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________________ द्वितीय अध्ययन : संघाट MOV ( १९७) - उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की यह दूसरी कथा साधना पथ पर निर्लिप्त सांसारिक क्रिया के महत्त्व को दर्शाती है। जब तक आत्मा शरीर के रथ पर सवार है उसे अपनी यात्रा के लिये रथ को चलने योग्य सक्रिय तथा सुचारु रूप में रखना आवश्यक है। वैसा बनाये रखने के लिए जो उचित कर्म भी करना पड़े वह उसका आवश्यक कर्तव्य है अतः उसमें संकोच या दुविधा को स्थान नहीं है किन्तु वैसा कोई भी कार्य रुचि, भय, अभ्यास या आसक्ति से प्रेरित नहीं होकर निस्पृह भाव से होना चाहिये। इस कथा का संयोजन रूपक या उपमा शैली में किया गया है। यथा राजगृह नगर है मनुष्य क्षेत्र। धन्य है उसमें रहा साधु अथवा आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर साधक। विजय चोर उस साधु का शरीर है। धन्य का पुत्र देवदत्त है चरम आनन्द के लक्ष्य की प्राप्ति का आधार-संयम। पंथक है प्रमादरूपी अशुभ प्रवृत्ति। देवदत्त के आभूषण हैं इंद्रियों के विषय। प्रमाद के प्रभाव और इन्द्रियों की आसक्ति से प्रेरित शरीर संयम का हनन कर देता है। बेड़ी का बंधन है आत्मा और शरीर का अवश्यम्भावी संयोग। राजा है कर्मफल और दंडनायक आदि राजपुरुष हैं कर्म प्रकृतियाँ। अपराध है आयुष्य बंध का हेतु। धन्य की शौच-शंका है शरीर की नैसर्गिक आवश्यकताएँ जिनकी पूर्ति के बिना शरीर आत्मोन्नति की साधना के लिए अक्षम हो जाता है-उसमें बाधा बन जाता है। भद्रा है- आचार्य, जो साधु के अकल्पित कार्य के लिए उपालम्भ देता है किन्तु उस कार्य का औचित्य जान लेने पर संतुष्ट होता है। साधु यहाँ यह स्पष्ट करता है कि शरीर को पोषण देना उसका आपाद् धर्म में प्रेरित निस्पृह कार्य था, अन्य किसी कारण से प्रेरित आसक्ति रूप कार्य नहीं। उपनय गाथा इस अध्ययन की अन्तःप्रेरणा को स्पष्ट करने वाली यह उपनय गाथा है सिव साहणेस आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धणोव्व विजयं साहु तं तेण पोसेज्जा॥ -मोक्ष के साधना मार्ग पर बढते हुए यह देह एक साधन है, आहार के बिना यह साधना करने में समर्थ नहीं रहता। अतः साधक इसी भावना से भरण पोषण करे जैसे धन्य सार्थवाह ने विजय चोर को भोजन दिया। 0DY EHERE - CHAPTER-2 : SANGHAT (197) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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