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द्वितीय अध्ययन : संघाट
( १६९)
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"तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते धण्णं सत्थवाहं आपुच्छित्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी सुबहु विउलं असण-पाण-खाइम-साइम उवक्खडावेत्ता सुबहु पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहिं मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधी-परिजण-महिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा जाइं इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुहाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वइत्तए-"जइ णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारिगं वा पायायामि, तो णं अहं तुब्भं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुबड्डेमि त्ति कटु उवाइयं उवाइत्तए।" _सूत्र ७. धन्य सार्थवाह की पत्नी भद्रा एक बार लगभग आधी रात के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता में मग्न थी। उसके मन में विचार उठे-- ___ “अनेक वर्ष हुए, मैं धन्य सार्थवाह के साथ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप, पाँचों इन्द्रियों द्वारा मनवांछित कामभोग का आनन्द लेती जीवन व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने एक भी पुत्र-पुत्री को जन्म नहीं दिया है। वे माताएँ धन्यादि (पूर्व सम) हैं और मैं समझती हूँ कि उनका मानव-जीवन सफल हुआ है जो अपनी कोख से जन्मे, स्तनपान करने को
आतुर, मीठे और तोतली बोली बोलने वाले, स्तन मूल से काँख. की ओर सरकते मुग्ध शिशु को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल जैसे कोमल हाथों से उठा गोद में बिठा उससे मीठे स्वर में बतियाती हैं। मैं तो अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, अलक्षणा हूँ, अकृतपुण्या हूँ कि इनमें से एक सुख भी नहीं पा सकी। ___“अतः मेरे लिये यह श्रेयस्कर होगा कि सूर्योदय होने पर मैं धन्य सार्थवाह से अनुमति लेकर देव पूजा की तैयारी करूँ। उसके लिए बहुत से आहार-व्यंजनादि तैयार कराऊँ; यथेष्ट पुष्प, वस्त्र, गंधमाला और अलंकार आदि मँगवाऊँ; अनेक मित्र, सजातीय, पारिवारिक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की महिलाओं को निमन्त्रण हूँ। इन सबको साथ लेकर राजगृह नगर के बाहर स्थित नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के निकट जाकर उनकी बहुमूल्य पुष्पादि वस्तुओं से पूजा करूं और उन्हें यथाविधि वन्दन करके प्रार्थना कर वर माँगू-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूँगी तो तुम्हारी पूजा करूँगी, दान करूँगी, तुम्हारे चढ़वा चढ़ाऊँगी और तुम्हारी अक्षय निधि की वृद्धि करूँगी।'' BHADRA'S DISTRESS
7. One day while Dhanya merchant's wife, Bhadra, was brooding about family matters, she thought -
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CHAPTER-2 : SANGHAT
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