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________________ ( ११२) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र During the first and last quarter of the night many ascetics kept going out for studies, inquiries, repetition of the lessons, contemplation, relieving the call of nature, etc. and coming back. During this perambulation some one touched sleeping Megh Kumar' by his hands and some other with his feet, some touched his head with their feet and others crossed over his body; and the dust disturbed by all this commotion settled on his body. Consequently, Megh Kumar could not sleep a wink throughout the night. मेघ अनगार का ऊहापोह ___ सूत्र १२१. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए पत्थिए मणोगते संकप्पे) समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो पुत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे जाव सवणयाए, तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सक्कारेंति, संमाणेति, अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इटाहिं कंताहिं वग्गहिं आलवेन्ति, संलवेन्ति, जप्पभिज्ञ च णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिइं च णं मम समणा नो आढायंति जाव नो संलवन्ति। अदुत्तरं च णं मम समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्तिं नो संचाएमि अच्छि निमिलावेत्तए। तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे वसित्तए" ति कटु एवं संपेहेइ। संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्ट-माणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ, खवित्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ। __ सूत्र १२१. मेघकुमार के मन में ऊहापोह होने लगा-“मैं श्रेणिक राज का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघकुमार हूँ और गूलर-पुष्प के समान दुर्लभ। मैं जब गृहवासी था तब श्रमण मुझे एक पुण्यात्मा राजकुमार के रूप में जानते थे और मेरा आदर, सत्कार, सम्मान करते थे। अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों, उत्तरों आदि को स्पष्ट करते थे और इष्ट, कान्त वाणी में मुझसे बातचीत करते थे। पर जब से मैं आगार से अनगार बना हूँ तब से ये सभी श्रमण न तो मेरा आदरादि करते हैं और न ही बातचीत करते हैं। इसके अतिरिक्त जब रात को ये वाचना आदि के लिए यहाँ से आते-जाते हैं तो उनके पीड़ादायक स्पर्श से मेरी पूरी रात्रि बिना पलक झपकाए बीत जाती है। अतः मेरी भलाई इसी में है कि रात्रि O (112) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SUTRA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007650
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1996
Total Pages492
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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