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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात
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दावानल
सूत्र १२६. तए ण तुमं मेहा ! अन्नया कयाई पाउस-वरिसारत्त-सरय-हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उउसु समइक्कंतेसु, गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासे, पायवघंससमुट्ठिए णं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मारुत-संजोगदीविए णं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलित्तेसु वणंतेसु, धूमाउलासु दिसासु, महावायवेगेणं संघट्टिएसु, छिन्नजालेसु आवयमाणेसु, पोल्लरुक्खेसु अंतो अंतो झियायमाणेसु, मयकुहियविणिविट्ठकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वणंतेसु भिंगारक-दीण-कंदिय-रवेसु, खरफरुस-अणिठ्ठ-रिवाहित-विदुमग्गेसु दुमेसु, तण्हावस-मुक्क-पक्ख-पयडियजिब्भतालुयअसंपुडिततुंड-पक्खिसंघेसु ससंतेसु, गिम्ह-उम्ह-उण्हवाय-खरफरुसचंडमारुयसुक्कतण-पत्तकयरवाउलि-भमंतदित्त-संभंतसावयाउल-मिग-तण्हाबद्धचिण्हपट्टेसु गिरिवरेसु, संवट्टिएसु तत्थ-मिय-पसव-सिरीसवेसु, अवदा-लिय-ययणविवरणिल्लालियग्गजीहे, महंततुंबइयपुनकन्ने, संकुचियथोर-पीवरकरे, ऊसियलंगूले, पीणाइय-विरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरए णं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयारं, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाइं छिंदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि णोल्लायंत विणहरढे व्व णरवरिन्दे, वायाइद्धे ब्व पोए, मंडलवाए व्व परिब्भमंते, अभिक्खणं अभिक्खणं लिंडणियरं पमुंचमाणे पमुंचमाणे, बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्था।
सूत्र १२६. “एक बार पावस, वर्षा, शरद्, हेमन्त और वसन्त ऋतुओं के बीत जाने पर जब ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ तब ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस में रगड़ से आग लग गई और हवा के वेग से सूखे घास, पत्ते और कूड़े-करकट को पकड़ वह भीषण दावानल बन गई। उस भयावह अग्नि की प्रदीप्त ज्वालाओं से सारे वन का मध्य भाग सुलग उठा। चारों ओर धुआँ फैल गया। वायु के प्रचण्ड वेग से ज्वालाएँ चारों ओर फैलने लगीं। पोले वृक्ष भीतर ही भीतर सुलगने लगे। जंगल के नदी-नालों का पानी पशुओं के शवों से सड़ने लगा। किनारों का पानी सूखने लगा। शृंगारक पक्षी दीनतापूर्वक क्रन्दन करने लगे। बड़े पेड़ों की ऊँची डालों पर बैठे कौए कठोर और अनिष्ट स्वर में काँव-काँव करने लगे। पेड़ों की टहनियों की नोंके अंगारों के कारण मूंगे की तरह लाल दिखाई देने लगीं। पक्षियों के झुण्ड प्यास से पंख ढीले कर जीभ को मुँह से बाहर निकालकर चोंच खोलकर साँस लेने लगे। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी, सूर्य का ताप, प्रचंड तीव्र पवन और सूखी घास, पत्ते
और कचरे से भरे अन्धड़ के कारण इधर-उधर दौड़ते भयावह सिंह आदि विशालकाय पशुओं से पर्वत प्रदेश अस्त-व्यस्त हो गया। मृग-तृष्णा जैसा दृश्य लिए पर्वतों में भयभीत सरीसृप जाति के जीव भी इधर-उधर छटपटाने लगे।
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CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA
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