them and resumed her work. CHAPTER-7: ROHINI JNATA For Private Personal Use Only ( 295 ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TREAT ORDRO ( २९६ ) The third daughter-in-law, Rakshika, thought, “My father-in-law has called me and given these grains in front of friends and relatives and asked me to protect them. There must be some specific and important reason for this." Accordingly she tied the grains in a clean piece of cloth, put the packet carefully in her jewellery box and placed it near the pillow on her bed. She made it a habit to watch the packet every morning, afternoon, and evening. दूरदर्शी रोहिणी सूत्र ७. तए णं से धण्णे सत्थवाहे तस्सेव मित्त. जाव चउत्थिं रोहिणीयं सुण्हं सद्दावेइ । सद्दावेत्ता जाव "तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं, तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवडेमाणीए " त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कुलधरपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र "तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एए पंच सालिअक्खए गेहह, गेण्हित्ता पढमपाउसंसि महावुट्ठिकार्यसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह । करित्ता इमे पंच सालि अक्खए वावेह । वावेत्ता दोच्चं पि तच्वंपि उक्खयनिक्खए करेह, करेत्ता वाडिपरिक्खेवं करेह, करिता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा अणुपुव्वेणं संवढेह | " सूत्र ७. धन्य सार्थवाह ने अन्त में चौथी पुत्र वधू रोहिणी को बुलाया और उसी प्रकार पाँच दाने चावल दिये। रोहिणी ने विचार किया - "इस प्रकार पाँच दाने देने के पीछे कोई रहस्य होना चाहिए। अतः मुझे चाहिए कि मैं इनका संरक्षण और संगोपन ही नहीं, संवर्धन भी करूँ।" यह सोचकर उसने अपने पीहर वालों को बुलाया और कहा “देवानुप्रियो ! तुम ये पाँच चावल के दाने लो। वर्षा ऋतु आरंभ होने पर जब प्रचुर वर्षा हो तब एक छोटी-सी साफ क्यारी में ये पाँच दाने बो देना। फिर पौध को तीन-चार बार स्थान बदलकर रोप देना । क्यारी के चारों तरफ बाड़ लगा देना। इस प्रकार रक्षा करते हुए क्रमशः इन्हें बढ़ाना।" FAR-SIGHTED ROHINI 7. In the end Dhanya Merchant called his fourth daughter-in-law, Rohini, and gave her five grains of rice. Rohini thought, “There must be some secret behind this act of giving rice grains. As such, I should not only hide and protect them but also multiply them. Accordingly she called her maternal people and said (296) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only CANCELEDR Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ How TOS SS Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ams ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED अपनी-अपनी समझ चित्र : १९ उज्झिया ने दाने लेकर सोचा-मेरे धान्य भण्डार में तो सैकड़ों मन धान पड़ा है, इन्हें सँभाल कर क्या करना है। ससुर जी जब भी माँगेंगे निकालकर लाकर सौंप दूंगी। यह सोच वह दाने घर के बाहर फेंक देती है। दूसरी ने-इसे ससुर के हाथ का प्रसाद समझकर दाने छील कर खा लिए। तीसरी रक्षिता ने सोचा-मेरे पूज्य ससुर जी ने मित्र ज्ञातिजनों के समक्ष मुझे ये दाने सौंपे हैं तो इनकी रक्षा करनी चाहिए। उसने स्वच्छ वस्त्र में लपेटकर गहनों की मंजूषा में सुरक्षित रख दिया। चौथी रोहिणी के मन में उनकी वृद्धि करने की योजना बनी। उसने अपने सेवक को बुलाकर कहा-ये पाँच शालिकण मेरे पीहर ले जाकर भाईयों को दो, और कहो, इनकी अलग खेती करें और उनकी फसल को निरन्तर बढ़ाते रहे। (अध्ययन ७) INDIVIDUAL CAPACITIES ILLUSTRATION : 19 Ujjhika took the grains and went inside. Thinking that as there are heaps of rice lying in the family godown, whenever father asks I will collect five grains and give him back, she threw away those five grains. Bhogvati considering it to be a gift from the father-in-law peeled and swallowed the grains. Rakshika thought that there must be some secret purpose for such instructions. Accordingly she wrapped the grains and put the packet inside her jewelry box. The fourth one, Rohini, called her maternal people and asked them to sow the grains in a separate plot. As long as she did not ask for they were to sow the yield again and again and multiply the produce. (CHAPTER-7) CO JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( २९७) CO । "Beloved of gods! Take these five grains of rice. When the monsoon season starts and there is plenty of rain, sow these in a small and clean furrow. At right time replant the sprouts. Raise a protective fence around the plot. This way let them grow, providing all care and protection." सूत्र ८. तए णं ते कोडुबिया रोहिणीए एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते पंच सालिअखए गेण्हंति, गेण्हित्ता अणुपुव्वेणं संरक्खंति, संगोवंति विहरति। ___ तए णं ते कोडुबिया पढमपाउसंसि महावुडिकायंसि णिवइयंसि समाणंसि खुड्डायं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, करित्ता ते पंच सालिअक्खए वयंति, ववित्ता दोच्चं पि तच्चं पि उक्खयनिक्खए करेंति, करित्ता वाडिपरिक्खेवं करेंति, करित्ता अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवड्डेमाणा विहरंति। सूत्र ८. रोहिणी के पीहर वाले उसके अनुरोध के अनुसार उन पाँच दानों को ले गये और सँभालकर रखा। वर्षा ऋतु के आरम्भ में उन्होंने वे दाने एक क्यारी में बो दिये। समयानुसार पौध को स्थानांतरित किया और बाड़ लगाकर उसकी रक्षा का प्रबन्ध किया। 8. At her request the maternal relatives of Rohini took along the grains and kept them safe. When the monsoon season started they sowed these in a small and clean furrow. At right time they replanted the sprouts and raised a protective fence around the plot. सूत्र ९. तए णं ते सालिअक्खए अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवड्डिज्जमाणा साली जाया, किण्हा किण्होभासा जाव निउरंबभूया पासादीया दंसणीया अभिरुवा पडिरूवा। तए णं ते साली पत्तिया वत्तिया गब्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरियपव्वकंडा जाया यावि होत्था। तए णं ते कोडुंबिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्ता तिक्खेहि णवपज्जणएहिं असियएहिं लुणेति। लुणित्ता करयलमलिए करेंति, करित्ता पुणंति, तत्थ णं चोक्खाणं सूयाणं अखंडाणं अफोडियाणं छड्डछड्डापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए। सूत्र ९. समय पर वे चावल के पौधे बढ़ गये और गहरे रंग की कान्ति बिखेरने लगे। पौधों का वह झुण्ड दर्शनीय और प्रसन्नतादायक हो गया। समय के साथ वे पौधे पल्लवित हुए, भरे-भरे दिखने लगे, उनमें मंजरियाँ निकलीं और उनकी सुगन्ध चारों ओर फैलने लगी। मंजरियाँ गर्भित हो गई और तब उनमें अन्न के दाने पनपे और पककर तैयार हो - - Tya CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (297) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) TRAr> aya ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORG SOHAR Tws गये। इसके बाद जब पत्ते सूखे तो वे सलाई के आकार के हो नीचे लटकने लगे और कुछ पत्ते झड़ने भी लगे। फलियाँ पककर पीली पड़ गईं। जब मजदूरों ने देखा कि फसल पककर तैयार हो गई है तो उन्होंने तेज और नई धार किये हँसियों से फलियों को काट लिया। काटी हुई सूखी फलियों को हाथ से मसलकर धान को फली से अलग किया। सूप से फटक-फटककर धान के साबूत दाने अलग किये गये। इनका भार एक प्रस्थक था (मगध देश का तत्कालीन माप)। 9. At the proper time the rice plants grew high and displayed a rich green hue. That little bunch of plants was beautiful and satisfying. With time these plants furthered and looked full. Slowly appeared the buds and flowers and a fragrance spread all around. The flowers got pollinated and the seed pods appeared. As the seeds matured the leaves started turning yellow. Some of the leaves looked like straw, some wilted, and others dropped. Finally the pods became ripe and yellow. When the workers saw that the crop is ready they harvested it with sharp and freshly honed scythes. They threshed these stalks with hands and then winnowed the grains. The weight of these grains was one Prasthak (a measure of weight in ancient Magadh, a state in eastern India). अक्षत संवर्धन सूत्र १0. तए णं ते कोडुंबिया ते साली नवएसु घडएसु पक्खिवंति, पक्खिवित्ता उवलिंपति, उवलिंपित्ता लंछियमुद्दिए करेंति, करित्ता कोट्ठागारस्स एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरति।। तए णं ते कोडुबिया दोच्चम्मि वासारत्तंसि पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, करित्ता ते साली ववंति, दोच्चं पि तच्चं पि उक्खयनिक्खए जाव लुणेति जाव चलणतलमलिए करेंति, करित्ता पुणंति, तत्थ णं सालीणं बहवे कुडए जाए। जाव एगदेसंसि ठावेंति, ठावित्ता सारखेमाणा संगोवेमाणा विहरंति। सूत्र १०. इन नये चावलों को एक घड़े में भर दिया गया और उसके मुँह को बंदकर मिट्टी से लीप दिया गया। इस घड़े पर मोहर लगाकर भंडार में एक ओर सुरक्षित रख दिया गया। BEDI (298) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( २९९) opan INDOM उन खेतिहारों ने अगली वर्षा ऋतु में तेज वर्षा होने पर इस घड़े के चावलों को निकाला और पुनः बुवाई कर दी। इस बार फसल पकने पर अनेक कुडव (एक माप) चावल हो गये जिन्हें संरक्षणादि का प्रबन्ध कर भंडार के एक भाग में रख दिया गया। THE RICE MULTIPLIED 10. These fresh grains were filled in a pitcher and its mouth was closed and sealed with mud. This pitcher was marked and stored in the godown. When the next sowing season came and it rained, the farm-hands took out those same grains from the pitcher and sowed them again. This time, after the harvest, the yield was many Kudavs (a weight measure). This rice was also similarly stored in safety. सूत्र ११. तए णं ते कोडुबिया तच्चसि वासारत्तंसि महावुट्टिकायंसि बहवे केयारे सुपरिकम्मिए करेंति, जाव लुणेति, लुणित्ता संवहंति, संवहित्ता खलयं करेंति, करित्ता मलेंति, जाव बहवे कुंभा जाया। तए णं ते कोडुंबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति, जाव विहरंति। चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया। __सूत्र ११. तीसरी वर्षा ऋतु में इसी प्रकार फिर फसल बोने पर चावल की मात्रा कुछ कुम्भ (एक माप) हो गई। चौथी वर्षा ऋतु में वही बढ़कर सैकड़ों कुम्भ प्रमाण चावल हो गये। 11. In the third season the seeds were again sowed and this time the yield was a few Kumbhs (a large measure of weight). After the fourth sowing the total quantity of rice became hundreds of Kumbhs. परीक्षा परिणाम __ सूत्र १२. तए णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु मम इओ अईए पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच सालिअक्खया हत्थे दिन्ना, तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए। जाव जाणामि लाव काए किहं सारक्खिया वा संगोविया वा संवदिया वा ? जाव ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ. चउण्ह य CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (299) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३००) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अगता Page ra BCHIDAR nep सुण्हाणं कुलघरवग्गं जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्तणाइ. चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेटं उज्झियं सद्दावेइ। सद्दावित्ता एवं वयासी सूत्र १२. जब पाँचवाँ वर्ष चल रहा था तब धन्य सार्थवाह को एक दिन अर्द्ध-रात्रि के समय मन में विचार उठा-“पाँच वर्ष पहले चारों पुत्र-वधुओं को मैंने पाँच-पाँच दाने चावल के उनकी परीक्षा लेने हेतु दिये थे। अच्छा होगा कि कल सुबह उनसे वे पाँच-पाँच दाने वापस माँगूं और देखू कि किसने, किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किया है ?" दूसरे दिन उसने पूर्ववत् भोज का प्रबन्ध किया और स्वजनों तथा पुत्र-वधुओं के पीहर वालों को निमन्त्रण दिया। भोज के बाद सब अतिथियों के सामने उसने सबसे पहले ज्येष्ठ पुत्र-वधू को बुलाकर कहाRESULT OF THE TEST 12. When the fifth year after the giving of the rice grains was running, one day at midnight Dhanya Merchant thought, “Five years earlier I had given five grains of rice each to my four daughters-in-law to test their virtues. Tomorrow morning I should ask them to return those grains and see how have they stored, preserved, or multiplied them?" Next day he made arrangements for a feast, as he had done earlier, and invited his friends as well as the parents and relatives of the four daughters-in-law. After the feast and in presence of all the guests he called the eldest daughter-in-law and said, सूत्र १३. “एवं खलु अहं पुत्ता ! इओ अईए पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्तणाइ. चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि, जया णं अहं पुत्ता ! एए पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि ति कट्ठ तं हत्थंसि दलयामि, ते नूणं पुत्ता ! अढे समढे ?" "हंता, अत्थि।" "तं णं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएहि।" सूत्र १३. “हे पुत्री ! आज से पाँच वर्ष पूर्व इन्हीं स्वजनों के सामने मैंने तुम्हें पाँच चावल दिये थे और कहा था कि जब मैं ये पाँच दाने माँगें तब तुम उन्हें मुझे वापस देना। मैं ठीक कह रहा हूँ ?" उज्झिका-"जी हाँ, आप ठीक कह रहे हैं।" धन्य-"तो हे पुत्री ! मेरे वह चावल वापस दो।" Bali - ॥ (300) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( ३०१) - 13. “Daughter! Five years back, in presence of these same guests, I had given you five grains of rice with instructions that when I demand you should return those to me. Am I correct?" "Yes, Papa, you are absolutely correct." “So, daughter, I want those grains back." उज्झिका : बाह्य सेविका __ सूत्र १४. तए णं सा उज्झिया एयमढें धण्णस्स सत्थवाहस्स पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पल्लाओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“एए णं ते पंच सालिअक्खए" त्ति कट्ट, धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयइ। __ तए णं धण्णे सत्थवाहे उज्झियं सवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-"किं णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ?' सूत्र १४. उज्झिका ने धन्य सार्थवाह की बात सुनी और भण्डार-गृह में गई। वहाँ ढेर से पाँच दाने चावल के उठाये और धन्य सार्थवाह के पास आकर बोली-“ये लीजिये चावल के वे पाँच दाने।" और उसने वे दाने धन्य के हाथ में रख दिये। धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को शपथ दिलाकर पूछा-“पुत्री ! ये वही पाँच दाने हैं अथवा दूसरे ?" UJJHIKA : THE OUTER SERVANT 14. Ujjhika at once went into the store room, picked up five grains of rice, returned to Dhanya Merchant and said, "Here are those five grains of rice." She handed over the grains to Dhanya Merchant. ___Dhanya Merchant asked her on oath, “Daughter! these are the very same grains or some other?" सूत्र १५. तए णं उज्झिया धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“एवं खलु तुब्भे ताओ ! इओ अईए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तणाइ. चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स जाव विहराहि। तए णं अहं तुब्भं एयमटुं पडिसुणेमि। पडिसुणित्ता ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि, एगंतमवक्कमामि। तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि. सकम्मसंजुत्ता। तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अन्ने।" - CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (301) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र yo सूत्र १५. उज्झिका ने उत्तर दिया-“हे तात ! आपने पाँच वर्ष पहले इन्हीं लोगों के सामने पाँच दाने देकर कहा था कि इनका संरक्षण, संगोपन व संवर्धन करना। मैंने आपकी बात मानकर पाँच दाने लिये और एकान्त में जाकर विचार किया कि आपके भण्डार में ढेर सारे चावल भरे हैं, जब चाहे तब उनमें से दे दूंगी और मैंने वे दाने फेंक दिये। अतः हे तात ! ये दूसरे दाने हैं, वे नहीं।" ____15. Ujjhika replied, “Papa! Five years back, in presence of these same guests, you had given me five grains of rice with instructions to store, preserve, and multiply them. I heard your instructions and took the grains and when I was alone I thought that your godown is full of grains, whenever you demand I shall take out five grains from the godown and give them back to you. As such, I threw away the five grains you gave. So, Papa, these are other grains not the original ones.” सूत्र १६. तए णं से धण्णे उज्झियाए अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झिइयं तस्स मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंध-परियणस्स चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जिअं च पाउवदाइयं च ण्हाणावदाइयं च बाहिरपेसणकारिं च ठवेइ। __सूत्र १६. उज्झिका की यह बात सुनकर धन्य सार्थवाह क्रुद्ध हो गये और तिलमिला उठे। उन्होंने उज्झिका को उन सभी स्वजनों के सामने कुल-गृह की राख फेंकने वाली, उपले थापने वाली, झाडू लगाने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिये पानी देने वाली तथा अन्य ऊपर के दासी योग्य कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया। ___16. Hearing all this Dhanya Merchant lost his temper. In presence of all those guests he appointed Ujjhika as house-hold in-charge of deprecatory duties like throwing ash, preparing cow-dung cakes, sweeping and cleaning the house, arranging for water to wash and bathe and other such manual work. सूत्र १७. एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए पंच य से महव्वयाई उज्झियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुपरियट्टिस्सइ। जहा सा उज्झिया। सूत्र १७. इसी प्रकार हे आयुष्मानो ! जो साधु-साध्वी दीक्षा लेकर पाँच महाव्रतरूपी अक्षत के दानों को फेंक देता है वह उज्झिका के समान इस भव में चतुर्विध संघ की अवहेलना का पात्र बनता है और संसार चक्र में घूमता रहता है। (302) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ONO 100030 95 ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED उपयोग का अनुसंधान चित्र : २० पाँचवें वर्ष धन सार्थवाह ने पुनः वैसा ही विशाल आयोजन कर बहुओं को बुलाया और पाँच दाने वापस माँगे । उझिया ने दाने लाकर दिये । सेठ ने पूछा- क्या ये वही दाने हैं ? क्षमा माँगते हुए उज्झिया बोली - तात ! वे दाने तो मैंने फेंक दिये थे। ये तो घर के भण्डार से लाई हूँ । इसी प्रकार भोगवती ने खा लेने की बात स्वीकारी। रक्षिता ने अपनी मंजूषा खोलकर वे ही पाँचों दाने सुरक्षित सौंप दिये। सबसे छोटी रोहिणी से पूछने पर उसने कुछ समय माँगा। थोड़े दिन बाद पीहर से धान की गाड़ियाँ भरी हुई आईं। सेठ ने आश्चर्यपूर्वक पूछा- यह क्या है? रोहिणी ने बताया - यह सब उन पाँच दानों से उत्पन्न धान है। मैंने उनकी अलग से खेती करवाई और ये निरन्तर बढ़ते-बढ़ते आज हजारों मन हो गये। EVALUATION OF ATTITUDE ILLUSTRATION: 20 At the end of five years the merchant made elaborate arrangements and, as before, invited his friends and relatives. He called the daughters-in-law and asked them to return the grains. When Ujjhika returned the grains the merchant asked if they were the very same. Begging pardon, she said that she had thrown the original ones. Similarly Bhogvati informed that she had swallowed the grains and Rakshika returned the original grains intact. Rohini wanted some time. Later hundreds of tons of rice in cart loads arrived at the merchants place. On expressing his astonishment Rohini informed him that this was the produce of the rotated sowing of the very same five grains she arranged with the help of her maternal relatives. VERSE (अध्ययन ७) INATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only (CHAPTER-7) Que Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( ३०३) ल -- --- - SANDNA a 17. Long-lived Shramans! The same way those of our ascetics who, after getting initiated, throw away the grains of five great vows become the objects of criticism, public contempt, hatred and disrespect in this life. Besides this they also suffer misery in the next life and are caught in the cycle of rebirth indefinitely. भोगवतीः गृह-सेविका सूत्र १८. एवं भोगवइया वि नवरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं कोट्टतियं पीसंतियं च एवं रुंधतियं च रंधतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभितरियं पेसणकारि महाणसिणिं ठवेइ। सूत्र १८. पहली पुत्र-वधू के समान दूसरी पुत्र-वधू को भी उसी प्रकार प्रश्न किया गया। उसने दाने फेंके नहीं, खा लिये थे अतः धन्य सेठ ने उसे दलने, कूटने, पीसने, फटकने, पकाने, परोसने, पर्व-प्रसंगों पर भोज्य सामग्री वितरण करने, घर के भीतर के काम करने, रसोई का काम करने आदि पर नियुक्त कर दिया। BHOGVATI: THE COOK 18. The second daughter-in-law was also asked the same question. As she had swallowed the grains Dhanya Merchant appointed her as in-charge of household duties connected with preparing food including grinding, beating, cleaning, and other such processes for preparing grains, cooking and serving food, distributing food on festive occasions as well as other works of kitchen and living area. सूत्र १९. एवामेव समणाउसो ! जो अहं समणो वा समणी वा पंच य से महव्वयाई फोडियाई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं जाव हीलणिज्जे, जहा व सा भोगवइया। सूत्र १९. हे आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार हमारे जो साधु-साध्वी पाँच महाव्रतरूपी चावल के दानों का खंडन करता है वह भोगवती के समान चतुर्विध संघ की अवहेलना का पात्र बनता है और संसार चक्र में भटकता रहता है। ___19. Long-lived Shramans! The same way those of our ascetics who, after getting initiated, break the grains of five great vows become the objects of criticism, public contempt, hatred and disrespect in this life. Besides this they also suffer misery in the next life and are caught in the cycle of rebirth indefinitely. NDTACTR - (UTRA HE CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (303) SI Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (308) रक्षकाः गृह-संरक्षिका सूत्र २०. एवं रक्खिया वि। नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता मंजू विहाडे, विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलय | सूत्र २०. धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से जब उसी प्रकार प्रश्न किया तो वह अपने कमरे में गई और गहनों की पेटी खोल उसमें सँभालकर रखे पाँचों दाने निकाले । धन्य सार्थवाह के पास आकर उसने वे दाने उसके हाथ में रख दिये। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र RAKSHIKA: THE PROTECTOR 20. When Dhanya Merchant asked the same question to Rakshika, she went into her room and took out the five grains kept safely in her jewellery box. She returned to Dhanya Merchant and put the grains in his hand. सूत्र २१. तए णं से धण्णे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी - " किं णं पुत्ता ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, उदाहु अण्णे ? " त्ति । तए णं रक्खिया धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी - " ते चेव ताया ! एए पंच सालि अक्खया, णो अन्ने।" "कहं णं पुत्ता ?" "एवं खलु ताओ ! तुब्भे इओ पंचमम्मि संवच्छरे जाव भवियव्वं एत्थ कारणेणं ति कट्टु ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी यावि विहरामि । तओ एए णं कारणं ताओ ! ते चेव एए पंच सालिअक्खए, णो अन्ने । " तणं से धणे सत्थवाहे रक्खियाए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा हट्टतुट्ठे कुलघरस्स हिरन्नस्स य कंस-दूस - विपुलधण जाव सावतेज्जस्स य भंडागारिणिं ठवे । सूत्र २१. धन्य सार्थवाह ने पूछा - "पुत्री ! क्या ये वही पाँच दाने हैं ?" रक्षिका - "जी हाँ, तात ! ये वही पाँचों दाने हैं, दूसरे नहीं । " धन्य - "वह कैसे ?" रक्षिका - "तात ! पाँच वर्ष पूर्व जब आपने ये पाँच दाने दिये थे तब मैंने विचार किया कि इसमें सममुच ही कोई विशेष कारण होना चाहिये। इसलिये मैंने इन्हें शुद्ध वस्त्र में ( 304 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only ONIO Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sad PARSNOVAN 21 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत a 06 AINION DOENCHEN READERSHIRAMMAnorammar mon चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED - -- योग्यता के अनुसार उत्तरदायित्व चित्र : २१ धन सार्थवाह ने उज्झिया के हाथ में झाडू सौंपते हुए कहा-पुत्री ! तुम फेंकने में चतुर हो। घर का कूड़ा-कचरा बाहर फेंक कर सफाई की जिम्मेदारी तुम पर है। ___ भोगवती को भोजन बनाने का कार्य सौंपते हुए सेट ने कहा-खाने और चखने में तुम होशियार हो। तीसरी रक्षिता को घर के भण्डारों की चाबी सौंपते हुए कहा-तुम प्रत्येक वस्तु को सँभालकर सुरक्षित रख सकती हो, अतः रखवाली का दायित्व तुम्हारा है। ___ सबसे छोटी रोहिणी को परिवार का नेतृत्व सौंपते हुए ससुर ने आशीर्वाद दिया-परिवार की चतुर्मुखी वृद्धि करने की योग्यता तुम में हैं। इस कुटुम्ब की वृद्धि का साग दायित्व तुम पर है। (अध्ययन ७) -- - DUTY ACCORDING TO ABILITY - ILLUSTRATION: 21 Dhanya merchant gave a broom to Ujjhika and said-Daughter! you are adept at throwing things, as such, you are given the responsibility of cleaning the household by throwing the dirt and trash out. As she was fond of eating, Bhogvati was given the responsibility of the kitchen. Handing over all the keys to Rakshika Dhanya said-- You have the capacity to keep things properly and protect them. As such, you are given the responsibility of safe keeping and protection of everything in the household. Giving the overall responsibility of the household to Rohini, the merchant said--- You have the ability to lead the family on the way to progress and all-round development. As such you are appointed the head of the fainily. DI | (CHAPTER-7) A OME JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( ३०५) ago O Ahim QCHAINA बाँधा और तब से तीनों संध्याओं के समय नित्य इनकी सार-सँभाल करती रही। अतः ये वही दाने हैं, अन्य नहीं।" धन्य सार्थवाह यह सुनकर प्रसन्न हुआ। उसने रक्षिता को अपने घर के सोना व गहने, काँसा आदि के बर्तन, मूल्यवान वस्त्र, विपुल धन-धान्य आदि सम्पत्ति की भाण्डागारिणी (भंडारिनी) के रूप में नियुक्त कर दिया। 21. Dhanya Merchant asked her, “Daughter! Are these the very same grains ?" Rakshika, “Yes, father! these are the very same grains." Dhanya Merchant, “How so?" Rakshika, “Papa! Five years back when you gave me these grains I thought there must be some secret purpose behind this. As such, I tied the grains in a clean piece of cloth, put the packet carefully in my jewellery box and placed it near the pillow on my bed. Since then I have been watching the packet every morning, afternoon and evening. Thus, these are the very same grains you gave me, not any other." Dhanya Merchant was pleased to hear this. He appointed Rakshika as the in-charge of all the valuables of the household including gold, ornaments, metal utensils, costly dresses, cash, grains and other property. __ सूत्र २२. एवामेव समणाउसो ! जाव पंच य से महब्बयाई रक्खियाइं भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, जहा जाव से रक्खिया। सूत्र २२. हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार जो साधु-साध्वी पाँच महाव्रत रूप दानों की रक्षा करता है वह रक्षिका के समान चतुर्विध संघ द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय आदि होता है। 22. Long lived Shramans ! The same way those of our ascetics who; after getting initiated, protect the five grains of great-vows become objects of reverence, worship, and respect for the four fold religious organization. CHAPTER-T: ROHINI INATA (305) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E ( ३०६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - - - रोहिणीः मुखिया सत्र २३. रोहिणिया वि एवं चेव। नवरं-"तुब्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि, जेण अहं तुब्भं ते पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएमि।" तए णं से धण्णे सत्थवाहे रोहिणिं एवं वयासी-“कहं णं तुम मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइस्ससि ?" ___ तए णं सा रोहिणी धण्णं एवं वयासी-“एवं खलु ताओ ! इओ तुब्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया, तेणेव कमेणं। एवं खलु ताओ। तुब्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि।" सूत्र २३. इसी तरह जब धन्य सार्थवाह ने रोहिणी से पाँच दाने माँगे तो उसने कहा"तात ! आप मुझे बहुत से गाड़े-गाड़ियाँ दीजिये जिससे मैं आपके वे पाँच दाने लौटा सकूँ।" धन्य-“पुत्री ! तुम वे पाँच दाने चावल गाड़े-गाड़ियों में भरकर कैसे दोगी ?" रोहिणी-"तात ! जो पाँच दाने आपने पाँच वर्ष पूर्व मुझे दिये थे वे अब सैकड़ों घड़ों में आवें इतने हो गये हैं।" उसने उन दानों की बुवाई आदि का वर्णन विस्तार से बताया (पूर्व सम) और कहा-“अतः हे तात ! मैं आपके वे पाँच दाने अब गाड़े-गाड़ियों में भरकर लौटा रही हूँ।" ROHINI: THE CHIEF 23. Similarly when Dhanya Merchant asked for five grains from Rohini, she replied, "Papa! Please arrange for numerous carts and trucks so that I may return your five grains of rice." ____Dhanya Merchant, “Daughter! Why do you need carts and trucks to fill those five grains?" Rohini, “Papa! The five grains you had given me five years back have now become enough to fill hundreds of pitchers.” She narrated the details of repeated sowing and harvesting of those five grains (details as before), and added, “This is how I am returning your five grains in carts and trucks." सूत्र २४. तए णं से धण्णे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुबहुयं सगडसागडं दलयइ, तए णं रोहिणी सुबहुसगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोट्ठागारे विहाडेइ, विहाडित्ता पल्ले उभिदइ, उभिदित्ता सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता रायगिहं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ। Cro Ouro RDHA RAMONOMICRETAandolasite A n 8AHI (306) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा अध्ययन :रोहिणी ज्ञात (३०७) and MahbuangaPORTAartimeHANDWARANIWARRIAuNou तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नं एवमाइक्खइ-“धन्ने णं देवाणुप्पिया ! धण्णे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणिया सुण्हा, जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिए णं निज्जाइए। सूत्र २४. धन्य सार्थवाह ने बहुत से गाड़े-गाड़ियों का प्रबन्ध कर दिया। रोहिणी उन्हें लेकर अपने पीहर गई और वहाँ भण्डार में जा पल्यों को खोलकर सारा धान गाड़ियों में भर लिया और नगर के बीच से होती हुई वापस अपने घर आई। नगर के मार्गों पर लोग चर्चा करने लगे-“धन्य है धन्य सार्थवाह जिसकी पुत्र-वधू रोहिणी ने पाँच चावलों के दानों को गाड़ियों में भरकर लौटाया है।" 24. Dhanya Merchant arranged for the required carts and trucks. Rohini took them to her parents' house and loaded them with rice stored in godowns. She returned with these cart loads of rice passing through the town. The people on the streets commented. “Blessed is Rohini, the daughter-in-law of Dhanya Merchant, who is returning cart loads of rice for just five grains.” सूत्र २५. तए णं से धण्णे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइए पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे पडिच्छइ। पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसु कज्जेसु य जाव रहस्सेसु य अपुच्छणिज्जं जाव वड्डावियं पमाणभूयं ठावेइ। _सूत्र २५. धन्य सार्थवाह ने प्रसन्न और संतुष्ट हो वह धान स्वीकार किया और अतिथियों के सामने रोहिणी को घर-परिवार के सभी महत-गौण कार्यों की प्रभारी, रहस्यों व समस्याओं में सलाह देने वाली और सभी बातों का अंतिम निर्णय लेने वाली मुखिया के रूप में नियुक्त किया। 25. Dhanya Merchant was pleased and contented to accept the large quantity of grains. In presence of the guests he appointed Rohini as the head of the family and in-charge of all normal and important activities of the household, advisor in all confidential matters and problems, and final authority for taking all important decisions. सूत्र २६. एवामेव समणाउसो ! जाव पंच महव्वया संवड्डिया भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया। ANDIma DATA //CHAPTER-T: ROHINI INATA 13070 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) सूत्र २६. हे आयुष्मान् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी दीक्षा लेकर पाँच महाव्रतरूपी कणों में वृद्धि करते हैं वे इस भव में रोहिणी के समान चतुर्विध संघ द्वारा पूजे जाते हैं और अंततः संसार चक्र से मुक्त हो जाते हैं। 26. Long-lived Shramans! The same way those of our ascetics who, after getting initiated, multiply (enhance the perfection in) the five grains of great vows become objects of reverence for the four-fold religious organisation in this life and finally cross the ocean of rebirth. उपसंहार सूत्र २७. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयम पत्ते त्ति बेमि ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र २७. हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ । CONCLUSION 27. Jambu! This is the text and the meaning of the seventh chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. | सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ सातवाँ अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE SEVENTH CHAPTER || उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की इस सातवीं कथा में विवेकपूर्ण विकास की ओर प्रेरित जीवन पर बल दिया है। पारिवारिक रूपक द्वारा यह इंगित किया है जो साधु अक्षत के पाँच दानों के समान पंच महाव्रतादि का यथाविधि पालन करने के साथ-साथ संयम विकास और विस्तार में जुटा रहता है वह सभी के आदर का पात्र होता है और अन्ततः संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है । किन्तु जो उस संयम को त्याग देता है और व्रतों के विपरीत चलने लगता है वह निन्दा का भागी होता है और अनन्तकाल तक संसार-चक्र में भ्रमण करता रहता है । बीच की दोनों स्थितियाँ उसी क्रम में विकास- ह्रास की कड़ियाँ हैं । (308) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( ३०९) ago इस पारिवारिक बोध कथा से यह तथ्य और भी स्पष्ट होकर उभरता है कि जो नियम अध्यात्म-पथ के लिए श्रेयस्कर हैं वही नियम प्रयोगात्मक दृष्टि-भेद से संसार-पथ के लिए भी श्रेयस्कर होते हैं। स्वस्थ विवेक बुद्धि समान रूप से प्रभावी होती है चाहे व्यक्ति सांसारिक हो अथवा आध्यात्मिक। | उपनय गाथा जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह णाइजणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई।।१।। जह सा उल्झियणामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसण-गारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया॥२॥ तह भव्वो जो कोई, संघसमक्खं गुरुविदिण्णाई। पडिवज्जिउं समुज्झइ, महव्वयाइं महामोहा॥३॥ सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कारभायणं होइ। परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीसु संचरइ॥४॥ जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारितणेण पत्ता दुहं चेव।।५।। तह जो महब्बयाई उवभंजुइ जीवियति पालितो। आहाराइसु · सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए।॥६॥ सो इत्य जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिंगित्ति। विउसाण नाइपुज्जो परलोयम्मि दुही चेव।।७।। जइ व रक्खिय बहुया, रखियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाइं च संपत्ता।।८॥ तह जो जीवो सम्म पडिवज्जिज्जा महव्वए पंच। पालेइ निरइयारे, पमायलेसंपि वज्जेंतो।।९।। सो अप्पहिएक्करई, इहलोयंमि वि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खं पि पावेइ।।१०॥ जह रोहिणी उ सुण्हा, रोवियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्ढित्ता सालिकणे पत्ता सव्वस्स सामित।।११।। तह सो भव्यो पाविय वयाई पालेइ अप्पणा सम्म। अन्नेसि पि भव्वाणं देइ अणेगेसिं हियहेऊं।।१२।। CO (EAS AS CHAPTER-7 : ROHINI JNATA (309) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र y ACHARYA Gram सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणेत्ति लहइ संसद्द। अप्प-परेसिं कल्लाणकारओ गोयमपहुव्व।।१३॥ तित्थस्स वढिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं। विउस-नर-सेविय-कमो, कमेण सिद्धिं पि पावेइ॥१४॥ श्रेष्ठी (धन्य सार्थवाह) के स्थान पर गुरु, ज्ञातिजनों के स्थान पर श्रमणसंघ, बहुओं के स्थान पर भव्य प्राणी और शालिकणों के स्थान पर महाव्रत समझने चाहिए।१। जैसे उज्झिता बहू यथार्थ नाम वाली थी और शालि के दानों को फेंक देने के कारण घर के दासी का कार्य करने से दुःखों को प्राप्त हुई।२। । वैसे ही जो भव्य जीव, गुरु द्वारा प्रदत्त पंच महाव्रतों को संघ के समक्ष स्वीकार करके मोह व प्रमाद के वशीभूत होकर त्याग देता है।३। वह इस भव में जनता के तिरस्कार का पात्र होता है और परलोक में भी दुःख से पीड़ित होकर अनेक योनियों में भ्रमण करता है।४। जैसे यथार्थ नाम वाली भोगवती बहू शालिकणों को खा गई, वह भी विशेष प्रकार के दासी-कर्म करने के कारण दुःख को ही प्राप्त हुई।५। __ वैसे ही जो महाव्रतों को आजीविका का साधन मानकर पालन करता है एवं उनका उसी प्रकार से उपयोग करता है, आहारादि में आसक्त होता है और ये महाव्रत मुक्ति के साधन हों, इस भावना से रहित होता है।६। वह केवल साधुलिंगधारी यथेष्ट आहारादि प्राप्त करता है पर विद्वानों का पूजनीय नहीं होता। उसे परलोक में भी दुःख होता है।। ___ जिस प्रकार यथार्थ नामवाली बहू रक्षिता ने शालिकणों की रक्षा की और पारिवारिक जनों में मान्य हुई। उसने भोग-सुखों को भी प्राप्त किया।