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तणं अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स देविंदस्स एयमहं णो सद्दहामि, नो रोययामि । तए णं मम इमेयावे अज्झत्थिए जाव परिच्चयइ ? णो परिच्चयइ ? ति कट्टु एवं संपेहेमि, संपेहित्ता ओहिं पउंजामि, पउंजित्ता देवाणुप्पिया ! ओहिणा आभोएमि, आभोइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं उत्तरवेउव्वियं समुग्धामि, ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि । उवागच्छित्ता देवाणुप्पियाणं उवसग्गं करेमि ।
नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा तत्था वा, तं जं णं सक्के देविंदे देवराया वदइ, सच्चे णं एसमट्टे । तं दिट्टे णं देवाणुप्पियाणं इड्ढी जुई जसो बलं जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरिहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाइ भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए ।" त्ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए एयमट्टं भुज्जो खामेइ, खामित्ता अरन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयइ, दलइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
सूत्र - ६५. " हे अर्हन्नक ! तुम धन्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है कि तुमको निर्ग्रन्थ वचन के प्रति ऐसी श्रद्धा उपलब्ध हुई है और वह सम्यक् रूप से तुम्हारे आचरण में प्रकट हुई है। हे देवानुप्रिय ! देवराज शक्रेन्द्र ने सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक नाम के विमान की सुधर्मा सभा में अनेक देवों के बीच शुभ वचनों में कहा था- 'जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पानगरी में अर्हन्नक नाम का एक श्रमणोपासक जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता है। उसे कोई भी देव-दानव निर्ग्रन्थ वचन से विमुख करने में समर्थ नहीं है । '
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"हे देवानुप्रिय ! उस समय शक्रेन्द्र के इस कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ था और न उनकी बात अच्छी लगी थी । उस समय मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ - 'मैं जाकर अर्हन्नक के सामने प्रकट होऊँ और पहले यह जानूँ कि उसे धर्म प्रिय है या नहीं ? वह धर्म दृढ़ है या नहीं ? वह शीलादि व्रतों से विमुख होता है या नहीं ?' इस विचार के आने पर मैंने अवधिज्ञान से तुम्हारी स्थिति जानी और ईशानकोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात से उत्तर वैक्रियशरीर धारण किया । फिर तीव्र गति से समुद्र में जहाँ तुम थे वहाँ आया और तुम्हें आतंकित करने के लिए उपसर्ग किये। पर तुम विचलित नहीं हुए । अतः शक्रेन्द्र के वचन सच्चे निकले। मैंने देखा कि तुम्हें ऋद्धि, द्युति, यश, बल और पराक्रम प्राप्त हुआ और तुमने उनकां भलीभाँति उपयोग किया है । हे देवानुप्रिय ! मैं आपको खमाता हूँ। आप क्षमा प्रदान करने योग्य हैं। हे देवानुप्रिय ! भविष्य में मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा।" और वह देव दोनों हाथ जोड़ अर्हन्नक के चरणों में गिरकर बारम्बार अपने उपद्रव के लिए विनयपूर्वक क्षमायाचना करे लगा । फिर उसने अर्हन्नक को दो कुंडल युगल ( दो जोड़ी ) भेंट किए और जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया ।
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA
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