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________________ CS ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ( २६२ ) 40mm - mawoliwow.Lamaa m ana तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा-फासुगा य अफासुगा य। अफासुगा णं सुया ! नो भक्खेया। तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-जाइया य अजाइया य। तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहाएसणिज्जा य अणेसणिज्जा या तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-लद्धा य अलद्धा य। तत्थ णं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि। सूत्र ४३. शुक-"भंते ! सरिसवया भक्ष्य है अथवा अभक्ष्य ?" थावच्चापुत्र-“शुक ! सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी।" शुक-“यह कैसे, भंते ?" थावच्चापुत्र-"शुक ! सरिसवया दो प्रकार के कहे गए हैं-मित्र-सरिसवया (समान आयु वाले) और धान्य-सरिसवया (सर्षप अर्थात् सरसों)। इनमें से मित्र-सरिसवया तीन प्रकार के हैं-साथ जन्मे हुए, साथ बड़े हुए और साथ-साथ खेले हुए। ये तीनों प्रकार के मित्र सरिसवया श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं अर्थात् त्याज्य हैं। धान्य-सरिसवया दो प्रकार के हैंशस्त्र परिणत और अशस्त्र परिणत। इनमें जो अशस्त्र परिणत हैं अर्थात् जो सचित्त हैं वे श्रमणों के लिये अभक्ष्य हैं। जो शस्त्र परिणत हैं वे भी दो प्रकार हैं-प्रासुक तथा अप्रासुक। अप्रासुक अथवा सचित्त अभक्ष्य हैं। जो प्रासुक हैं वे दो प्रकार के हैं-याचित और अयाचित। अयाचित अभक्ष्य हैं। जो याचित हैं वे भी दो प्रकार के हैं-एषणीय और अनेषणीय। अनेषणीय अर्थात जो गवेषणा करके ग्रहण करने योग्य नहीं हो वे अभक्ष्य हैं। जो एषणीय हैं वे भी दो प्रकार के हैं लब्ध और अलब्ध। अलब्ध (अप्राप्त) अभक्ष्य हैं। जो लब्ध (प्राप्त) है केवल वही श्रमणों के लिये भक्ष्य हैं। "हे शुक ! मैंने इसीलिये कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी। 43. Shuk, “Bhante! Is Sarisavaya (this term has two meanings that are explained in the reply) acceptable or not?" Thavacchaputra, "Shuk! Sarisavaya is acceptable as well as unacceptable." Shuk, “How so, Bhante!" Raut RA (262) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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