८। उसी प्रकार जो जीव महाव्रतों को स्वीकार करके लेश मात्र भी प्रमाद नहीं करता हुआ उनका निरतिचार पालन करता है।९। वह एक मात्र आत्महित में आनन्द मानने वाला इस लोक में विद्वानों द्वारा पूजित तथा एकान्त रूप से सुखी होता है। परभव में मोक्ष भी प्राप्त करता है।१०। __ जैसे यथार्थ नाम वाली रोहिणी नामक पुत्रवधू शालि के रोप द्वारा उनकी वृद्धि करके समस्त धन की स्वामिनी बनी।११। उसी प्रकार जो भव्य प्राणी महाव्रतों को प्राप्त करके स्वयं उनका सम्यक् प्रकार से पालन करता है और दूसरे भी भव्य प्राणियों को उनके हित के लिए प्रदान करता है।१२। वह इस भव में गौतमस्वामी के समान संघप्रधान एवं युगप्रधान पदवी को प्राप्त करता है तथा अपना और दूसरों का कल्याण करने वाला होता है।१३। वह तीर्थ का अभ्युदय करने वाला, कुतीर्थियों का निराकरण करने वाला और विद्वानों पूजित होकर क्रमशः सिद्धि को भी प्राप्त करता है।१४। Caro ongo Railon का mmmon ASSES (310) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्ययन : रोहिणी ज्ञात ( 399 ) Am CONCLUSION an This seventh story of Jnata Dharma Katha emphasizes the importance of rational and progressive way of life. The value of sincerely following the code of conduct on the spiritual path has been skillfully presented through a family drama. The ascetics who multiply (enhance the perfection in) the five grains of great vows become objects of reverence for all the ascetics in this life and finally cross the ocean of rebirth. On the other hand the ascetics who throw away (do not observe sincerely) the grains of five great vows become the objects of criticism and contempt and are caught in the cycle of rebirth indefinitely. The other two situations are stages in progressive development. This story clearly reveals that the rules and codes applicable on the spiritual path are also applicable on the mundane path simply with minor variations. A healthy moral attitude has the same importance irrespective of the person being mundane or spiritual. THE MESSAGE The merchant is Guru, guests are the religious organization, the daughters-in-law are the ascetics on the spiritual path, and the five grains of rice are the five great vows. (1) Ujjhika, according to her name, threw away the grains and consequently was put to manual labour suffering misery. (2) Similarly the ascetic who, after taking the five vows before the guru in presence of the organization, abandons the path under the influence of fondness and illusion. (3) becomes object of public contempt during this life, gets trapped in the cycles of rebirth, and suffers misery (4) Bhogvati, according to her name, swallowed the grains and consequently was put to a little respectful manual labour, but still suffering misery. (5) Similarly the ascetic who observes the five great vows considering them to be the means of earning his living and using them for the same purpose, is infected with the craving for food and other ve CHAPTER-7 : ROHINI JNATA ( 311 ) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (392) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Os conveniences, and is devoid of the feeling that the great vows are the means of attaining liberation. (6) is an ascetic in appearance only. He begets only food and not the regard of the learned ones. He also suffers misery in the life beyond. (7) Rakshika, according to her name, protected the grains and was respected by the family members. She also enjoyed the pleasures of life. (8) Similarly, the ascetic who, after taking the five vows, is not even slightly negligent in observing the vows without any transgression. (9) is an ascetic who derives pleasure solely in upliftment of the soul. He is revered by the learned ones and begets extreme joy. In the life beyond he gets liberated. (10) Rohini, according to her name, multiplied the grains by sowing and became the head of the household. (11) Similarly, the ascetic who, after taking the five vows, observes the vows as well as inspires other deserving ones to accept these vows. (12) earns during this life the status of head of the order and the head of the era like Gautam Swami. He becomes the benefactor of the self as well as others. (13) He enlivens the religious organization and subjugates the transgressors. He is revered by the learned ones and in the end attains the status of Siddha. (14) परिशिष्ट कुडव-भार का प्राचीन नाम। दो असई की एक पसई, दो पसई या दो खोबा की एक सेतिका, चार सेतिका का एक कुडव और चार कुडव का एक प्रस्थ होता है। दशकुमारचरित्र के अनुसार एक प्रस्थ चार सेर का होता है। अतः कुडव एक सेर के बराबर होना चाहिए। APPENDIX Kudav-An ancient weight measure popular in Magadh. Two Asai equals one Pasai, two Pasai or two Khova equals one Setika, four Setika equals one Kudav, and four Kudav is one Prasth. According to Dashkumar Charitra one Prasth is equivalent to four seers. Thus one Kudav is equivalent to one seer or about one kilogram. (312) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1030303 आठवाँ अध्ययन : मल्ली : आमुख शीर्षक - मल्ली-उन्नीसवें तीर्थंकर का नाम । यों तो सभी महापुरुषों के जीवन का घटनाक्रम प्रेरक और उद्बोधक घटनाओं से भरा होता है, किन्तु अर्हत् मल्ली की आत्मा की विकास गाथा उन सबमें भी अद्भुत है। भावना में उत्पन्न अंशमात्र दोष भी कर्म-बन्धन का कारण होता है और उसके प्रभाव को भोगे बिना शुद्धतम स्तर की आत्मा का भी निस्तार नहीं । अर्हत् मल्ली का जीवन उस सूक्ष्म स्तर पर हुई अशुद्धि और उसके फल का ज्वलन्त उदाहरण है। इस कारण उनका नाम एक प्रतीक बनकर जैन वाङ्गमय में स्थापित हो गया है। ( ३१३ ) कथासार - महाविदेह क्षेत्र की वीतशोका नगरी के राजा बल थे। उनके पुत्र का नाम महाबल था । एक बार एक स्थविर श्रमण नगरी के बाहर के उद्यान में आये। उनके प्रवचन से प्रभावित हो राजा बल ने महाबल को राज्य सौंप दीक्षा ग्रहण कर ली। महाबल राजा के छह अन्य राजा बाल-मित्र थे। ये सभी सातों मित्र सभी काम एक-दूसरे की सहमति व सहयोग से करते थे। एक बार एक स्थविर श्रमण का उपदेश सुन महाबल के मन में वैराग्य का उदय हुआ। महाबल ने अपने छहों मित्रों से कहा कि वे दीक्षा लेना चाहते हैं। छहों मित्रों ने भी उनके साथ ही दीक्षा लेने का निर्णय लिया। महाबल आदि मित्रों ने अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों का राज्याभिषेक कर दीक्षा ग्रहण कर ली। अपने श्रमण जीवन में साधना करते हुए इन श्रमणों ने परस्पर विमर्श कर यह निश्चय किया कि उनमें से एक जो साधना या तपस्या करेगा शेष सब भी वही साधना करेंगे। साधना के इस काल में महाबल सबसे आगे निकल जाने के लिए गुप्त रूप से अधिक तपस्या करने लगे। अन्य मित्र एक उपवास करते तो वे किसी बहाने से दो उपवास करते। छल-माया की इस प्रवृत्ति के चलते उन्होंने स्त्री - नाम - गोत्र कर्म का बन्धन किया। कालान्तर में महाबल - मुनि ने बीस स्थानक की उत्कृष्ट आराधना की और अपनी विशुद्ध साधना के बल पर तीर्थंकर नाम - गोत्र कर्म का बन्धन किया। ये सभी मित्र अपने साधनामय जीवन को पूर्ण कर जयन्त देवलोक में देवरूप में जन्मे और वहाँ की आयुष्य पूर्ण कर भरत क्षेत्र में भित्र-भित्र राजवंशों में जन्मे । महाबल के जीव ने मिथिला के राजा कुम्भ की पुत्री मल्लीकुमारी के रूप में जन्म लिया । अन्य सभी मित्र भी राजवंशों जन्मे और युवा होने पर अपने-अपने राज्यों के अधिपति बने। उनके नाम थेकौशल देश के राजा प्रतिबुद्ध, अंग देश के राजा चन्द्रच्छाय, काशी के राजा शंख, कुणाल के राजा रुक्मि, कुरु के राजा अदीनशत्रु तथा पांचाल देश के राजा जितशत्रु । मल्लीकुमारी भी युवावस्था को प्राप्त हुईं। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म के मित्रों के सम्बन्ध में सभी सूचनाएँ जान लीं। भविष्यानुमान के आधार पर उन्होंने अपने उद्यान में एक विलक्षण मोहनगृह का निर्माण करवाया। इस गृह में मध्य में एक ऐसा कमरा था जिसके चारों ओर छह कमरे थे। FUNGSTERS ( 313 ) For Private Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र जिनकी खिड़कियों की जाली में से यह कमरा दिखाई देता था। इस कमरे के मध्य में मल्लीकुमारी ने अपनी अनुकृति की एक सोने की पुतली बनवाकर स्थापित करवाई। यह मूर्ति खोखली थी और इसके सर पर एक ढकना बना हुआ था। मल्लीकुमारी प्रतिदिन भोजन के समय एक ग्रास भोजन इस मूर्ति में डालती रहती थीं। ___ उधर उन छहों राजाओं को भिन्न-भिन्न माध्यमों से मल्लीकुमारी के सौन्दर्य के समाचार मिले। कौशलराज प्रतिबुद्ध को उनके अमात्य सुबुद्धि ने बताया। अंगराज चन्द्रच्छाय को श्रमणोपासक व्यापारी अर्हन्नक ने, कुणालपति रुक्मि को उनके अंगरक्षक ने, काशीराज शंख को मिथिला से निष्कासित सुनारों ने, कुम्भराज अदीनशत्रु से मल्लदिन द्वारा निष्कासित चित्रकार ने और पांचाल नरेश जितशत्रु को चोक्खा परिव्राजिका ने बताया। ये छहों राजा मल्लीकुमारी का रूप-वर्णन सुन कर उन पर अनुरक्त हो गये और अपने दूतों के साथ विवाह प्रस्ताव भिजवाया। राजा कुम्भ के पास ये दूत एक साथ ही विवाह प्रस्तावों सहित पहुँचे। कुम्भ ने ये प्रस्ताव सुन क्रोधित हो प्रस्ताव ठुकरा दिए और दूतों को लौटा दिया। दूतों ने अपने स्वामियों को सूचना दी कि कुम्भ ने प्रस्ताव ठुकराकर उन्हें अपमानित कर दिया है। छहों राजाओं ने परस्पर मंत्रणा की और एक साथ मिथिला पर चढ़ाई कर दी। राजा कुम्भ उनका सामना करने विदेह राज्य की सीमा पर पहुँचे तो इस संयुक्त सेना के सामने टिक नहीं सके। हारकर वे नगर के भीतर भाग आये और द्वार बन्दकर सुरक्षा हेतु चिन्ता करने लगे। आक्रमणकारी राजाओं की सेनाओं ने मिथिला पर घेरा डाल दिया। पिता की चिन्ता देख मल्लीकुमारी ने उन्हें उपाय बताया। उन्होंने कहा कि छहों राजाओं को एक ही प्रस्ताव गोपनीय तरीके से भिजवा दिया जाय कि कुमारी का विवाह उससे ही कराया जायेगा। अतः वह संध्या समय अकेला मिथिला में आ जावे। इन राजाओं को अलग-अलग मोहन-भवन में भेज बाहरी छह कमरों में अलग-अलग रखा जाय। __मल्लीकुमारी की योजनानुसार राजा कुम्भ ने सभी कार्य कर दिये। राजाओं ने मोहन-घर के अपने-अपने कमरे से मध्य में रही सुन्दर प्रतिमा को देखा तो उसे मल्लीकुमारी समझकर मोहित हो गये और विवाह की मधुर कल्पनाओं में डूब गये। प्रातःकाल मल्लीकुमारी अपनी परिचारिकाओं के साथ मोहन-गृह में आईं और मूर्ति के सर पर से ढकना हटा दिया। तत्काल सारे वातावरण में तीव्र दुर्गन्ध व्याप्त हो गई। सभी राजा उस दुर्गन्ध से तिलमिला उठे। तब मल्लीकुमारी ने उन्हें इस दुर्गन्धमय पार्थिव शरीर पर अनुरक्त न होने का प्रतिबोध दिया और अपने पूर्व-भव की कथा सुनाई। राजाओं को जाति-स्मरण ज्ञान हुआ और उन्होंने मल्लीकुमारी के साथ ही दीक्षित होने का निश्चय कर लिया। कालान्तर में अर्हत मल्ली ने परम्परानुसार गृह त्यागकर यथाविधि दीक्षा ली। उन्हें तत्काल मनःपर्यवज्ञान और उसी दिन केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दीर्घकाल तक धर्म प्रतिपादन कर उन्होंने सम्मेत शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया। RADIO - " (314) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( 394 ) CORRETORRON EIGHTH CHAPTER: MALLI: INTRODUCTION Title-Malli— The name of the nineteenth Tirthankar. It is obvious that the life of all great persons is filled with inspiring and educating incidents, but the story of the evolution and progress of the soul that was Arhat Malli is unique even among them. Even a minute aberration in feelings results in karmic bondage and even the purest of souls can not escape suffering the consequences. The story of the life of Arhat Malli is a vivid exposition of such minute aberration and its consequences. As such her name stands out in the Jain literature as a unique example. Gist of the Story-The name of the ruler of Veetshoka city in the Mahavideh area was Bal. He had a son named Mahabal. Once, senior ascetic Dharmaghosh arrived in the Kumbh garden outside the city. Inspired by his discourse, King Bal crowned prince Mahabal and got initiated as an ascetic. King Mahabal had six childhood friends. They all did everything with mutual consent. Once, a senior ascetic came to the city. After listening to the preaching king Mahabal felt like renouncing the world. Mahabal conveyed his feelings to his friends. They also decided to get initiated. All of them transferred their kingdoms to their heirs and became ascetics. They decided with mutual consent that whatever penance or practice any one of them starts all the others should do exactly the same. Mahabal, however, started cheating his friends. When others observed a one day fast he would observe a two day fast. Thus he secretly did more vigorous penance. Due to these guileful ways he acquired the Karma that would make him take the next birth as a female. Later Mahabal also indulged in the twenty auspicious practices and acquired the Tirthankar-nam-gotra-karma. After completing this pious life span they were born as gods in the Jayant dimension. Completing the life-span in the dimension of gods Mahabal was born as Malli, the daughter of king Kumbh of Mithila. All the six friends of Mahabal were born as princes. They grew to be rulers of different states-Pratibuddha the king of Kaushal, Chandracchaya the king of Anga, Shankh the king of Kashi, Rukmi the king of Kunal, Adinshatru the king of Kuru, and Jitshatru the king of Panchal. Malli grew to be a beautiful young woman. She became aware of her friends from the earlier birth through her Avadhi Jnana. Guided by her premonition she arranged to construct a large house of illusion. At the exact centre of this building there was a room with grills surrounded by six other connected rooms. At the centre of this room Malli got installed a life-size statue, an exact replica of her own self in gold. It was hollow with a hole at the top that was covered with a lotus. Malli started dropping one handful of the rich food she ate, inside the hollow statue every day: va SER AV 0 CHAPTER-8 : MALLI ( 315 ) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Goorong jonajono ( ३१६ ) The above said six kings got information about Malli's youthful beauty through different sources. Pratibuddha the king of Kaushal was informed by his minister Subuddhi. Shramanopasak merchant Arhannak informed Chandracchaya the king of Anga. Shankh the king of Kashi got the information from the goldsmiths exiled from Mithila. Rukmi the king of Kunal was informed by his bodyguard. The artist exiled by Malladinna told Adinshatru the king of Kuru. And Jitshatru the king of Panchal was informed by Chokkha Parivrajika. All the six kings fell in love with Malli just by hearing about her beauty and sent marriage proposals through their messengers. All the six messengers with marriage proposals reached Mithila and went to king Kumbh. King Kumbh got angry and rejecting the proposals he dismissed the emissaries. The emissaries returned to their masters and informed that Kumbh had dismissed them rejecting their marriage proposals. The six kings conspired and at once attacked Mithila. The combined army of the six kings mauled and overwhelmed King Kumbh's army. He retreated to Mithila. The combined armies laid a siege. King Kumbh sat down on his throne worrying. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र When Princess Malli saw her brooding father she provided a solution Send messengers secretly and convey the same message to each one of them that you will marry me to him, and he should secretly come in the evening when the streets are deserted. Lead them to the six separate rooms surrounding the hall of illusion to stay for the night. King Kumbh followed this plan suggested by Princess Malli. The kings peeped through the grill of their rooms and saw the life-like golden statue of Princess Malli. They assumed that this was Princess Malli. Stunned by the beauty of that female figure they stared at it with unblinking and lusty eyes. Princess Malli came to the hall of illusion with her retinue. She went near the statue and removed the lotus cover. As soon as the cover was removed an obnoxious stench started spreading. Distressed by the stench the kings covered their faces. Princess Malli gave them a discourse about futility of indulgence in physical pleasures and told the story of their earlier births. The kings got the Jatismaran Jnana and they decided to renounce the world along with Malli. In due course Arhat Malli became an ascetic. She acquired Manahparyava Jnana immediately on initiation and Keval Jnana the same day. After a long period of religious activities she got nirvana at Sammet Shikhar. (316) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA மாமாகாட்: Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७) अट्ठमं अज्झयणं : मल्ली आठवाँ अध्ययन : मल्ली EIGHTH CHAPTER : MALLI (THE NINETENTH TIRTHANKAR) सूत्र १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, अट्ठमस्स णं भंते ! के अढे पन्नत्ते ? सूत्र १. जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-"भन्ते ! श्रमण भगवान महावीर ने आठवें ज्ञात अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" ___1. Jambu Swami inquired, “Bhante ! What is the meaning of the eighth chapter of the Jnata Sutra according to Shraman Bhagavan Mahavir?" __ सूत्र २. एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीयोयाए महाणईए दाहिणेणं, सुहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं सलिलावती नामं विजए पन्नत्ते। सूत्र २. सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! काल के उस भाग में इसी जम्बूद्वीप में महाविदेह नामक क्षेत्र में, मेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में सलिलावती नामक विजय (भौगोलिक क्षेत्र) था जिसके उत्तर में निषध नामक विशाल पर्वत था, दक्षिण में शीतोदा नाम की महानदी थी, पश्चिम में सुन्दर वक्षार पर्वत और पूर्व में पश्चिमी लवण समुद्र था। 2. Sudharma Swami narrated-Jambu ! During that period of time in this same Jambu continent in the Mahavideh area on the western side of the mountain Meru there existed a Vijaya (a geographical area, like a state) named Salilavati. It was surrounded by a large mountain named Nishadh at its north, a great river named Sheetoda at its south, the beautiful Vakshar Mountain at its west and the western salty-sea at its east. SEAN SMS BAmino (317) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) सूत्र ३. तत्थ णं सलिलावतीविजए वीयसोगा नामं रायहाणी पण्णत्तानवजोयणवित्थिन्ना जाव पच्चक्खं देवलोगभूया । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं इंदकुंभे नामं उज्जाणे होत्था । तत्थ णं वीयसोगाए रायहाणीए बले नामं राया होत्था । तस्स धारिणीपामोक्खं देविहस्सं उवरोधे होत्था । सूत्र ३ सलिलावती विजय की राजधानी वीतशोका नगरी थी। वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी और साक्षात् देवलोक के समान थी । वीतशोका के उत्तर-पूर्व में इन्द्रकुम्भ नाम का उद्यान था । वहाँ के राजा का नाम बल था जिसके एक हजार रानियाँ थीं और उनमें धारिणी प्रमुख थी। 3. The capital of Salilavati Vijaya was the city of Veetshoka. It was twelve yojan (an ancient measure of distance) long and nine yojan wide and looked like a heavenly town. There was a garden named Indrakumbh to the north-east of the city. The name of the ruler of that city was Bal. He had one thousand consorts lead by queen Dharini. महाबल का जन्म सूत्र ४. तए णं सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव महब्बले नामं दारए जाए, उम्मुक्कबालभावे जाव भोगसमत्थे । तए णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेंति । पंच पासायसया पंचसओ दाओ जाव विहरइ । सूत्र ४. धारिणी देवी एक बार स्वप्न में सिंह को देखकर जाग पड़ी थी । स्वप्न के शुभ फल के रूप में यथासमय उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महाबल रखा गया । यह बालक जब युवा हुआ तो उसका विवाह एक साथ पाँच सौ सुन्दर व श्रेष्ठ कुल की राजकुमारियों से कर दिया गया जिनमें कमल श्री प्रमुख थी । विवाह के बाद महाबल को पाँच सौ महल और प्रत्येक महल के साथ प्रचुर धन दिया गया। महाबल मनुष्योचित कामभोग भोगता जीवन व्यतीत करने लगा। (318) Coaliso JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन :मल्ली ( ३१९) BIRTH OF MAHABAL 4. One day queen Dharini woke up from her sleep after seeing a great lion in her dream. As a result of this auspicious dream she gave birth to a son who was named Mahabal. When this boy grew to be a young man he was married to five hundred young princesses lead by Kamal Shri, and was given five hundred well furnished palaces and ample wealth to maintain these. Mahabal spent his time enjoying all earthly pleasures along with his wives. __ सूत्र ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव इंदकुंभे नाम उज्जाणे तेणेव समोसढे, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरंति। __परिसा निग्गया, बलो वि राया निग्गओ, धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं महब्बलंकुमारं रज्जे ठावेइ, ठावित्ता सयमेव बले राया थेराणं अंतिए पव्वइए, एक्कारसअंगविओ, बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणेणं केवलं पाउणित्ता जाव सिद्धे। सूत्र ५. एक बार धर्मघोष स्थविर अपनी शिष्य-संपदा सहित विहार करते हुए इंद्रकुम्भ उद्यान में पधारे। नगर में परिषद निकली और साथ में राजा बल भी धर्मोपदेश सुनने को आये। धर्म सुनकर उन्हें वैराग्य हो गया। उन्होंने महाबल कुमार को राजगद्दी पर बैठाया और स्वयं दीक्षा ले ली। ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करके उन्होंने अनेक वर्ष तक धर्म साधना की और अन्त में चारु पर्वत पर जाकर एक माह का अनशन कर वे सिद्ध गति को प्राप्त हुए। 5. Once. during his wanderings senior ascetic (Sthavir) Dharmaghosh arrived in the Kumbh garden along with his disciples. A delegation of citizens led by king Bal came to attend his discourse. King Bal was overwhelmed by a feeling of detachment. He crowned prince Mahabal and got initiated as an ascetic. Studying all the eleven canons and doing spiritual practices for a number of years, he went to the Charu mountain. After fasting for a month and meditating all through he got liberated in the end. सूत्र ६. तए णं सा कमलसिरी अन्नया कयाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जाव बलभद्दो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था। SAR - - CHAPTER-8 : MALLI आका Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ६. कालान्तर में एक बार रानी कमलश्री ने स्वप्न में सिंह देखा, गर्भवती हुई और यथासमय पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम बलभद्र रखा। वह धीरे-धीरे विकास पा युवा हो गया। ___6. Later, one day queen Kamalshri woke up from her sleep after seeing a great lion in her dream. As a result of this auspicious dream she got pregnant and in due course gave birth to a son who was named Balbhadra. With passage of time he turned to be a handsome young man. सूत्र ७. तस्स णं महब्बलस्स रनो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होत्था, तं जहा(१) अयले, (२) धरणे, (३) पूरणे, (४) वसू, (५) वेसमणे, (६) अभिचंदे, सहजाया सहवड्डियया अण्णमण्णहियइच्छियकारया अण्णमण्णेसु रज्जेसु किच्चाई करणिज्जाइं पच्चणुभवमाणा विहरंति। सूत्र ७. महाबल राजा के छह बाल मित्र थे-अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द्र। वे एक समय पर ही जन्मे थे, साथ-साथ बड़े हुए, परस्पर एक-दूसरे के हित की भावना रखते थे, और एक-दूसरे की इच्छा के अनुसार ही सब काम करते थे। उन्होंने यह निश्चय भी कर लिया था कि इसी प्रकार आत्म-कल्याण का कार्य भी साथ-साथ ही करेंगे। 7. King Mahabal had six childhood friends-Achal, Dharan, Puran, Vasu, Vaishraman, and Abhichandra. They all were born at the same time and did everything with mutual consent. They had also resolved that they would even do spiritual practices together. महाबल की दीक्षा सत्र ८. तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा जेणेव इंदकुंभे उज्जाणे तेणेव समोसढा, परिसा निग्गया, महब्बलो वि राया निग्गओ। धम्मो कहिओ। महब्बलेणं धम्म सोच्चा-"जं नवरं देवाणुप्पिया ! छप्पिय बालवयंसगे आपुच्छामि, बलभदं च कुमार रज्जे ठावेमि, जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छइ।" तए णं ते छप्पिय बालवयंसए महब्बलं रायं एवं वयासी-"जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे पव्वयह, अम्हं के अन्ने आहारे वा ? जाव आलंबे वा ? अम्हे वि य णं पव्वयामो।" तए णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए एवं वयासी-“जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे मए सद्धिं जाव पव्वयह, तओ णं तुब्भे गच्छह, जेठ्ठपुत्तं सएहिं सएहिं रज्जेहिं Bam RAMA (320) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 90W COM Coco C 1999 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JARAT ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED ONC साथ निभाने का संकल्प चित्र : २२ संपर्वत के पश्चिम में बसी महाविदेह क्षेत्र में सलिलावती विजय थी। उसकी राजधानी थीवीतशोका नगरी । बीतशोका नगरी के बल राजा का पुत्र महाबल । उसके बाल साथी छह अन्तरंग मित्र थे१. अचल, २. धरण, ३. पूरण, ४. वसु, ५ वैश्रमण और ६. अभिचन्द । राजकुमार महाबल और उनके छहों मित्रों ने एक दिन एक दूसरे को वचन दिया- हम बचपन के साथी हैं, सुख-दुःख में सदा साथ निभाया है और जीवनभर हम एक दूसरे का साथ निभायेंगे । चाहे संसार में रहें या संसार त्यागें। कर्म और धर्म दोनों ही कार्यों में हम एक दूसरे को पूछकर परस्पर की सहमति से साथ देंगे। आगे चलकर महाबल के साथ छहों मित्रों ने दीक्षा ली। घोर तप किया । किन्तु तपश्चरण में महावल मुनि मित्रों से गुप्त रखकर अधिक तप करते रहे। मित्रों से माया ( कपट) करने के कारण उन्होंने स्त्री गोत्र का बंधन कर लिया। फिर २० बोलों की उत्कृष्ट आराधना के फल स्वरूप महावल मुनि तीर्थंकर गोत्र उपार्जित कर अगले भव में भगवान मल्लिनाथ बने । ( अध्ययन ८ ) ILLUSTRATION : 22 Veetshoka city was the capital of Salilavati Vijaya, situated on the western side of the mountain Meru in the Mahavideh area. The name of the ruler of that city was Bal. He had a son named Mahabal. Mahabal had six childhood friends – Achal, Dharan, Puran, Vasu, Vaishraman, and Abhichandra. They all did everything with mutual consent. They also resolved that they would even do spiritual practices together. Later all the seven friends became ascetics and did vigorous penance. However, Mahabal secretly did more penances to be ahead of his friends. As a result of this deceit he earned the karma that would lead to a birth as a female in some future birth. With the help of the Bees Sthanak practice Mahabal also earned the Tirthankar Gotra and became Arhat Malli. (CHAPTER-8) THE RESOLVE TO GIVE COMPANY JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Ormo Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३२१) 04MARVA - - PELLLLLDIA MORA काठावेह पुरिससहस्स-वाहिणीओ सीयाओ दुरुढा जाव पाउब्भवह। तए णं ते छप्पिय बालवयंसए जाव पाउब्भवंति।" __ सूत्र ८. काल के उसी भाग में इन्द्रकुम्भ उद्यान में धर्मघोष स्थविर पधारे। परिषद निकली। धर्म सुनकर वैराग्य जागने पर महाबल राजा ने कहा-“हे देवानुप्रिय ! मैं अपने छह बाल मित्रों से परामर्श कर लेता हूँ और कुमार बलभद्र को सिंहासनारूढ़ कर देता हूँ | फिर आकर आपसे दीक्षा ग्रहण करूँगा।" ___ फिर महाबल ने अपने छहों बाल मित्रों से पूछा। उन्होंने कहा-“देवानुप्रिय ! यदि तुम दीक्षा ले लेते हो तो हमारा कोई आधार नहीं रहेगा। ऐसे में हम भी दीक्षा लेंगे।" ___महाबल ने उन्हें कहा-“देवानुप्रियो, यदि तुम भी मेरे साथ दीक्षा लेना चाहते हो तो | पहले अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य सौंपो और तब पुरिससहसवाहिनी शिविका पर | सवार होकर मेरे पास लोटो।" INITIATION OF MAHABAL 8. During that period of time senior ascetic Dharmaghosh arrived and stayed in the Indrakumbh garden. A delegation of citizens led by the king came to attend the discourse of the ascetic. After listening to the preaching when king Mahabal felt like renouncing the world he said, “Beloved of gods! I will go and consult my six childhood friends as well as crown prince Balbhadra, and then come back to get initiated into the order by you." Mahabal went and conveyed his decision to his friends and asked | their opinion. They said unanimously, “Beloved of gods! If you renounce the world we will be left with no support. As such, we would also like to get initiated.” Mahabal replied, “Beloved of gods! If you too want to get initiated with me, first of all hand over your kingdoms to your heirs-apparent and come back to me riding the Purisasahassa palanquins." ___ सूत्र ९. तए णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउडभूए पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, जाव बलभदं कुमारं अभिसिंचेति। सूत्र ९. अपने मित्रों के वापस लौटने पर महाबल राजा प्रसन्न हुआ। फिर उसने अपने | पुत्र बलभद्र कुमार का समारोह सहित राज्य अभिषेक कर दिया। A /CHAPTER-8 : MALLI (32 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२) Jango ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORM 9. King Mahabal was pleased when his friends did as he had told and returned. With grand ceremonies he crowned his son, prince Balbhadra. ___ सूत्र १0. तए णं से महब्बले राया बलभदं कुमारं आपुच्छइ। तओ णं महब्बलपामोक्खा छप्पिय बालवयंसए सद्धिं जाव पव्वयंति, एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठट्टमेहिं अप्पाणं भावेमाणा जाव विहरंति। __सूत्र १0. महाबल ने तब राजा बलभद्र से आज्ञा ले अपने छहों बाल मित्रों सहित समारोहपूर्वक दीक्षा ग्रहण की, ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन किया और विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ करते हुए विचरने लगे। 10. Mahabal then sought permission from king Balbhadra and with prescribed procedure and ceremonies got initiated along with his six childhood friends. These new ascetics now studied all the eleven canons and commenced their itinerant life doing penance and other spiritual practices. सूत्र ११. तए णं तेसिं महब्बलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-"जं णं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगे तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं णं अम्हेहिं सव्वेहिं सद्धिं तवोकम्म उवसंपज्जिता णं विहरित्तए" त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमझैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता बहूहिं चउत्थ जाव विहरंति। ___ सूत्र ११. एक दिन महाबल व उनके मित्र-सातों अनगार परस्पर विचार करने लगे"हम लोगों में से एक जिस तप का पालन करे वही तप सबको पालना चाहिये।" सबने यह बात स्वीकार कर ली और सभी एक साथ उपावस, बेला यावत मासखमण आदि तपस्याएँ करते हुए साधनामय जीवन बिताने लगे। ____11. One day Mahabal and his friends had consultations, "Whatever penance or practice anyone of us starts all the others should follow the same.” They all accepted this idea and started a series of penances one after another, including fasts for a day or more, stretching even to a month. महाबल का मायाचार सूत्र १२. तए णं से महब्बले अणगारे इमेण कारणेणं इत्थिणामगोयं कम्म निव्वत्तिंसु-जइ णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उपसंपज्जिता णं विहरंति, Samro ne MA कि Main TOBEle: (322) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३२३) Oms arease Q4GRIDANA तओ से महब्बले अणगारे छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। जइ णं ते महब्बलवज्जा अणगारा छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। एवं अट्ठमं तो दसमं, अह दसमं तो दुवालसमं। सूत्र १२. महाबल ने इस श्रमण जीवन में अपने साथियों से छल करना आरम्भ कर दिया। जब अन्य छह श्रमण उपवास करते तो महाबल बेला करते, जब अन्य बेला करते तो महाबल तेला करते और इस प्रकार वे छल से अपने साथियों से अधिक तपस्या करते थे। इस छल व्यापार के फलस्वरूप उन्होंने स्त्री नामगोत्र कर्म का बन्धन कर लिया। CHEATING BY MAHABAL ____12. Mahabal, however, started cheating his friends. When others observed a one day fast he would observe a two day fast. Thus he secretly did more vigorous penance on one pretext or the other. Due to these guileful ways he acquired the Karma that would make him take the next birth as a female (The Stree-naam-gotra karma). __ सूत्र १३. इमेहि पुण वीसाएहि य कारणेहि आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु, तं जहा अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं। वच्छलया य तेसिं, अभिक्ख णाणोवओगे य॥१॥ दंसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारं। खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो॥३॥ सूत्र १३. महाबल ने इनके अतिरिक्त बीस कारणों (बीस स्थानक) की एकानेक बार उपासना-आराधना की जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का बंधन भी कर लिया। वे बीस स्थानक हैं (१) अरिहंत, (२) सिद्ध, (३) प्रवचन, (४) गुरु, (५) स्थविर, (६) बहुश्रुत, (७) तपस्वी की सेवा-भक्ति (८) सतत ज्ञानोपयोग, (९) दर्शनविशुद्धि, (१०) विनय, (११) षडावश्यक, (१२) निरतिचार व्रत साधना, (१३) विरक्ति, (१४) तप, (१५) सुपात्र दान, (१६) वैयावृत्य, (१७) संघ को समाधि प्रदान करना, (१८) अपूर्व ज्ञान ग्रहण, (१९) श्रुत भक्ति, (२०) प्रवचन प्रभावना। - MAHI कालमा CHAPTER-8 : MALLI (323) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (328) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र JO So 4000 13. Besides these penances, Mahabal also repeatedly indulged in the twenty auspicious practices that are the basis of acquiring the Tirthankar-naam-gotra-karma, or the karma that leads one to the lofty status of a Tirthankar in the birth after the next one. These practices are termed as Bees Sthanak and are 1. Arihant (worship of the Tirthankar), 2. Siddha (worship of the liberated soul), 3. Pravachan (faith in the discourse), 4. Guru (worship of the teacher), 5. Sthavir (worship of the senior ascetic), 6. Bahushrut (worship of the scholar), 7. Tapasvi (worship of those who indulge in penance), 8. Satat Jnanopayog (continued application of knowledge for maximum possible time), 9. Darshan Vishuddhi (purity of perception), 10. Vinay (to praise the virtues of others and be happy at the progress of others), 11. Shadavashyak (to practice the six essentials in the prescribed way at the prescribed time), 12. Niratichar Vrat Sadhana (to observe all the vows and codes of conduct with ever increasing indulgence), 13. Virakti (to develop and practice apathy for attachment, fondness, conceit, and greed), 14. Tapa (to practice penance with all intensity), 15. Supatra Daan (to give charity to the deserving), 16. Vaiyavritya (to look after and take care of the detached), 17. Samadhi (to give due importance and respect to the four pronged religious organization), 18. Apurva-Jnana-Grahan (to enhance knowledge regularly), 19. Shrut Bhakti (to have faith on the sermons of the detached or the canons), and 20. Pravachan Prabhavana (propagation of the sermon of the Tirthankar and the discipline of the order). महाबल आदि की तपस्या सूत्र १४. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा मासिअं भिक्खपडिम उपसंपज्जित्ता णं विहरंति, जाव एगराइअं भिक्खुपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरंति। सूत्र १४. इसके बाद वे सातों अनगार एक माह की पहली भिक्षु प्रतिमा का पालन करने लगे। फिर उन्होंने क्रमशः बारहवीं भिक्षु प्रतिमा तक का पालन किया। PENANCES OF MAHABAL AND FRIENDS 14. After this all these seven ascetics observed a specific penance known as the first Bhikshu Pratima for one month. They continued TACT 4 DEVIL (324) JNĀTĀ DHARMA KATHÄNGA SŪTRA Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OO आठवाँ अध्ययन : मल्ली this practice in ascending order up to the twelfth Bhikshu Pratima (as detailed in the first chapter). सूत्र १५. