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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात in the end. Completing a hundred years long life span as an elephant you descended into the womb of queen Dharini in this town of Rajagriha. मेह के ऊहापोह का अन्त सूत्र १४३. तए णं तुमं मेहा ! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । तं जइ जाव तुमं मेहा! तिरिक्खजोणिय भावमुवागए णं अप्पडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते, किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहय - सरीरपत्त-लद्धपंचिंदिए णं एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार - परक्कम -संजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकाल - समयंसि वाया जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुंडणाणि य नो सम्म सहसि खमसि, तितिक्खिसि, अहियासेसि ? ( १३१ ) सूत्र १४३. " फिर क्रमशः तुम्हारा जन्म हुआ, तुम विकसित हुए, युवा बने और मेरे पास आ मंडित हो अनगार बने । हे मेघ ! विचार करो कि जिस जन्म में तुम पशु रूप में थे और तुम्हें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी तुमने जीवों के प्रति अनुकम्पा की भावना से अपना पैर अधर में ही रखा, उसे धरती पर टिकाया नहीं था । इस जन्म में तो तुम उच्च कुल में जन्मे हो और तुम्हें अक्षत् - अप्रतिहत शरीर प्राप्त हुआ है। तुमने पाँचों इन्द्रियों का दमन किया है, तुम उत्थान, बल, वीर्य, महत्वाकांक्षा और पराक्रम से भरपूर हो मेरे पास आकर अनगार बने हो । और कल पहली ही रात्रि में श्रमणों के आवश्यक कार्यों से बाहर आते-जाते समय छू जाने मात्र से, धूल के कण लग जाने मात्र से तुम क्षुब्ध हो गये । तनिक सी असुविधा को सह नहीं सके । अदीन भाव से तितीक्षा नहीं कर सके । शरीर को निश्चल रख समतामय नहीं हो सके।” END OF THE DILEMMA 143. “With the passage of time you were born, grew up and became a youth. After that you came to me and became an ascetic. Megh! Just consider this that in the life you spent as an animal and when the desire for spiritual pursuits had not sprouted, you were still inspired by the compassion for living beings. Driven by that feeling you kept CHAPTER - 1 : UTKSHIPTA JNATA Jain Education International For Private Personal Use Only ( 131 ) - www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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