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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
Adivasna
CONCLUSION
23. Long-lived Shramans ! The same way those of our ascetics who after getting initiated have no doubts about the five great vows, six classes of beings, and teachings of the Nirgranth become objects of reverence for all the ascetics in this life and finally cross the ocean of rebirth.
Jambu ! This is the text and the meaning of the third chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm.
॥ तच्चं अज्झयणं समत्ते ॥
॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE THIRD CHAPTER|||
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उपसंहार
ज्ञाताधर्मकथा की यह तीसरी कथा आप्त (सर्वज्ञ) वचन में अनास्था के दुष्प्रभाव तथा आस्था के सुफल को प्रकट करती है। प्रत्येक व्यक्ति में प्रत्येक क्रिया को देखने, जानने, समझने की सामर्थ्य नहीं होती। इसलिये उस क्रिया से होने वाले हित-अहित को विवेक बुद्धि पर परखकर मार्ग स्थिर करना प्रत्येक के लिए संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में जिनके पास अनुभव व ज्ञान है ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा स्थिर मार्ग पर निःशंक होकर चलना ही विकास का साधन है। शंका, कांक्षा एवं विचिकत्सा सम्यक्त्व के दोष हैं। इन मानसिक शिथिलताओं से साधक का मन साधना पथ से डगमगा जाता है। अतः निःशंक आस्थापूर्ण जीवन जीने की दृष्टि/प्रेरणा इस अध्ययन से मिलती है।
उपनय गाथा
जिणवर-भासिय भावेसु भाव सच्चेसु भावओ मइमं।
नो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थ हेउ ति॥ संदेह अनर्थ का कारण है, अतः बुद्धिमान पुरुष वीतराग सर्वज्ञ कथित वाणी पर किसी प्रकार संदेह नहीं करें। क्योंकि संदेह साधना में चंचलता पैदा करके अनर्थ का कारण बनता है। वीतराग वाणी पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि करना अधःपतन की ओर ले जाता है। अण्डे को सेने से उसमें से बच्चा निकलेगा इस सामान्य व स्थापित यथार्थ पर शंका उत्पन्न होने और उसके फलस्वरूप अण्डे के पोला हो जाने के सटीक उदाहरण से इस बात को पुष्ट किया गया है।
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JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA
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