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तं जहा ( ३२५ ) चउत्थं करेंति, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेंति, पारित्ता छट्ठ करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति, करिता अट्टमं करेंति, करिता छट्ठ करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करिता अट्टमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करित्ता चाउद्दसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता चोहसमं करेंति, करित्ता अट्ठारसमं करेंति, करिता सोलसमं करेंति, करित्ता वीसइमं करेंति, करित्ता अट्ठारसमं करेंति, करिता वीसइमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करिता अट्ठारसमं, करेंति, करित्ता चोद्दसमं करेंति, करित्ता सोलसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता चाउद्दसमं करेंति, करिता दसमं करेंति, करित्ता दुवालसमं करेंति, करित्ता अट्ठमं करेंति, करित्ता दसमं करेंति, करिता छट्ठ करेंति, करिता अट्ठमं करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति, करिता छट्ट करेंति, करित्ता चउत्थं करेंति । सव्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेंति । सूत्र १५. उपर्युक्त तपस्याओं के बाद सातों अनगारों ने एक और कठिन तप जिसे क्षुल्लक सिंह- निष्क्रीड़ित तप कहते हैं, किया। उसकी आराधना विधि इस प्रकार है प्रथम एक उपवास करके विगय सहित पारणा किया जाता है। उसके बाद दो उपवास और पारणा, फिर एक उपवास और पारणा, तब तीन उपवास और पारणा, दो उपवास और पारणा, चार उपवास और पारणा, यह क्रम ९ उपवास तक बढ़ता रहता है और उसी क्रम से घटकर एक उपवास पर आता है। पूरा क्रम इस प्रकार है - १ उ. पा., २ उ. पा., १ उ. पा., ३ उ. पा., २ उ. पा., ४ उ. पा., ३ उ. पा., ५ उ. पा., ४ उ. पा., ६ उ. पा., ५ उ. पा., ७ उ. पा., ६ उ. पा., ८ उ. पा., ७ उ. पा., ९ उ. पा., ८ उ. पा., ९ उ. पा., ७ उ. पा., ८ उ. पा., ६ उ. पा., ७ उ. पा., ५ उ. पा., ६ उ. पा., ४ उ. पा., ५ उ. पा., ३ उ. पा., ४ उ. पा., २ उ. पा., ३ उ. पा., १ उ. पा., २ उ. पा, १ उ. पा. । उ. = उपवास, पा. = पारणा । 15. After these practices all the seven ascetics observed a much harsher penance known as minor Simha-Nishkreedit. The details of this penance are as follows It is started with a fast for one day and eating unrestricted but pure food the next day. After this a two day fast is observed and it CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only (325) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - - 84 is broken like the earlier one. Again a one day fast followed by a day with food, then a three day fast and after a day with food a two day fast. This sequence is followed in ascending order till it reaches a period of nine day fast and then the whole sequence is reversed, in descending order, till it reaches one day fast. The complete sequence being Fast for 1 day, eat one day, fast for 2 days, eat one day, fast for 1 day, eat one day, fast for 3 days, eat one day, fast for 2 days, eat one day, fast for 4 days, eat one day, fast for 3 days, eat one day, fast for 5 days, eat one day, fast for 4 days, eat one day, fast for 6 days, eat one day, fast for 5 days, eat one day, fast for 7 days, eat one day, fast for 6 days, eat one day, fast for 8 days, eat one day, fast for 7 days, eat one day, fast for 9 days, eat one day, fast for 8 days, eat one day, fast for 9 days, eat one day, fast for 7 days, eat one day, fast for 8 days, eat one day, fast for 6 days, eat one day, fast for 7 days, eat one day, fast for 5 days, eat one day, fast for 6 days, eat one day, fast for 4 days, eat one day, fast for 5 days, eat one day, fast for 3 days, eat one day, fast for 4 days, eat one day, fast for 2 days, eat one day, fast for 3 days, eat one day, fast for 1 day, eat one day, fast for 2 days, eat one day, fast for 1 day, eat one day. सूत्र १६. एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहि य अहोरत्तेहिय अहासुत्ता जाव आराहिया भवइ। तयाणंतरं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं विगइवज्जं पारेंति। एवं तच्चा वि परिवाडी, नवरं पारणए अलेवाडं पारेंति। एवं चउत्था वि परिवाडी, नवरं पारणए आयंबिलेणं पारेंति। सूत्र १६. इस तप का प्रथम चरण छह महीने सात दिन का होता है और इसमें १५४ उपवास और तेंतीस पारणे किये जाते हैं। __ दूसरे चरण में उपवास और पारणे का क्रम वही रहता है किन्तु पारणा निर्विगय (विगय रहित) किया जाता है। तीसरे चरण में पारणा निर्लेप (रूखा) आहार का होता है और चौथे चरण में आयंबिल से पारणा करते हैं। 16. This first section of the penance lasts for six months and seven days. It has 154 days of fasting and 33 days with food. PARTIANA AVA / (326) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३२७) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CAM POS P AMAL o etreaNaIANCIALBUMDAINISTORanaSIONSurasRENAMORONamsatar egamaraRNIONarurammaNEONETIRETRIEVEMENDRAMANICAVES सूत्र १८. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूणि चउत्थ जाव विहरति। सूत्र १८. स्थविर भगवन्त की आज्ञा प्राप्त कर महाबल आदि सातों अनगारों ने सूत्रानुसार विधि से तप सम्पन्न किया। तत्पश्चात् वे स्थविर भगवन्त के पास लौटे, उन्हें यथाविधि वन्दना कर सामान्य व्रत-उपवास करते जीवन बिताने लगे। ____18. With the permission of the senior ascetic and according to the procedure prescribed in the scriptures the seven ascetics completed the penance. They came to the senior ascetic and after offering him salutations they resumed their normal ascetic life observing the simple penances. समाधिमरण __ सूत्र १९. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ, नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरूहंति। दुरूहित्ता जाव दोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं अणसणं, चउरासीइं वाससयसहस्साई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। __ तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं महब्बलंवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई, महब्बलस्स देवस्स पडिपुण्णाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। सूत्र १९. ये सातों अनगार इस कठोर तप के कारण स्कन्दक मुनि (भगवतीसूत्र) के समान दुबले और तेजहीन हो गये। उन्होंने स्थविर भगवंत से आज्ञा ली और चारु पर्वत पर चले गये। वहाँ उन्होंने दो महीने की संलेखना कर शरीर त्याग दिया। वे सातों अनगार चौरासी लाख वर्षों तक श्रमण जीवन बिता, चौरासी लाख पूर्व की पूर्ण आयु में देवलोक गये। जयंत नाम के तीसरे अनुत्तर विमान में देवरूप में उनका जन्म हुआ। ___ जयंत विमान में उत्कृष्ट स्थिति बत्तीस सागरोपम की बताई है। महाबल की देव आयुष्य पूरे बत्तीस सागरोपम की हुई और अन्यों की उससे कुछ वर्ष कम। HEDITATION UNTO DEATH 19. As a result of this extreme penance all the seven ascetics became dull and weak like Skandak Muni (as detailed in Bhagavati DUA CORO: - (328) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३२९) 05 क - --- - - - -- - Sutra). They sought permission from the senior ascetic and went to the Charu mountain. There they took a two month duration ultimate vow and breathed their last. All these ascetics spent eight million four hundred thousand years as ascetics out of their total age of eight million four hundred thousand Purvas (a superlative measure of time), before going to the dimension of gods. They were born as gods in the third Anuttar Viman named Jayant (a dimension of gods). The maximum life-span of a god in the Jayant Viman is said to be thirty two Sagaropam (a superlative measure of time). Mahabal had this maximum life-span whereas the others had a few years shorter. सूत्र २०. तएं णं ते महब्बलवज्जा छप्पिय देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया। तं जहा पडिबुद्धी इक्खागराया १, चंदच्छाए अंगराया २, संखे कासिराया ३, रुप्पी कुणालाहिवई ४, अदीणसत्तू कुरुराया ५, जियसत्तू पंचालाहिवई ६। सूत्र २0. महाबल के छहों साथी देवलोक की आयु, स्थिति और भव समाप्त होने पर तत्काल शरीर त्याग कर जम्बूद्वीप में भरतवर्ष में माता-पिता के विशुद्ध वंशों व राजकुलों में अलग-अलग कुमार रूप में जन्मे। वे इस प्रकार हैं (१) प्रतिबुद्धि इक्ष्वाकु देश का राजा बना (अयोध्या)। (२) चंद्रच्छाय अंग देश का राजा बना (चम्पा)। (३) शंख काशी देश का राजा बना (वाराणसी)। (४) रुक्मि कुणाल देश का राजा बना (श्रावस्ती)। (५) अदीनशत्रु कुरु देश का राजा बना (हस्तिनापुर)। (६) जितशत्रु पांचाल देश का राजा बना (कांपिल्यपुर)। 20. Completing the life-span, state, and life in the dimension of gods, all the six friends of Mahabal immediately left there divine प न RANDING CHAPTER-8 : MALLI (329) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Our ON GARHILA GANING TERI bodies and were born as princes in pure clans and ruling families in Bharatvarsha in the Jambu continent. They grew to be rulers of the following states 1. Pratibuddhi the king of Ikshvaku country (capital-Ayodhya). 2. Chandracchaya the king of Anga country (capital-Champa). 3. Shankh the king of Kashi country (capital-Varanasi). 4. Rukmi the king of Kunal country (capital-Shravasti). 5. Adinshatru the king of Kuru country (capital-Hastinapur). 6. Jitshatru the king of Panchal country (capital-Kampilyapur). तीर्थंकर अवतरण सूत्र २१. तए णं से महब्बले देवे तिहिं णाणेहिं समग्गे उच्चट्ठाणट्ठिएसु गहेसु, सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु, जइएसु सउणेसु, पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पिंसि मारुतंसि . पवायंसि, निप्फन्नसस्समेइणीयंसि कालंसि, पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु, अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, जे से हेमंताणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे फग्गुणसुद्धे, तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थिपक्खेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीससागरोवमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावईए देवीए कुच्छिंसि आहारवक्कंतीए सरीरवक्कंतीए भववक्कंतीए गब्भत्ताए वक्ते। सूत्र २१. सभी ग्रह उच्च स्थान पर थे, सभी दिशाएँ सौम्य, अंधकार रहित और विशुद्ध थीं, सभी शकुन विजय कारक थे, दक्षिण दिशा से चलता पवन अनुकूल हो बह रहा था, फले-फूले धान से खेत हरे-भरे थे और लोग हर्ष से क्रीड़ा कर रहे थे। हेमन्त ऋतु के चौथे महीने का आठवाँ पक्ष चल रहा था। फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष का चौथा दिन था। मध्य-रात्रि के समय अश्विनी नक्षत्र का योग आने पर महाबल देव ने तीन ज्ञान से युक्त हो बत्तीस सागरोपम की आयु, भव और स्थिति पूर्ण कर जयन्त नामक विमान से प्रयाण किया और भरत क्षेत्र की मिथिला नगरी के कुंभ राजा की भार्या प्रभावती देवी की कोख में दैवीय आहार, भव और शरीर को मानवीय आहार, भव और शरीर में बदलते हुए अवतरित हुआ। THE DESCENT OF THE TIRTHANKAR 21. All the planets were in their ascendant positions. All the cardinal directions were serene bright and pure. There was an नाम (330) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठयाँ अध्ययन : मल्ली ( ३३१) CIRLS - TERT abundance of auspicious signs. The southern wind was favourable. The fields were lush green and rich with crops. Masses were exultant with joy. It was the fourth month and the eighth fortnight of the winter season. It was the fourth day of the bright half of the month of Phalgun. At midnight when the moon entered the first (Ashwin) lunar mansion the soul of Mahabal, completed its thirty two Sagaropam age, state, and life as god, and left the Jayant dimension of gods. Equipped with three types of knowledge and transforming the state, constitution, and factors of sustenance from the divine realm to the human realm, it descended into the womb of queen Prabhavati Devi, wife of King Kumbh of Mithila city in Bharat area. __ सूत्र २२. तं रयणिं च णं पभावई देवी तंसि तारिसगंसि वासभवणंसि सयणिज्जंसि जाव अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे उराले कल्लाणे सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए चउद्दसमहासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। तं जहा गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयर-झय-कुंभे। पउमसर-सागर-विमाण-रयणुच्चय-सिहिं च॥ तए णं सा पभावई देवी जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव भत्तार-कहणं, सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरइ। सूत्र २२. उस रात स्वच्छ शयनागार में सोई हुई प्रभावती देवी चौदह महास्वप्न देखकर जागी-(१) हाथी, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) देवी लक्ष्मी का अभिषेक, (५) पुष्प माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) ध्वजा, (९) कुम्भ, (१०) पद्म-सरोवर, (११) सागर, (१२) देव विमान (भवन), (१३) रत्न राशि, और (१४) निधूम अग्नि। इन स्वप्नों की बात उसने कुंभ राजा से बताई। राजा ने स्वप्न पाठकों से उनका फल पूछा और वे प्रसन्न हो समय बिताने लगे। 22. That night Prabhavati Devi awoke when she saw the fourteen great dreams. They are-1. an elephant, 2. a bull, 3. a lion, 4. annointing of goddess Laxmi, 5. a garland of flowers, 6. the moon, 7. the sun, 8. a flag, 9. an urn, 10. a lotus flower pond, 11. a sea, 12. a vehicle of gods, 13. a heap of gems, and 14. smokeless flames of fire. सा dase / CHAPTER-8 : MALLI Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३२ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / Sams ल BAMLA का MIDO She narrated these dreams to king Kumbh. He called the dream diviners and asked the interpretation. They were pleased to hear about the auspicious and bountiful future the dreams forebode. पुष्प-दोहद सूत्र २३. तए णं तीसे पभावईए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमेयारूवे डोहले पाउब्भूए-"धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जल-थलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवण्णेणं मल्लेणं अत्थुय-पच्चत्युयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सण्णिवन्नाओ य | विहरंति। एगं च णं महं सिरीदामगंडं पाडल-मल्लिय-चंपय-असोग-पुन्नाग-मरुयग-दमणगअणोज्ज-कोज्जय-कोरंट-पत्तवरपउरं परमसुह-फासदरिसणिज्जं महया गंधधुणिं मुयंतं अग्घायमाणीओ डोहलं विणेति। सूत्र २३. तीन महीने बीत जाने पर प्रभावती देवी के मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ"वे माताएँ धन्य हैं जो जल-थल में उत्पन्न, खिले हुए तरह-तरह के पंचरंगे फूलों की कई तहों से भरी-पूरी शय्या पर आनन्द से बैठती और सोती हैं। गुलाब, मालती, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, नाग, मरुवा, दमनक, कोरंट तथा सुन्दर कुब्जक के फूलों-पत्तों से बने कोमल, सुन्दर और सुरभित गजरों को सूंघती हैं और इस प्रकार फूलों से घिरी अपना दोहद पूरा करती हैं।" DOHAD OF FLOWERS 23. During the third month of her pregnancy Queen Prabhavati had a Dohad—“Blessed are the mothers who enjoy sitting and sleeping on a bed filled with layers of a variety of multicoloured flowers which grow on land as well as in water. Who smell soft, beautiful and sweetly fragrant intwined garlands made of flowers like rose, Malati, Champa, Ashok, Punnaag, Naag, Maruva, Damanak, Korant, and Kubjak and leaves from the same plants. Thus surrounded with flowers they fulfill their Dohad." सूत्र २४. तए णं तीसे पभावईए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउब्भूयं पासित्ता | अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय-भासुरप्पभूयं दसद्धवन्नमल्लं कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस्स रण्णो भवर्णसि साहरंति। एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव गंधधुणिं मुयंत उवणेति। AAG 4tal BHB (332) JNATI DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३३३) PATRA सूत्र २४. आसपास रहे वाण-व्यन्तर देवों को जैसे ही प्रभावती देवी के इस दोहद का आभास हुआ, उन्होंने जल्दी से जल-थल के उपर्युक्त फूलों के ढेर राजा कुम्भ के महल में पहुँचा दिये और साथ में एक सुन्दर, कोमल, सुरभित गजरा भी रख दिया। 24. As soon as the Van-Vyantar gods (a specific category of lower gods) became aware of this Dohad of Queen Prabhavati they delivered heaps of flowers, mentioned above, in King Kumbh's palace. They also put a beautiful, delicate and fragrant intwined garland with these flowers. सूत्र २५. तए णं सा पभावई देवी जलथलयभासुरप्पभूएणं मल्लेणं डोहलं विणेइ। तए णं सा पभावई देवी पसत्थडोहला जाव विहरइ। तए णं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं अद्धट्ठमाण य रत्तिंदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे, तस्स णं मग्गसिरसुद्धस्स एक्कारसीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उच्चट्ठाणगएसु गहेसु जाव पमुइयक्कीलिएसु जणवएसु आरोयारोयं एगूणवीसइमं तित्थयरं पयाया। ___ सूत्र २५. प्रभावती देवी ने इन फूलों और मालाओं से अपना दोहद पूर्ण किया और आनन्द से रहने लगी। इसी प्रकार नौ महीने और साढ़े सात दिन बीत गये। हेमन्त ऋतु के पहले महीने और दूसरे पक्ष में मंगसर सुदी एकादशी के दिन मध्य-रात्रि के साथ अश्विनी नक्षत्र का योग आने पर प्रभावती देवी ने सुखपूर्वक पूर्ण आरोग्य युक्त उन्नीसवें तीर्थंकर को जन्म दिया। 25. Queen Prabhavati fulfilled her Dohad with these flowers and garlands and lived happily. Nine months and seven and a half days passed. During the first month and the second fortnight of the winter season Queen Prabhavati normally gave birth to the nineteenth Tirthankar on the eleventh day of the bright half of the month of Mangsar when the moon entered the first (Ashwini) lunar mansion at midnight. जन्म व नामकरण उत्सव सूत्र २६. तेण कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महयरीयाओ जहा मुंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं भाणियव्यं। नवरं मिहिलाए नयरीए कुंभरायस्स भवणंसि पभावईए देवीए अभिलावो संजोएव्वो जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा। O नMES CHAPTER-8 : MALLI (333) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORG AN. ARINAGE सूत्र २६. काल के उस भाग में अधोलोक में रहने वाली प्रधान आठ दिशा कुमारिकाएँ आईं और फिर देवता आये। सबने मिलकर परम्परागत रीति से तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया और तब नन्दीश्वर द्वीप में जाकर महोत्सव किया। (विस्तृत वर्ण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार) BIRTH AND NAMING CEREMONIES ____26. During that period of time the eight goddesses of direction came from the lower worlds followed by other gods. They together performed the traditional post-birth annointing ritual. Then they proceeded to the Nandishvar island and celebrated the birth festival of the Tirthankar (details available in Jambudveep Prajnapti). सूत्र २७. तया णं कुंभए राया बहूहिँ भवणवइ-वाणविंतर-जोइसिय-वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणाभिसेयं जायकम्मं जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउगभंसि वक्कममाणंसि मल्लसयणिज्जंसि डोहले विणीए, तं होउ णं णामेणं मल्ली, नामं ठवेइ, जहा महाबले नाम जाव परिवडिया। सा वड्डई भगवई, दियालोयचुया अणोपमसिरीया। दासीदासपरिवुडा, परिकिन्ना पीढमद्देहिं ॥१॥ असियसिरया सुनयणा, बिंबोट्ठी धवलदंतपंतीया। वरकमलगभगोरी फुल्लुप्पलगंधनीसासा॥२॥ सूत्र २७. फिर राजा कुम्भ ने भवन पति आदि चारों जाति के अनेक देवों के सान्निध्य में तीर्थंकर का जातकर्म व अन्य संस्कार सम्पन्न कर नामकरण घोषित किया-"जब हमारी यह पुत्री माता के गर्भ में थी तब माता को माला (फूल) की शय्या पर सोने का दोहद हुआ था अतः इसका नाम मल्ली हो।" यह सब वर्णन भगवतीसूत्र में वर्णित महाबल के नामकरण के समान है। 27. King Kumbh performed the traditional post birth ceremonies in presence of gods from all the four classes including Bhavanpati. The last was the naming ceremony when the king announced, "When this daughter of ours was still in the womb her mother had a Dohad of sleeping on a bed filled with flowers and garlands. So let her be known as Malli (flower garland).” The detailed description of these celebrations is same as that mentioned in Bhagavati Sutra with reference to Mahabal. R (334) JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३३५) सूत्र २८. तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य अईव अईव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था। सूत्र २८. विदेहराज की वह दिव्य पुत्री समय के साथ बढ़ने लगी और बाल्यावस्था पार कर रूप, यौवन और लावण्य से परिपूर्ण उत्कृष्ट देहवाली हो गई। 28. With passage of time this divine daughter of the king of Videh crossed her childhood and grew to be a beautiful, charming, and perfectly proportioned young woman. ___ सूत्र २९. तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना देसूणवाससयजाया ते छप्पिय रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी विहरइ, तं जहा-पडिबुद्धिं जाव जियसत्त पंचालाहिवइं। सूत्र २९. मल्लीकुमारी जब सौ वर्ष से कुछ कम आयु की हुई तब अपने पूर्व भव के मित्रों के विषय में अपने अवधिज्ञान से जानने लगी जो यहां पर प्रतिबुद्धि, जितशत्रु आदि बने हैं। 29. When Princess Malli was a little less then one hundred years old she became aware of the present state of her friends from the earlier birth through her Avadhi Jnana (extra-sensory perception of the physical dimension). मोहनगृह का निर्माण सूत्र ३0. तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-“गच्छह णं देवाणुप्पिया ! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह अणेयखंभसयसन्निविटुं। तत्थ णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गब्भघरए करेह। तेसिं णं गब्भघराणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह। तस्स णं जालघरयस्स बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह।" ते वि तहेव जाव पच्चप्पिणंति। सूत्र ३0. एक दिन मल्लीकुमारी ने सेवकों को बुलाकर कहा-“देवानुप्रियो ! जाओ और अशोक वाटिका में एक विशाल मोहनघर (मायामहल) बनाओ जिसमें अनेक स्तम्भ हों। उस सभागृह के बीचोंबीच छह कमरों से घिरा एक जालीदार कमरा बनाओ। इस जालीदार कमरे के बीचोंबीच एक मणियों से जड़ी चौकी बनाओ।" सेवकों ने यह सब काम पूरा कर वापस आ उन्हें सूचना दी। CONSTRUCTION OF THE HOUSE OF ILLUSION 30. One day Princess Malli called her staff and said, “Beloved of gods! Go to the Ashok garden and arrange to construct a large house of Songs CHAPTER-8 : MALLI (335) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) illusion having numerous pillars. At the exact centre of this building construct a room with grills surrounded by six other connected rooms. At the centre of this room erect a pedestal inlaid with gems." The attendants carried out the order and reported back. सूत्र ३१. तए णं मल्ली मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरिसत्तयं सरिसव्वयं सरिस - लावन्न - जोव्वण- गुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छिड्डं पउमुप्पलप्पिहाणं पडिमं करेइ, करिता जं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तओ मणुन्नाओ असण- पाणखाइम - साइमाओ कल्लाकल्लिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगमईए मत्थयच्छिड्डाए जाव पडिमा मत्थयंसि पक्खिवमाणी विहरइ । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ३१. मल्लीकुमारी ने तब अपनी अनुकृति की, समान त्वचा, समवय, समान लावण्य, यौवन, और गुणयुक्त सोने की एक समाकार मूर्ति बनवाकर उस चौकी पर रखवाई। इस खोखली मूर्ति के मस्तक पर एक छेद था और उस पर कमल का ढक्कन । मल्लीकुमारी प्रतिदिन जो स्वादिष्ट भोजन करती उसमें से एक ग्रास नित्य मस्तक के छेद से उस मूर्ति में डालने लगी। 31. Now Princess Malli arranged for a life-size statue, an exact replica of her own self in gold, and got it installed on the pedestal. This idol resembled her in all parameters including skin-tone, age, charm, youth, and other attributes. It was a hollow idol with a hole at the top and it was covered with a lotus. Princess Malli started dropping one handful of the rich food she ate into the hollow idol through this hole every day. सूत्र ३२. तए णं तीसे कणगमईए जाव मत्थयछिड्डाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे पउमुप्पलपिहाणं पिइ । तओ गंधे पाउब्भवइ, से जहानामए अहिमडेइ वा जाव चेव अमणामतराए । सूत्र ३२. मूर्ति के भीतर नित्य भोजन डालकर वह छेद कमल के ढक्कन से बन्द कर देती। इससे उसमें से ऐसी अप्रिय और भीषण दुर्गन्ध निकलने लगी जिसकी तुलना में सर्प आदि मृत जीवों के सड़े शरीर से निकलती गंध भी कुछ नहीं थी । 32. She would close the hole with the lotus-lid after dropping the food. After a few days it started emitting a stench that was much more foul and obnoxious even as compared with that emitted by putrefied dead bodies. (336) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली (३३७) -- - राजा प्रतिबुद्धि सूत्र ३३. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसले नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सागेए नाम नयरे होत्था। तस्स णं उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं महं एगे णागघरए होत्था दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे। तत्थ णं नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ, तस्स पउमावई देवी, सुबुद्धी अमच्चे साम-दंड भेद-उपप्पयाण-नीतिसुपउत्त-णयविहण्णू जाव रज्जधुराचिंतए होत्था। सूत्र ३३. काल के उसी भाग में कौशल देश के साकेत नगर से उत्तर-पूर्व दिशा में एक नाग मंदिर था। उस चमत्कारी मन्दिर में की गई सेवा सफल होती थी। उसके अधिष्ठाता नागदेव का कथन सत्य होता था। साकेत नगर में इक्ष्वाकुवंश का राजा प्रतिबुद्धि राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम पद्मावती था और अमात्य का नाम सुबुद्धि था। सुबुद्धि बड़ा नीतिवान था और योग्यता से राज्य का संचालन करता था। KING PRATIBUDDHI 33. During that period of time, on the north eastern side of the city of Saket in the Kaushal country there was a temple of a serpent-god. Any worship done in that temple was said to be fruitful. Whatever the deity conveyed always came true. The king of Saket city was Pratibuddhi; he belonged to the Ikshvaku clan. The name of his principal queen was Padmavati, and that of his minister was Subuddhi. Minister Subuddhi was an able and just administrator; he managed the affairs of the state well. सूत्र ३४. तए णं पउमावईए अन्नया कयाइं नागजन्नए यावि होत्था। तए णं सा पउमावई नागजन्नमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल. जाव बद्धावेत्ता एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सइ, तं इच्छामि णं सामी ! तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुब्भे वि णं सामी ! मम नागजन्नंसि समोसरह।" सूत्र ३४. एक बार नागपूजा के उत्सव पर पद्मावती देवी राजा प्रतिबुद्धि के पास गई और बोली-“स्वामी ! कल मुझे नागपूजा करनी है। आपकी अनुमति लेकर मैं पूजा के लिये जाना चाहती हूँ। मेरी इच्छा है कि आप भी उस पूजा में सम्मिलित हों।" Page CHUDAI CHAPTER-8 : MALLI Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CRIL ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( ३३८ ) Om 34. Once on the occasion of the annual snake-worship festival, Queen Padmavati approached King Pratibuddhi and said, “Sire! Tomorrow I have to worship the serpent-god. I wish to seek your permission and go. I also wish that you too join me in the worship rituals." __सूत्र ३५. तए णं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ। तए णं पउमावई पडिबुद्धिणा रण्णा अब्भणुनाया हद्वतुट्ठा कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्मवित्ता एवं वयासी“एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयह____ “एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! जलथलय-भासुरप्पभूयं दसद्धवन्नं मल्लं नागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंड उवणेह। तए णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुविरइयं करेह। तंसि भत्तिसि हंस-मिय-मऊर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेयं ईहामियं जाव भत्तिचित्तं महग्धं महरिहं विपुलं पुष्फमंडवं विरएह। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव गंधधुणिं मुयंत उल्लोयंसि ओलंबेह। ओलंबित्ता पउमावइं देविं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठह।'' तए णं ते कोडुंबिया जाव चिट्ठति। सूत्र ३५. प्रतिबुद्धि ने रानी से अपनी सहमति प्रकट की। रानी ने प्रसन्न हो सेवकों को बुलाया और कहा-“देवानुप्रियो, कल मेरे यहाँ नागपूजा होगी। अतः तुम माला बनाने वालों को बुलाओ और कहो___ 'कल महारानी नागपूजा करेंगी अतः तुम लोग जल-थल के पंचरंगे ताजा फूलों का एक गजरा बनाकर नाग-मन्दिर में लाओ। साथ ही उन फूलों की सुन्दर रचनाओं से उस मन्दिर को सजाओ। उस रचना में हंस, मृग, मोर, क्रौंच, सारस, चकवा, मैना, कोयल, ईहामृग, वृषभ, घोड़ा आदि के चित्रों से भरा, प्रतिष्ठित लोगों के बैठने योग्य एक विशाल मंडप बनाओ। उस मंडप के बीच में सुरभित पुष्यों के गजरे छत पर लटकाओ।' यह सब कार्य पूर्ण कर वहीं रुको और महारानी की प्रतीक्षा करो।" यह कार्य पूर्ण कर सेवक महारानी की प्रतीक्षा करते मंदिर में रुक जाते हैं। 35. King Pratibuddhi accepted the queen's proposal. The joyous queen called her staff and said, "Beloved of gods! Tomorrow I shall worship the serpent-god. As such, you call the garland makers and tell them - KOTA (338) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३३९) Taare PAGA00 - 'Tomorrow the queen will be going for the worship of the serpentgod so you should make an intwined garland of multicoloured fresh flowers from land as well as water, and bring it to the temple of the serpent-god. You should also decorate the temple with beautiful artwork made of such flowers. This flower decoration should also have a large pavilion suitable to accommodate the cream of the society. It should have figures of swan, deer, peacock, heron, crane, ruddy-goose, starling, cuckoo, Ihamrig, bull, horse, etc. made up of flowers. Suspend large garlands of fragrant flowers at various points at the ceiling.' When they complete this work you stay their and wait for the queen." The attendants carried out the order and stayed back in the temple waiting for the queen. सूत्र ३६. तए णं सा पउमावई देवी कल्लं कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सब्मिंतरबाहिरियं आसित्तसम्मज्जियोवलित्तं जाव पच्चप्पिणंति।' सूत्र ३६. दूसरे दिन सुबह पद्मावती देवी ने सेवकों को बुलाकर कहा-"हे देवानुप्रियो ! साकेत नगर को भीतर बाहर पानी से धुलवाकर साफ कराओ, लिपाई कराओ और सुगन्ध से भरकर मनोरम बना दो।" सेवकों ने कार्य सम्पन्न किया। 36. Next morning Queen Padmavati called her servants and said, “Beloved of gods! Get the interior and exterior parts of the city of Saket cleaned, white-washed and perfumed. Make the city attractive." The attendants carried out the order. सूत्र ३७. तए णं सा पउमावई देवी दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तं जाव जुत्तामेव उवट्ठवेह।" तए णं ते वि तहेव उवट्ठवेंति। तए णं सा पउमावई अंतो अंतेउरंसि बहाया जाव धम्मियं जाणं दुरूढा। सूत्र ३७. पद्मावती देवी ने तब सेवकों से कहा-“शीघ्र ही तेज चाल वाले घोड़ों को जोतकर रथ ले आओ।" सेवक रथ ले आए। पद्मावती देवी अपने अन्तःपुर से स्नानादि सभी कार्य निपटा वस्त्रालंकार पहन बाहर आई और रथ पर सवार हो गईं। 37. After this Queen Padmavati ordered her attendants, “Bring a chariot drawn by fast horses." The attendants brought the chariot. ODAY COM ANIYA - CHAPTER-8 : MALLI (उप्र) Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SO 940 - - Getting ready after bath and putting on her dress and ornaments the queen came out of her palace and climbed into the chariot. सूत्र ३८. तए णं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिवुडा सागेयं नगरं मझमज्झेणं णिज्जइ, णिज्जित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पुक्खरिणिं जोगाहेइ। ओगाहित्ता जलमज्जणं जाव परम-सुइभूया उल्लपडसाडया जाई तत्थ उप्पलाई जावं गेण्हइ। गेण्हित्ता जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। __सूत्र ३८. अपने स्वजनों को साथ ले साकेत नगर के बीच होती हुई पद्मावती पुष्करिणी-बावडी नदी के तट पर आईं। वहाँ बावडी में उतर स्नानादि कर स्वच्छ हो, कमल आदि फूल लेकर नाग-मंदिर जाने को रवाना हुईं। __ 38. Taking her friends and relatives along and passing through the town, Queen Padmavati arrived at the river bank. She entered the river and after taking her bath and collecting lotus flowers she left for the temple of the serpent-god.. सूत्र ३९. तए णं पउमावई दासचेडीओ बहूओ पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवकडुच्छुगहत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छति। तए णं पउमावई सव्विड्डीए जेणव णागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरयं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थगं जाव धूवं डहइ, डहित्ता पडिबुद्धिं रायं पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्ठइ। __सूत्र ३९. पद्मावती देवी की अनेक दासियाँ हाथों में फूलों की टोकरियाँ और धूपदानियाँ लेकर उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। वे अपने सारे साज-सामान के साथ नाग-मन्दिर पहुंचीं। मन्दिर के गर्भगृह में जा पीछी से प्रतिमा को साफ किया और धूप खेई। फिर वे राजा प्रतिबुद्धि की प्रतीक्षा करने लगीं। 39. Numerous maid servants carrying baskets filled with flowers and pots filled with incense walked behind Queen Padmavati. She reached the temple with all the accompanying grandeur. She entered the sanctum sectorum of the temple and cleaned the idol with pea-cock feather brush. She performed the ritual of burning incense. After all these rituals she waited for the arrival of King Pratibuddhi. पुष्प-मण्डप सूत्र ४0. तए णं पडिबुद्धी राया पहाए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्ज-माणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रह-जोह-महयाभडचडगरपहकरेहिं - 25 wantik.SEMI - -- ASEAN - (340) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ana आठवाँ अध्ययन : मल्ली साकेयं नगरं मज्झं-मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव णागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता आलो पणामं करेइ, करिता पुप्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पासइ तं एगं महं सिरिदामगंडं । सूत्र ४०. राजा प्रतिबुद्धि स्नानादि से निवृत्त हो उत्तम हाथी पर सवार हुआ । छत्र-चामर से सुशोभित हो आगे चतुरंगिनी सेना, सुभट आदि समस्त वैभव ले वह नगर के बीच से होता हुआ नाग मंदिर पहुँचा। हाथी से उतरते ही प्रतिमा पर दृष्टि गई तो उसने प्रणाम किया और पुष्प-मण्डप में प्रवेश किया। वहाँ उसने एक विशाल गजरा देखा । ( ३४१ ) THE FLORAL PAVILION 40. After getting ready King Pratibuddhi rode his best elephant. Accompanied by attendants carrying the royal umbrella and whisks, the brigade of guards, and all his grandeur, King Pratibuddhi passed through the city and arrived at the temple. When he got down from the elephant he chanced to look at the idol and bowed before it. He entered the floral pavilion and at once saw a large intwined garland of flowers. सूत्र ४१. तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुदूरं कालं निरिक्खइ, निरिक्खित्ता तंसि सिरिदामगंडंसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी "तुमं णं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर. जाव संनिवेसाइं आहिंडसि, बहूणि राईसर जाव गिहाई अणुपविससि, तं अस्थि णं तुमे कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं इमे पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे ? " सुत्र ४१. उस सुन्दर गजरे को देख राजा प्रतिबुद्धि चकित रह गया और अमात्य सुबुद्धि से पूछा - "हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दूत के रूप में अनेक ग्राम - नगरादि स्थानों पर और राजाओं-जागीरदारों आदि व्यक्तियों के घरों में आते-जाते रहे हो । क्या तुमने पद्मावती देवी के इस गजरे जैसा सुन्दर गजरा पहले भी कहीं देखा है ?" 41. The king was dumbstruck looking at the enchanting beauty of the garland. He asked minister Subuddhi, "Beloved of gods! As my emissary you frequent numerous cities, villages and other such places and visit the houses of kings, landlords, and other such people. Tell me, have you ever seen an entwined garland as beautiful as this one belonging to Queen Padmavati?" CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only ( 341 ) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CHO Ramro सूत्र ४२. तए णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाई तुब्भं दोच्चेणं मिहिलं रायहाणिं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहवररायकन्नाए संवच्छरपडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्ठपुव्वे। तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावईए सिरिदामगंडे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ।" सूत्र ४२. अमात्य सुबुद्धि ने उत्तर दिया-"स्वामी ! मैं एक बार आपके दूत के रूप में किसी काम से मिथिला नगरी गया था। वहाँ मैंने राजा कंभ और रानी प्रभावती की पत्री, विदेह राजकन्या, राजकुमारी मल्ली के जन्म दिवस के महोत्सव के समय एक दिव्य गजरा देखा था। उसके सामने महारानी पद्मावती का यह गजरा उसके एक बाल के अंश के बराबर भी नहीं ठहरता।" 