________________
पंचम अध्ययन :शैलक
(२६१)
mro
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
“से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?"
"सुया ! जन्नं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पवासु इत्थि-पसुपंडगवियज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं उग्गिण्हित्ता णं विहरामि, से तं फासुयविहारं।"
सूत्र ४२. शुक ने कहा-“भंते ! अव्याबाध क्या है ?" थावच्चापुत्र-हे शुक ! वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक उदय में न आवें, यही हमारा अव्याबाध है।"
शुक-"भंते ! प्रासुक विहार क्या है ?"
थावच्चापुत्र-“शुक ! आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, प्याऊ, स्त्री-पुरुष-नपुंसकविहीन उपाश्रय आदि में हम जो वापस लौटा देने के लिये पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि वस्तुएँ ग्रहण करके विहार करते हैं वही हमारा प्रासुक विहार है।"
42. Shuk asked, “Bhante! How do you define the state of undisturbed suspension?"
Thavacchaputra, "Shuk! To remain unaffected by ailments and fears caused by the three humours (wind, bile, and phlegm) and their morbid state is for us the state of undisturbed suspension."
Shuk asked, "Bhante! How do you define the state of rootless roving?"
Thavacchaputra, "Shuk! In places like house, garden, temple, hall, water-hut, and other uninhabited places meant for itinerant ascetics, our temporary stay using returnable facilities like divan, seat, bed, and cot is for us the state of rootless roving."
सूत्र ४३. “सरिसवया ते भंते ! भक्खेया अभक्खेया ?' “सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।" से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ?
सया ! सरिसवया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहजायया, सहवड्डियया सहपंसुकीलियया। ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया।
तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य। तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया तं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया।
a
witomadamusmaamananem
मार
bANDSOMETRAurme
a s
CHAPTER-5: SHAILAK
(261)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org