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________________ Cons ( २१८) चतुर्थ अध्ययन : कूर्म : आमुख शीर्षक-कुम्मे-कूर्म-कछुए/कछुआ एक अनोखी शारीरिक संरचना वाला प्राणी है। आपदाओं से प्रतिरक्षा के लिए इसके शरीर का अधिकांश खुला भाग चमड़े की एक कठोर पर्त से ढका होता है। इसे हम ढाल के रूप में जानते हैं। कछुए के चारों पैर तथा गर्दन इस प्रकार बने होते हैं कि वह उन्हें अपने इस ढालरूपी शरीर से इच्छानसार बाहर-भीतर कर सकता है और इस प्रकार अपनी रक्षा करता है। आत्म-साधना के पथ पर विकाररूपी शत्रुओं से रक्षा हेतु इन्द्रिय-गोपन के महत्त्व को समझाने के लिए प्रतीक रूप में कछुए का उपयोग किया गया है इस कथा में। साथ ही चित्त चंचलता और कौतूहल का दुष्प्रभाव प्रकट किया गया है। अध्यात्म दृष्टि से कछुए का यह प्रतीक जैन आगमों के अतिरिक्त गीता आदि में भी वर्णित है। कथासार-वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नदी के एक तट पर मयंग तीर नामक एक द्रह था। उसमें कछुओं सहित अनेक जलचर प्राणी रहते थे। उस द्रह के एक तट पर एक विशाल झाड़ी में दो दुष्ट सियार रहते थे। एक बार संध्या के बाद दो कछुए उस तट पर भोजन की खोज में आए और इधर-उधर घूमने लगे। दोनों सियारों ने उन्हें देखा और उनका भक्षण करने आगे बढ़े। दोनों कछुओं ने अपने पैरों तथा गर्दन को शरीर में समेट लिया और एक स्थान पर गेंद की तरह स्थिर हो गये। सियारों ने बहुत चेष्टा की पर उनके कठोर कवच को भेद नहीं सके। निराश हो वे उस झाड़ी में छुप गये और कछुओं को देखने लगे। उनमें से एक कछुए ने यह समझा कि सियार चले गये हैं। कौतूहलवश उसने अपनी एक टाँग को कवच के बाहर निकाला। ताक में बैठे सियार उस पर झपट पड़े और उसकी बाहर निकली टाँग को क्षत-विक्षत कर खा गये। वह कछुआ थोड़ी-थोड़ी देर में कौतूहलवश अपना एक अंग बाहर निकालता और सियार उसे नोंच खाते। इस प्रकार कछ देर में वे उस कछुए को मारकर खा गये। तब दूसरे कछुए को खाने की चेष्टा की पर वह स्थिर ही रहा। थककर सियार लौट गये। वह कछुआ बहुत देर तक वैसे ही स्थिर रहा। फिर जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि सियार दूर चले गये हैं तो उसने सावधानी से गर्दन बाहर निकालकर चारों ओर देखा। आश्वस्त होने पर उसने झट से चारों पैर बाहर निकाले और दौड़कर पानी में जा घुसा। o Palim का (218) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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