42. Minister Subuddhi replied, “Sire! Once I went on some mission as your emissary to Mithila city. There, on the occasion of the birthday celebrations of Princess Malli, the daughter of King Kumbh and Queen Prabhavati, I saw a divine entwined garland. Queen Padmavati's garland stands nowhere as compared to that; even a thin fiber from that garland was much more attractive than this whole garland.” मल्लीकुमारी की प्रशंसा __सूत्र ४३. तए णं पडिबुद्धी राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-“केरिसिया णं देवाणुप्पिया ! मल्ली विदेहवररायकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावईए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ ?" तए णं सुबुद्धी अमच्चे पडिबुद्धिं इक्खागुरायं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! मल्ली विदेह-वररायकन्नगा सुपइट्ठियकुम्मुन्नयचारुचरणा, वन्नओ।" सूत्र ४३. राजा प्रतिबुद्धि ने अमात्य से कहा-"वह मल्लीकुमारी कैसी है जिसके जन्म-दिवस के उत्सव के गजरे की तुलना में यह गजरा तुच्छ सा है ?" __ सुबुद्धि ने उत्तर दिया-“स्वामी ! विदेह राजकन्या मल्ली सुप्रतिष्ठित और अपूर्व सुन्दरी है। (उसके चरण कछुए के समान उन्नत हैं आदि विस्तृत वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के समान)" PRAISE OF PRINCESS MALLI 43. King Pratibuddhi asked further, “What about Princess Malli, whose birthday-celebration-garland you are so praising?" BAma PARDA / (342) JNATĂ DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO आठवाँ अध्ययन : मल्ली Subuddhi replied, "Sire! the princess of Videh is a famous and divinely beautiful lady. (Her feet are smoothly curved like a tortoise..... etc. as mentioned in Jambudveep Prajnapti. )" ( ३४३ ) सूत्र ४४. तए णं पडिबुद्धी राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म सिरिदामगंडजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - " गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया ! मिहिलं रायहाणिं, तत्थ णं कुम्भगस्स रण्णो धूयं पउमावईए देवीए अत्तयं मल्लिं विदेहवररायकण्णगं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि णं सा सयं रज्जसुंका। सूत्र ४४. अमात्य की यह बात सुन-समझकर राजा प्रतिबुद्धि के मन में मल्लीकुमारी और उसके गजरे के अपूर्व सौन्दर्य के प्रति अनुराग की भावना उठी। उन्होंने अपने दूत को वुलाकर कहा - " देवानुप्रिय ! तुम मिथिला राजधानी जाओ और राजा कुम्भ तथा रानी प्रभावती की कन्या मल्लीकुमारी का हाथ मेरे लिए माँगी। इसके लिये चाहे अपना सारा राज्य ही क्यों न प्रतिदान में देना पड़े।" 44. This description by the minister evoked a feeling of fondness to the extant of infatuation for Princess Malli and her garland in the mind of King Pratibuddhi. He called one of his emissaries and said, "Beloved of gods! Proceed to Mithila city and ask for the hand of Princess Malli for me from her parents, King Kumbh and Queen Prabhavati. It does not matter if I have to give away my whole kingdom as dowry." सूत्र ४५. तए णं से दूए पडिबुद्धिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव सए गिहे, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता चाउरघंटं आसरहं पडिकप्पावेइ, पडिकप्पावित्ता दुरूढे जाव हय-गय-महयाभडचडगरेणं माएयाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । सूत्र ४५. दूत ने राजा की आज्ञा सहर्ष स्वीकार की और अपने घर लौटा। वहाँ उसने अपने चार घंटों वाले रथ में घोड़े जोतकर उसे यात्रा के लिए तैयार किया। उस रथ पर सवार हो बहुत से घोड़े, हाथी और पैदल सैनिकों को साथ ले उसने साकेत नगर से निकल विदेह जनपद की राह पर मिथिला के लिये प्रस्थान किया । 45. The emissary felt honoured and returned home. He prepared a chariot drawn by four horses for his journey. Taking along a large contingent of horses, elephants, and soldiers he left Saket and commenced his journey to Mithila city in Videh country. CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only OREO (343) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 388 ) राजा चन्द्रच्छाय सूत्र ४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगे नाम जणवए होत्था । तत्थ णं चंपानामं यरी होत्था । तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था । सूत्र ४६. काल के उसी भाग में अंग जनपद की चम्पानगरी में अंगराज चन्द्रच्छाय राज्य करते थे। KING CHANDRACCHAYA 46. During that period of time King Chandracchaya reigned over Champa city in the Anga country ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ४७. तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नकपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव अपरिभूया । तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था, अहिगयजीवाजीवे, वन्नओ । सूत्र ४७. चम्पानगरी में अर्हनक आदि अनेक समृद्धिशाली और प्रतिष्ठित सांयात्रिक (विदेश जाकर व्यापार करने वाले) और नौवणिक् (नौकाओं से व्यापार करने वाले ) रहते थे । अर्हन्नक एक श्रमणोपासक था और जीव- अजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था (विस्तृत वर्णन पूर्व सम ) | 47. In the city of Champa lived Arhannak and other wealthy and reputed Sanyantriks (merchants who went to other countries for trade) and Nauvaniks (merchants who carried their merchandise in boats). Arhannak was a Shramanopasak (a worshiper of Shramans or a Jain) and conversant with fundamentals like being and matter (details as before ). सूत्र ४८. तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुपज्जित्था - "सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दे पोय-वहणेण ओगाहित्तए त्ति कट्टु अन्नमन्नं एयमट्ठ पडिसुणेंति, पडिसुणित्ता गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडिसागडियं च सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स च धरिमस्स च मेज्जस्स च पारिच्छेज्जस्स च भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति, भरिता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तमुहुत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, मित्त-णाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणं भोयणवेलाए भुंजावेंति जाव आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडिसागडियं (344) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३४५ ) BIHA - जोयंति, चंपाए नयरीए मझमझेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति। सूत्र ४८. एक दिन ये सभी व्यापारी एक स्थान पर एकत्र हुए तो उनमें आपस में मंत्रणा हुई-"हमें गणिम (संख्या में बेची जाने वाली), धरिम (तोल से बेची जाने वाली), मेय (नाप से बेची जाने वाली) और परिच्छेद (टुकड़ों में बेची जाने वाली), ये चार प्रकार की वस्तुएँ लेकर समुद्र-यात्रा पर निकलना चाहिये।" सभी इस प्रस्ताव से सहमत हुए और तदनुसार विक्रय योग्य सभी सामग्री एकत्र की। गाड़ी-गाड़े साफ कर तैयार किये और उनमें वह सब सामग्री भर दी। फिर शुभ मुहूर्त देख अशन-पान आदि भोज सामग्री का प्रबन्ध कर अपने स्वजनों को भोज दिया और यात्रा के लिए उनकी अनुमति ली। फिर वे गाड़ी-गाड़े जोत चम्पानगरी के बीच से होते हुए गंभीर बन्दरगाह पर आए। ___48. One day when all these merchants met together they discussed, “We should stock the four categories of goods and go on a sea-voyage. The four categories being-Ganim or the goods that are sold in numbers, Dharim or the goods that are sold by weight, Meya or the goods that are sold by measurement, and Paricched or the goods that are sold in pieces." Everyone agreed to this proposal and accordingly started collecting salable goods. They got their carts and trucks cleaned and loaded them with the collected goods. They then looked for an auspicious moment, invited their friends and relatives on a feast and sought their permission for the proposed voyage. Once they got the permission they drove their transports through the town and arrived at Gambhir port. समुद्र-यात्रा __ सूत्र ४९. उवागच्छित्ता सगडिसागडियं मोयंति, मोहत्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स य धरिमस्स य मेज्जस्स य परिच्छेज्जस्स य चउव्विहस्स भंडगस्स भरेंति, भरित्ता तंडुलाण य समियस्स य तेल्लस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयस्स य उदयभायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कट्ठस्स य पावरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति। भरित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहुत्तसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति। Oma OMES MARA बारिश R CHAPTER-8 : MALLI (345) Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GRETC Ormo ( ३४६ ) दही, सूत्र ४९. बन्दरगाह पर पहुंचकर गाड़ी - गाड़े खड़े कर उन्होंने जहाज तैयार किये और फिर वह सारी सामग्री जहाज में भर दी। साथ ही उसमें चावल, आटा, तेल, घी, पानी, पानी के बरतन, औषधियाँ, भेषज, घास, लकड़ी, वस्त्र, शस्त्र तथा अन्य सभी आवश्यक वस्तुएँ भी जहाज में भर लीं। अच्छा मुहूर्त देख स्वजनों को पुनः भोज दिया और उनसे विदा ली और तट पर जहाजों के पास आये। THE SEA-VOYAGE 49. At the port they parked their carts and made their ships seaworthy. They filled the holds of the ships with their merchandise. Also loaded were other essential things including rice, flour, oil, Ghee, curd, potable water, water tanks and other utensils, drugs and medicines, hay, wood, dresses, and weapons. At an auspicious moment they again invited their friends and bidding them good-bye they arrived at the pier near the ships. सूत्र ५०. तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं जाव वाणियगाणं परियणा जाव ताहिं वहिं अभिनंदता य अभिसंथुणमाणा य एवं वयासी - " अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भाइणेज्ज ! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो" त्ति कट्टु ताहिं सोमाहि निद्धाहिं दीहाहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरिक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ५०. अर्हन्नक आदि वणिकों के स्वजनों ने मधुर वाणी में उनकी प्रशंसा और अभिनन्दन करते हुए कहा - " हे आर्य ! हे तात ! हे भाई ! हे मामा ! आप इन वरुण देव के संरक्षण में चिरंजीवी हों। आपका मंगल हो । हम शीघ्र ही आपको निर्विघ्न यात्रा से धन-लाभ और कार्य संपन्न कर लौटा हुआ यथावत् देखें । " और वे लोग इन यात्रियों को मधुर, स्नेहमय, अपलक, प्यासी और भीगी आँखों से देखते हुए कुछ देर वहीं खड़े रहे। 50. The friends and relatives of Arhannak and other merchants offered the voyagers greetings and praises in sweet voice, "Gentlemen! (or father, brother, uncle, etc.) May you live long under the protection of Varun, the god of water. May all go well with you. May we see you back soon successful and prosperous after a trouble free voyage." They stood there for some time looking at the voyagers with loving, fond, unblinking, expectant, and tearful eyes. ( 346 ) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३४७) ANDRA श्री QAR सूत्र ५१ तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु, दिनेसु सरस-रत्तचंदण-दद्दरपंचंगुलितलेसु, अणुक्खित्तंसि धूवंसि, पूइएसु समुद्दवाएसु संसारियासु वलयबाहासु, ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पडुप्पवाइएसु तूरेसु, जइएसु सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु, महया उक्किट्ठसीहनाय जाव रवेणं पक्खुभिय-महासमुद्द-रवभूयं पिव मेइणिं करेमाणा एगदिसिं जाव वाणियगा णावं दुरूढा। ___ सूत्र ५१. फिर नाव की पूजा की गई। चंदन के लेप को हथेली में लगाकर छापे लगाए गए और धूप खेई गई। समुद्री पवन की पूजा की गई। वाद्यों की मधुर स्वर-लहरी आरंभ की गई। यह सब कार्य होने पर और यात्रा के लिए राजा का आदेश पत्र प्राप्त हो जाने पर शुभ शकुन देख सभी यात्री ऊँचे स्वर में सिंहनाद कर महासमुद्र जैसी गर्जन से धरती गुंजाते हुए एक दिशा से नाव पर चढ़े। 51. After this the ritual worship of the ship was performed. Palm imprints with sandal wood paste were applied on the ship and incense was burned. In the end, ritual worship of the sea wind was performed. Instrumental music was played. By the time all this was concluded they also received the official permission from the king to travel. At an auspicious moment all the voyagers boarded the ship from one side, hailing the start of journey. The chorus of this hail was as loud and booming as the thunderclap of giant waves of the ocean. सूत्र ५२. तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-"हं भो ! सव्वेसिमवि अत्थसिद्धी, उवट्ठियाई कल्ला-णाई, पडिहयाइं सव्वपावाई, जुत्तो पूसो, विजओ मुहुत्तो अयं देसकालो।" तओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्टतुट्ठा कुच्छिधार-कन्नधार-गब्मिज्जसंजत्ताणावावाणियगा वावारिंसु, तं नावं पुनुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिंतो मुंचंति। __ सूत्र ५२. तब चारणों ने कहा-“हे श्रेष्ठियो ! आप सभी को अर्थ लाभ हो। आपका कल्याण हो और आपके सभी विघ्न-बाधाएँ नष्ट हों। अभी पुष्य नक्षत्र का योग है और विजय नाम का मुहूर्त है, इस कारण यह देश-काल यात्रा के लिए श्रेष्ठ है।" यह सुनकर प्रसन्न हो चप्पू चलाने वाले नाविक, कर्णधार, गर्भज (नाव के मध्य में नियुक्त) कार्यकर्ता तथा वे व्यवसायी और अन्य यात्री अपने-अपने कार्यों में जुट गये और फिर माल से भरी उस मंगल-मुखी नाव की तट से बँधी रस्सियों को खोल दिया गया। 52. Bards said in farewell. "O Merchants! May you be prosperous. May all be well with you and all your troubles and impediments vanish. It is the auspicious conjunction of the Pushya constellation SANG ' CHAPTER-8 : MALLI (347) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CE (३४८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र RAMA KutsomewALASSONG and the victorious moment according to astrology; as such, it is a good moment to commence an overseas voyage.” The helmsmen, peddlers, and other sailors along with the merchants and other passengers took charge of their respective duties and stations. At last the mooring lines of this auspicious ship, loaded with merchandise, were cast off. सूत्र ५३. तए णं सा णावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुवई गंगासलिल-तिक्खसोयवेगेहिं संखुब्भमाणी संखुब्भमाणी उम्मी-तरंग-मालासहस्साइं समतिच्छमाणी समतिच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढा। सूत्र ५३. पवन के धक्के से वह नाव चल पड़ी। सफेद पाल चढ़ी वह नाव ऐसी लगती थी जैसे पंख फैलाए कोई युवा गरुड़ी उड़ रही हो। गंगा नदी के तीव्र प्रवाह से वेग प्राप्त कर सहनों छोटी-बड़ी लहरों को पार करती वह नाव कुछ ही दिनों में लवण समुद्र में कई सौ योजन दूर चली गई। 53. The force of wind pushed the ship. With white sails it appeared as if an eagle was gliding with its wings spread. The rapid flow of the Ganges added to its speed and crossing thousands of large and small waves, it went hundreds of Yojans ahead on the Lavana sea within a few days. भयावह आकृति सूत्र ५४. तए णं तेसिं अरहन्ननगपामोक्खाणं संजत्तानावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउब्भूयाइं। तं जहा__ सूत्र ५४. इतनी दूर समुद्र में आ जाने पर अर्हन्नक तथा उसके सहयात्रियों को अनेक उत्पातों का सामना करना पड़ा। - HORRIFIC APPARITION 54. When they reached so far on the sea Arhannak and his companions came across numerous troubles and problems. सूत्र ५५. अकाले गज्जिए, अकाले विज्जुए, अकाले थणियसबे, अभिक्खणं आगासे देवताओ णच्चंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति। ORG PAN (348) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR आठवाँ अध्ययन : मल्ली सूत्र ५५. अकाल गर्जना होने लगी, अकाल ही बिजली चमकने लगी। अकाल ही M आकाश में मेघ घिर आये और घन गर्जना होने लगी और इन सबके अतिरिक्त एक महापिशाच की आकृति दिखाई दी । 55. There were unexpected thunder and lightning. Suddenly the horizon was full of dense and thundering dark clouds. Besides these a giant demonic shape appeared. सूत्र ५६. तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहिं मसिमूसगमहिसकालगं, भरिय- मेहवन्नं, लंबोट्टं, निग्गयग्गदंतं, निल्लालियजमलजुयलजीहं, आऊसिय-वयणगंडदेसं, चीणचिपिटनासियं, विगयभुग्गभुग्गभुमयं खज्जोयग दित्तचक्खुरागं, उत्तासणगं, विसालवच्छं, विसालकुच्छिं, पलंबकुच्छिं, पहसियपयलियपयडियगत्तं, पणच्चमाणं, अप्फोडतं, अभिवयंतं, अभिगज्जंतं, बहुसो बहुसो अट्टट्टहासे विणिम्मुयंतं नीलुप्पलगवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं गहाय अभिमुहमावयमाणं पासति । सूत्र ५७. तए णं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ताणावावाणियगा एगं च णं महं तालपिसायं पासंति- तालजंघ, दिवं गयाहिं बाहाहिं, फुट्टसिरं भमर- णिगरवरमासरासिमहिसकालगं, भरियमेहवण्णं, सुप्पणहं, फालसरिसजीहं, लंबोट्टं धवल- वट्टअसिलिट्ठ-तिक्ख-थिर-पीण-कुडिल-दाढोवगूढवयणं, विकोसिय-धारासिजुयल - समसरिसतणुयचंचल-गलंतरसलोल-चवल-फुरुफुरंत निल्लालियग्गजीहं अवयत्थिय-महल्ल-विगयबीभच्छ-लालपगलंत-रत्ततालुय हिंगुलुय-सगब्भकंदर- बिलं व अंजणगिरिस्स, अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आऊसिय- अक्खचम्म - उइट्टगंडदेसं चीण - चिविड-वंक - भग्गणासं, रोसागय-धम-धमेन्त-मारुय-निठुर-खर- फरुसझुसिरं, ओभुग्गणासियपुडं घाडुब्भड - रइयभीसणमुहं उद्धमुहकन्न सक्कुलिय-महंत - विगय- लोम-संखालग -लंबंत-चलियकन्नं, पिंगलदिप्पंतलोयणं, भिउडितडियनिडालं नरसिरमाल - परिणद्धचिंद्धं, विचित्तगोणससुबद्धपरिकरं अवहोलंत-पुप्फुयायंत-सप्पविच्छुय-गोधुंदर-नउ-लसरड-विरइय-विचित्तवेयच्छमालियागं, भोगकूर-कण्हसप्पधमधमेंतलंबंतकन्नपूरं, मज्जार - सियाल - लइयखंधं, दित्तघुघुयंतघूयकयकुंतलसिरं, घंटारवेण भीमं भयंकर, कायरजणहिययफोडणं, दित्तमट्टट्टहासं विणिम्मुयंतं, वसा - रुहिर-पूय-मंस-मलमलिणपोच्चडतणुं, उत्तासणयं, विसालवच्छं, पेच्छंता, भिन्नणह - मुह- नयण-कन्नं वरवग्घ-चित्तकत्तीणिवसणं, सरस- रुहिरगयचम्म-वितत ऊसविय-बाहुजुयलं, ताहि य खर- फरुस-असिणिद्ध- अणिट्ठ- दित्त-असुभअप्पिय-अकंतवग्गूहि य तज्जयंतं पासंति । (389) CHAPTER-8: MALLI , For Private Personal Use Only (349) Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Oats ITAMATN क सूत्र ५६-५७. (समन्वित अर्थ) पिशाच की जाँघे ताड़ के पेड़ जैसी लम्बी थीं और बाहें आकाश छूती थीं। उसके बिखरे हुए बालों से मस्तक ऐसा लग रहा था जैसे फूटा हुआ हो। वह काजल, काले चूहे, भँवरों के झुण्ड, उड़द के ढेर, काले भैंसे और जल भरे मेघ जैसे काले रंग का था। उसके नाखून छाजले जैसे थे। उसकी जीभ हल के फल जैसी थी और होंठ लम्बे थे। उसकी छीदी-छीदी दाढ़ें सफेद, गोल, तीखी, मजबूत, मोटी और टेड़ी-मेढ़ी थीं। उसकी जीभ चिरी हुई थी और दोनों अग्र भाग बिना म्यान की धारदार दो तलवारों जैसे पतले व चंचल थे और उनसे निरन्तर लार टपक रही थी। वे दोनों रस लोलुप जीह्वा मुँह से बाहर निकले हुए थे और तेजी से लपलपा रहे थे। उसका लार टपकाता, झाँकते लाल-लाल तालू वाला खुला मुख बड़ा ही विकृत और वीभत्स दिखाई देता था। उसके मुँह से अग्नि ज्वालाएँ निकल रही थीं जिससे वह ऐसा लगता था जैसे किसी काले पहाड़ की सिंदूर से भरी गुफा हो। उसके गाल पिचके हुए और चमड़ी सिकुड़ी हुई थी। उसकी नाक छोटी, चपटी, टेढ़ी और टूटी हुई थी। क्रोध के कारण उसके नथुनों से निष्ठुर और कर्कश फूत्कार निकल रही थी। उसका चेहरा विकृत और भीषण था। उसके दोनों कान लम्बे और हिलते हुए थे, उनके आँख की कोर को छूते किनारे ऊँचे उठे हुए थे और उन पर लम्बे-बिखरे बाल थे। उसके नयन पीले और जुगनू की तरह चमकते हुए थे। उसकी भृकुटि तनी हुई थी और ललाट पर तड़ित जैसी दिख रही थी। उसके गले में नर-मुंडों की माला लिपटी थी। उसने गोनस साँपों को परिधान की तरह लपेटा हुआ था और रेंगते-फुसकारते साँप, बिच्छू, गोह, चूहा, नेवला और गिरगिट जैसे जन्तुओं की विचित्र माला पहनी हुई थी। भयावह फन वाले फुसकारते दो काले साँपों को उसने लम्बे लटकते कुंडलों की तरह कान में धारण कर रखा था। अपने दोनों कंधों पर उसने बिलाव और सियार बैठा रखे थे। छू-छू करते चमकते उल्लू को उसने मुकुट के समान सिर पर धारण कर रखा था। वह घंटे के कर्णभेदी नाद के समान भयंकर और कायरों के दिल को दहलाने वाला क्रूर अट्टहास कर रहा था। उसके सारे शरीर पर चर्बी, रक्त, मवाद, माँस और मल लिपटे थे। वह सभी प्राणियों के लिये त्रासदायक था। उसकी छाती चौड़ी थी। उसने नाक, मुख, नेत्र और कान युक्त अद्भुत व्याघ्र-चर्म पहन रखा था। उसने अपने दोनों हाथों में रस और रुधिर से गीला हाथी का चमड़ा ऊपर की ओर उठा रखा था। वह नाचता, आकाश को फोड़ता, गर्जन और अट्टहास करता सामने से आता दिखाई दे रहा था। वह अपने कठोर, क्रूर, अनिष्ट, उत्तापजनक, अशुभ, अप्रिय और कर्कश स्वर से नाव पर बैठे लोगों को डरा रहा था। 56-57. (assimilated meaning) Its thighs were as long as a palm tree and hands touched the sky. Due to its disheveled hair its head Came HDal (350) JNATA DHARMA KATHANGA SÜTRA Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V00 35 23 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Operas Open ज्ञाताधर्मकशांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED दृढधर्मी अर्हन्त्रक चित्र : २३ चम्पा नगरी का धनाढ्य व्यापारी अर्हन्नक वीतराग अरिहन्त का उपासक था। धर्म की दृढ़ श्रद्धा उसकी रग-रग में रमी थी। एक बार वह बहुत से व्यापारियों को साथ लेकर लवणसमुद्र की यात्रा पर गया। यात्रा करते हुए अचानक समुद्र में भारी तूफान उठा । प्रचण्ड पवन वेग से नाव के मस्तूल टूट गये। और नाव समुद्र में हिचकोले खाने लगी। सभी यात्री घबरा उठे। तभी अचानक आकाश में एक भयंकर दैत्य विकराल रूप लिए दिखाई दिया। अर्हनक को सम्बोधित करके उसने ललकारा - " हे अर्हन्त्रक ! आज तेरी और तेरे सभी साथियों की मौत सामने खड़ी है, मैं अभी तेरी नाव को उलटकर समुद्र में डुबो दूंगा और तुम सब लवण समुद्र में डूबकर मच्छ- कच्छ के भक्ष्य बन जाओगे। हाँ, यदि तू मेरी बात मानकर निर्ग्रन्थ प्रवचन का त्याग करके, अपने लिए हुए व्रतों को छोड़ दे, तो मैं तुम्हें जीवित छोड़ दूँगा । " राक्षस की ललकार से सभी यात्री घबरा रहे हैं । परन्तु अर्हन्त्रक निर्भीक बैठा अपने आराध्य अरिहन्त प्रभु का स्मरण कर रहा है। राक्षस के बार-बार डराने धमकाने पर भी अर्हन्त्रक अविचल शान्त बैठा रहा। अन्त में उसकी दृढ़-धर्मिता की विजय हुई। राक्षस दिव्य रूप में प्रकट हुआ और प्रसन्न होकर दो दिव्य कुण्डल अर्हन्नक को भेंट कर क्षमा माँग कर चला गया। ( अध्ययन ८ ) DEVOUT ARHANNAK ILLUSTRATION : 23 Merchant Arhannak of Champa, with some other wealthy merchants, went sea-faring on the Lavana sea. Suddenly, on the high seas, there arose a terrible storm. The tremendous force of wind shattered the masts and sails and the ship started rocking. Suddenly the horizon was full of dense and thundering dark clouds. Besides these a giant and fearsome demonic shape appeared. This apparition asked Arhannak, “Lo! Arhannak, you and your friends today face your death. I will sink your ship in the sea. You will drown in the Lavana sea and become food of sea creatures. However, if you do as I say and go against the word of the Shramans by abandoning the vows you have taken, I shall leave you alone.” All the other passengers are afraid. Fearless Arhannak remains absorbed in his spiritual meditation with courage, serenity, stability, and silence. In the end his resolve wins. The demon appears in its true divine form, presents two pairs of divine earrings to Arhannak, seeks pardon and departs. JNATA DHARMA KATHANGA SŪTRA (CHAPTER-8) Dada Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( 349) de appeared to be parted. It was as black as soot, black rat, flock of bumble-bees, heap of Udad (a type of pulse), black buffalo, and rainclouds. Its nails were like spades. Its tongue was like a harrow and lips large. Its molars were white, round sharp, strong, large, irregular shaped and spread apart. Its tongue was split in the middle and both the edges were thin and flexible like two naked fencing swords. Saliva was dropping continuously from this double edged tongue hanging out and lolling rapidly as if ready to consume anything. Its saliva dripping mouth, with deep red palate clearly visible, looked ugly and ominous. This wide open and flame emitting mouth looked like a vermilion filled cave on a black mountain. Its cheeks were hollow and skin stretched. Its nose was small, flat, broken and distorted. Its anger was evident in the harsh and piercing hissing sound coming out of its nostrils. Its face was distorted and awe-inspiring. It had large and fluttering ears. They were raised high and touched the edges of its eyes; they had long and bushy hair on the edges. Its eyes were pale and shining like glow-worms. The permanent frown on its face made a lightning shaped line on its forehead. A garland of skulls hung around its neck. It had wrapped Gonus snakes on its body like an apparel. As an embellishment it had a garland of hissing and slithering creatures including snakes, scorpions, lizards, rats, mongoose, and chameleon. As earrings it had two hissing black cobras with fearful hoods suspended on its ears. Jackals and tomcats were perched on its shoulders. As a crown it had placed a whistling owl on its head. Its laughter was accompanied by an ear shattering and terrifying sound like that of a giant gong. Its body was plastered with obnoxious things like animal fat, blood, pus, flash, and excreta. It terrorized all beings. It had a wide chest. It was wearing a strange tiger-skin that still had nose, mouth, eyes and ears on it. In its raised hands it was holding an elephant skin still drenched in blood and other body fluids. It appeared to be dancing, splitting the sky, thundering and laughing and approaching near. It terrorized the passengers of the ship with its harsh, cruel, ominous, agitating, evil, hateful, and screeching voice. CHAPTER-8 : MALLI (351) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र QAHD जाना सूत्र ५८. तं तालपिसायरूवं एज्जमाणं पासंति, पासित्ता भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्द-सिव-वेसमण-णागाण भूयाण य जक्खाण य अज्जकोट्ट-किरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि ओवाइयमाणा ओवाइयमाणा चिट्ठति। सूत्र ५८. अर्हन्नक के अतिरिक्त अन्य सभी वणिक् इस तालपिशाच की आकृति को नाव की तरफ आता देखकर डर से एक-दूसरे से लिपट गये और अपने-अपने इष्ट देवोंइन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, भूत, यक्ष, दुर्गा, चण्डी आदि को बारंबार पुकारकर मनौती मनाने लगे। 58. Seeing this Pine-demon approach the ship, all the merchants except Arhannak huddled together with fear and remembered and repeated the names of their individual deities like Indra, Skanda, Rudra, Shiva, Vaishraman, Naag, Bhoot, Yaksha, Durga, Chandi, etc. for help. ___ सूत्र ५९. तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं दिव्यं पिसायरूवं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिण्णमुहरागणयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंमि वत्थंतेणं भूमि पमज्जइ पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी "नमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव ठाणं संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे" त्ति कटु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ। सूत्र ५९. श्रमणोपासक अर्हन्त्रक ने उस दिव्य पिशाच आकृति को अपनी ओर आते देखा। उसे देख अर्हन्नक तनिक भी भयभीत नहीं हुआ। उसके मन में त्रास, चंचलता, भ्रान्ति, व्याकुलता और उद्विग्नता उत्पन्न नहीं हुए। न तो उसके चेहरे का भाव बदला और न आँखों का रंग। हीनता और खिन्नता उससे दूर रही। वह नाव के एक भाग में जा कपड़े के छोर से बैठने के स्थान को साफ करके बैठ गया और दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा-"नमोत्थुणं अरहताणं ..... अरिहंत भगवान को मेरा नमस्कार है" (शक्र स्तव का पाठ)। यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मैं अपने इस कायोत्सर्ग को भंग करूँगा और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न हो सकूँ तो इस कायोत्सर्ग को भंग नहीं करूँगा।" ऐसा कहकर उसने सागारी अनशन का संकल्प ले लिया। QAMINA (352) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली omso ( ३५३) RAMMA Line 59. Arhannak, the Shramanopasak, also saw the demon approaching but there was no fear in him. It did not evoke any panic, disturbance, illusion, anxiety, or agitation within his mind. There was no change in his facial expression or the colour of his eyes. The feelings of inferiority or sorrow never bothered him. He went to a solitary spot in the ship, cleaned that spot with the end of a cloth and sat down. He joined both his palms and started praying, “I bow to the Arihants..... (the Shakra-panegyric). If I come out of this predicament I will break this meditation of mine otherwise not.” Uttering thus he took the house-holders vow to fast and meditate. सूत्र ६०. तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी__"हं भो अरहन्नगा ! अपत्थियपत्थिया ! जाव परिवज्जिया ! णो खलु कप्पइ तव सील-व्यय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा। तं जइ णं तुम सीलव्वयं जाव ण परिच्चयसि तो ते अहं एयं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तट्टतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहासे उव्विहामि, उव्विहित्ता अंतो जलंसि णिच्छोलेमि, जेणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।" सूत्र ६०. तभी वह पिशाचाकृति अर्हन्नक के निकट आया और कहने लगा-“अरे अर्हन्नक ! हे अयाचित की याचना करने वाले। तुम्हें शीलादि व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि संकल्पों से डिगना, क्षोभ करना, खंडित करना, भंग करना, त्याग या परित्याग करना नहीं कल्पता है। किन्तु यदि तूने इनका परित्याग नहीं किया तो मैं तेरी इस नाव को अपनी दो अंगुलियों से उठा लूँगा और सात-आठ तल की ऊँचाई तक आकाश में उछाल दूँगा और फिर जल में डुबा दूँगा। जिससे तू आर्तध्यान में डूब जायेगा, तेरी समाधि भंग हो जाएगी और तू अकाल ही जीवनरहित हो जाएगा।" 60. The demonic apparition came near Arhannak and said, “Lo! Arhannak, the follower of the undesired path! It is against your norms to relax, avoid, alter, break, or abandon your vows of etiquette, discipline, review, fasting etc. But if you do not do so I will lift this ship of yours with my two fingers and toss it high. When it drops down I CHAPTER-8 : MALLI (353) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ له ( ३५४ ) shall sink it in the sea. You will be possessed by the feeling of misery, your meditation will be interrupted and you will die a premature death." ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ६१. तए णं से अरहन्नए समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी- “अहं णं देवाप्पिया ! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु अहं सक्का केइ देवेण वा जाव निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा, तुमं णं जां सद्धा तं करेहि त्ति कट्टु अभीए जाव अभिन्नमुहराग-णयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निच्चले निष्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ । सूत्र ६१. अर्हन्नक ने उस देव को मन ही मन उत्तर दिया – “देवानुप्रिय ! मैं अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक हूँ और जड़ तथा चेतन के स्वरूप को जानता हूँ। मुझे विश्वास है। कि कोई भी देव, दानव, आदि मुझे निर्ग्रन्थ के उपदेश से विमुख या क्षुब्ध नहीं कर सकता और न उनके विरोध में ले जा सकता । अतः जो तुम्हारे मन में आये वह करो।" यह विचार कर अर्हन्नक पहले के समान ही निर्भय हो बिना किसी परिवर्तन के निश्चल, निस्पन्द और मौन हो धर्मध्यान में लीन रहा । 61. Arhannak replied silently, “Beloved of gods! I am Arhannak, the Shramanopasak, who has the knowledge of the fundamentals like matter and soul. I am confident that no divine or demonic power can disturb my faith in the word of the Nirgranth and turn me against it. As such, you may do what you like." With these thoughts Arhannak remained absorbed in his spiritual meditation with courage, serenity, stability, and silence. सूत्र ६२. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी - "हं भो अरहन्नगा ! " धम्मज्झाणोवगए विहर । DEMO सूत्र ६२. उस दिव्य पिशाच आकृति ने दुबारा - तिबारा अर्हन्नक को पूर्ववत् धमकी दी और अर्हन्नक मन ही मन पूर्ववत् उत्तर देकर धर्म ध्यानमग्न रहा । 62. The demonic apparition again and again threatened but Arhannak still gave the same reply and continued his meditation. सूत्र ६३. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हइ, गिण्हित्ता सत्तट्ठतलाई जाव अरहन्नगं एवं वयासी- "हं भो अरहन्नगा ! अपत्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पइ तव सीलव्यय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण - पोसहोववासाइं तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ । ( 354 ) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३५५) CON ORG ve श्रा सूत्र ६३. इस पर उस पिशाच ने धर्मध्यान में लीन अर्हन्त्रक पर क्रुद्ध हो उस नाव को दो अंगुलियों में उठाया और सात-आठ ताड़ की ऊँचाई पर ले जाकर वही धमकी दोहराई। किन्तु अर्हन्नक तब भी अपने धर्म-ध्यान से विचलित नहीं हुआ। 63. Annoyed with Arhannak the demon now picked up the ship in his fingers, lifted it to a great height, and repeated the threat. Arhannak still remained undisturbed in his meditation. क्षमायाचना एवं कुण्डलों की भेंट __ सूत्र ६४. तए णं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे उवसंते जाव निविण्णे तं पोयवहणं सणियं सणियं उवरिं जलस्स ठवेइ, ठवित्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूपं विउव्वइ, विउव्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिंखिणियाइं जाव परिहिए अरहन्नगं समणोवासयं एवं वयासी सूत्र ६४. जब वह पिशाच अर्हन्त्रक को निर्ग्रन्थ वचन से विमुख करने में सफल नहीं हुआ तो वह शान्त हो गया। उसके मन में खेद हुआ और उसने नाव को धीरे-धीरे समुद्र की सतह पर रख दिया। फिर उसने अपना पिशाच रूप त्यागकर दिव्य देवरूप धारण किया और पंचरंगे तथा छमछम करते दिव्य वस्त्राभूषण पहनकर आकाश में स्थिर हो अर्हन्नक से कहाGIFT OF EARRINGS ____64. On failing to turn Arhannak against the preaching of the Nirgranth, the demon calmed down. It was repentant and put back the ship slowly on the surface of the sea. It then transformed its demonic appearance into a divine one with multicoloured dress and glittering divine ornaments. It stationed itself in the sky and said to Arhannak__सूत्र ६५. "हं भो अरहन्नगा ! धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविंद देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए बहूणं देवाणं मज्झगए महया सद्देणं आइक्खइ-“एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए अरहन्नए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु सक्का केणए देवेण वा दाणवेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामित्तए वा। Dang BAR OVERNMMUHURARImmuaamaargamMem ब o m sanemummendment BT CHAPTER-8: MALLI (355) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) तणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स देविंदस्स एयमहं णो सद्दहामि, नो रोययामि । तए णं मम इमेयावे अज्झत्थिए जाव परिच्चयइ ? णो परिच्चयइ ? ति कट्टु एवं संपेहेमि, संपेहित्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता देवाणुप्पिया ! ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं उत्तरवेउव्वियं समुग्धामि, ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि । उवागच्छित्ता देवाणुप्पियाणं उवसग्गं करेमि । नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा तत्था वा, तं जं णं सक्के देविंदे देवराया वदइ, सच्चे णं एसमट्टे । तं दिट्टे णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी जुई जसो बलं जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरिहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाइ भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए ।" त्ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए एयमट्टं भुज्जो खामेइ, खामित्ता अरन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयइ, दलइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र - ६५. " हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है कि तुमको निर्ग्रन्थ वचन के प्रति ऐसी श्रद्धा उपलब्ध हुई है और वह सम्यक् रूप से तुम्हारे आचरण में प्रकट हुई है। हे देवानुप्रिय ! देवराज शक्रेन्द्र ने सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक नाम के विमान की सुधर्मा सभा में अनेक देवों के बीच शुभ वचनों में कहा था- 'जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पानगरी में अर्हन्नक नाम का एक श्रमणोपासक जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता है। उसे कोई भी देव-दानव निर्ग्रन्थ वचन से विमुख करने में समर्थ नहीं है । ' में "हे देवानुप्रिय ! उस समय शक्रेन्द्र के इस कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ था और न उनकी बात अच्छी लगी थी । उस समय मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ - 'मैं जाकर अर्हन्नक के सामने प्रकट होऊँ और पहले यह जानूँ कि उसे धर्म प्रिय है या नहीं ? वह धर्म दृढ़ है या नहीं ? वह शीलादि व्रतों से विमुख होता है या नहीं ?' इस विचार के आने पर मैंने अवधिज्ञान से तुम्हारी स्थिति जानी और ईशानकोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात से उत्तर वैक्रियशरीर धारण किया । फिर तीव्र गति से समुद्र में जहाँ तुम थे वहाँ आया और तुम्हें आतंकित करने के लिए उपसर्ग किये। पर तुम विचलित नहीं हुए । अतः शक्रेन्द्र के वचन सच्चे निकले। मैंने देखा कि तुम्हें ऋद्धि, द्युति, यश, बल और पराक्रम प्राप्त हुआ और तुमने उनकां भलीभाँति उपयोग किया है । हे देवानुप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ। आप क्षमा प्रदान करने योग्य हैं। हे देवानुप्रिय ! भविष्य में मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा।" और वह देव दोनों हाथ जोड़ अर्हन्नक के चरणों में गिरकर बारम्बार अपने उपद्रव के लिए विनयपूर्वक क्षमायाचना करे लगा । फिर उसने अर्हन्नक को दो कुंडल युगल ( दो जोड़ी ) भेंट किए और जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया । है ( 356 ) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली 65. “Arhannak! Praise be to you. You are a highly accomplished individual as you have developed so deep a faith in the preaching of the Nirgranth; all the more so because it is evident in your conduct. Beloved of gods! Shakrendra, the king of gods had one day mentioned in the assembly of gods in the Saudharmavatansak dimension, 'In Champa city in the Bharat area of the Jambu continent lives Arhannak, a Shramanopasak, who has the knowledge of matter and soul. It is not possible for any god or demon to turn him against the preaching of the Nirgranth.' "Beloved of gods! At that time I neither believed nor liked this statement of the king of gods. I just thought, 'Let me first go and appear before Arhannak and test him if he loves his religion? If he is resolute in his discipline? and can he be turned against his vows?' "Thinking thus I located you with the help of my Avadhi Jnana. I proceeded in the north-east direction and with the process of Vaikriya Samudghat transformed myself into a demonic body. I rushed to the area your ship was on the high seas and created various horrors to overwhelm you. But you did not move an inch and maintained your poise. Thus the king of gods was proved right. ( ३५७ ) "I have observed that you have been blessed with wealth, aura, fame, strength, and prowess and you have utilized them well. Beloved of gods! I beg your pardon. You have the capacity to forgive and forget. Beloved of gods! I promise not to repeat this in future." And that god fell at the feet of Arhannak with joined palms and begged pardon again and again for his misdeed. He then gifted two pairs of earrings to Arhannak and left for his abode. सूत्र ६६. तए णं अरहन्नए निरुवसग्गमित्ति कट्टु पडिमं पारे । तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा जाव वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबंति, लंबित्ता सगडिसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तं गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्जं सगडिसागडं संकामेंति, संकामित्ता सगडिसागडं जोएंति, जोत्ता जेणेव मिहिला नगरी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडिसागडं मोएन्ति, मोइत्ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्घं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडं कुंडलजुयलं च गेण्हंति, गेण्हित्ता मिहिलाए रायहाणीए CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORAO Swa ORD SANT MEDERED अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव कटु तं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उवणेति जाव पुरओ ठवेंति। सूत्र ६६. उपसर्ग के समाप्त हो जाने पर अर्हन्नक ने अपना कायोत्सर्ग सम्पन्न किया। पवन के दक्षिणमुखी होने के कारण उनकी नाव गम्भीर नाम के बन्दरगाह पर पहुंची। नाव के रुकने पर अर्हन्नक तथा अन्य व्यापारियों ने गाड़ियाँ तैयार कर उनमें माल भरा और घोड़े जोतकर रवाना हो गये। वहाँ से वे मिथिला नगरी पहुंचे और नगर के बाहर श्रेष्ठ उद्यान में अपनी गाड़ियाँ खड़ी कर दी। फिर वे राजा के लिये बहुमूल्य तथा महान व्यक्तियों को भेंट करने योग्य सामग्री तथा कुंडलों की वह दिव्य जोड़ी साथ में लेकर मिथिला नगरी के भीतर आये। कुम्भ राजा के दरबार में पहुँच दोनों हाथ जोड़ अभिनन्दन किया और भेंट सामग्री तथा कुंडल राजा के सामने रख दिये। 66. Arhannak concluded his meditation as soon as the affliction was over. When the wind started blowing from the south their ship reached the Gambhir port. After the ship docked, Arhannak and the other merchants prepared their carts and loaded their merchandise. Harnessing the horses they left the port. They came to Mithila city and parked their carts in the beautiful garden outside the city. They selected valuable and suitable gifts as well as a pair of the divine earrings and entered the town. Arriving at the court of King Kumbh they greeted him and placed the gifts and the earrings before him. __सूत्र ६७. तए णं कुंभए राया तेसिं संजत्तगाणं नावावाणियगाणं जाव पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्लिं विदेहवररायकन्नं सद्दावेइ, सद्दावित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवररायकनगाए पिणद्धइ, पिणद्धित्ता पडिविसज्जेइ। तए णं से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे जाव वाणियगे विपुलेणं असण-पाणखाइम-साइमेण वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं जाव उस्सुक्कं वियरेइ, वियरित्ता रायमग्गमोगाढे य आवासे वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ। ___ सूत्र ६७. कुंभ राजा ने उन नौका वणिकों द्वारा दी बहुमूल्य भेंट सामग्री स्वीकार की और मल्लीकुमारी को बुलवाया। वे दिव्य कुंडल उन्होंने कुमारी को पहनाए और वापस भेज दिया। फिर कुम्भ राजा ने अर्हन्नक आदि यात्रियों का प्रचुर आहार सामग्री तथा वस्त्रालंकार प्रदान कर सत्कार किया। राजा ने उनका शुल्क भी माफ कर दिया और राजमार्ग पर ठहरने का स्थान प्रदान कर विदा किया। SMS RAMA TOR - / (358) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 OTE IN ONE Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Cam की क IRAO MPS चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED - - - - दिव्य कुण्डल युगल की भेंट - चित्र : २४ देव के उपहार रूप में प्राप्त कुण्डल युगल लेकर अर्हन्नक आदि समुद्र व्यापारी मिथिला के तट पर पहुंचे। वहाँ के राजा कुम्भ को भेंट देने के लिए स्वर्ण थाल में वे दिव्य कुण्डल सजाकर लाये। ऐसे दिव्य कुण्डल देखकर राजा कुम्भ बहुत प्रसन्न हुए। व्यापारियों को सम्मानित किया। महाराज कुम्भ की पुत्री थी मल्लीकुमारी। संसार की अद्भुत रूप-लावण्यवती और अनन्त पुण्यशालिनी। मल्लीकुमारी का वर्ण पन्ना-रत्न जैसी हरी छवि युक्त था। महाराज कुम्भ ने वे दिव्य कुण्डल युगल राजकुमारी मल्ली को पहनाये तो जैसे कुण्डलों से राजकुमारी का और राजकुमारी की दिव्य छवि से कुण्डलों का सौन्दर्य सौ गुना निखर गया। महाराज कुम्भ के पास ही राजसिंहासन पर विराजित है मल्लीकुमारी। (अध्ययन ८) PRESENTING THE DIVINE EARRINGS ILLUSTRATION : 24 Taking the divine earrings Arhannak and his friends came to Mithila city. They took a gold plate, placed the divine earrings in it, and came to the court of King Kumbh. They greeted him and presented the earrings to him. King Kumbh was pleased. He felicitated the merchants. Princess Malli, the daughter of King Kumbh, was a divine beauty and a pious person. She had an emerald green complexion. The king gave the divine earrings to his daughter. When she put on these earrings her beauty was enhanced hundred fold, and the same happened to the divine beauty of the earrings. Princess Malli is occupying the throne adjacent to King Kumbh. (CHAPTER-8) MAmma JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३५९ ) Tes WAONEINDAN 67. King Kumbh accepted the costly gifts and called Princess Malli He gave the divine earrings to her and let her wear them before going back. King Kumbh honoured Arhannak and other merchants by gifting ample food, cloths and ornaments. He also exempted them from any levies and provided for a place to stay near the highway. सूत्र ६८. तए णं अरहन्नगसंजत्तगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भंडववहरणं करेंति, करित्ता पडिभंडं गेण्हंति, गेण्हित्ता सगडिसागडं भरेंति, जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जित्ता भंडं संकाति, दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव चंपाए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबेंति, लंबित्ता सगडिसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तं गणिमं धरिमं मेज्जं पारिच्छेज्जं सगडीसागडं संकामेंति, संकामेत्ता जाव महत्थं पाहुडं दिव्यं च कुंडलजुयलं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव उवणेति। सूत्र ६८. राजा द्वारा बताये आवास पर आकर उन्होंने अपना माल बेचना आरंभ कर दिया। सारा माल बेचकर उन्होंने वहाँ से नया माल खरीदकर अपनी गाड़ियाँ भरी और गम्भीर बन्दरगाह पर आकर नाव तैयार कर उसमें वह माल भर लिया। वहाँ से जलमार्ग द्वारा वे चम्पानगरी के बन्दरगाह पर आये और अपना माल गाड़ियों में भर दिया। फिर वे वहुमूल्य भेंट सामग्री तथा कुंडलों की बची हुई दूसरी जोड़ी लेकर अंगराज चन्द्रच्छाय के दरबार में गये और भेंट राजा के समक्ष रख दी। 68. After settling at the house allotted by the king they started trading their goods. Selling all their stock and purchasing local goods they reloaded their carts and came to the port. Loading their ship they started on their journey back to the port of Champa. They filled their carts with the merchandise and went to the court of King Chandracchaya of Anga with valuable gifts and the remaining pair of divine earrings. The gifts were now placed before the king. ___ सूत्र ६९. तए णं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्थं च कुंडलजुयलं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ते अरहन्ननगपामोक्खे एवं वयासी-“तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामागर० जाव सन्निवेसाई आहिंडह, लवणसमुदं च अभिक्खणं अभिक्खणं पोयवहणेहिं ओगाहेह, तं अत्थियाइं भे केइ कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे ?" CHAPTER-8 : MALLI (359) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Caes . CTED - - - सूत्र ६९. राजा ने उनकी दिव्य कुण्डल जोड़ी की भेंट स्वीकार की और कहा-“हे देवानुप्रियो ! आप अनेक ग्रामादि में भ्रमण करते हैं तथा बार-बार समुद्र यात्रा पर जाते हैं। हमें बताओ कि कहीं आपने कोई आश्चर्य भी देखा है क्या?" 69. The king accepted the gifts and said, “Beloved of gods! You have done many sea voyages and visited numerous villages, cities etc. ; tell me if you have come across some wonder somewhere?” सूत्र ७0. तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्तगा णावावाणियगा परिवसामो, तए णं अम्हे अन्नया कयाइं गणिमं च धरिमं च सेज्जं च परिच्छेजं च तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुंभगस्स रण्णो उवणेमो। ___ तए णं से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुंडलजुयलं पिणद्धेइ, पिणद्धित्ता, पडिविसज्जेइ। तं एस णं सामी ! अम्हेहिं कुंभरायभवणंसि मल्ली विदेहरायवरकन्ना अच्छेरए दिढे तं नो खलु अन्ना का वि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना।। सूत्र ७०. वणिकों ने अंगराज चंद्रच्छाय को उत्तर दिया-“हे स्वामी ! हम सब नौकावणिक् इसी चम्पानगरी के रहने वाले हैं। एक बार हम अपना माल भरकर यात्रा करते हुए मिथिला के राजा कुम्भ के पास गये। उन्हें भेंट समर्पित करके बैठे तो उन्होंने उसमें से दिव्य कुण्डल निकालकर अपनी कन्या मल्लीकुमारी को पहना कर उसे वापस भेजा। हे स्वामी ! हमें राजा कुम्भ के भवन में उनकी पुत्री मल्लीकुमारी एक आश्चर्य के रूप में दिखाई दी। उसके जैसी सुन्दरी समस्त त्रिभुवन की कन्याओं में नहीं है।" 70. The merchants replied to the king of Anga, “Sire! We seafarers are inhabitants of this Champa city. Traveling once with our merchandise we arrived in Mithila city and visited King Kumbh. When we took our seats after presenting the gifts to the king, he picked up the divine earrings and gave them to his daughter Princess Malli to wear. Sire! In that palace of King Kumbh Princess Malli was a wonder. She has no parallel in beauty in the whole universe." सूत्र ७१. तए णं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ। तए णं चंदच्छाए वाणियगजणियहासे दूतं सद्दावेइ, जाव जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका। तए णं से दूते हढे जाव पहारेत्थ गमणाए। BHARO (360) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३६१) ORgO ज सूत्र ७१. राजा चन्द्रच्छाय ने अर्हनक आदि वणिकों का आदर-सत्कार किया और उन्हें विदा किया। वणिकों की बात सुन उनके. मन में हर्ष और प्रेम की भावना जागी। उन्होंने अपने दूत को बुलाया और मल्लीकुमारी से विवाह करने का प्रस्ताव राजा कुंभ के पास ले जाने को कहा। दूत प्रसन्नचित्त रवाना हो गया। ___71. King Chandracchaya bestowed honour on the traders and bid them good-bye. He was pleased to hear the story narrated by the merchants and at the same time was filled with a desire. He called his emissary and instructed him to go to King Kumbh with a marriage proposal for Princess Malli. The emissary happily commenced his journey. राजा रुक्मि सूत्र ७२. तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सावत्थी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नामं राया होत्था। तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया होत्या, सुकुमाल पाणि पाया रूवेण य जोव्वणेणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था। तीसे णं सुबाहूए दारियाए अन्नया चाउम्मासियमज्जणए जाए यावि होत्था। सूत्र ७२. काल के उस भाग में कुणाल नाम का एक जनपद था। वहाँ की राजधानी श्रावस्ती नगरी थी जहाँ रुक्मि नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम धारिणी था जिसकी कोख से जन्मी कन्या का नाम सुबाहु था। वह कन्या सुकोमल थी और शरीर, वय, रूप, यौवन तथा लावण्य में उत्कृष्ट थी। एक बार उस राजपुत्री के चातुर्मासिक स्नान के उत्सव का समय आया। KING RUKMI 72. During that period of time there was a country named Kunal. The capital of Kunal was Shravasti city and King Rukmi ruled there. The name of his queen was Dharini. He also had a daughter named Subahu. The princess was delicate as well as exemplary in beauty, youth and charm. One day her annual bathing ritual was celebrated. सूत्र ७३. तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहूए दारियाए चाउम्मासियमज्जणयं उवट्ठिय जाणइ, जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“एवं खलु amro CHAPTER-8 : MALLI (361) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( ३६२ ) CTara - - देवाणुप्पिया ! सुबाहूए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमज्जणए भविस्सइ, तं कल्लं तुब्भे णं रायमग्गमोगाढंसि चउक्कंसि जलथलयदसद्धवण्णमल्लं साहरेह, जाव ओलइंति। ___ सूत्र ७३. राजा रुक्मि ने उस अवसर पर अपने सेवकों को बुलाकर कहा-"हे देवानुप्रियो ! कल कुमारी सुबाहु के चातुर्मासिक स्नान का उत्सव है। अतः तुम जल-थल के पंचरंगे फूल लाओ और राजमार्ग के बीच चौक में उन फूलों की मालाओं का सुगंधित गजरा लटकाओ।" सेवकों ने राजाज्ञा के अनुसार कार्य सम्पन्न किया। 73. On that occasion King Rukmi called his staff and said, “Beloved of gods! Tomorrow is the annual bathing ceremony of princess Subahu. As such, bring multi-coloured flowers from land and water and decorate the central square on the highway with intwined garlands of these flowers.” The attendants carried out the order. सूत्र ७४. तए णं रुप्पी कुणालाहिवई सुवन्नगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणप्पिया ! रायमग्गमोगाढंसि पृष्फमंडवंसि णाणाविह पंचवण्णेहिं तंदुलेहिं णगरं आलिहह। तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रएह।" रएत्ता जाव पच्चप्पिणंति। सूत्र ७४. इसके पश्चात् राजा रुक्मि ने स्वर्णकारों-सुनारों के संघ को बुलाकर कहा"हे देवनुप्रियो ! जल्दी ही राजमार्ग के बीच बनाये पुष्प-मंडप में तरह-तरह के पंचरंगे चावलों से नगर का चित्र बनाओ और उसके बीच में एक पाट रखो।'' सुनार संघ ने आज्ञा के अनुसार कार्य सम्पन्न कर दिया। 74. King Rukmi now called the guild of goldsmiths and said, "Beloved of gods! Go and prepare a model of the city with multicoloured rice in the flower-pavilion raised at the centre of the highway At the centre of the model erect a platform." The guild of goldsmiths carried out the order. सूत्र ७५. तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड-चडकर-रह-पहकरविंद-परिक्खित्ते अंतेउरपरियालसंपरिबुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे, जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पुप्फमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने। सूत्र ७५. राजा रुक्मि तब श्रेष्ठ हाथी पर सवार हो अपनी चतुरंगिनी सेना, स्वजनों तथा वैभव सहित कुमारी सुबाहु को आगे कर राजमार्ग के मध्य बने पुष्प-मंडप के पास - - a . (362) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३६३) आया। हाथी पर से उतरकर पुष्प-मंडप में प्रवेश किया और पूर्व दिशा की ओर मुख कर श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। 75. King Rukmi rode the best of his elephants and accompanied by the regiment of guards, his relatives, and all his regalia with princess Subahu in front, came to the flower-pavilion raised at the centre of the highway. He got down from the elephant, entered the pavilion and sat on the royal throne facing east. सूत्र ७६. तओ णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुँ दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति। दुरूहित्ता सेयपीयएहिं कलसेहिं पहाणेति, पहाणित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता पिउणो पायं वंदिउं उवणेति। तए णं सुबाहू दारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ। तए णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए वरिसधरं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-“तुमं णं देवाणुप्पिया ! मम दोच्चेणं बहूणि गामागरनगर जाव सण्णिवेसाई आहडिंसि, बहूण य राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं गिहाणि अणुपविससि, तं अत्थियाई से कस्सइ रण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मज्जणए दिद्वपुव्वे, जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मज्जणए?'' सूत्र ७६. अंतःपुर की महिलाओं ने सुबाहुकुमारी को उस पाट पर आसीन किया और चाँदी व सोने के कलशों में भरे पानी से उसे स्नान कराया। वस्त्रालंकारों से सज्जित कर वे उसे अपने पिता के चरणों में प्रणाम करने के लिए लाईं। सुबाहुकुमारी ने पिता के निकट पहुँच उनके चरणों का स्पर्श किया। रुक्मि राजा ने अपनी पुत्री को गोद में बिठा लिया और उसके रूप, यौवन और लावण्य को देख विस्मित हुए। उन्होंने अन्तःपुर के वरिष्ठ रक्षक को बुलाकर पूछा-“हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे दूत के रूप में अनेक ग्रामादि में जाते हो। क्या तुमने किसी राजा या जागीरदार के यहाँ ऐसा म्नानोत्सव इससे पहले भी कहीं देखा है ?" 76. The ladies from the palace seated the princess on the platform and helped her bathe with water filled in pitchers made of gold and silver. They also helped her dress and then took her to her father to touch his feet. When the princess reached near her father she bowed down and touched his feet. King Rukmi made her sit in his lap and was astonished to see her beauty, youth and charm. He called the I xका CHAPTER-8 : MALLI (363) Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र commander of the brigade of palace guards and asked, “Beloved of gods! You have been to many villages (etc.) as my emissary; tell me if you have ever seen such a bathing celebration at palaces of any of the kings or landlords.” ___ सूत्र ७७. तए णं से वरिसधरे रुप्पिं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वदासी-“एवं खलु सामी ! अहं अन्नया तुब्भे णं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रण्णो धूयाए, पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नयाए मज्जणए दिट्टे, तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहूए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घेइ। ___ सूत्र ७७. रक्षक ने हाथ जोड़कर कहा-“हे स्वामी ! एक बार मैं आपके दूत के रूप में मिथिला गया था। वहाँ मैंने राजा कुंभ और रानी प्रभावती की पुत्री मल्ली का स्नानोत्सव देखा था। सुबाहुकुमारी का यह स्नानोत्सव उसके लाखवें अंश के बराबर भी नहीं है।" 77. The commander replied with joined palms, “Sire! Once I had gone to Mithila as your emissary. There I chanced to witness the bathing ceremony of Princess Malli, the daughter of King Kumbh and Queen Prabhavati. The bathing ceremony of princess Subahu is not even a millionth fraction as good as that of Princess Malli.” सूत्र ७८. तए णं से रुप्पी राया वरिसधरस्स अंतिए एयम8 सोच्चा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणग-जणियहासे दूतं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-"जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। सूत्र ७८. यह सुन-समझकर उस स्नानोत्सव के वर्णन से प्रभावित तथा आकर्षित राजा रुक्मि ने अपने दूत को बुलाया और मल्लीकुमारी से विवाह के प्रस्ताव सहित उसे मिथिला के लिए रवाना कर दिया। ___78. Impressed by this, King Rukmi called his emissary and sent him to Mithila with a marriage proposal for Princess Malli. काशीराज शंख सूत्र ७९. तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामं जणवए होत्था। तत्थ णं वाणारसी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नामं राया कासीराया होत्था। सूत्र ७९. काल के उस भाग में काशी नाम का एक जनपद था जिसकी वाराणसी नाम की नगरी में काशीराज शंख राज्य करते थे। OrA SAIRATNA PARTNA TYPER (364) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३६५) althO पर KING SHANKH OF KASHI 79. During that period of time there was a country named Kashi and its capital was Varanasi city. King Shankh ruled there. सूत्र ८0. तए णं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुंडल-जुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था। ___तए णं कुंभए राया सुवन्नगारसेणिं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं संघाडेह।" सूत्र ८0. एक बार मल्लीकुमारी के उन दिव्य कुण्डलों का एक जोड़ खुल गया। राजा कुंभ ने सुनारों के संघ को बुलाकर कहा-“देवानुप्रियो ! इस कुंडल के जोड़ को झाल लगाकर ठीक कर दो।" 80. Once, a joint in one of Princess Malli's divine earrings broke. King Kumbh summoned the guild of goldsmiths and said, “Beloved of gods! Braze the broken joint and set this earring right." सूत्र ८१. तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमढें तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगारभिसियासु णिवेसेइ, णिवेसित्ता बहूहिं आएहिं य जाव परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं घडित्तए, नो चेव णं संचाएंति संघडित्तए। तए णं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! अज्ज तुब्भे अम्हे सद्दावेह। सद्दावेत्ता जाव संधि संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो। जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडित्तए। तए णं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो।" __ सूत्र ८१. सुनारों ने 'जो आज्ञा' कहकर वे कुण्डल ले लिये और अपने कारखाने चले गये। वहाँ आकर उन्होंने अनेक प्रकार से उन्हें झालने की पूरी चेष्टा की पर वैसा नहीं कर सके। निराश हो वे राजा के पास लौटे, हाथ जोड़कर अभिनन्दन किया और बोले-“हे स्वामी ! आज आपने हमें बुलाकर कुण्डलों को ठीक कर लाने की आज्ञा दी थी। हमने इन कुण्डलों को कारखाने ले जाकर झाल लगाने की बहुत चेष्टा की, किन्तु सफल न हो सके। अतः यदि महाराज की आज्ञा हो तो हम ऐसी ही नई जोडी बनाकर ला देवें।" CHAPTER-8 : MALLI (365) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र STATRO ao HD - TUM NO 81. The goldsmiths said, "As you say, Sire." and took the earrings to their smithy. They tried their best, using all the skill at their command, to braze the joint but failed. Getting disappointed they came to the king, greeted him with joined palms and said, “Sire ! You called us today and instructed us to repair the earrings. We took these earrings to our smithy and tried our best to braze the joint but failed. If your excellency permits we may make a new pair like this." सुनारों का देश निकाला सूत्र ८२. तए णं से कुंभए राया तीसे सुवण्णगारसेणीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु एवं वयासी "केस णं तुब्भे कलायणं भवह ? जे णं तुब्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधिं संघाडेत्तए?" ते सुवण्णगारे निव्विसए आणवेइ। सूत्र ८२. सुनारों की बात सुनकर राजा कुंभ कुपित हो गये। उनके ललाट पर तीन सलवट पड़ गये। उन्होंने सुनारों से कहा-"तुम कैसे सुनार हो जो इस कुण्डलों की जोड़ी में झाल भी नहीं लगा सकते?" और राजा ने उन्हें देश निकाले की आज्ञा दे दी। EXILE OF GOLDSMITHS 82. Hearing about the failure of the goldsmiths King Kumbh got angry. He frowned deeply and addressed the goldsmiths, "What sort of goldsmiths are you, who could not do a simple thing like brazing a joint of these earrings?" And he issued orders for their deportation. सूत्र ८३. तए णं ते सुवण्णगारा कुंभेणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साई साइं गिहाई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मज्झमज्झेणं निक्खमंति। निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव कासी जणवए, जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता अग्गुज्जाणंसि सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेहंति, गेण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मझमज्झेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल. जाव वद्धाति, वद्धावित्ता पाहुडं पुरओ ठावेंति, ठावित्ता संखरायं एवं वयासी GREEN BAD (366) INATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली (३६७) Ta> M Omes ल ATM COMSADAV यादा MARA सूत्र ८३. देश से निकल जाने का दंड पाकर वे सुनार अपने-अपने घर लौटे और अपने कपड़े-लत्ते, बर्तन-भाँड़े व औजार-पाती लेकर मिथिला नगरी के बीच होते हुए बाहर निकल गये। विदेह जनपद से निकलकर वे काशी जनपद में वाराणसी नगरी पहुँचे। नगर के बाहर उद्यान में अपनी गाड़ियाँ खड़ी कर वे वाराणसी नगरी के बीच होते राजा शंख के दरबार में पहुंचे। हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन किया और भेंट सामग्री राजा के सम्मुख रख दी। फिर वे राजा से बोले 83. Getting this punishing order the goldsmiths returned to their respective homes; collected their cloths, utensils, instruments, and other necessary things; and left the town. Leaving the Videh country they entered the Kashi country and arrived in Varanasi city. They parked their vehicles in a garden outside the city and arrived at the court of King Shankh. They greeted the king with joined palms, placed gifts before him and submitted सूत्र ८४. “अम्हे णं सामी ! मिहिलाओ नयरीओ कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा इहं हव्वमागया, तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुब्बिग्गा सुहं सुहेणं परिवसिउं।" तए णं संखे कासीराया ते सुवण्णगारे एवं वयासी"किं णं तुब्भे देवाणुप्पिया कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता?' तए णं ते सुवण्णगारा संखं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! कुंभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए। तए णं से कुंभए सुवण्णगारसेणिं सदावेइ, सद्दावित्ता जाव निव्विसया आणत्ता।" सूत्र ८४. “हे स्वामी ! राजा कुम्भ के द्वारा मिथिला नगरी से निर्वासित होकर हम सीधे यहाँ आये हैं। हम आपकी भुजाओं की छाया में निर्भय और निरुद्वेग होकर सुख-शान्ति से रहना चाहते हैं।" काशीराज ने प्रश्न किया-“देवानुप्रियो ! राजा कुंभ ने तुम्हें देश निकाला क्यों दिया?" सुनारों ने उत्तर दिया-"स्वामी ! राजा कुम्भ की पुत्री मल्लीकुमारी के कुण्डल का जोड़ खुल गया था। राजा ने हमें बुलाकर उसे ठीक करने को कहा और वैसा न कर पाने पर उन्होंने हमें निर्वासित कर दिया।" 84. “Sire ! After being exiled by King Kumbh from Mithila we have come here straight-away. We want to settle down here, in peace and without any fear or disturbance, under your protection.” CHIER moonmaye CHAPTER-8 : MALLI (367) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Congo RADIA Tछा The king of Kashi asked, “Beloved of gods! Why King Kumbh exiled you?" The goldsmiths replied, “Sire ! A joint in the earrings of Princess Malli, the daughter of the king, had broken. The king called us and ordered us to repair it. When we failed to do so he exiled us." सूत्र ८५. तए णं से संखे सुवनगारे एवं वयासी-“केरिसिया णं देवाणुप्पिया ! कुंभगस्स धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना?" तए णं ते सुवण्णगारा संखरायं एवं वयासी-“णो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना।" तए णं कुंडलजुअलजणियहासे दूतं सद्दावेइ, जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए। __ सूत्र ८५. राजा शंख ने प्रश्न किया-“देवानुप्रियो ! राजा कुम्भ की पुत्री मल्लीकुमारी कैसी है?" ___ सुनारों ने कहा-"स्वामी ! मल्लीकुमारी जैसी सुन्दरी सारे त्रिभुवन में कहीं भी नहीं यह सुनकर कुंडलादि सहित मल्लीकुमारी के वर्णन से प्रभावित राजा शंख ने विवाह प्रस्ताव सहित अपने दूत को मिथिला के लिए भेज दिया। 85. King Shankh asked, “Beloved of gods ! Tell me about Princess Malli, the daughter of King Kumbh." Goldsmiths, “Sire ! There is no dame as beautiful as Princess Malli in the whole universe." The description of the princess and her divine earrings impressed king Shankh so much that he sent his emissary to Mithila with a marriage proposal. राजा अदीनशत्रु सूत्र ८६. तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था, हत्थिणाउरे नयरे, अदीणसत्तू नाम राया होत्था, जाव विहरइ। सूत्र ८६. काल के उस भाग में कुरु नामक जनपद के हस्तिनापुर नगर पर राजा अदीनशत्रु का शासन था। - (368) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३६९) KING ADINSHATRU 86. During that period of time King Adinshatru ruled over Hastinapur, the capital city of Kuru country. __सूत्र ८७. तत्थ णं मिहिलाऐ कुंभगस्स पुत्ते पभावईए अत्तए मल्लीए आणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव जुवराया यावि होत्था। तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"गच्छह णं तुब्भे मम पमदवणंसि एगं महं चित्तसभं. करेह अणेगखंभसयसण्णिविठें, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, ते वि तहेव पच्चप्पिणंति। __ सूत्र ८७. मिथिला नगरी के राजा कुम्भ का पुत्र और मल्लीकुमारी का छोटा भाई कुमार मल्लदिन्न वहाँ का युवराज था। एक दिन कुमार मल्लदिन्न ने अपने सेवकों को बुलाकर कहा-“मेरे महल के उद्यान (प्रमदवन) में एक विशाल चित्रसभा का निर्माण कराओ।" सेवकों ने कुमार की आज्ञा का पालन कर उन्हें सूचना दी। 87. Prince Malladinna, the son of King Kumbh and younger brother of Princess Malli, was the heir to the throne of Mithila. One day Malladinna called his staff and said, “Construct a large art gallery in my palace garden.” The attendants carried out the order and reported back to him. सूत्र ८८. तए णं मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगरसेणिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हाव-भाव-विलास-विब्बोय-कलिएहिं रूवेहिं चित्तेह। चित्तित्ता जाव पच्चप्पिणह। ____ तए णं सा चित्तगरसेणी तह ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सयाई गिहाई, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तूलियाओ वन्नए य गेण्हति, गेण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अणुपविसति, अणुपविसित्ता भूमिभागे विरचति, विरचित्ता भूमिं सज्जति, सज्जित्ता चित्तसभं हावभाव0 जाव चित्तेउं पयत्ता यावि होत्था। __सूत्र ८८. फिर मल्लदिन्न कुमार ने चित्रकारों के दल को बुलाकर कहा-“देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरी चित्रसभा को विभिन्न मुद्रा, भाव, विलास और चेष्टाओं युक्त चित्रों से परिपूर्ण कर दो।" कुमार की आज्ञा शिरोधार्य कर चित्रकार अपने घरों को लौट गये। तूलिकाएँ और रंग आदि सामग्री लेकर वे चित्रसभा में गये। वहाँ उन्होंने सारे क्षेत्र का विभाजन किया और अपने-अपने क्षेत्र को तैयार कर चित्र बनाने का कार्य आरंभ कर दिया। का CHAPTER-8 : MALLI (369) Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Oamo इo - - - - - 88. Malladinna now called a number of painters and said, “Beloved of gods ! Fill my art gallery with paintings on various subjects, themes, postures, gestures, and moods." Following the order the painters returned and came back after collecting paints, brushes and other equipment from their homes. With all this material they entered the gallery and allotted a specific work area to each. Every artist prepared his area and started work. मल्लीकुमारी का चित्र सूत्र ८९. तए णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया-जस्स णं दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ। तए णं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगुळं पासइ। तए. णं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था सेयं खलु ममं मल्लीए वि पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता भूमिभागं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए वि पायंगुट्ठाणुसारेणं जाव निव्वत्तेइ। सूत्र ८९. उन चित्रकारों में एक चित्रकार में ऐसी असाधारण क्षमता (लब्धि प्राप्त) थी कि वह किसी दोपाये, चौपाये अथवा अन्य किसी वस्तु का एक अवयव मात्र दिखाई दे जाने पर उस वस्तु का सम्पूर्ण चित्र बना सकता था। ___ एक बार उस विशिष्ट चित्रकार ने पर्दे की ओट में रही मल्लीकुमारी के पैर का अंगूठा किसी जाली के छेद में से देखा। तब उसके मन में विचार उठा कि मल्लीकुमारी के अंगूठे से प्रेरित हो उनकी सम्पूर्ण चित्र अनुकृति बनानी चाहिये। उसने अपने विचार को क्रियान्वित करने के लिए दीवाल के एक भाग को तैयार किया और चित्र बनाकर पूरा किया। THE PORTRAIT OF MALLI 89. Among those artists there was one who had the astonishing ability to paint a subject, be it man, animal or anything else, completely even if he had just a glimpse of a small part of its body. This artist once happened to see a toe of veiled Princess Malli from a hole in a grill. He immediately thought that inspired by this glimpse of the toe of the princess he should make a life size portrait of the (370) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली Oanso ( ३७१) A princess. He prepared a portion of the wall allotted to him and completed the portrait. __ सूत्र ९०. तए णं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं हाव-भाव-विलास-विव्वोय-कलिएहिं, रूवेहिं चित्तेइ, चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। तए णं मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलेइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ। सूत्र ९०. जब चित्रकारों के दल ने चित्रसभा को मल्लदिन्न की आज्ञानुसार चित्रित कर दिया तो वे कुमार के पास गए और कार्य सम्पन्न होने की सूचना दी। कुमार ने उनका यथोचित सत्कार किया और यथेष्ट प्रीतिदान देकर विदा किया। ____90. When the group of artists completed the assignment given to them by Malladinna they approached the prince and reported accordingly. The prince honoured them and dismissed them after rewarding generously. सूत्र ९१. तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया एहाए अंतेउरपरियालसंपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चित्तसभं अणुपविसइ। अणुपविसित्ता हाव-भाव-विलास-बिब्बोय-कलियाई रूवाई पासमाणे पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहवररायकनाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ___ तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तियं पासइ, पासित्त इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"एस णं मल्ली विदेहवररायकन्न' त्ति कटु लज्जिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पच्चोसक्काइ। सूत्र ९१. फिर एक दिन स्नानादि से निवृत्त हो अपने रनिवास आदि तथा धायमाता को साथ ले मल्लदिन्न कुमार उस चित्रसभा में आया। विविध हाव-भावयुक्त उन चित्रों को देखता-देखता वह उस ओर बढ़ा जहाँ मल्लीकुमारी का चित्र बना हुआ था। वहाँ पहुँचकर उसने जैसे ही राजकुमारी का चित्र देखा, वह चौंक पड़ा-“अरे यह तो मल्लीकुमारी है।" लाज-शर्म से सकुचाकर वह धीरे-धीरे वहाँ से पीछे हटने लगा। 91. One day getting ready after his bath etc. Malladinna came to the gallery accompanied by his queens, staff and his governess. Appreciating the paintings with various moods (etc.) he drifted towards the portrait of Princess Malli. The moment his gaze fell upon Jams Prose CHAPTER-8 : MALLI (371) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) this portrait he was taken aback, “My god! this is Princess Malli ?” Ashamed of himself he started retracing his steps. मल्ली नहीं ! चित्र सूत्र ९२. तए णं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसक्कतं पासित्ता एवं वयासी - "किं णं तुम पुत्ता ! लज्जिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पच्चोसक्कइ ?' तए णं से मल्लदिन्ने अम्मधाई एवं वयासी - " जुत्तं णं अम्मो ! मम जेट्ठाए भगिणीए गुरुदेव भूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तगरणिव्वत्तियं सभं अणुपविसित्तए ? ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ९२. कुमार को इस प्रकार हटते हुए देख उसकी धायमाता ने कहा - " हे पुत्र ! तुम लज्जा से धीरे-धीरे हट क्यों रहो हो ?" कुमार ने उत्तर दिया- "माता ! मेरी गुरु और देवता समान बड़ी बहन के सामने चित्रकारों द्वारा बनाई इस सभा में प्रवेश करते क्या मुझे लज्जित नहीं होना चाहिये ?" A PORTRAIT, NOT MALLI! 