________________
( १२४ )
तए णं तुज्झं मेहा ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - "तं सेयं खलु मम इयाणिं गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंजायकारणट्ठा सए णं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए " त्ति कट्टु एवं संपेहेसि | संपेहित्ता सुहं सुहेणं विहरसि ।
सूत्र १३४. " तुमने यह भलीभाँति जान लिया- 'मैं पूर्व भव में इसी भू-भाग के वैताढ्य पर्वत की तराई में विचरता था । जहाँ मैंने ऐसे ही दावानल का अनुभव किया था और उसी दिन शत्रु हाथी की मार से देह त्याग मेरुप्रभ के रूप में जन्म लिया था।'
" और तब तुम्हारे मन में एक चिन्तन और संकल्प उठा- 'मेरे लिए श्रेय होगा कि गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर विन्ध्याचल की तराई में दावानल से बचने के लिए अपने यूथ के साथ एक विशाल मंडल बनाऊँ।' इस विचार के साथ तुम पुनः सुखपूर्वक विचरने लगे ।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
134. “You became aware that during the earlier birth you wandered in the valley of the Vaitadhya mountain in the same geographical area. Also that you had experienced a similar predicament of forest fire and had died of the wounds inflicted by a vengeful elephant, before being born as Meruprabh.
You then contemplated and decided-'It would be to my benefit if, with the help of my herd, I make a large arena on the southern bank of the Ganges in the valley of Vindhyachal as protection against the forest fire.' Arriving at this decision you resumed your wandering.
मंडल निर्माण
सूत्र १३५. तए णं तुमं मेहा ! अन्नया पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहिं य सत्तहिं य हत्थिसएहिं संपरिवुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि । जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्टं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा, तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय आहुणिय पाएण उट्ठवेसि, हत्थेणं गेण्हसि, एगंते पाडेसि।
तए णं तुमं मेहा ! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानईए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरि - पायमूले गिरिसु य जाव विहरसि ।
Jain Education International
सूत्र १३५. “ हे मेघ ! तब तुमने प्रथम वर्षाकाल में खूब वर्षा हो जाने पर गंगा नदी के निकट अनेक हाथियों को साथ लेकर एक योजन प्रमाण का एक विशाल घेरा बनाया। उस घेरे में जो भी घास, पत्ते, काठ, काँटे, लता, ठूंठ, वृक्ष या पौधे थे उन्हें हिला कर पैर से
( 124 )
JNĀTA DHARMA KATHANGA SUTRA
For Private
Personal Use Only
www.jainelibrary.org