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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
ANDA
किया
स्थापित (साधु के लिए रखा), रचित (साधु के लिए तैयार किया), दुर्भिक्ष भक्त (अकाल के लिये बनाया), कान्तार भक्त (अरण्य का भोजन), वर्दलिका भक्त (वर्षा के दिन का भोजन), ग्लान भक्त (बीमार का भोजन) आदि आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता। इसी प्रकार मूल, कंद, फल, बीज, हरित आदि आहार ग्रहण करना भी नहीं कल्पता और फिर, हे पुत्र ! तुम्हारा जीवन तो सुख भोगने के लिए है न कि दुःख भोगने के लिए। तू सर्दी, गर्मी सहन नहीं कर सकता। वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि जनित अनेक प्रकार के रोग सहन नहीं कर सकता। तू अनुकूल-प्रतिकूल बाईस प्रकार के परिषह-उपसर्ग समता सहित सहन नहीं कर सकता। अतः हे पुत्र ! तू मनुष्योचित काम भोगों को भोग और तब भगवान महावीर के पास दीक्षा ले।"
95. “Son! A wide range of eatables is prohibited for an ascetic; it includes- Adhakarmi (food cooked for ascetics), Auddeshik (food cooked for a specific ascetic), Kreetkrit (food purchased for ascetics), Rachit (food prepared or given final shape for an ascetic), Durbhikshabhakt (food prepared for eating during drought), Kantar-bhakt (food prepared for jungle travel), Vardalika-bhakt (food prepared for a rainy day), Glan-bhakt (food prepared for a sick person), and also green vegetables including roots, bulbs, and fruits.
“Besides this, you are born to enjoy the pleasures of life and not to suffer the pains. You are not accustomed to tolerate the extremes of cold and heat, neither can you tolerate numerous ailments caused by disturbed body humours like wind, bile, and phlegm. It is beyond the limits of your tolerance to face with equanimity the twenty two types of afflictions. As such, son! you should enjoy the pleasures of life fully and then only get initiated into the order of Shraman Bhagavan Mahavir.”
सूत्र ९६. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी-"तहेव णं तं अम्मयाओ ! जं णं तुब्भे ममं एवं वयह-एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे. पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि। एवं खलु अम्मयाओ ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, णो चेव णं धीरस्स। निच्छियववसियस्स एत्थं किं दुक्करं करणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए।"
Rahima
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JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SÜTRA
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