________________
प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात
( १३३ )
पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते ! इयाणिं सयमेव दोच्चं पि पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं।" __सूत्र १४५. भरावान महावीर द्वारा पूर्व जन्म का वर्णन याद करा देने से मेघकुमार की आत्मोन्नति की प्यास दुगुनी हो गई। उनकी आँखों में आनन्दातिरेक से आँसू भर आये। वर्षा की बूंदें पड़ने से खिले कदम्ब के फूल की तरह हर्ष से उनका रोम-रोम पुलक उठा। उन्होंने भगवान महावीर को यथाविधि वन्दन करके कहा-"भंते ! आज से मैं अपने दोनों नेत्र छोड शेष समस्त शरीर श्रमणों के लिये अर्पित करता हूँ।" उन्होंने पुनः वन्दन करके कहा"भगवन् ! मेरी अभिलाषा है कि अब आप स्वयं मुझे पुनः यथाविधि प्रव्रज्या प्रदान करें और श्रमण धर्म का उपदेश दें।"
RE-INITIATION ____145. When Shraman Bhagavan Mahavir made him recall the details of his earlier births, ascetic Megh's desire for spiritual upliftment redoubled. Overwhelmed with joy, his eyes brimmed with tears. As a Kadamb flower blossoms at the touch of droplets of rain, every pore of his body was filled with ecstatic joy. He formally bowed before Shraman Bhagavan Mahavir and said, “Bhante! Since this moment I commit every part of my body excepting my eyes to the service of the ascetics.” He bowed again and requested, “Bhagavan! It is my earnest desire that now you once again initiate me into the order and preach me the religion of Shramans." __ सूत्र १४६. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ जाव जायामायावित्तयं धम्ममाइक्खइ-“एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं णिसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्यं, एवं भुंजियव्यं, एवं भासियव्वं, उट्ठाय उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्यं।" __सूत्र १४६. श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार की इच्छा का आदर कर उन्हें पुनः दीक्षित किया और कहा-“हे देवानुप्रिय ! यत्न से चलना संयम में यतनापूर्वक प्रवृत्ति करना आदि (पूर्व सम)।"
146. Honouring ascetic Megh's desire Shraman Bhagavan Mahavir once again initiated him and said, “Beloved of gods! Move carefully ........ etc. (as detailed earlier)."
AAHIRDOL
CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA
(133)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org