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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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बिछाकर बैठ गये। पूर्व दिशा की ओर मुख कर पद्मासन में बैठे और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर लगा कर बोले
"नमस्कार हो अरिहन्तों को, भगवंतों को,........ (शक्रस्तव के अनुसार)। सिद्धगति को प्राप्त होने वाले मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान को नमस्कार हो। वहाँ रहे उन भगवान को मैं यहाँ से वन्दना करता हूँ। वे मुझे देखें।" इस प्रकार यथाविधि भगवान को वंदना करके वे बोले
161. Ascetic Megh was happy and pleased to get the permission from Shraman Bhagavan Mahavir. After due obeisance he uttered the five great vows on his own. Then he sought forgiveness from Gautam and other ascetics. Taking along some able and senior ascetics he slowly climbed the Vipul mountain. Reaching at the top he found and prepared a large rock, black as monsoon clouds, for his practices. He spread a grass mattress and sat down in lotus pose facing the east. Joining his palms and raising them to his forehead he uttered
"I bow and convey my reverence to the worthy ones (Arhats), the supreme ones (Bhagavans), ....... (the panegyric by the king of gods or the Shakrastav). My reverence also to my preceptor, Shraman Bhagavan Mahavir, who is destined to attain the Siddha state (the ultimate state of liberation). From here I bow before him, stationed far away; may he see me doing so. After following this prescribed procedure of bowing to Bhagavan, he added -
सूत्र १६२. पुट्वि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरई-रई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। _इयाणिं पि य णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि। सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जं पि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कटु एयं पि य णं चरमेहिं ऊसास निस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणा झूसणा-झूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ।
तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति।
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA
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