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________________ 4740 प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात " अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह | " सूत्र १६०. भगवान महावीर ने मेघ अनगार से कहा - " हे मेघ ! रात्रि जागरण के समय मध्य रात्रि को तुम्हारे मन में विचार उठे ( पूर्व सम) और भोर होते ही तुम तत्काल मेरे पास आये। मेघ ! क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?" मेघ मुनि बोले-“हाँ, भगवन् यह सत्य है !” भगवान ने कहा- “देवानुप्रिय ! जो सुखद लगे वह करो । विलम्ब व बाधा मत करो। " ( १४३ ) 160. Shraman Bhagavan Mahavir asked ascetic Megh, “ Megh ! During your night practices you thought of something, around midnight (as stated earlier), and just as the day dawned you rushed to me. Am I right, Megh!" "Absolutely, Bhagavan!" Shraman Bhagavan Mahavir added, "Do as it pleases you, beloved of gods! Do not hesitate." सूत्र १६१. तए मं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भुणुन्नाए समाणे हट्ठ जाव हियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठाए उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, आरुहित्ता गोयमाइ समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेइ, खामेत्ता य ताहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चार- पासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरत्याभिमु संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु वयासी " नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयं" ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी Jain Education International सूत्र १६१. भगवान महावीर की आज्ञा पा मेघ अनगार प्रसन्न और प्रफुल्ल हुए। यथाविधि वन्दना कर स्वयं ही पाँच व्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि श्रमणों व श्रमणियों से क्षमायाचना की। फिर योग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़े। वहाँ पहुँच मेघ के समान काले शिलाखण्ड की प्रतिलेखना की और घास का आसन CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA For Private Personal Use Only (143) www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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