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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात
( १०९)
-प्रव्रज्या ग्रहण
सूत्र ११८. तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ। करित्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ। करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी__"आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केई गाहावई आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए, तं गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ, एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभंडे इढे कंते पिए मणुन्ने मणामे, एस मे णित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खियं।" ___ सूत्र ११८. मेघकुमार ने फिर अपने हाथ से पंचमुष्टि लोच किया और भगवान के निकट आए। दाहिनी ओर से आरम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की और यथाविधि वन्दना करके बोले___ "भगवन् ! यह संसार जरा-मरण की आग से जल रहा है। ऐसे में कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर सबसे कम भार की और बहुमूल्य वस्तु चुनकर वहाँ से दूर चला जाता है। वह सोचता है कि आग में जल जाने से बचायी यह वस्तु भविष्य में मेरे हित, सुख, सामर्थ्य और कल्याण के लिए उपयोगी होगी। ठीक उसी प्रकार मेरे लिये एक मात्र यह आत्मारूपी वस्तु है। यह मेरे लिये इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनोहर है। इस आत्मा को यदि मैं जरा-मरण की आग में भस्म होने से बचा लूँगा तो यह पुनर्जन्म को समाप्त करने वाला सिद्ध होगा। अतः मेरी कामना है कि आप स्वयं मुझे दीक्षा दें, मुंडित करें, प्रतिलेखना आदि सिखावें, सूत्र और अर्थ की शिक्षा दें, ज्ञानादि आचार, गोचर (भिक्षाचरी की विधि), विनय (संयम के भेदोपभेद) और उसका फल, चरण, करण, यात्रा और मात्रा (भोजन विधि का ज्ञान) आदि सहित धर्म का प्ररूपण करें।"
INITIATION
118. Megh Kumar pulled out all his hair (formally termed as fivefistful pulling out of hair) and came near Shraman Bhagavan Mahavir. He went around Shraman Bhagavan Mahavir three times in anticlockwise direction, formally bowed and said
RAMA
CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA
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