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सूत्र २६. हे आयुष्मान् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी दीक्षा लेकर पाँच महाव्रतरूपी कणों में वृद्धि करते हैं वे इस भव में रोहिणी के समान चतुर्विध संघ द्वारा पूजे जाते हैं और अंततः संसार चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
26. Long-lived Shramans! The same way those of our ascetics who, after getting initiated, multiply (enhance the perfection in) the five grains of great vows become objects of reverence for the four-fold religious organisation in this life and finally cross the ocean of rebirth. उपसंहार
सूत्र २७. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयम पत्ते त्ति बेमि
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
सूत्र २७. हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
CONCLUSION
27. Jambu! This is the text and the meaning of the seventh chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm.
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| सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥
॥ सातवाँ अध्ययन समाप्त ॥
|| END OF THE SEVENTH CHAPTER ||
उपसंहार
ज्ञाताधर्मकथा की इस सातवीं कथा में विवेकपूर्ण विकास की ओर प्रेरित जीवन पर बल दिया है। पारिवारिक रूपक द्वारा यह इंगित किया है जो साधु अक्षत के पाँच दानों के समान पंच महाव्रतादि का यथाविधि पालन करने के साथ-साथ संयम विकास और विस्तार में जुटा रहता है वह सभी के आदर का पात्र होता है और अन्ततः संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है । किन्तु जो उस संयम को त्याग देता है और व्रतों के विपरीत चलने लगता है वह निन्दा का भागी होता है और अनन्तकाल तक संसार-चक्र में भ्रमण करता रहता है । बीच की दोनों स्थितियाँ उसी क्रम में विकास- ह्रास की कड़ियाँ हैं ।
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JNATA DHARMA KATHANGA SUTRA
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