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द्वितीय अध्ययन : संघाट : आमुख
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शीर्षक-संघाडे-संघाट-बाँधा हुआ या जोड़ा हुआ। एक परिस्थिति विशेष और उस परिस्थिति से जुड़े सभी कर्तव्य कार्यों को इस कथानक में समझाया है। आत्मा और शरीर का बंधन एक नैसर्गिक बंधन है इस पर किसी का जोर नहीं चलता। आत्मा जब इस बंधन से मुक्त होने के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है तब उसे इस जुड़ाव का आभास होता है। इस भेद दृष्टि (भेदविज्ञान) की समझ आने पर वह देख पाता है कि शरीर के लिये किये सभी कार्यों में प्रवृत्त होना उसका आपद् कर्तव्य है। इस कर्त्तव्य को यदि वह आसक्त भाव से करता है तो कर्मबंधन को प्रेरित करता है और यदि आपाद् धर्म समझ निरासक्त भाव से करता है तो मुक्ति की ओर गति करता है। इस महत्त्वपूर्ण बात को धन्य सार्थवाह और विजय चोर के रोचक कथानक द्वारा समझाया गया है।
कथासार-राजगृह नगर में धन्य सार्थवाह निवास करता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। अनेक वर्षों के विवाहित जीवन के पश्चात् भी वह निस्सन्तान थे। भद्रा ने पुत्र-प्राप्ति हेतु एक बार नगर के बाहर स्थित अनेक देवालयों में जाकर यथाविधि पूजा की और मन्नत मानी। उसकी कामना पूरी हुई और कुछ दिनों बाद वह गर्भवती हो गई। यथा समय पुत्र-जन्म हुआ और उसका नाम देवदत्त रखा गया। देवदत्त की सार-सँभाल व उसे खिलाने-रखने के लिए एक दास-पुत्र रखा गया जिसका नाम पंथक था।
राजगृह नगर में ही विजय नाम का एक क्रूर और लालची चोर रहता था। एक दिन पंथक बालक देवदत्त को गोद में लेकर घर से बाहर गया और उसे एक स्थान पर बैठा वह स्वयं अन्य बालकों के साथ खेलने लगा। तभी विजय चोर उधर आ निकला। उसने आभूषणों से लदे बालक देवदत्त को देखा तो लालच से भर गया। इधर-उधर देखने पर उसने पाया कि पंथक का ध्यान खेलने में है, देवदत्त की
ओर नहीं। विजय ने झट से बालक को गोद में उठाया और अपनी चादर से ढक लिया। तेजी से वहाँ से भाग गया और नगर से बाहर निकल गया।
नगर के बाहर एक जीर्ण उद्यान में रहे एक पुराने कुएँ के पास जा उसने बालक के शरीर से गहने-कपड़े उतारे और उसकी हत्या कर उसे कुएँ में डाल दिया। इसके बाद वह पास ही एक घनी काला-तुलसी की झाड़ी में छुपकर बैठ गया।
उधर पंथक ने धन्य को बच्चे के खो जाने की सूचना दी। धन्य चिन्तित हो नगर-रक्षकों के पास गया। बालक की खोज करते नगर-रक्षक नगर के बाहर उस उद्यान में आये। कुएँ में झाँकने पर बालक का शव दिखाई दिया। उसे कुएँ से निकाल धन्य को सौंपा गया। चोर के पद-चिन्हों पर चलते नगर रक्षकों ने झाड़ी में घुस उसे माल सहित पकड़ लिया। गले से बाँध मारते-पीटते उसे सारे शहर में घुमा कारागार में बंद कर दिया। दुःखी धन्य ने देवदत्त का दाह-संस्कार कर दिया।
कालान्तर में शत्रुओं की शिकायत पर किसी राजदोष के कारण एक बार धन्य को बन्दी बनाया गया और कारागार में लाकर उसे विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी (खोड़ा) से बाँध दिया गया। भद्रा
प्रख
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