92. When his governess saw him moving away from there she asked, "Son! what makes you move away from this spot as if you are ashamed of something?" The prince replied, "Mother! Should I not be ashamed of entering this art gallery decorated with such candid paintings, in presence of my revered and respected elder sister?" सूत्र ९३. तए णं अम्मधाई मल्लदिने कुमारे एवं वयासी - "नो खलु पुत्ता ! एस मल्ली विदेह-वररायकन्ना चित्तगरएणं तयाणुरूवे निव्वत्तिए । " तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाईए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म आसुरुते एवं वयासी"केस णं भो ! चित्तयरए अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जेण ममं जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवभूयाए जाव निव्वत्तिए ?" त्ति कट्टु तं चित्तगरं वज्झं आणवे । सूत्र ९३. धायमाता ने बताया - " हे पुत्र ! यह सदेह मल्लीकुमारी नहीं है अपितु चित्रकार ने उसकी जीवन्त अनुकृति चित्रित की है। धामाता की यह बात सुनकर मल्लदिन कुमार क्रुद्ध होकर बोला- “ मृत्यु की इच्छा रखने वाला वह दुर्बुद्धि चित्रकार कौन है जिसने देव गुरु समान मेरी बड़ी बहन का यह चित्र बनाया है ?" और उसने उस चित्रकार का वध करने की आज्ञा दे दी। 93. The governess explained, "Son ! this is not Princess Malli but just a unique life like portrait of the princess." (372) For Private JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययनः मल्ली ( ३७३) O लेबल 04HIRO and Rahe ना Malladinna lost his temper at this statement of his governess and said, "Who is that ill fated and foolish artist who has made this portrait of my respected elder sister?" and he ordered the artist to be killed. सूत्र ९४. तए णं सा चित्तगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी "एवं खलु सामी ! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जस्स णं दुपयस्स वा जाव णिव्वत्तेति, तं मा णं सामी ! तुब्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह। तं तुब्भे णं सामी ! तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह।" __ सूत्र ९४. इस घटना की जानकारी मिलते ही चित्रकारों की वह मण्डली कुमार के पास आई और हाथ जोड़ अभिनन्दन कर उनसे प्रार्थना की-"स्वामी ! उस चित्रकार को ऐसी विशिष्ट योग्यता प्राप्त है कि वह किसी भी वस्तु की पूर्ण अनुकृति उसका एक अवयव देखकर ही बना सकता है। अतः हे स्वामी ! आप उसके वध की आज्ञा न देकर अन्य कोई उपयुक्त दण्ड देने की कृपा करें।" 94. When the group of artists became aware of this development they came to the prince, greeted him and appealed, "Sire ! That artist has the astonishing ability to paint a subject completely even if he just has a glimpse of a small part of its body. As such, we appeal for your mercy to reduce his sentence." निर्वासित चित्रकार सूत्र ९५. तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ, निव्विसयं आणवेइ। तए णं से चित्तगरए मल्लदिनेणं निव्विसए आणत्ते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ नयरीओ णिक्खमइ, णिक्खमित्ता विदेहं जणवयं मज्झमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे नयरे, जेणेब कुरुजणवए, जेणेव अदीणसत्तू राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करित्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जित्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए पायंगुट्ठाणुसारेणं रूवं णिव्वत्तेइ, णिव्वत्तित्ता कक्खंतरंसि छुब्भइ, | छुब्भइत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता हत्थिणापुरं नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव Og OME CHAPTER-8 : MALLI (373) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तं करयल० जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता “एवं खलु अहं सामी ! मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रण्णो पुत्तेणं पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिनेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते समाणे इह हव्यमागए, तं इच्छामि णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छाया-परिग्गहिए जाव परिवसित्तए।" सूत्र ९५. यह सुनकर मल्लदिन्न ने उस चित्रकार के दाहिने हाथ का अंगूठा और तर्जनी कटवाकर देश से निकाल देने की आज्ञा दे दी। दण्ड पाकर वह चित्रकार अपना सारा सामान लेकर मिथिला नगरी से प्रस्थान कर गया। विदेह जनपद से निकलकर वह कुरु जनपद में हस्तिनापुर नगर में आया। अपना सामान उचित स्थान पर रखकर उसने एक चित्र फलक तैयार किया और उस पर मल्लीकुमारी का पूर्ण चित्र बनाया। उस चित्र को अपनी बगल में दबा, राजा को भेंट देने योग्य उपहार लेकर हस्तिनापुर नगर के बीच से राजा अदीनशत्रु के दरबार में आया। उपहार राजा के सामने रख, हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन करके वह बोला“स्वामी ! मिथिला नगर के राजा कुंभ के पुत्र युवराज मल्लदिन्न ने मुझे देश से निर्वासित कर दिया तो मैं सीधा यहाँ आ गया हूँ। अब मैं आपकी बाहुओं की छत्रछाया में सुरक्षित हो यहाँ बसना चाहता हूँ।" EXILED PAINTER 95. Malladinna considered their request and reduced the sentence of the artist to deportation after amputating the thumb and index finger of his right hand. After his punishment the artist collected his belongings and left Mithila. Leaving Videh he came to Hastinapur in Kuru. He found a proper place to stay and preparing a canvas he made a portrait of Princess Malli. He took this portrait with him, collected some suitable gifts, and went to the court of King Adinshatru. After placing the gifts before the king and greeting him the artist said, “Sire ! Prince Malladinna, son of King Kumbh of Mithila has exiled me. I have come here to settle under your esteemed protection." सूत्र ९६. तए णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगरदारयं एवं वयासी-"किं णं तुम देवाणुप्पिया ! मल्लदिन्नेणं निव्विसए आणत्ते ?" सूत्र ९६. राजा ने चित्रकार से पूछा-“देवानुप्रिय ! कुमार मल्लदिन्न ने तुम्हें देशनिर्वासन की आज्ञा किस कारण दी ?" RB - स 374.1 INATA DHARMA KATHANGA SUTRA . Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३७५) ORIA AIMIDNA SAMRO RamNIMAns 96. The king asked, “Beloved of gods ! Why did prince Malladinna order your exile?" सूत्र ९७. तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुरायं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम चित्तसभं' तं चेव सव्वं भाणियव्वं, जाव मम संडासगं छिंदावेइ, छिंदावित्ता निव्विसयं आणवेइ, तं एवं खलु सामी ! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते।" __सूत्र ९७. चित्रकार ने उत्तर दिया-“हे स्वामी ! कुमार ने एक दिन चित्रकारों की मण्डली को बुलाकर चित्र सभा बनाने की आज्ञा दी थी,....।" और उसने आदि से अन्त तक घटना का पूरा वृत्तान्त सुनाया। 97. The artist replied, “One day the prince summoned a group of artists........” and he narrated the story. सूत्र ९८. तए णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए ?" तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेइ, णीणित्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी-“एस णं सामी ! मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्स केइ आगार-भाव-पडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवर-कन्नगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए।" ___ सूत्र ९८. राजा अदीनशत्रु ने फिर पूछा-“देवानुप्रिय ! तुमने मल्लीकुमारी का कैसा चित्र बनाया था?" _इस पर चित्रकार ने अपनी बगल से वह चित्र निकालकर राजा के निकट रख दिया और बोला-“हे स्वामी ! मल्लीकुमारी का यह चित्र मैंने उन्हीं के अनुरूप सभी हाव-भाव समेटकर प्रतिबिम्ब रूप में बनाया है। उनका वास्तविक साक्षात् रूप तो देवादि भी नहीं बना सकते।" 98. King Adinshatru once again asked, “Beloved of gods ! What sort of' a portrait of Princess Malli had you made?" The painter at once unwrapped the portrait he had brought along and placed it before the king with the comment, "Sire ! I have tried to make an exact image of the princess with her real mood and expression. However, to create her true replica is even beyond gods." CHAPTER-8 : MALLI (375) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र TOP श्री सूत्र ९९. तए णं अदीणसत्तू राया पडिरूवजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-तहेव जाव पहारेत्थ गमणाए। ___ सूत्र ९९. उस चित्र को देख अनुराग से प्रेरित हो अदीनशत्रु ने अपने दूत को मल्लीकुमारी से विवाह के प्रस्ताव सहित मिथिला के लिए रवाना कर दिया। 99. Just a glance at the portrait instilled a feeling of love within King Adinshatru and inspired him to send his emissary to Mithila with a marriage proposal. राजा जितशत्रु सूत्र १00. तेणं कालेणं तेणं समएणं पंचाले जणवए, कंपिल्ले पुरे नयरे होत्था। तत्थ णं जियसत्तू णामं राया होत्था पंचालाहिवई। तस्स णं जियसत्तुस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं ओरोहे होत्था। __सूत्र १00. काल के उस भाग में पांचाल जनपद के काम्पिल्यपुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। वह संपूर्ण पांचाल प्रदेश का अधिपति था। जितशत्रु के अन्तःपुर में एक हजार रानियाँ थीं। KING JITSHATRU ____100. During that period of time King Jitshatru ruled over Kampilyapur, the capital of the Panchal country. He had one thousand queens. सूत्र १०१. तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नाम परिव्वाइया रिउव्वेय० जाव यावि होत्था। तए णं सा चोखा परिव्वाइया मिहिलाए बहूणं राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ। सूत्र १०१. मिथिला नगरी में चोक्खा नाम की एक परिव्राजिका रहती थी। वह नगर के अनेक गणमान्यों (राजा आदि) के सामने दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थस्नान का प्रतिपादन करती और उपदेश देती थी। 101. In Mithila lived a Parivrajika (a class of female preachers) named Chokkha. She used to preach her religion of charity, cleansing, amro BABI376) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३७७) Camg ARA PosmewINE.SATNISE ISHRA and bathing at a place of pilgrimage to various important citizens of the town including the king. सूत्र १०२. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गिण्हइ, गिण्हित्ता परिव्वाइगावसहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पविरलपरिव्वाइया सद्धिं संपरिवुडा मिहिलं रायहाणिं मझमज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे, जेणेव कण्णंतेउरे, जेणेव मल्ली विदेहवररायकन्ना, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए, दब्भोवरि पच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयति, निसीइत्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं च जाव विहरइ। सूत्र १०२. एक बार चोक्खा अपने हाथ में त्रिदण्ड, कमण्डल आदि लिये गेरुए वस्त्र पहने अपने मठ से निकली और कुछ परिव्राजिकाओं के साथ नगर के बीच से राजभवन की ओर गई। वहाँ पहुँचकर वह अंतःपुर में मल्लीकुमारी के पास गई। भूमि पर पानी छिड़का, घास बिछाई और उस पर आसन बिछाकर बैठ गई। उसने मल्लीकुमारी को अपने शौचादि धर्म का उपदेश देना आरंभ कर दिया। ____102. One day, carrying her trident, gourd-pot, and wearing her ochre coloured dress, Chokkha left her abode and entered the palace along with her disciples. She straight-away came to the inner part where Princess Malli stayed. She sprinkled some water on the floor, spread some hay and her mattress and sat down. After this she started her usual preaching of the religion of cleansing (etc.). __ सूत्र १०३. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी"तुब्भं णं चोक्खे ! किंमूलए धम्मे पनत्ते ?" ___तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी-"अम्हं णं देवाणप्पिया ! सोयमूलए धम्मे पण्णवेमि, जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ, तं णं उदएण य मट्टियाए य जाव अविग्घेणं सग्गं गच्छामो।" सूत्र १०३. इस पर विदेहकुमारी ने प्रश्न किया-“चोक्खा ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ?" ___ चोक्खा ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिये ! मैं शौच मूलक धर्म का उपदेश देती हूँ। हमारे मत में प्रत्येक अशुचि को जल और मिट्टी से शुद्ध किया जाता है। इसी प्रकार जलाभिषेक म जीव पवित्र हो जाता है। अंततः इस धर्म पालन से ही जीव निर्विघ्न स्वर्ग को प्राप्त करता है।" 010 போல் Loshog - 15 CHAPTER-8: MALLI (377) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र MAINA 103. Interrupting her, Princess Malli asked, “Chokkha! What is said to be the basis of your religion?" __Chokkha replied, “Beloved of gods! I preach the religion that is based on cleansing. Our school propagates that every impurity is cleansed with the help of sand and water. Thus, by bathing, a being becomes pure. By following this religion only, a being gets liberated in the end." चोक्खा का पराभव सूत्र १0४. तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी"चोक्खा ! से जहानामए केइ पुरिसे रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, अत्थि णं चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्वमाणस्स काइ सोही ?" “णो इणढे समढे।" _सूत्र १0४. मल्लीकुमारी ने फिर प्रश्न किया-“चोक्खा ! यदि कोई व्यक्ति रक्त से सने कपड़े को रक्त से ही धोवे तो उस कपड़े की थोड़ी-सी भी शुद्धि होती है क्या?" चोक्खा-“नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता।" DEFEAT OF CHOKKHA 104. Princess Malli again asked, "Chokkha ! If someone washes blood stained cloths with blood only, does it cleanse it even a little?" Chokkha, “No, that is not possible." सूत्र १०५. "एवामेव चोक्खा ! तुब्भे णं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्यमाणस्स।" सूत्र १०५. मल्ली-“उसी प्रकार हे चोक्खा ! तुम्हारे धर्म में हिंसा, मिथ्यादर्शन-शल्य आदि अठारह पापों के लिये निषेध नहीं होने के कारण किसी प्रकार की शुद्धि नहीं हो सकती। ठीक उसी प्रकार जैसे रक्त सने कपड़े को रक्त से ही धोने से शुद्धि नहीं होती।" _105. Princess Malli, “So, Chokkha ! as there is no denial for indulgence in the eighteen sins including violence, misconception, (etc.) in the religion you preach, it cannot cause any purification. Exactly like washing with blood cannot remove blood stains from a cloth." सार (378) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३७९) C050 - - सूत्र १०६. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था। मल्लीए णो संचाएइ किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीया संचिठ्ठइ।। सूत्र १०६. मल्ली के इस कथन से चोक्खा के मन में अपने सिद्धान्त के प्रति शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई। वह दुविधा में पड़कर मौन हो गई। 106. This statement of Princess Malli gave rise to doubt, curiosity and suspense in Chokkha's mind. The confusion made her silent. सूत्र १०७. तए णं तं चोक्खं मल्लीए बहूओ दासचेडीओ हीलेंति, निंदंति, खिसंति, गरहति, अप्पेगइयाओ, हेरुयालंति, अप्पेगइयाओ मुहमक्कडियाओ करेंति, अप्पेगइयाओ वग्घाडीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तालेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ निच्छुभंति। __ तए णं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्जमाणी हीलिज्जमाणी आसुरुत्ता जाव मिसमिसेमाणा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावज्जइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गछित्ता परिव्वाइयासंपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव परूवेमाणी विहरइ। ___ सूत्र १०७. मल्लीकुमारी की अनेक दासियाँ चोक्खा की निंदा, आलोचना करती उसके दोप प्रकट करने लगी, चिढ़ाने लगी, उसकी ओर मुँह मटकाने लगी, उपहास करने लगी और उसकी तर्जना-ताड़ना करते उसे ठेलकर वाहर निकाल दिया। __इस व्यवहार से चोक्खा खिन्न हो गई और क्रोध से मिसमिसाती हुई मन ही मन मल्ली के प्रति द्वेष करने लगी। उसने जल्दी से अपना आसन उठाया और महल से बाहर निकल गई। वह अपनी परिव्राजिका शिष्याओं के साथ मिथिला नगर से भी बाहर निकल गई और पांचाल जनपद में प्रवेश कर कांपिल्यपुर नगर में जा पहुँची। वहाँ उसने अपने शौच प्रधान धर्म का उपदेश देना आरम्भ कर दिया। ____107. The multitude of Princess Malli's maids censured, condemned, criticized and jibed at Chokkha and making her a laughing stock pushed her out. This ill-treatment disturbed Chokkha and she gnashed her teeth with anger and aversion for the princess. She lifted her mattress and hurried out of the palace. With her group of disciples she left Mithila CHAPTER-8 : MALLI (379) Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र as well. She entered the area of Panchal and reached Kampilyapur. There too she started preaching her cleansing based religion. जितशत्रु के पास चोक्खा सूत्र १०८. तए णं से जियसत्तू अन्नया कयाई अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे एवं जाव विहरइ। ___ तए णं सा चोक्खा परिव्वाइयासपरिवुडा जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो भवणे, जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जियसत्तुं जएणं विजएणं वद्धावेइ। तए णं से जियसत्तू चोखं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता चोक्खं परिव्वाइयं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ। ___ तए णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निविसइ, जियसत्तुं रायं रज्जे य जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ। तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्म च जाव विहरइ। सूत्र १०८. एक दिन राजा जितशत्रु अपने परिवार से घिरा अन्तःपुर में सिंहासन पर बैठा था। तभी अपनी शिष्याओं सहित चोक्खा परिव्राजिका ने वहाँ प्रवेश किया और राजा का विजय कामना सहित अभिनन्दन किया। परिव्राजिका को आया देख राजा सिंहासन से उठा और चोक्खा का स्वागत सत्कार कर उसे बैठने को कहा। ___ चोक्खा ने यथाविधि अपना आसन बिछाया और बैठकर राजा से क्षेम-कुशल पूछी। फिर उसने अपने शौच धर्म का उपदेश दिया। CHOKKHA WITH JITSHATRU ___108. One day King Jitshatru was sitting on his throne surrounded by his family in the inner part of his palace. With her disciples Chokkha entered the palace and arrived their. She greeted the king, wishing for his victory. When the king saw her coming he left his throne, received her with honour and offered her a seat. Chokkha spread her mattress on the floor, sat down and asked about the king's well being. After this she started her preaching. BAHINA amme Sudae (380) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली सूत्र १०९. तए णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी - "तुमं णं देवाणुप्पिए ! बहूणि गामागर जाव अडसि, बहूण य राईसरगिहाई अणुपविससि, तं अत्थियाई ते कस्स वि रण्णो वा जाव एरिसए ओरोहे agya जारिस णं इमे मह उवरोहे ? " सूत्र १०९. अपनी रानियों के सौन्दर्यादि से अभिभूत जितशत्रु ने तब चोक्खा से पूछा"हे देवानुप्रिये ! तुम अनेक ग्रामादि में अनेक राजा आदि के घरों में आती जाती हो । बताओ तुमने मेरे रनिवास जैसा कोई रनिवास भी देखा है क्या ?" ( ३८१ ) 109. Obsessed with the beauty of his queens King Jitshatru asked Chokkha when her preaching concluded, "Beloved of gods! You wander around, go to numerous villages (etc.) and visit many a king (etc.). Tell me if you have ever come across any seraglio like mine?” कूपमंडूक सूत्र ११०. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुणा एवं वृत्ता समाणी ईसिं अवहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी - "एवं च सरिसए णं तुमे देवाणुप्पिया ! तस्स अगडदरस्स।" "केस णं देवाणुप्पिए ! से अगडददुरे ?" " जियसत्तू ! से जहानामए अगडददुरे सिया से णं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे, अण्णं अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे एवं मण्णइ - "अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा । " तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए ददुरे हव्वमागए। तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्ददद्दूरं एवं वयासी - "से केस णं तुमं देवाणुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? " तणं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुरं एवं वयासी - " एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सामुद्दए ददुरे ।” तणं से कूवददुरे तं सामुदयं ददुरं एवं वयासी - " के महालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?" तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुरं एवं वयासी - " महालए णं देवाणुप्पिया ! समुद्दे ।” तणं से कूवददुरे पाएणं लीहं कड्ढेइ, कड्डित्ता एवं वयासी - " एमहालए णं देवाप्पिया ! से समुद्दे ? " CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only (381) Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Coama> Omes MERO AIIMa लाख “णो इणद्वे सभटे, महालए णं से समुद्दे।" तए णं से कूवददुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ताणं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी-“एमहालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ?" “णो इणढे समढे।" तहेव। सूत्र ११0. चोक्खा मुस्कराई और बोली-“देवानुप्रिय ! तुम्हारे इन वचनों से तुम कूपमंडूक जैसे जान पड़ते हो।" राजा-“देवानुप्रिये ! कैसा कूपमंडूक ?" चोक्खा-“जितशत्रु ! किसी कुएँ में एक कुएँ का मेंढक था। वह उसी कुएँ में पैदा और बड़ा हुआ था। उसने अन्य कोई कुआँ, तालाब, झील, सरोवर या समुद्र नहीं देखा था। इसलिये उसकी धारणा थी कि यही कुआँ है और यही सागर, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। एक दिन उस कुएँ में अचानक एक समुद्री मेंढक आ गया। कुएँ के मेंढक ने उससे पूछा-'तुम कौन हो और अचानक कहाँ से आ गए ?' "समुद्री मेंढक-'देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हूँ।' "कूपमंडूक-'देवानुप्रिय ! यह समुद्र कितना बड़ा है ?' “समुद्री मेंढक-‘समुद्र बहुत बड़ा है।' "कूपमंडूक ने अपने पैर से एक रेखा खींची और बोला-'क्या इतना बड़ा है?' “समुद्री मेंढक-'नहीं, इससे बहुत बड़ा।' "तब कूपमंडूक पूर्व दिशा के छोर से कूदकर कुछ दूर गया और पूछा-'वह समुद्र क्या इतना बड़ा है?' “समुद्री मेंढक-'नहीं, इससे बहुत बड़ा।' "कूपमंडूक इसी प्रकार अपनी कूद की दूरी बढ़ाकर पूछता रहा और समुद्री मेंढक हर बार उसे वही उत्तर देता रहा। A WELL-FROG 110. Chokkha smiled and said, "Beloved of gods ! Your statement gives an impression that you are as ignorant as a frog in a well." King, “Beloved of gods! what is a frog in a well?" Chokkha, “Jitshatru ! There lived a frog in a well. It was born in that well and grew up there only. It had not seen any other well, pond, ago @ANTRA SSETTE COM JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३८३ ) OMG Mo DOWAROO SARA pool, lake, or sea. As such, it believed that well to be the universe. Its concept of a sea was only that well. Suddenly one day a sea-frog came into that well. The well-frog asked it, 'Who are you? From where have you come all of a sudden?' "Sea-frog, 'Beloved of gods! I am a frog from the sea.' "Well-frog, 'Beloved of gods! How big is this sea?' "Sea-frog, “The sea is very large.' "The well-frog drew a line with its paw and said, Is it this big?' “Sea-frog, 'No, much bigger than this.' "The well-frog then jumped a little distance from the eastern side of the well and asked, 'Is it this big?' "Sea-frog, 'No, much bigger than this.' "The well-frog continued to ask the same question again and again after increasing the distance a little every time. And every time he got the same answer from the sea-frog. सूत्र १११. “एवामेव तुम पि जियसत्तू ! अन्नेसिं बहूणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं भज्जं वा भगिणिं वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि-जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स। तं एवं खलु जियसत्तु ! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूआ पभावईए अत्तया मल्ली नामं विदेहवर-रायकण्णा रूवेण य जोव्वणेण जाव नो खलु अण्णा काइ देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली। विदेहरायवरकण्णाए छिण्णस्स वि पायंगुट्टगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घइ" त्ति कटु जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। सूत्र १११. “इसी तरह हे जितशत्रु ! तुमने अन्य राजा आदि गणमान्य व्यक्तियों की पत्नी, बहन, अथवा पुत्र-वधू देखी नहीं हैं। इस कारण तुम समझते हो कि तुम्हारे अन्तःपुर जैसा कोई अन्य नहीं है। हे जितशत्रु ! मिथिला नगरी की राजकुमारी मल्ली जैसी अनिंद्य सुंदरी सारे त्रिभुवन में नहीं है। विदेह राजकुमारी के पैर की अंगुली के लाखवें अंश के वरावर भी नहीं है तुम्हारा यह अन्तःपुर।'' ये वचन कहकर चोक्खा वहाँ से अपने स्थान को प्रस्थान कर गई। 111. “Similarly, Jitshatru ! You have not seen the wives, sisters, and daughters-in-law of other prominent people. That is the reason that you consider your queens to be the best. Jitshatru ! A spotless beauty m QAmho ongo लाल RAMMAR CHAPTER-8: MALLT (383 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४) - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र TASON RAAMA AAAAAA AAAADHANMastaram.o like Princess Malli of Mithila is the one and only in this universe. The beauty of all your queens combined together cannot stand before a millionth part of the beauty of the toes of the princess of Videh." With these words Chokkha took his leave. सूत्र ११२. तए णं जियसत्तू परिव्वाइयाजणियहासे दूयं सद्दावेइ, सहावित्ता जाव पहारेत्थ गमणाए। सूत्र ११२. इन वचनों से मल्लीकुमारी के प्रति उत्पन्न अनुराग के वश जितशत्रु ने अपना दूत विवाह प्रस्ताव सहित मिथिला के लिए रवाना कर दिया। ___12. These words of Chokkha inspired King Jitshatru to send his emissary to Mithila with a marriage proposal. दूतों का संदेश-निवेदन सूत्र ११३. तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। सूत्र ११३. इस प्रकार जितशत्रु आदि उपरोक्त छहों राजाओं के दूत मिथिला नगरी के लिए रवाना हो गये। EMISSARIES IN MITHILA ____113. Thus, six messengers from six different kings including King Jitshatru started for Mithila. सूत्र ११४. तए णं छप्पि य दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करित्ता मिहिलं रायहाणिं अणुपविसंति। अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं करयल परिग्गहियं साणं साणं राईणं वयणाइं निवेदेति। _सूत्र ११४. ये छहों दूत मिथिला पहुंचे और वहाँ के मुख्य उद्यान में उन्होंने अलग-अलग पड़ाव डाले। फिर वे नगर के बीच होते हुए कुंभ राजा के पास आये और उनका हाथ जोड़ अभिनन्दन करके अपने-अपने स्वामियों के विवाह प्रस्ताव प्रस्तुत किये। 114. When they reached Mithila they camped at different spots in the public garden of Mithila. They went separately to the court of King Kumbh, greeted him and conveyed the messages of their respective masters. - MODIPINASIANDram IMA KATHANGA SUTRATE BA (384) JNĀTA DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३८५) CONT PAM DEHATIHASIRAHARAN PRESH सूत्र ११५. तए णं से कुंभए राया तेसिं दूयाणं अंतिए एयम8 सोच्चा आसुरुत्ते जाव तिवलियं भिउडिं णिडाले साहटु एवं वयासी-“न देमि णं अहं तुब्भं मल्लिं विदेहरायवरकन्नं" ति कटु ते छप्पि दूते असक्कारिय असंमाणिय अवदारेणं णिच्छुभावेइ। सूत्र ११५. राजा कुंभ दूतों की बातें सुन क्रोध से लाल हो गया और भृकुटी तानकर कहा-“कुमारी मल्ली के लिए तुम में से किसी का भी प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं है।" और उसने दूतों का बिना यथोचित सत्कार-सम्मान के पिछले दरवाजे से निकाल दिया। 115. These marriage proposals irritated King Kumbh and he burned with anger. Frowning he said, “None of these proposals for Princess Malli is acceptable to me." And he dismissed the emissaries disgracefully through the rear gate. सूत्र ११६. तए णं जियसत्तुपामोक्खाणं छहं राईणं दूया कुंभएणं रण्णा असक्कारिया असम्माणिया अवदारेणं निच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जणवया, जेणेव सयाइं सयाई णगराइं जेणेव सगा सगा रायाणो तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं वयासी___ "एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवद्दारेणं निच्छुभावेइ, तं न देइ णं सामी ! कुंभए राया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं, साणं साणं राईणं एयमढें निवेदेति। सूत्र ११६. राजा कुम्भ द्वारा असत्कारित, असम्मानित और निष्कासित वे दूत अपने-अपने राजाओं के पास वापस लौटे और हाथ जोड़कर बोले-“हे स्वामी ! जितशत्रु आदि छह राजाओं के हम दूत एक साथ ही मिथिला नगरी पहुँचे। किन्तु राजा कुम्भ ने हमारा अनादर कर हमें निकाल दिया। अतः हे स्वामी ! कुंभ राजा ने आपका विवाह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया है।" 116. Disgraced, slighted and summarily dismissed the six emissaries returned to their masters and with joined palms submitted, "Sire ! We, all the six emissaries from different kings, reached Mithila at the same time and went to King Kumbh with the marriage proposals. But the king summarily dismissed us. Thus, sire! King Kumbh has rejected your marriage proposal.” युद्ध की तैयारी सूत्र ११७. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमणस्स दूयसंपेसणं करेंति, करित्ता एवं वयासी ORE RA / CHAPTER-8 : MALLI (385) Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८६ ) " एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जाव णिच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तए" त्ति कट्टु अण्णमण्णस्स मट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता व्हाया सण्णद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणा महयाहय-गय-रह-पवरजोह - कलियाए चाउरंगिणीए सेणा सद्धिं संपरिवुडा सव्विढीए जाव दुंदुभिनाइयरवेणं सहिंतो सएहिंतो नगरेहिंतो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायंति, मिलाइत्ता जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए । " सूत्र ११७. जितशत्रु आदि छहों राजा अपने-अपने दूतों की यह बात सुन-समझकर अत्यन्त कुपित हो गये । उन्होंने परस्पर एक-दूसरे के पास दूत भेजे और कहलवाया - " हे देवानुप्रिय ! हम छहों राजाओं के दूतों के साथ मिथिला में एक-सा व्यवहार कर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया है। अतः हमें कुम्भ राजा पर चढ़ाई कर देनी चाहिए ।" सभी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिर वे स्नानादि से निवृत्त हो वस्त्रादि पहन कवच - शस्त्रादि धारण कर तैयार हो गये । छत्र - चामर सहित हाथी पर सवार हो चतुरंगिनी सेना और अपने समस्त वैभव के साथ दुंदुभि की ध्वनि करते अपने-अपने नगरों से निकले। सब एक स्थान पर एकत्र हुए और मिथिला की ओर प्रयाण किया । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र WAR PREPARATIONS 117. Hearing about the treatment accorded to their emissaries by King Kumbh, all the six kings were enraged. They at once sent their representatives to each other with the message, "Beloved of gods! King Kumbh has ill-treated all our emissaries and turned them out from his court. As such, we all should declare war against him and march." Everyone of them welcomed the proposal. They got ready with armours and weapons and riding elephants, with umbrellas and whisks and other regalia they came out of their cities. With all pomp and show and beats of war-drums they joined their four pronged armies. All the six armies rendezvoused at a place and together the started their march to Mithila. सूत्र ११८. तए णं कुंभए राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - " खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हयगयरहपवर जोहकलियं सेण्णं सन्नाह।" जाव पच्चप्पिणंति । (386) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली कहा- " सूत्र ११८. उधर कुम्भ राजा ने यह सूचना मिलने पर अपने सेनापति को बुलाकर - "देवानुप्रिय ! शीघ्र ही अश्वादि से युक्त चतुरंगिनी सेना सजाओ ।" सेनापति ने समस्त तैयारी कर राजा को सूचना दी। 118. When King Kumbh got this news he called his commander-inchief and said, "Beloved of gods! Get our four pronged army ready to march." The general took necessary steps and informed the king. सूत्र ११९. तए णं कुंभए राया हाए सण्णद्धे हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं मिहिलं रायहाणिं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छत्ता विदेहं जणवयं मज्झमज्झेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावार-निवेस करेइ, करित्ता जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठ | ( ३८७ ) सूत्र ११९. राजा कुम्भ तब स्नानादि से निवृत्त हो युद्ध के लिये तैयार हुए और छत्र-चामरादि सहित हाथी पर सवार हो गये। फिर अपनी सुसज्जित सेना सहित मिथिला नगरी के बीच से होते हुए विदेह जनपद की सीमा पर आये । वहाँ पड़ाव डालकर जितशत्रु आदि छह राजाओं की प्रतीक्षा में युद्ध के लिये सन्नद्ध हो रुके रहे। 119. King Kumbh got ready with armour and weapons and riding an elephant he came out of the town and joined his army. With his army he marched to the borders of Videh. He camped his army there and waited for Jitshatru and other kings, ready at battle stations. कुम्भ की पराजय सूत्र १२०. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पिय रायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुंभएणं रण्णा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था । तणं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हय- महिय-पवरवीरघाइयनिवडिय - चिंधद्धय-प्पडागं- किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसिं पडिसेहिंति । तणं से कुंभ राया जियसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हय-महिय जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव अधारणिज्जमिति कट्टु सिग्घं तुरियं जाव वेइयं जेणेव मिहिला णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविसइ, अणुविसित्ता मिहिलाए दुवारा पिइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठ | सूत्र १२०. कुछ समय बाद जितशत्रु आदि राजा वहाँ पहुँचे और युद्ध आरम्भ हो गया । CHAPTER 8 : MALLI For Private Personal Use Only Crunc Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) उन छहों राजाओं ने मिलकर कुंभ राजा की सेना का हनन-मंथन किया। उसके श्रेष्ठ योद्धाओं का घात किया। उसके ध्वजा आदि राजचिन्हों को छिन्न-भिन्न करके नीचे गिरा दिया। कुंभ के प्राण संकट में पड़ गये और उसकी सेना में भगदड़ मच गई। इस प्रकार सामर्थ्यविहीन, बलहीन और निर्वीर्य होकर कुंभ राजा पूरे वेग के साथ मिथिला नगरी लौट आया और द्वार बन्द करके किले की रक्षा में जुट गया। DEFEAT OF KUMBH 120. After sometime all the warring kings arrived and the battle started. The combined army of the six kings mauled and overwhelmed King Kumbh's army. The best of his warriors were killed. His flag and regalia were shattered and sent to dust. Kumbh's army was in shambles and it started a quick retreat. Kumbh's own life was in danger. Loosing all his power, glory, and vigour he rushed away from the battle. He entered Mithila and at once got the gates closed. The hectic preparations for protecting the city started. मिथिला का घेराव ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र १२१. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलं रायहाणिं णिस्संचारं णिरुच्चारं सव्वओ समंता ओभित्ताणं चिट्ठति । तणं कुंभ राया मिलिं रायहाणिं रुद्धं जाणित्ता अब्भंतरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासण-वरगए सिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं छिद्दाणि य विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहूहिं आएहि य उवाएहि य उष्पित्तियाहि य ४ बुद्धीहिं परिणामेमाणे परिणामेमाणे किंचि आयं वा उवायं वा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय । सूत्र १२१. जितशत्रु आदि छहों राजाओं की सेनाएँ मिथिला नगरी पहुँचीं और वहाँ से मनुष्यों के आवागमन को रोक दिया। नित्य व्यवहार में भी अवरोध पड़े इस प्रकार नगर के चारों ओर घेरा डाल दिया। राजा कुंभ अपनी राजधानी को चारों ओर से घिरा जान अपने भीतरी सभा स्थल में जा सिंहासन पर बैठ गया। वह जितशत्रु आदि राजाओं के छिद्र, विवर (दुर्बलता) और मर्म को नहीं समझ सका । अनेक उपाय और उत्पतिया आदि चतुर्यामी बुद्धि का उपयोग करने पर भी उसे कोई उपाय नहीं सूझा। तब उसका धैर्य टूट गया और हथेली में मुँह टिकाये वह चिन्तामग्न हो गया । (388) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only डाक Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३८९) Ritha THE SIEGE OF MITHILA 121. The combined armies of the six kings reached the outskirts of mithila and laid a siege. Movement of people was stopped completely. It became difficult to perform the routine daily chores also. Aware of the siege King Kumbh sat down on his throne in the inner parts of the palace. He could not fathom the weakness, shortcomings, points of penetration and other secrets of the attacking armies. In spite of applying all his wit he could not formulate a plan to defeat them. He gave up and getting listless put his chin on the palm and started brooding. __ सूत्र १२२. इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना बहाया जाव बहूहिं खुज्जाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स पायग्गहणं करेइ। तए णं कुंभए राया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं णो आढाइ, नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। सूत्र १२२. इधर मल्लीकुमारी स्नानादि से निवृत्त हुई तो अपनी दासियों के साथ राजा कुंभ के पास आई। उसने पिता के चरण छूकर प्रणाम किया। राजा कुंभ ने उसका स्वागत नहीं किया। गहरी चिन्ता में डूबे रहने के कारण उन्हें कुमारी के आने का भान भी नहीं हुआ और वे मौन ही रहे। 