________________
पंचम अध्ययन : शैलक
( २७७ )
कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मासियं पडिक्कते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि। तं खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खमंतु मेऽवराहं, तुमं णं देवाणुप्पिया ! णाइभुज्जो एवं करणयाए" ति कट्ट सेलयं अणगारं एयमटुं सम्म विणए णं भुज्जो खामेइ।
सूत्र ६१. क्रोध के इस उग्र प्रदर्शन से पंथक मुनि भय से अवाक् हो गये। उनका मन त्रास और खेद से भर गया। वे हाथ जोड़कर बोले-“भंते ! मैं पंथक हूँ। मैं कायोत्सर्ग और दैवसी प्रतिक्रमण के बाद चातुर्मास प्रतिक्रमण करने जा रहा था। अतः चातुर्मासिक क्षमायाचना के लिये आपको वन्दना करते समय मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया था। अतः हे देवानुप्रिय ! क्षमा करें। मैं भविष्य में ऐसा नहीं करूँगा। मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिये।" पंथक मुनि हाथ जोड़ विनयपूर्वक बार-बार खमाने लगे।
61. Ascetic Panthak was awe-struck by this violent display of anger. He was filled with panic and repentance. Joining his palms he said, "Bhante! It is I, Panthak. I was proceeding to commence the Chaturmasik Pratikraman after concluding the daily one. As such, I touched your feet with my forehead in order to seek the annual forgiveness. I am sorry, Beloved of gods! I will never repeat this mistake. Kindly pardon my misdeed.” With joined palms and all humility Panthak sought pardon again and again. शैलक का पुनर्जागरण
सूत्र ६२. तए णं सेलयस्स रायरिसिस्स पंथए णं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु अहं रज्जं च जाव ओसन्नो जाव उउबद्धपीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते विहरामि। तं नो खलु कप्पइ समणाणं णिग्गंथाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए। तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता पंथए णं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जए णं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए।" एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव विहरइ।
सूत्र ६२. पंथक के इस कथन पर राजर्षि शैलक के मन में विचार उठे–“मैं राज्यादि का त्याग करके भी प्रमादी होकर अपने अन्त समय में भी उपकरणों का उपभोग करता हुआ रह रहा हूँ। श्रमणों को इस तरह का शिथिलाचार नहीं कल्पता। अतः कल मंडुक राजा की अनुमति लेकर, उपकरण लौटाकर पंथक अनगार के साथ उग्र विहार करना ही मेरे लिये श्रेयस्कर होगा।" यह निश्चय कर दूसरे दिन प्रातःकाल वे यथाविधि वहाँ से विहार कर गये।
CADHA
A
CHAPTER-5 : SHAILAK
(277)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org