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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
का वाहक नहीं होता अतः तीर्थंकर महावीर के पश्चात् इस दायित्व का वहन सुधमास्वामी ने किया। ये अपने युग के अनुपम विद्वान् व साधक थे। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित त्रिपदी के आधार पर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की जो जैन परम्परा के आधारभूत आगम ग्रन्थ हैं। आज जो भी श्रमण विद्यमान हैं वे सभी आर्य सुधर्मा की परम्परा की शिष्य-सन्तान हैं। बाकी सभी गणधरों की शिष्य परम्परा पृथक रूप में विकसित न होकर इसी में विलीन हो गईं। (निर्वाण-५०६ ई. पू.)
जम्बूस्वामी श्रमण भगवान महावीर के प्रपट्टधर अथवा सुधर्मास्वामी के पट्टधर काश्यप गोत्रीय स्थविर आर्य जम्बू। महावीर निर्वाण के वर्ष राजगृह के एक समृद्ध वैश्य परिवार में इनका जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु में सुधर्मास्वामी का प्रवचन सुनकर इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया था। माता-पिता
ग्रह से इन्होंने विवाह तो कर लिया किन्त उसी रात्रि अपनी आठ पत्नियों को धर्मोपदेश दिया उनके इस उपदेश को उनके यहाँ चोरी करने आया दस्य प्रभव भी सन रहा था। उसे भी वैराग्य उत्पन्न हो गया। प्रातः काल जम्ब ने प्रभव व उसके साथियों सहित ५२७ व्यक्तियों के साथ सधर्मास्वामी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। बारह वर्ष तक उन्होंने सुधर्मास्वामी के पास समस्त आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया और उनके निर्वाण के पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन हुए। (५२६-४६२ ई. पू.) __ चैत्य-चिता पर बना स्मारक। औपपातिक सूत्र के अनुसार चैत्य के क्षेत्र में याग तथा आहुतियों के अतिरिक्त अनेक नट, नर्तक आदि कलाकार अपनी कला का अभ्यास, प्रयोग व प्रदर्शन भी किया करते थे। टीकाकारों ने चैत्य को व्यंतरायतन भी कहा है। वर्तमान संदर्भो में देखें तो चैत्य किसी एक भवन विशेष का नाम नहीं अपितु एक ऐसे अपेक्षाकृत विशाल धार्मिक स्थल का नाम है जिसके आयतन में मंदिर, उपाश्रय आदि, विभिन्न धार्मिक क्रियाओं हेतु निर्मित किये गये निर्माण तथा इनसे जुड़ी सुविधायें विद्यमान हों।
राजगृह-जैन तथाबौद्ध मतावलम्बियों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ नगर जहाँ भगवान महावीर तथा बुद्ध दोनों ने अनेक चातुर्मास किये थे। जैन ग्रन्थों के अनुसार राजगृह में भगवान महावीर के दो सौ से अधिक बार समवसरण हुए थे। वे प्रायः गुणशील, मण्डिकुच्छि व मुद्गरपाणि उद्यानों में ठहरते थे। महाभारत के अनुसार जरासंध के समय में मगध की राजधानी। इस रमणीय नगर के निकट पाँच पहाड़ हैं जिनके नाम हैं-जैन परम्परा में-वैभार, विपुल, उदय, सुवर्ण तथा रत्न-गिरि। वायुपुराण में-वैभार, विपुल, रत्नकूट, गिरिव्रज तथा रत्नाचल। महाभारत-वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि तथा चैत्यक। इन पहाड़ों के कारण राजगृह का अन्य नाम गिरिव्रज (पर्वत समूह) भी था। आवश्यकनियुक्ति की अवचूर्णि में उल्लेख है कि इस स्थल पर प्राचीनकाल में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। इसके जीर्ण हो जाने पर राजा जितशत्रु ने चनकपुर नाम का नगर बसाया था। वह भी जीर्ण हो गया तब ऋषभपुर बसाया गया और उसके बाद कुशाग्रपुर। इन सभी के नष्ट हो जाने पर महाराजा प्रसेनजित (सम्राट् श्रेणिक के पिता) ने राजगृहनगर बसाया। यहाँ के गर्म पानी के झरनों का उल्लेख प्राचीन जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में ही नहीं चीनी यात्री फाह्यान तथा ह्युयेनत्सांग के यात्रा वर्णनों में भी मिलता है। वर्तमान में यह राजगिरि के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से उत्तर पूर्व में स्थित है प्रसिद्ध नालन्दा विद्यापीठ। ___ मगध-ऋग्वेद का कीकटदेश। अथर्ववेद में इस देश का नाम मगध लिखा है। पन्नवणासूत्र में आर्यदेशों की सूची में प्रथम नाम मगध का आता है। यह क्षेत्र प्राचीन काल के सर्वाधिक समृद्धिशाली क्षेत्रों में था तथा यहाँ की सांस्कृतिक तथा राजनैतिक गतिविधियाँ सपूर्ण भारत को प्रभावित करती थीं। जैन तथा बौद्ध परम्परा की कार्य-स्थली रहने के कारण दोनों धर्मावलम्बी इसे पूज्य तथा पवित्र क्षेत्र मानते हैं।
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स्वामी
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JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA
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