122. When Princess Malli got free from her routine work she came to King Kumbh with her attendants. She touched her father's feet and greeted him. King Kumbh did not acknowledge. As he was deeply worried he was not even aware of her arrival. He just remained silent. मल्ली की योजना सूत्र १२३. तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभयं रायं एवं वयासी-“तुब्भे णं ताओ ! अण्णया ममं एज्जमाणं जाव निवेसेह, किं णं तुब्भं अज्ज ओहयमणसंकप्पे जाव झियायह ?" ____ तए णं कुंभए राया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी-“एवं खलु पुत्ता ! तव कज्जे जियसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं दूया संपेसिया, ते णं मए असक्कारिया जाव णिच्छूढा। तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा तेसिं दूयाणं अंतिए एयमढे सोच्चा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं जाव चिट्ठन्ति। तए णं अहं पुत्ता ! तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव झियामि।" RAO CHAPTER-8 : MALLI (389) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Smso Gro AADMAVA RAO UTTER प - सूत्र १२३. यह देख मल्लीकुमारी ने कहा-“हे तात ! आप तो मुझे आती देख स्वागत करते थे, प्रफुल्ल हो गोद में बिठाते थे किन्तु आज ऐसा क्या हुआ कि आप हारे हुए मानसिक संकल्प से प्रभावित हो चिन्तामग्न बैठे हैं ?" कुम्भराज ने उत्तर दिया-“हे पुत्री ! तुमसे विवाह हेतु जितशत्रु आदि छह राजाओं ने अपने दूत भेजे थे। मैंने उन दूतों को अपमानित करके यहाँ से निकाल दिया। अपने दूतों से यह सब जान वे राजा लोग क्रुद्ध हो गए और मिथिला नगरी को घेर लिया है। मैं उनकी सैन्य सज्जा के छिद्रादि को न जान सकने के कारण चिन्तित हूँ।" MALLI'S PLAN ____123. Princess Malli observed this and said, "Father ! When you saw me coming you used to greet me and with joy made me sit in your lap. What is wrong with you today? You appear to be dejected and worried.” ____King Kumbh replied, “Daughter ! King Jitshatru and five other kings had sent proposals for marriage with you. I rejected the proposals and turned their emissaries out. This made these kings furious and they have surrounded Mithila. I am worried because I have not been able to formulate a counter move to defeat them. सूत्र १२४. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभयं रायं एवं वयासी-“मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तुब्भे णं ताओ ! तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयं पत्तेयं रहसियं दूयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं वयह-“तव देमि मल्लिं विदेहरायवरकन्नं, ति कटु संझाकाल-समयंसि पविरलमणूसंसि निसंतंसि पडिनिसंतंसि पत्तेयं पत्तेयं मिहिलं रायहाणिं अणुप्पवेसेह। अणुप्पवेसित्ता गब्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिधेह, पिधित्ता रोहसज्जे चिट्ठह। तए णं कुंभए राया एवं तं चेव जाव पवेसेइ, रोहसज्जे चिट्टइ। सूत्र १२४. यह सुनकर मल्लीकुमारी ने समाधान प्रस्तुत किया-"तात ! आप उदास व चिन्तित न हों। आप उन छहों राजाओं के पास गुप्त रूप से अलग-अलग दूत भेजकर प्रत्येक को कहला दीजिए कि मैं मल्लीकुमारी का कन्यादान तुम्हें करूँगा। इस संदेश के साथ ही उन्हें अलग-अलग, संध्या के समय जब रास्ते सुनसान रहते हैं, मिथिला नगरी में बुलाइये। उन्हें वैसे ही अलग-अलग मोहन-गृह के छह गर्भगृहों में ठहरा दीजिये। यह सब हो जाने पर नगर द्वार बन्द करवाकर नगर रक्षा के लिये तत्पर रहिये।" राजाकुंभ ने मल्लीकुमारी के सुझाव के अनुसार सब काम किया। Os क 40006 HIRAA (390) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cage आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९१) GAAT A PARMA 124. Princess Malli provided a solution, "Father ! Please don't be sad and dejected. You send messengers secretly and convey the same message to each one of the kings that you will marry me to him. With this message you should also invite each one of them to enter the city in the evening when the streets are deserted. Lead them to the six separate rooms surrounding the hall of illusion to stay for the night and make arrangements for their comfortable stay. Once this is done, again close the city gates and be prepared to defend the city.” King Kumbh acted upon this plan suggested by Princess Malli. सूत्र १२५. तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउप्पभायाए जाव जालंतरेहिं कणगमयं मत्थयछिड्डं पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासंति। "एस णं मल्ली विदेहरायवरकन्न' त्ति कटु मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा जाव अज्झोववन्ना अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा चिट्ठति। सूत्र १२५. दूसरे दिन सुबह वे सब राजा अपने-अपने कमरे की जालियों से मोहनगृह के मध्य रखी मस्तक का छेद और कमल के ढक्कन वाली सोने की बनी मल्लीकुमारी की प्रतिमा को निहारने लगे। यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्लीकुमारी है-ऐसा समझकर वे उसके रूप, यौवन और लावण्य पर मोहित व आसक्त हो ललचाई दृष्टि से उसे अपलक देखते रहे। 125. Next morning when the kings got up they peeped through the grill of their rooms and saw the life-like golden statue of Princess Malli installed at the centre of the hall of illusion. They assumed that this was King Kumbh's daughter, Princess Malli. Stunned and entrapped by the beauty, youth and charm of that female figure they continued to stare at it with unblinking and lusty eyes. राजाओं का मन-परिवर्तन सूत्र १२६. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना पहाया जाव पायच्छित्ता सव्यालंकारविभूसिया बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए, जेणेव कणगपडिमा तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेइ। तए णं गंधे णिद्धावइ से जहानामए अहिमडे इ वा जाव असुभतराए चेव। सूत्र १२६. उधर मल्लीकुमारी स्नानादि नित्य कार्यों से निवृत्त हो समस्त वस्त्रालंकार धारण किये और अनेक दासियों सहित मोहनगृह में आई। वहाँ आकर वह प्रतिमा के पास - CHAPTER-8 : MALLI (391) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ORO PSIER गई और उसके मस्तक से कमल का ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटाते ही उसमें से मृत पशुओं के शरीर से निकली दुर्गन्ध से भी अधिक अरुचिकर अशुभतर दुर्गन्ध निकलने लगी। MIND CHANGE OF THE KINGS 126. Princess Malli got ready after her bath and wearing her dress and ornaments and came to the hall of illusion with her retinue. She went near the statue and removed the lotus cover from the hole at the top. As soon as this cover was removed a stench, more obnoxious than that of a corpse, started spreading. सूत्र १२७. तए णं जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहि सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसाइं पिहेंति, पिहित्ता परम्मुहा चिटुंति। . _ तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-"किं णं तुब्भं देवाणुप्पिया ! सएहिं सएहिं उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?" तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति-"एवं खल देवाणुप्पिए ! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं सएहिं जाव चिट्ठामो।" सूत्र १२७. जितशत्रु आदि राजा उस तीव्र दुर्गन्ध से विचलित हो गये और घबराकर अपने उत्तरीय से मुँह ढाँपकर विपरीत दिशा में मुँह करके खड़े हो गये। इस पर मल्लीकुमारी ने कहा-“देवानुप्रियो ! आप लोग उत्तरीय से मुँह ढाँप पलटकर क्यों खड़े हो गये?" ___ उन लोगों ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिये ! हम इस दुर्गन्ध से घबराकर ऐसा करने को विवश हुए हैं।" ____127. King Jitshatru and the other kings were hit by this stench. In distress they covered their faces with their shawls and turned around. Princess Malli commented, “Beloved of gods! What makes you cover your faces with shawls and turn around?" They replied, “Beloved of gods ! Flustered by this terrible stench we have been forced to do that." सूत्र १२८. तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-“जइ ताव देवाणुप्पिया ! इमीसे कणगमईए जाव पडिमाए कल्लाकल्लिं ताओ मणुण्णाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे, इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स Came Q4th INĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 O 0 GE Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यु ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र चित्र परिचय THE ILLUSTRATIONS EXPLAINED छह राजाओं को प्रतिबोध चित्र : २५ मल्लीकुमारी के अद्भुत रूप लावण्य की चर्चा सुनकर पूर्वभव के छह मित्र राजा - १. प्रतिबुद्ध, २. चन्द्रछाय, ३. शंख, ४. रुक्मि, ५. अदीनशत्रु और ६. जितशत्रु ने विवाह प्रस्ताव भेजे। किन्तु कुम्भ राजा द्वारा अस्वीकृत करने पर छहों ने एक साथ मिथिला पर आक्रमण कर दिया। मल्लीकुमारी ने अपनी पूर्व योजनानुसार उन्हें प्रतिबोध देने के लिए एक सुन्दर मोहन गृह का निर्माण करवाया था। छहों राजाओं को आमंत्रित करके वहीं अलग-अलग कमरों में ठहरा दिया गया। छहों राजा अपने-अपने भवन की जाली में से मध्य में स्थित मल्लीकुमारी की स्वर्णमयी प्रतिमा को ही साक्षात् मल्लीकुमारी समझकर मुग्ध भाव से निहार रहे हैं। ( अध्ययन ८ ) PREACHING THE SIX KINGS ILLUSTRATION : 25 Hearing about the astonishing and divine beauty of princess Malli, marriage proposals were sent by her friends from earlier life, now the six kings named-Pratibuddha, Chandracchaya, Shankh, Rukmi, Adinshatru, and Jitshatru. But when king Kumbh rejected the proposals they jointly attacked Mithila. According to her preconceived plan, Malli got a house of illusions constructed to clear the misconceptions of these kings. They were invited and sent in six different rooms. Everyone of them is looking through the window in his room and beholding lustily the golden statue believing it to be princess Malli. (CHAPTER-8) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९३) - S सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसास-नीसासस्स दुरूव-मुत्तपूतिय-पुरीस-पुण्णस्स सडणपडण-छेयण-विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ ? तं मा णं तुझे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु रज्जह, गिज्झह, मुज्झइ, अज्झोववज्जह।" सूत्र १२८. तब मल्लीकुमारी ने उन्हें समझाया-“हे देवानप्रियो ! इस सोने की प्रतिमा के भीतर प्रतिदिन रुचिकर आहार का एक-एक पिण्ड डालते रहने से पुद्गल के परिवर्तन का ऐसा अरुचिकर परिणाम सामने आया है। जरा सोचिये, हमारे इस औदारिक शरीर से तो कफ झरता है, खराब उच्छ्वास-निश्वास निकलता है, दुर्गन्धयुक्त मल-मूत्र इसमें भरा रहता है; सड़ना, पड़ना, नष्ट और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है। इस शरीर का परिणमन कैसा होगा? कल्पना कीजिये? इसलिये हे देवानुप्रियो ! मनुष्य शरीर से जुड़े कामभोगों के प्रति राग मत करो, अनुरक्ति मत रखो, मोह मत करो और तीव्र आसक्ति मत करो। ____128. Princess Malli explained, “Beloved of gods ! This obnoxious stench is the result of the change of state of matter effected by dropping just one handful of best food everyday into this golden statue. Just consider that this earthly body of ours releases phlegm, exhales bad air, and is filled with stinking waste or excreta; moreover, its nature is to degenerate, fall, decay, and disintegrate. Imagine, then, that what is going to be the ultimate end of this earthly body? As such, Beloved of gods ! Do not get attached to , have fondness for, fall in love with, or get infatuated with the lustful indulgences related to this earthly body. ___ सूत्र १२९. एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसगा रायाणी होत्था, सह जाया जाव पव्वइया। तए णं अहं देवाणुप्पिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि-जइ णं तुब्भे चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरह, तए णं अहं छ8 उवसंपज्जित्ता णं विहरामि। सेसं तहेव सव्वं। ___ सूत्र १२९. “हे देवानुप्रियो ! हम इससे पहले के तीसरे भव में पश्चिम महाविदेहवर्ष के सलिलावती विजय की वीतशोका नगरी में महाबल आदि सात मित्र थे। हम सातों एक समय ही जन्मे और साथ ही दीक्षित हुए थे। उस समय तुमने चतुर्थ भक्त किया तो मैंने षष्ट भक्त कर लिया इस प्रकार तपस्या में छल करने के कारण मैंने स्त्री-नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। (वर्णन पूर्वसम) - / CHAPTER-8 : MALLI (393) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९४ ) ORON ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र COM AVAime कामकाज garapaHITRAPATTRakee men 129. “Beloved of gods! In the third birth prior to this one we were seven friends including Mahabal, in the town of Veetshoka in the state of Salilavati of the east Mahavideh area. We all were born at the same time and had become ascetics together. I had earned the Stri-naamgotra Karma due to cheating in penances (details as before). राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान __ सूत्र १३०. तए णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा। तत्थ णं तुब्भे देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाइं ठिई। तए णं तुब्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे जाव साइं साइं रज्जाई उवसंपज्जित्ता णं विहरह। तए णं अहं देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायाया किं थ तयं पम्हुटुं, जं थ तया भो जयंत पवरम्मि। वुत्ता समयनिबद्धं, देवा ! तं संभरह जाई॥१॥ सूत्र १३०. “फिर तुम लोग यथासमय देह त्यागकर जयन्त विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ कुछ कम बत्तीस सागरोपम की आयु पूरी करके तुम लोग इस जम्बूद्वीप में जन्म ले अपने-अपने राज्यों के अधिपति के रूप में जीवन व्यतीत कर रहे हो। मैं उसी देवलोक की आयु पूर्ण कर कन्या के रूप में जन्मी हूँ। _ "क्या तुम उस जयन्त नामक अनुत्तर विमान का वास भूल गये? और यह भी कि हमने परस्पर यह संकेत किया था कि हमें एक-दूसरे को प्रतिबोध देना चाहिए? उस देव भव का स्मरण करो।" JATISMARAN JNANA TO THE KINGS 130. “Then you all completed your lives and reincarnated as gods in the Jayant dimension. Completing a little less than thirty two Sagaropam of age you reincarnated as princes in various states in the Jambu continent and are now living as the rulers of your respective states. After completing my age in the same dimension of gods I have taken birth as a girl. "Have you forgotten the time you spent in the dimension of gods? And also that we had mutually decided to enlighten each other? Try to remember that life as gods." Q4MARA RAMAILGErneaxseh ararians.nuTRAwas (394) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९५ ) - - सूत्र १३१. तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छहं रायाणं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अंतिएएयमढे सोच्चा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं, पसत्थेणं अज्झवसाणेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहि, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-वूहमग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णिपुव्वे जाइस्सरणे समुप्पन्ने। एयमटुं सम्म अभिसमागच्छंति। ___ सूत्र १३१. मल्लीकुमारी से अपने पूर्वभव का यह वृत्तान्त सुनने-समझने के फलस्वरूप जितशत्रु आदि छह राजाओं को शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय, विशुद्ध होती लेश्याएँ, और ईहापोह (चिन्तन) का उदय हुआ। तब उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ और वे अपने पूर्वभव को देख सके। उन्होंने मल्लीकुमारी के कथन को भलीभाँति समझ लिया। ___131. Hearing and understanding all this from Princess Malli, Jitshatru and the other kings went through the process of thinking, ascertaining, analyzing, and exploring (Iha, Apoh, Margana, and Gaveshana). As a result of gradually purifying inner energies (Leshya), righteous endeavour and lofty attitude, they acquired the knowledge about earlier births (Jatismaran Jnana). They at once had the direct perception of all these details about their earlier births. Now they fully understood the statement of Princess Malli. सूत्र १३२. तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराई विहाडावेइ। तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति। तए णं महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था। सूत्र १३२. छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया है, यह जानते ही मल्ली अर्हत् ने उन गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिये। सब राजा बाहर निकलकर मल्ली के पास आये और पूर्वभव के महाबल आदि सातों मित्रों का परस्पर मिलन हुआ। ____132. As soon as Princess Malli knew that all the kings now had the knowledge of their earlier births she ordered the gates of all the rooms opened. All the kings came out of their rooms and went to Princess Malli. Mahabal and his six friends from the earlier birth met. दीक्षा का संकल्प सूत्र १३३. तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि य रायाणो एवं वयासी CHAPTER-8: MALLI (395) Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९६ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Camso RAMMAR DIOGO OGARAM KArs "एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विग्गा जाव पव्वयामि, तं तुब्भे णं किं करेह ? किं ववसह ? किं भे हियइच्छिए सामत्थे ?" सूत्र १३३. फिर अर्हत् मल्ली ने उनसे कहा-“हे देवानुप्रियो ! मैं संसार-भय से उद्विग्न हो गई हूँ अतः प्रव्रज्या स्वीकार करना चाहती हूँ। आप लोग क्या करना चाहेंगे? किस प्रकार रहेंगे? आपकी भावना और सामर्थ्य की क्या दिशा है?" RESOLVE TO RENOUNCE THE WORLD ___133. Arhat Malli then addressed them, “Beloved of gods ! The fear of rebirths plagues me and so I want to renounce the world. What would you like to do? How would you live? What is the direction and state of your feelings and capacity?" सूत्र १३४. तए णं जितसतुपामोक्खा छप्पि य रायाणो मल्लिं अरहं एवं वयासी"जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विगा जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया ! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा ? जह चेव णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे अम्ह इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था, तहा चेव णं देवाणुप्पिया ! इण्हिं पि जाव भविस्सह। अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विग्गा जाव भीया जम्ममरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भवित्ता जाव पव्वयामो।" ___ सूत्र १३४. जितशत्रु आदि राजाओं ने उत्तर दिया-“हे देवानुप्रिये ! यदि आप उक्त कारण से दीक्षा ले रही हैं तो हमारे लिये अन्य कोई आलंबन, आधार अथवा प्रतिबन्ध नहीं है। जिस प्रकार पूर्वभवों में अनेक क्षेत्रों में आप हमारी मेढी, प्रमाण और धर्मधुरा थीं उसी प्रकार आज भी बनें। हे देवानुप्रिये ! हम भी संसार-भय से उद्विग्न हैं अतः आपके साथ ही मुंडित होकर हम सभी दीक्षा लेने को तत्पर हैं।" ___134. Jitshatru and other kings replied, “Beloved of gods ! If you are renouncing the world for the said reason we shall be left with no support, base, or restraint. You should become our friend guide and inspiration as you were in our earlier incarnations. Beloved of gods ! we are also plagued by the fear of rebirths; as such we too are ready to shave and renounce the world along with you." सूत्र १३५. तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-"जं णं तुब्भे संसारभयउव्विग्गा जाव मए सद्धिं पव्वयह, तं गच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! सएहिं सएहिं रज्जेहिं जेढे पुत्ते रज्जे ठावेह, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह। दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउब्भवह। அs JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA . Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९७ ) OM DAR सूत्र १३५. अर्हत् मल्ली ने कहा-“यदि आप सभी मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हैं तो प्रस्थान करें और अपने-अपने राज्य में अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप कर पुरिससहस्रवाहिनी पालकी पर सवार होकर मेरे पास लौट आवें।" ___135. Arhat Malli said, "If you want to get initiated with me please return to your kingdoms, hand over the kingdoms to your elder sons, and come back to me riding the Purisasahassa palanquins." सूत्र १३६. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लिस्स अरहओ एयम8 पडिसुणेति। तए णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे गहाय जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु पाडेइ। तए णं कुंभए राया ते जियसत्तुपामोक्खे विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्ल-लंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। तए णं जियसत्तुपामोक्खा कुंभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साइं साई रज्जाई, जेणेव नयराइं, तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता सयाइं सयाइं रज्जाई उवसंपज्जित्ता णं विहरंति। सूत्र १३६. छहों राजाओं ने अर्हत् मल्ली की यह बात स्वीकार कर ली। अर्हत् मल्ली उन्हें साथ लेकर राजा कुंभ के पास आई और उनसे राजा कुम्भ के चरणों में प्रणाम करवाया। राजा कुम्भ ने जितशत्रु आदि राजाओं का यथोचित स्वागत-सत्कार किया भोजन आदि कराया और सम्मान सहित उन्हें विदा किया। छहों राजा अपने-अपने राज्यों में लौट गये और सुखपूर्वक रहने लगे। 136. All the kings accepted this suggestion from Arhat Malli. She brought them to King Kumbh and made them touch his feet. King Kumbh greeted them, served them food, and suitably honoured them before bidding them farewell. The kings returned to their kingdoms and resumed their routine life happily. सूत्र १३७. तए णं मल्ली अरहा “संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि" त्ति मणं पहारेइ। सूत्र १३७. इधर अर्हत् मल्ली ने यह संकल्प किया कि “मैं आज से एक वर्ष पूरा होने पर दीक्षा ग्रहण कर लूंगी।" - RAMILA शरी CHAPTER-8 : MALLĪ (39 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OTO Q4 T ara विला 137. Here, Arhat Malli resolved, “I shall get initiated exactly after one year from this date." __ सूत्र १३८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ। तए णं सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रण्णो मल्ली अरहा निक्खमिस्सामि ति मणं पहारेइ।" सूत्र १३८. अर्हत् मल्ली के संकल्प करने पर, उस समय शक्रेन्द्र का आसन डोलने लगा। इस पर उन्होंने अपने अवधिज्ञान से जाना कि जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की मिथिला नगरी के राजा कुम्भ की पुत्री अर्हत् मल्ली ने यह संकल्प किया है कि वे एक वर्ष पश्चात् दीक्षा लेंगी। ____138. During that period of time the throne of Shakrendra started shaking. He used his Avadhi Jnana to know that in Mithila city in Bharatvarsh in the Jambu continent the daughter of King Kumbh, Arhat Malli, has resolved to renounce the world after one year. वर्षी-दान सूत्र १३९. “तं जीयमेयं तीय-पच्चुप्पन्न-मणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं, अरहंताणं भगवंताणं णिक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए। तं जहा तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीइं च होंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं॥" सूत्र १३९. शक्रेन्द्र ने विचार किया-“अतीत, वर्तमान और भविष्य के शक्र देवेन्द्रों का यह कर्त्तव्य है कि तीर्थंकर भगवान जब दीक्षा लेने वाले हों तब उन्हें दान हेतु प्रचुर सम्पदा उपलब्ध करानी चाहिए। उसका प्रमाण है-तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण-मुद्रायें इन्द्र अर्हतों को देते हैं।" THE GREAT CHARITY ___139. Shakrendra thought, “It is the duty of the Shakrendras of the past, present and future that when a Tirthankar resolves to get initiated he should be provided with heaps of wealth for charity. The traditionally prescribed amount of this wealth is three billion eight hundred eighty eight million gold coins." - (398) UNATA DHARMA KATHANGA SOTRATA Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९९) S Obreme सूत्र १४0. एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-' “एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीइं च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुंभगभवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।" सूत्र १४0. यह विचार आने पर शकेन्द्र ने वैश्रमण (कुबेर) देव को बुलवाया और कहा- "देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में अर्हत मल्ली ने दीक्षा लेने का निश्चय किया है अतः परम्परानुसार उन्हें प्रचुर धन उपलब्ध कराना चाहिए। तुम जाओ और नियमानुसार द्रव्य राजा कुम्भ के महल में पहुँचाकर मुझे सूचना दो।" 140. Shakrendra now called Vaishraman (Kuber, the god of wealth) and said, “Beloved of gods ! In the Jambu continent Arhat Malli has resolved to get initiated. So, according to the tradition she should be provided with heaps of wealth. Please go and deliver the traditionally prescribed sum at the palace and report back.” सूत्र १४१. तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हद्वतढे करयल जाव पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जंभए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं, कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीयं च कोडीओ असीइं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह, साहरित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।" __ सूत्र १४१. वैश्रमण ने हर्षित हो, हाथ जोड़ शक्रेन्द्र की आज्ञा स्वीकार की और अपने आधीन जंभक देवों को बुलाकर कहा-“देवानप्रियो ! जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की मिथिला नगरी में जाओ और वहाँ के राजा कुंभ के महल में तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण-मुद्रायें पहुँचाकर मुझे सूचित करो।" ____141. Vaishraman was pleased to accept this order from Shakrendra, standing before him with joined palms. He called his subordinate Jrimbhak gods and instructed, “Beloved of gods ? Go to Mithila city in Bharatvarsh in the Jambu continent and deliver three billion eight hundred eighty eight million gold coins and report back to me." सूत्र १४२. तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव पडिसुणेत्ता उत्तर-पुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव उत्तरवेउब्वियाई रूवाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, जेणेव मिहिला HTRA sesamasumanT - - - CHAPTER-STMALLI TV Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ormo ( ४०० ) रायहाणी, जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुंभगस्स रणो भवसि तिनि कोडिसया जाव साहरति । साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणंति । तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ । सूत्र १४२. जृंभक देव यह आज्ञा सुनकर उत्तर-पूर्व दिशा में गये। वहाँ उन्होंने उत्तरवैक्रिय शरीर धारण किया और कुंभ राजा के महल में पहुँचे। वहाँ उन्होंने आज्ञानुसार द्रव्य रख दिया और वापस लौटकर वैश्रमण को कार्य सम्पन्न होने की सूचना दी। वैश्रमण ने जाकर यह सूचना शक्रेन्द्र को दी । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 142. The Jrimbhak gods went in the north east direction after getting this order. There they transformed themselves into Uttar Vaikriya bodies and reached King Kumbh's palace. They placed the wealth as instructed, returned and reported to Vaishraman who in turn reported to Shakrendra. सूत्र १४३. तए णं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं सणांहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साहं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलय | सूत्र १४३. मल्ली अर्हत् ने इसके बाद प्रातः काल से मध्यान्ह के भोजन पूर्व तक प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में देना आरंभ किया। दान प्राप्त करने वालों में सनाथ, अनाथ, पांथिक, पथिक, करोटिक, कार्पटिक आदि सभी थे। 143. After this Arhat Malli started giving in charity ten million eight hundred thousand gold coins every day up to lunch time. Those who received charity included beggars, mendicants, travelers, wayfarers, orphans as well as the well off. कुंभ की भोजनशालाएँ सूत्र १४४. तए णं से कुंभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे बहूओ महाणससालाओ करेइ । तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइ भत्त-वेयणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेंति । उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छंति तं जहा - पंथिया वा, पहिया वा, करोडिया वा, कप्पडिया वा, पासंडत्था वा, गिहत्था वा तस्स य तहा 400) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA For Private Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४०१) om CHAR a4MAA आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति। सूत्र १४४. उधर राजा कुंभ ने मिथिला नगरी में यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेक भोजनशालाएँ बनवाईं। वहाँ पर अनेक वैतनिक कर्मचारी, जिन्हें भोजन भी दिया जाता था, प्रचुर भोजन सामग्री बनाने लगे। उन भोजनशालाओं में जब भी, जो भी आता उसे स्वागत कर, विश्राम दे, सुखद आसन पर बैठाकर यथेष्ट भोजन कराया जाने लगा। इन भोजनशालाओं में पांथिक, पथिक, करोटिक, कार्पटिक, पाखण्डी, गृहस्थ आदि सभी आने लगे। FOOD DISTRIBUTION BY KUMBH ___144. At his end, King Kumbh opened many food distribution centres at various spots in Mithila. Many cooks were employed to prepare large quantities of eatables. Whenever and whoever went into these centres was greeted and provided ample food and comfort without any charges. These places were also frequented by all and sundry without any restrictions or discrimination. सूत्र १४५. तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ“एवं खलु देवाणुप्पिया ! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूणं समणाय य जाय परिवेसिज्जइ।" वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं। सुर-असुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे॥ सूत्र १४५. मिथिला नगरी में चौक, चौराहे आदि सभी स्थानों पर अनेक लोग परस्पर चर्चा करने लगे-“हे देवानुप्रियो ! राजा कुंभ के महल में सर्वगुण-रस वाला स्वादिष्ट भोजन इच्छानुसार यथेष्ट मात्रा में परोसा जाता है।" कहा भी है “सुर, असुर, देव, दानव, नरेन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा पूजित तीर्थंकर की दीक्षा के अवसर पर इच्छित दान पाने की घोषणा की जाती है और याचकों को उनकी इच्छानुसार तरह-तरह से दान दिया जाता है।" 145. At various spots like squares, junctions, etc. people started gossiping, “Beloved of gods ! Nutritious and sumptuous food, as much as you desire and can eat, is being served to all in the palace of King Kumbh." As is said SAMBHO - CHAPTER-8 : MALLI (4 ) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०२ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CRO wo OLO 6 AHADNA - “On the occasion of the initiation of a Tirthankar; the one who is revered by god, demon, deity, devil, king, and emperor alike; it is announced as well as done that charity will be given to all and sundry as much as they desire." सूत्र १४६. तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीइं च होंति कोडीओ असिइं च सयसहस्साइं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्ता निक्खमामि त्ति मणं पहारेइ। सूत्र १४६. तीन अरब अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख सुवर्ण-मुद्राओं का दान दे चुकने पर अर्हत् मल्ली ने निश्चय किया कि अब मैं दीक्षा ग्रहण करूँ। ___146. When the total amount provided by the gods was given in charity Arhat Malli decided that now she will get initiated. देवों का कर्तव्य-पालन सूत्र १४७. तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणेहिं, सएहिं सएहिं पासायवडिंसएहिं, पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहि य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महयाहयनट्टगीयवाइय जाव रवेणं भुंजमाणा विहरंति। तं जहा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य। तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य॥ सूत्र १४७. काल के उस भाग में लोकान्तिक देवराज ब्रह्मलोक नामक पाँचवें देवलोक के अरिष्ट नामक विमान-क्षेत्र में अपने-अपने विमान और उत्तम निवास में उच्च स्वरों में बजते वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों के बीच नृत्य और गायन का आनन्द ले रहे थे। उनमें से प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों, तीन-तीन परिषदों, सात-सात सेनापतियों सहित लश्करों, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों और अनेक लोकान्तिक देवों से घिरे हुए थे। उन (नव लोकान्तिक) देवराजों के नाम हैं-(१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) वह्नि, (४) वरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अव्याबाध, (८) आग्नेय, तथा (९) रिष्ट।१। १. इनमें से आठ कृष्ण राजि के मध्य आठ विमानों में रहते हैं। रिष्ट, रिष्ट नामक विमान प्रतर में रहते हैं। Sane 402) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४०३ ) TRUST MBER OMG --- - GODS PERFORM THEIR DUTY 147. During that period of time the kings of gods at the edge of the universe in their gorgeous abodes in the space vehicles located in the Arishta area of the Brahmalok, the fifth dimension of gods were enjoying dance and vocal music accompanied by instrumental music. Everyone of these kings was surrounded by four thousand gods owning space vehicles, three assemblies, seven armies with their commanders, sixteen thousand body guards and many other gods. The names of these kings of gods are-1. Saraswat, 2. Aditya, 3. Vanhi, 4. Varun, 5. Gardatoya, 6. Tushit, 7. Avyabaadh, 8. Agneya, and 9. Risht. (of these first eight reside in eight different dimensions in the level of darkness or Krishna Raji and the ninth in the level known as Risht) सूत्र १४८. तए णं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तहेव जाव “अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए त्ति तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिस्स अरहओ संबोहणं करेमो।' त्ति कटु एवं संपेहेंति, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे, जेणेव मल्ली अरहा, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिंखिणियाइं जाव वत्थाई पवरपरिहिया करयल ताहिं इटाहिं जाव एवं वयासी___ “बुज्झाहि भयवं ! लोगनाहा ! पवत्तेहि धम्मतित्थं, जीवाणं हिय-सुह-निस्सेयसकरं भविस्सइ'' त्ति कटु दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयंति। वइत्ता मल्लिं अरहं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। __ सूत्र १४८. इन सभी लोकान्तिक देवों के आसन डोलने लगे तो उन्होंने अर्हत् मल्ली की दीक्षा लेने की इच्छा जानकर विचार किया-“दीक्षा लेने की इच्छा करने वाले तीर्थंकरों को सम्बोधित करना हमारा परम्परागत कर्त्तव्य है अतः हमें उसका पालन करना चाहिये।" फिर उन्होंने यथाविधि उत्तर वैक्रिय शरीर धारण किया और जंभृक देवों की तरह असंख्यात योजन पार कर कुंभ राजा के महल में प्रवेश किया। नूपुरों की ध्वनि वाले पंचरंगे परिधान धारण किये वे देव अर्हत् मल्ली के पास आकर हाथ जोड़कर मधुर स्वर में बोले__"हे भगवान ! हे लोकनाथ ! बोध प्राप्त करो। जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और मोक्ष के मार्ग रूप धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करो।" ये वचन तीन बार उच्चारित कर अर्हत् मल्ली को वन्दना-नमस्कार कर वे लौट गये। D PAHITRA म HR CHAPTER-8 : MALLI (403) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HBO (808) SEY 148. The thrones of all these gods at the edge of the universe started trembling. Getting aware of the desire of Arhat Malli to get initiated they thought, "To formally request for initiation to the Tirthankars with desire to renounce is our traditional duty, so we should perform it." They transformed into the Uttar Vaikriya bodies and like the Jrimbhak gods traveled infinite Yojans to arrive at the palace of King Kumbh. Dressed in colourful apparel fitted with sweetly resonating rattles these gods appeared before Arhat Malli and joining their palms uttered in melodious voice “Bhagavan ! Lord of the universe ! Please pursue the path of enlightenment. Please establish the ford of religion, propagated as the path of liberation, that is the source of beneficence and happiness for all beings." They uttered these words three times and returned after bowing before Arhat Malli. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र १४९. तए णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल - "इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुंडे भवित्ता जाव पव्वइत्तए ।" " अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । " सूत्र १४९. तब अर्हत् मल्ली अपने माता-पिता के पास गए और हाथ जोड़कर कहा" हे माता - पिता ! मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा पाकर, गृह त्यागकर, मुंडित होकर अनगार - प्रव्रज्या ग्रहण करूँ ।" माता-पिता ने उत्तर दिया- "हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिसमें सुख प्राप्त हो वैसा निर्विलम्ब करो।" 149. Arhat Malli now went to her parents and joining her palms she said, "Father and mother! With your permission I wish to abandon the home, shave and get initiated as a homeless ascetic." The parents replied, "Beloved of gods! Without any delay, do as it pleases you." अभिषेक समारोह सूत्र १५०. तए णं कुंभए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी“खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवण्णियाणं जाव अट्ठसहरसाणं भोमेज्जाणं कलसाणं ति । अण्णं च महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह | " जाव उवट्ठवेंति । (404) For Private JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA Personal Use Only OO संपा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ monterto Amp आठवाँ अध्ययन : मल्ली सूत्र १५०. फिर राजा कुम्भ ने सेवकों को बुलाकर कहा - " स्वर्णादि आठ पदार्थों के प्रत्येक के एक हजार आठ-आठ कलश लाओ। साथ में तीर्थंकर के अभिषेक की समस्त श्रेष्ठ और बहुमूल्य सामग्री भी लाओ।" सेवकों ने राजाज्ञानुसार कार्य सम्पन्न कर दिया | ANNOINTING CEREMONY 150. King Kumbh called his staff and said, “Bring one thousand eight urns each of eight different materials including gold. With these, also bring all the best and expensive things needed for the annointing of a Tirthankar." The attendants carried out the King's order. सूत्र १५१. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया। ( ४०५ ) तणं सक्के देविंदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"खिप्पामेव अट्टसहस्सं सोवण्णियाणं कलसाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह | " जाव उवट्ठवेंति। तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा । सूत्र १५१. काल के उस भाग में चमर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग के देवेन्द्र तक सभी चौंसठ इन्द्र वहाँ आ गये । शक्रेन्द्र ने तब अभियोगिक देवों को बुलाया और कहा - " शीघ्र ही मनुष्यों द्वारा एकत्र अभिषेक सामग्री के समान दैविक अभिषेक सामग्री ले आओ।" अभियोगिक देवगण सब सामग्री ले आये और वह कलशादि समस्त दिव्य सामग्री मानवीय सामग्री में सम्मिलित कर दी गई। 151. During that period of time all the sixty four Indras (kings of gods and demons) including the demon king Chamar and the king of the gods of the Achyut dimension arrived there. Shakrendra called the gods responsible for ceremonies and said, "At once bring all the things needed for the divine annointing, as the humans have collected." The ceremonial gods brought all the needed things and these divine things fused with the human things already present. सूत्र १५२. तए णं से सक्के देविंदे देवराया कुंभराया य मल्लिं अरहं सीहासणंसि पुरत्याभिमुहं निवेसे, अट्ठसहस्सेणं सोवण्णियाणं जाव अभिसिंचाइ । सूत्र १५२. . इसके बाद शक्रेन्द्र और राजा कुंभ ने अर्हत् मल्ली को पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठाया और उक्त सामग्री से उनका अभिषेक किया। CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only (405) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - rameenarmeruwaon 152. Shakrendra and King Kumbh seated Arhat Malli on a throne facing east and annointed him with the said things. सूत्र १५३. तए णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभिंतरं बाहिरियं जाव सव्वओ समंता आधावंति परिधावंति। सूत्र १५३. भगवान मल्ली के अभिषेक के समय कई देव मिथिला के भीतर-बाहर आ-जा रहे थे। ___153. At the time of the annointing ceremony of Arhat Malli numerous gods continued to arrive at and leave that place. पालकी सूत्र १५४. तए णं कुंभए राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ जाव सव्वालंकार-विभूसियं करेइ, करित्ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ। सद्दावित्ता एवं वयासी"खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह।" ते वि उवट्ठवेंति। सूत्र १५४. फिर राजा कुंभ ने सिंहासन उत्तरमुखी करके रखवाया और भगवान मल्ली को सभी अलंकारों से सजाकर बैठाया। उन्होंने सेवकों को बुलाकर कहा-"जल्दी से मनोरमा नाम की पालकी लाओ।" सेवक वह पालकी ले आए। THE PALANQUIN 154. King Kumbh got the throne placed facing north and seated Arhat Malli after adorning her with all gorgeous ornaments. He called his staff and said, “Go and get the palanquin named Manorama." The attendants immediately brought the palanquin. सूत्र १५५. तए णं सक्के देविंद देवराया आभियोगिए सद्दावेइ, सदायित्ता एवं वयासी-“खिप्पामेव अणेगखंभं जाव मनोरमं सीयं उवट्ठवेह।" जाव सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा। सूत्र १५५. इस पर शक्रेन्द्र ने अभियोगिक देवों को बुलाकर कहा-"जल्दी से अनेक स्तम्भों वाली मनोरमा नामकी शिविका उपस्थित करो।" देवगण वह शिविका ले आये और वह शिविका मनुष्यों की पालकी में समा गई। ____155. Shakrendra also called the ceremonial gods and said, “Bring forth the Manorama divine palanquin." The gods brought it and it vanished into the human palanquin. Orno पक BEBI(406) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली सूत्र १५६. तए णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उचागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहइ। दुरूहित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने । सूत्र १५६. अर्हत् मल्ली सिंहासन से उठे और पालकी के पास आकर उसकी प्रदक्षिणा कर उसमें चढ़कर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके सिंहासन पर बैठ गये । 156. Arhat Malli got up from the throne, reached near the palanquin and went around it three times before ascending it and sitting facing east. ( ४०७ ) OREO सूत्र १५७. तए णं कुंभए राया अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ । सद्दावित्ता एवं वयासी - " तुभे णं देवाणुप्पिया ! व्हाया जाव सव्वालंकार - विभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह । " तेवि जाव परिवहति । सूत्र १५७. फिर राजा कुंभ ने अठारह जाति-उपजाति के लोगों को बुलवाकर कहा"हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नानादि कर्मों से निपटकर सब प्रकार के आभूषण पहनकर अर्हत् मल्ली की पालकी उठाओ।" उन्होंने राजाज्ञा का पालन किया । 157. King Kumbh called people from all the eighteen castes and sub-castes and said, "Beloved of gods! Take your bath and get ready donning suitable dresses. After this, come and lift the palanquin of Arhat Malli.” They followed the king's order. महाभिनिष्क्रमण सूत्र १५८. तए णं सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेहइ, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेल्लं । अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति । सूत्र १५८. उस मनोरमा पालकी की दक्षिण दिशा की ऊपरी बाँह शक्रेन्द्र ने पकड़ी, उत्तर दिशा की ऊपरी बाँह ईशानेन्द्र ने दक्षिण दिशा की निचली चमरेन्द्र ने और उत्तर दिशा की निचली वली ने पकड़ी। शेष देवों ने यथोचित स्थानों पर से उस पालंकी को पकड़ा। Opinyo THE GREAT RENUNCIATION 158. The upper arm of the south facing side of the palanquin was held by Shakrendra. The upper arm of the north facing side was held CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only (407) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०८) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 440mA सजा by Ishanendra. The lower arm of the north facing side was held by Chamarendra. The lower arm of the south facing side was held by Bali. The remaining gods held the palanquin at different suitable points. सूत्र १५९. पुव्विं उक्खित्ता माणुस्सेहिं, तो हट्ठरोमकूवेहि। पच्छा वहति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागेंदा॥१॥ चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी। देविंद-दाणविंदा, वहन्ति सीयं जिणिंदस्स ॥२॥ सूत्र १५९. सबसे पहले वह पालकी मनुष्यों ने उठाई और उनके रोम हर्ष से पुलक उठे। उसके बाद असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उठाया। डोलते चपल कुण्डलों को धारण करने वाले और अपनी इच्छानुसार विक्रिया से बनाये आभरणों को धारण करने वाले देवेन्द्रों और दानवेन्द्रों ने जिनेन्द्र की पालकी उठायी। 159. As is said—“This palanquin was first of all lifted by human beings and every pore of their body was filled with joy. After them, it was lifted by the Kings of demons, gods and serpents. The kings of gods and demons, who wear dangling earrings and dresses created by divine process just by wishing for them, lifted the palanquin of the Jinendra, the conqueror of the senses सूत्र १६०. तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा अहाणुपुव्वीए एवं निग्गमो जहा जमालिस्स। सूत्र १६०. अर्हत् मल्ली जब मनोरमा पालकी पर आरूढ़ हो गए उस समय उनके आगे अष्ट मंगल अनुक्रम से चले। अर्हत् मल्ली के महाभिनिष्क्रमण का विस्तृत वर्णन जमाली के निर्गमन (भगवती सूत्र), अथवा मेघकुमार (प्रथम अध्ययन) के समान ही है। ____160. When Arhat Malli ascended the palanquin eight auspicious things were carried ahead of her in proper sequence. The detailed description of the great renunciation of Arhat Malli is same as that of Jamali (Bhagavati Sutra) or Meghkumar (first chapter of this book). सूत्र १६१. तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेइगया देवा मिहिलं रायहाणिं अभिंतर-बाहिरं आसियसंमज्जिय-संमट्ठ-सुइ-रत्यंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावंति। caro Pain (408) JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४०९) सूत्र १६१. अर्हत् मल्ली जब दीक्षा ग्रहण करने के लिए निकले तब कई देव मिथिला नगरी को स्वच्छ करने में व्यस्त हो गये (इसका वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के वर्णन में विस्तार से मिलता है)। ____161. When Arhat Malli set out for getting initiated, many gods were busy cleaning the town of Mithila. (Detailed description available in the Raj-prashniya Sutra). दीक्षा ___ सूत्र १६२. तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता आभरणालंकारं ओमुयइ। तए णं पभावती हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ। __सूत्र १६२. अर्हत् मल्ली सहस्राम्रवन उद्यान में श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे आकर पालकी से उतरे। उन्होंने समस्त वस्त्राभूषणों का त्याग किया और प्रभावती देवी ने सब ले लिये। INITIATION ____162. When the palanquin reached under a great Ashoka tree in the Sahasramravan garden Arhat Malli got down from it. She took out all the ornaments and Queen Prabhavati collected these. __ सूत्र १६३. तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। तए णं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ। पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे पक्खिवइ। तए णं मल्ली अरहा ‘णमोऽत्थु णं सिद्धाणं' ति कटु सामाइयचरित्तं पडिवज्जइ। सूत्र १६३. इसके बाद अर्हत् मल्ली ने अपने आप पंचमुष्टिक लोच किया और शक्रेन्द्र ने उन केशों को लेकर क्षीर सागर में प्रवाहित कर दिया। अर्हत् मल्ली ने 'नमोत्थुणं सिद्धाणं' का उच्चारण कर सिद्धों को नमस्कार कर सामायिक चारित्र अंगीकार कर लिया। ____163. After this, Arhat Malli pulled out all her hair (the five fistful pulling out of hair). The Shakrendra collected these hair and immersed them in the ocean of milk. Arhat Malli uttered *Namotthunam Siddhanam' as salutation to the liberated souls and took the vow of the conduct of equanimity. सूत्र १६४. जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं पडिवज्जइ, तं समयं च देवाण मणुस्साण य णिग्घोसे तुरिय-णिणाय-गीत-वाइयनिग्घोसे य सक्कस्स वयणसंदेसेणं णिलुक्के OMO BIDO STARRAO CHAPTER-8 : MALLI (409) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र यावि होत्था। जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयं चरितं पडिवन्ने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने। सूत्र १६४. जिस समय अर्हत् मल्ली ने चारित्र अंगीकार किया उस समय शक्रेन्द्र के आदेश से देवों और मनुष्यों का कोलाहल तथा वाद्य यन्त्रों की ध्वनियाँ एकदम बन्द हो गईं। चारित्र अंगीकार के तत्काल बाद ही मल्ली अर्हत् को मनुष्य के लिये दुर्लभ और श्रेष्ठ मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया। ___164. At the moment when Arhat Malli took this vow all gods and human beings became totally silent and all musical instruments were stopped on the order of Shakrendra. Immediately after Arhat Malli took the vow she acquired the Manahparyava Jnana (the ultimate parapsychological knowledge) that is rare to achieve for any human being. __सूत्र १६५. मल्ली णं अरहा जे से हेमंताणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे, तस्स णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खे णं पुव्वण्हकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं, अस्सिणीहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थीसएहिं अभिंतरियाए परिसाए, तिहिं पुरिससएहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पव्वइए। सूत्र १६५. अर्हत् मल्ली ने हेमन्त ऋतु के दूसरे महीने और चौथे पक्ष में पौष शुक्ला एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय निर्जल उपवास करके अश्विनी नक्षत्र का योग आने पर भीतरी परिषद की तीन सौ स्त्रियों तथा बाहरी परिषद के तीन सौ पुरुषों के साथ मुंडित होकर दीक्षा ग्रहण की। 165. Arhat Malli got initiated during the second month and the fourth fortnight of the winter season. The time was before noon on the eleventh day of the bright half of the month of Paush and at that moment the moon was in its first lunar mansion, the Ashwini. Arhat Malli got initiated along with three hundred women of the inner assembly and three hundred men of the outer assembly. सुत्र १६६. मल्लिं अरहं इमे अट्ठ णायकुमारा अणुपव्वइंसु, तं जहा णंदे य णंदिमित्ते, सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य। अमरवइ अमरसेणे महसेणे चेव अट्ठमए ॥ सूत्र १६६. अर्हत् मल्ली का अनुसरण कर ज्ञातवंश के आठ कुमार दीक्षित हुए, उनके नाम हैं-(१) नन्द, (२) नन्दिमित्र, (३) सुमित्र, (४) बलमित्र, (५) भानुमित्र, (६) अमरपति, (७) अमरसेन, और (८) महासेन। @Amma BADI (410) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली 166. Following the example of Arhat Malli eight princes from the Jnata clan also got initiated. There names are-1. Nand, 2. Nandimitra, 3. Sumitra, 4. Balamitra, 5. Bhanumitra, 6. Amarpati, 7. Amarsen, and 8. Mahasen. सूत्र १६७. तए णं भवणवइ - वाणमन्तर - जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिस्स अरहओ निक्खमणमहिमं करेंति, करित्ता जेणेव नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं करेंति, करिता जाव पडिगया। सूत्र १६७. फिर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक निकाय के देवों ने अर्हत् मल्ली का दीक्षा महोत्सव किया। तब वे सब नन्दीश्वर द्वीप गये और अष्टाह्निका महोत्सव संपन्न कर अपने-अपने स्थान को लौट गये। ( ४११ ) 167. Now the gods from Bhavanpati, Vanavyantar, Jyotishka, and Vaimanik dimensions celebrated the initiation ceremony of Arhat Malli. They then proceeded to the Nandishvar island and celebrated the Ashtanhika celebration before returning to their abodes. केवलज्ञान सूत्र १६८. तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वइए तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकाल-समयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेणं, पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं, तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते जाव केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने। सूत्र १६८. जिस दिन दीक्षा अंगीकार की थी उसी दिन पराह्नकाल में, दिन के अन्तिम भाग में अशोक वृक्ष के नीचे शिला पर बैठे हुए शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसाय, और विशुद्ध लेश्याओं के फलस्वरूप अर्हत् मल्ली के ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों का क्षय हो गया और वे अपूर्व करण (अष्टम गुणस्थान) को प्राप्त हुए। उसके बाद उन्हें अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, और निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुए। OMNISCIENCE 168. On the same day, during the last part of the day sitting on a rock under an Ashoka tree, as a result of righteous endeavour, lofty attitude, and purified inner energies (Leshya ) all the knowledgeveiling and perception veiling Karmas (Jnanavarniya and Darshanavaraniya Karma) were absolutely destroyed and Arhat Malli attained the level of Apurvakaran (the unique level or the eighth level CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only ( 411 ) Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र GAR LOTANSAR of spiritual upliftment). After this she acquired the infinite, unique, unimpeded, and unveiled Keval Jnana and Keval Darshan (ultimate knowledge and perception or the state of omniscience). सूत्र १६९. तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाई चलंति। समोसढा, धम्म सुणेति, अट्ठाहियमहिमा नंदीसरे, जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ। सूत्र १६९. काल के उस भाग में इस घटना से सभी देवों के आसन डोल गये। सभी देव अर्हत् के पास उपस्थित हुए और धर्मोपदेश ग्रहण किया। फिर वे नन्दीश्वरद्वीप में आष्टाह्निका महोत्सव करते हुए अपने स्थानों को लौट गये। राजा कुम्भ भी अर्हत् वन्दना को निकले। ___ 169. During that period of time the thrones of gods trembled. All the gods came to the Arhat and listened to her discourse. They then proceeded to the Nandishvar island and celebrated the Ashtanhika celebration before returning to their abodes. King Kumbh also set out to pay homage to the Arhat. सूत्र १७0. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेट्टपुत्ते रज्जे ठावित्ता पुरिससहस्स-वाहिणीयाओ दुरूढा सव्विड्डिए जाव रवेणं जेणेव मल्ली अरहा जाव पज्जुवासंति। सूत्र १७0. जितशत्रु आदि छह राजा अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य सिंहासन पर बैठा पुरिससहस्स वाहिनियों पर बैठ अपने पूर्ण वैभव और गाजे-बाजे के साथ अर्हत् मल्ली के पास आकर उनकी उपासना करने लगे। ___170. King Jitshatru and the other kings handed over the kingdoms to their elder sons, and came with all their grandeur and fanfare riding the Purisasahassa palanquins. When they arrived near Arhat Malli they commenced her worship. सूत्र १७१. तए णं मल्ली अरहा तीसे महइ महालियाए कुंभगस्स रन्नो तेसिं च जियसत्तु-पामोक्खाणं धम्मं कहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए समणोवासए जाए, पडिगए, पभावई य समणोवासिया जाया, पडिगया। __ सूत्र १७१. अर्हत् मल्ली ने कुम्भ राजा और जितशत्रु आदि छह राजाओं सहित उस विशाल धर्मसभा को उपदेश दिया। धर्मसभा समाप्त हुई और सब लोग अपने-अपने स्थानों को लौट गये। राजा कुंभ श्रमणोपासक बन गये और रानी प्रभावती श्रमणोपासिका। वे भी अपने स्थान को चले गये। - - BEBI (412) JNĀTĂ DHARMA KATHANGA SUTRA Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४१३) MARA यी 171. Arhat Malli gave a discourse in that large religious assembly with King Kumbh, King Jitshatru and the other kings. After the discourse the assembly was adjourned and everyone left. King Kumbh also became a Shramanopasak and Queen Prabhavati a Shramanopasika and they also left. सूत्र १७२. तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो धम्मं सोच्चा आलित्ते णं भंते जाव पव्वइया। चोद्दसपुव्विणो, अणंते केवले, सिद्धा। सूत्र १७२. जितशत्रु आदि राजाओं ने धर्मोपदेश सुनकर कहा-"भगवन् ! यह संसार जरा-मरण की आग में जल रहा है, अति भयंकर और अति विकट रूप से जल रहा है ।" ऐसे वचन कहकर वे सभी दीक्षित हुए। कालान्तर में चौदह पूर्वो के ज्ञाता हो केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध गति में गये। 172. Jitshatru and other kings said after the discourse, “Bhagavan! This world is burning fiercely in the fire of aging and death.........." Pleading thus they all got initiated. With passage of time they acquired the knowledge of the fourteen sublime canons and finally got liberated after attaining omniscience. सूत्र १७३. तए णं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। सूत्र १७३. अर्हत् मल्ली सहस्राम्रवन उद्यान से बाहर निकलकर जनपदों में विहार करने लगे। 173. Arhat Malli left the Sahasramravan garden and started wandering in different populated areas. संघ वर्णन सूत्र १७४. मल्लिस णं अरहओ भिसग पामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसं गणहरा होत्था। ___ मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोसियाओ, बंधुमतीपामोखाओ पणपण्णं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ सावयाणं एगा सयसाहस्सीओ चुलसीइं च सहस्सा उक्कोसिया सावया होत्था। मल्लिस्स णं अरहओ सावियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ पण्णष्टुिं च सहस्सा संपया होत्था। GANA AA To CHAPTER-8 : MALLI - (413) Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१४ ) मल्लिस्स णं अरहओ छस्सया चोद्दसपुव्वीणं, वीससया ओहिनाणीणं, बत्तीसं सया केवलणाणीणं, पणतीसं सया वेउव्वियाणं, अट्ठसया मणपज्जवणाणीणं, चोइससया वाईणं, वीसं सया अणुत्तरोववाइयाणं । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र १७४ . अर्हत् मल्ली के भिषक अथवा किंशुक् आदि अट्ठाईस गण और गणधर थे। उनके शिष्यों की उत्कृष्ट संपदा में चालीस हजार साधु, बंधुमती आदि पचपन हजार साध्वियाँ, एक लाख चौरासी हजार श्रावक और तीन लाख पैंसठ हजार श्राविकाएँ थीं। उनके शिष्यों में छह सौ चौदह पूर्वधारी श्रमण, दो हजार अवधिज्ञानी, बत्तीस सौ केवलज्ञानी, पैंतीस सौ वैक्रियलब्धिधारी, आठ सौ मनः पर्यवज्ञानी, चौदह सौ वादी, और दो हजार अनुत्तरौपपातिक श्रमण थे। OR DETAILS OF THE ORGANIZATION 174. Arhat Malli had twenty eight groups of followers and twenty eight chief disciples lead by Bhishak (or Kinshuk). The maximum number of his disciples included forty thousand male ascetics; fifty five thousand female ascetics lead by Bandhumati, one hundred eighty four thousand Shravaks and three hundred sixty five thousand Shravikas. Among her disciples were six hundred all knowing ascetics (termed as Fourteen Purvadhar), two thousand Avadhijnani, three thousand two hundred omniscients, three thousand five hundred Vaikriya Labdhi Dharak (occult power), eight hundred ascetics with ultimate para-psychological knowledge (Manah-paryava Jnani), fourteen hundred logicians, and two thousand Anutaropapatik ascetics (destined to become gods and later to be liberated). सूत्र १७५. मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था । तं जहा - जुगंतकरभूमी, परियायंतकरभूमी य। जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी, दुवासपरियाए अंतमकासी । सूत्र १७५. अर्हत् मल्ली की दो अन्तकृत भूमि थीं। उनकी युगान्तकृत् भूमि उनके बाद बीस पट्टधारियों तक चली। उनकी पर्यायान्तकृत भूमि उनके केवलज्ञान के दो वर्ष बाद आरंभ हुई। 175. Arhat Malli had two Antakrit Bhumis ( specific periods of time connected with the ending of the cycle of rebirth or liberation). Her (414) JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only Jams Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली Yugantakrit Bhumi continued till the twentieth head of the order after her (this Bhumi is the period starting with the Nirvana of the Tirthankar and ends when the last of the Nirvana attaining heads of the order is liberated). Her Paryayantakrit Bhumi commenced after two years of her attaining omniscience (this Bhumi is the period starting with the moment of the Tirthankar attaining omniscience and ending when the first pure soul attains Nirvana). निर्वाण सूत्र १७६. मल्ली णं अरहा पणुवीसं धणूणि उडुं उच्चत्तेणं, वण्णेणं पियंगुसमे, समचउरंस-संठाणे, वज्जरिसभनारायसंघयणे, मज्झदेसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव संमेए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणमणुववन्ने। ( ४१५ ) सूत्र १७६. अर्हत् मल्ली पच्चीस धनुष ऊँचे थे। उनका रंग प्रियंगु के समान था । उनका संस्थान समचतुरम्न और संहनन वज्रऋषभ था। वे मध्य देश से सुखपूर्वक विचरते हुए सम्मेद शिखर आये और वहाँ पादोपगमन अनशन का संकल्प ले लिया । LIBERATION 176. Arhat Malli was twenty five Dhanush (a mythical measure of length) tall. Her complexion was greenish like black-mustard seed. Her figure and constitution were Samchaturas and Vajrarishabh respectively (mythical specifications of the human body). Moving around undisturbed in the central part of the country she arrived at Sammed Shikhar and took the ultimate vow. सूत्र १७७. मल्ली णं एगं वाससयं आगारवासं पणपण्णं वाससहस्साई वाससयऊणाई केवलिपरियागं पाउणित्ता, पणपण्णं वाससहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चित्तसुद्धे, तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अज्जियासएहिं अब्भिंतरियाए परिसाए पंचहिं अणगारसहि बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं, वग्घारियपाणी, खीणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे । एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ, पडिगयाओ । सूत्र १७७. अर्हत् मल्ली एक सौ वर्ष गृहवास में रहे। पचपन हजार वर्ष में सौ वर्ष कम समय तक वे केवलज्ञानी श्रमण के रूप में रहे। इस प्रकार कुल पचपन हजार वर्षों की आयु पूर्ण कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास और दूसरे पक्ष में चैत्र शुक्ला चतुर्थी के दिन CHAPTER-8: MALLI For Private Personal Use Only (415) দত Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१६) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र DAR 150 BE अर्द्ध-रात्रि के समय भरणी नक्षत्र का योग होने पर पाँच सौ साधुओं और पाँच सौ साध्वियों के साथ एक माह के निर्जल अनशन के बाद दोनों हाथ लम्बे रखकर चारों अघाति कर्मों के क्षय होने पर सिद्ध हो गये। देवों ने आकर निर्वाण महोत्सव किया (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार)। फिर वे सभी देव नन्दीश्वर द्वीप में अष्टाह्निका महोत्सव करते हुए अपने स्थानों को लौट गये। ___177. Arhat Malli lived as a house-holder for one hundred years. She lived as an omniscient ascetic for one hundred years less fifty thousand years. Thus completing her age of fifty five thousand years, during the first month and the second fortnight of the summer seaso on the fourth day of the bright half of the month of Chaitra, at midnight when the moon entered the second (Bharani) lunar mansion, after a one month long fast, in a posture with hands raised high Arhat Malli, along with five hundred male and five hundred female disciples, ending all the four non destructible Karmas became a Siddha (a liberated soul). The gods arrived and performed the Nirvana celebrations (Jambu-dveep Prajnapti). They then proceeded to the Nandishvar island and celebrated the Ashtanhika celebration before returning to their abodes. सूत्र १७८. एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। सूत्र १७८. हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने आठवें ज्ञाता अध्ययन का यही अर्थ कहा है। मैंने यही सुना है, ऐसा मैं कहता हूँ। ___ 178. Jambu! This is the text and meaning of the eighth chapter of the Jnata sutra according to Shraman Bhagavan Mahavir. This is what I have listened and so I confirm ॥ अट्ठमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥ 11 END OF THE EIGHTH CHAPTER || ॥ ज्ञाता-धर्मकथांग प्रथम भाग समाप्त ॥ II END OF THE FIRST PART OF JNATA-DHARMA-KATHANG II (416) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTKA Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४१७) Today उपसंहार ज्ञातासूत्र की यह आठवीं कथा एक विस्तृत कथा है। इसमें भगवान मल्लीनाथ का जीवन चरित्र तो है ही साथ ही कई उपकथाएँ भी हैं। जिनमें प्रत्येक में कोई न कोई प्रेरक सन्देश छुपा है। श्रमणोपासक अर्हन्नक की कथा अडिग आस्था के महत्त्व को उजागर करती है। अपने धर्म-मार्ग पर स्थिर व्यक्ति को कोई भी शक्ति हानि नहीं पहुंचा सकती। चोक्खा परिव्राजिका की कथा भावनारहित कर्मकाण्ड की निरर्थकता को दर्शाती है। आत्मा को भव-मुक्त करना है तो आत्म-साधना के माध्यम से पापकर्मों से मुक्त होना होगा और संयम व तप से कर्ममल को धोना होगा। केवल स्नान-दानादि की औपचारिकता से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। अर्हत् मल्ली की जीवनगाथा इस अकाट्य सत्य को प्रकट करती है कि छल-माया आदि द्वारा अर्जित कर्मों को भोगे बिना उनसे निस्तार नहीं-चाहे कोई आत्मा कितनी ही शुद्ध या शक्तिमान क्यों न हो। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जब आत्मा शुद्धि के पथ पर बढ़ने की तीव्र लगन से प्रेरित हो आगे बढ़ जाती है तो उसके मार्ग में कोई भी सांसारिक बात बाधा उत्पन्न नहीं कर सकती चाहे वह यात्रा स्त्री के शरीर में ही क्यों न हो। ___ आध्यात्मिक शिक्षा के अतिरिक्त इस कथा में तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक जीवन शैली का रोचक व सारगर्भित विवरण भी उपलब्ध होता है। -- - उपनय गाथा उग्ग-तव-संजमवओ पगिट्ठफलसाहगस्स वि जियस्स । धम्मविसएवि सुहुमावि, होइ माया अणत्थाय ॥१॥ जह मल्लिस्स महाबलभवम्मि तित्थगरनामबंधे वि । तवविसय-थोवमाया जाया जुवइत्तहेउति ॥२॥ १-उग्रतप तथा संयमवान् एवं उत्कृष्ट फल के साधक जीव द्वारा की गई सूक्ष्म और धर्मविषयक माया भी अनर्थ का कारण होती है, यथा २-मल्लीकुमारी को महाबल के भव में तीर्थंकरनामकर्म का बंध होने पर भी तप के विषय में की गई थोड़ी-सी माया भी युवतीत्व (स्त्रीत्व) का कारण बन गई। CONCLUSION This eighth story of Jnata Dharma Katha is an elaborate story. Besides the story of Bhagavan Mallinath it contains many other tales, CA10 ar - CHAPTER-8: MALLT Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (890) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र AL every one of which has a concealed inspiring message. The tale of merchant Arhannak highlights the importance of unwavering faith. No power can harm a person who sticks with resolve to his chosen path. The tale of Chokkha reveals the futility of thoughtless rituals. If the soul has to be liberated from the trap of rebirth it is essential to avoid indulgence in sinful activities with the help of spiritual practices and wash off the accumulated slime of past karmas with the help of self-discipline and penance. Mere rituals of bath and charity cannot lead to liberation. The story of life of Arhat Malli highlights the absolute reality that even the most elevated and powerful of the souls cannot escape the consequences of acquired karmas without suffering. It also reveals that when the soul is inspired by a deep craving to progress on the path of purification of soul, no mundane hurdle can hinder its development, even if it is in a female body. Besides the philosophical message this story contains an informative, absorbing, graphic and vivid description of social, cultural, and political life of that period. THE MESSAGE A soul that indulges in practices of harsh penance and discipline earning a high status has also to suffer damaging consequences if it commits even a minute error in its religious conduct. As—(1) In spite of earning Tirthankar-naam-karma in the life as Mahabal, the soul that became Malli had to take birth as a female because of the minor error it committed in doing penances. परिशिष्ट मिथिला-पूर्वी भारत की प्रसिद्ध प्राचीन नगरी। समस्त प्राचीन भारतीय वाङ्गमय में इस नगरी की चर्चा है। एक समय यह अत्यन्त विशाल और समृद्धिशाली नगरी थी। जैसा कि लम्बे समय के अन्तराल में होता है-इस नगरी ने भी अनेक उतार-चढ़ाव देखे और अनेक नाम पाये। यही कारण है कि वर्तमान में इसके मूल स्थान के सम्बन्ध में इतिहासकारों के अनेक मंतव्य हैं। जातक के अनुसार मिथिला राज्य का विस्तार ३०० योजन था और उसमें १,६०० गाँव थे। एक अन्य स्थान पर यह उल्लेख है कि मिथिला का विस्तार ७ योजन है और समस्त राष्ट्र का विस्तार ३00 योजन। रामायण में इसे जनकपुर्ग . NAY ( 418 ) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४१९) प PANA masayanews SION व तीरभुक्ति कहा है। विविध तीर्थकल्प में देश को तिरहुति और नगर को जगती कहा है। वर्तमान में नेपाल की सीमा पर स्थित जनकपुर नामक ग्राम को मिथिला माना जाता है। विदेह राज्य, जिसकी गजधानी मिथिला थी, की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी नदी और पूर्व में मही नदी तक वर्णित है। आज इस क्षेत्र में मुजफ्फरपुर तथा दरभंगा जिले हैं। सीतामढ़ी के निकट मुहिया नामक स्थान को भी कुछ लोग मिथिला मानते हैं। जिनप्रभसूरि ने तीर्थकल्प में इसे जगई नाम दिया है और सीतामढ़ी से पश्चिम में सात मील पर स्थित बताया है। अठारहवीं शताब्दी के जैन यात्रियों ने सीतामढ़ी को ही मिथिला बताया है। मध्य देश-उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में कुरुक्षेत्र और पूर्व में प्रयाग से घिरे क्षेत्र को मध्य देश कहते हैं। ___ सिंह निष्क्रीड़ित तप-सिंह की क्रीड़ा के समान तप। जैसे सिंह चलते-चलते मुड़कर पीछे दौड़ता है उसी प्रकार जिस तप में पिछले तप की आवृत्ति कर फिर आगे का तप किया जाय और उसी क्रम से आगे बढ़ा जाये। इसकी प्रक्रिया चित्र में बताई गई है। APPENDIX Mithila-A famous ancient town of eastern India. It finds mention in almost all ancient Indian literature. Once it was a large and prosperous town. As it happens, this town has also gone through numerous ups and downs and change of names with passage of time. That is the reason that historians have many different theories about its exact location. According to the Jatak the state of Mithila was spread in an area of 300 Yojans and had 1600 villages within. Another source informs that The spread of Mithila, the town, was only 7 Yojans and that of Mithila the state was 300. In Ramayan it has been named Janakpuri and Teerbhukti. In Vividh Teerth Kalp the state is named Tirhuti and the town Jagati. It is believed that Janakpur, a village on the Nepal border is ancient Mithila. There are also mentions that the ancient state of Videh, with Mithila as capital, was defined as the area having the Himalayas in the north, the Ganges in the south, river Gandaki in the west and river Mahi in the east. Today this area is covered by the districts of Muzaffarpur and Darbhanga. Some people also believe that Muhia, near Sitamadhi, is ancient Mithila. Jinprabhsuri has mentioned in his Teerthkalp that it is Jagai, seven miles west of Sitamadhi, that was Mithila in ancient times. Some Jain pilgrims of cighteenth century believed that Sitamadhi itself was Mithila. ___Madhya Desh (Central India)-The area defined by the Himalayas in the north, the Vindhyas in the south, Kurukshetra in the west, and Prayag in the east. Simha Nishkreedit Tap-A penance scheduled like the movement of a lion. As a lion while moving ahead turns and steps back, in this penance the earlier one is repeated and then the next one is done in progression. The complete schedule is explained by illustration, CHAPTER-8 : MALLI का ) Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BADLA बर - BHAJAN अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त हमारे महत्वपूर्ण प्रकाशन US $40 US $40 US $ 37 १. सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र रु.500 (भगवान महावीर की अन्तिम वाणी : मूल प्राकृत पाठ हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित तथा ४८ रंगीन चित्र) २. सचित्र कल्पसूत्र रु.500 (मूल प्राकृत पाठ हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित, ११ महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट तथा ५२ रंगीन चित्र) ३. सचित्र अन्तकृद्दशा सूत्र रु. 425 (मूल प्राकृत पाठ हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित तथा ४0 रंगीन चित्र) ४. सचित्र तीर्थकर चरित्र रु. 200 (२४ तीर्थंकरों का आदर्श जीवन-वृत्त हिन्दी-अंग्रेजी भाषा में, १४ महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट तथा ५४ रंगीन चित्र) ५. सचित्र भक्तामर स्तोत्र रु. 325 (मूल संस्कृत पाठ : रोमन लिपि में हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित तथा भावों को स्पष्ट करने वाले ५० रंगीन चित्र) US$ 20 US $ 30 रु. 125 US $10 ६. सचित्र णमोकार महामंत्र (हिन्दी एवं अंग्रेजी में स्वतंत्र पुस्तकें) (महामंत्र नवकार का स्वरूप, साधना विधि और महिमा को प्रकट करने वाले ३२ रंगीन चित्र, विवेचन, ५ परिशिष्ट में नवकार महामंत्र के जीवन उपयोगी विविध मंत्र साधना, आत्म-रक्षा कवच मंत्र) नोट : सभी पुस्तकों पर पैकिंग, फारवर्डिंग तथा पोस्टेज खर्चा लागत के अनुसार अतिरिक्त देना होगा। ) -प्राप्ति-स्थान :भारत में : दिवाकर प्रकाशन ए-७, अवागढ़ हाउस , एम. जी. रोड, आगरा-282002 फोन : (0562) 351165 विदेशों में : फेडरेशन ऑफ जैन एसोसियेशन्स इन नॉर्थ अमेरिका (जैना) 9-9 मैडीकल क्लीनिक, 4410, 50वीं स्ट्रीट, लुब्बॉक, टेक्सास - 79414 (यू. एस. ए.). फोन : (806) 793 8555 ARE EDIA B