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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेसि। खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए। से नूणं मेहा ! एस अढे समढे ?"
"हंता अढे समठे।" __ सूत्र १२२. श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार से कहा-“हे मेघ ! तुम श्रमणों के आवागमन (उपरोक्त वर्णनानुसार) के कारण पूरी रात थोड़ी देर के लिए भी पलक नहीं झपका सके। मेघ ! तब तुम्हारे मन में ऊहापोह हुआ (उपरोक्त वर्णनानुसार) और तुमने आर्तध्यान (उपरोक्त वर्णनानुसार) में शेष रात बिताई। भोर होते ही तुम मेरे पास आए हो। हे मेघ ! क्या मेरा कथन सत्य है ?"
मेघकुमार ने उत्तर दिया-"हाँ प्रभु ! आप यथार्थ कह रहे हैं।" ___ 122. Shraman Bhagavan Mahavir said to Ascetic Megh, “Megh! You have not been able to sleep throughout the night due to the continuous perambulation of the ascetics. You were put into a quandary and spent the rest of the night in misery. Immediately after the dawn you have come to me. Megh! am I telling the truth?"
“Yes sire! the absolute truth." affirmed Ascetic Megh. प्रतिबोध : पूर्वभव कथन ___ सूत्र १२३. एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्ढगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियणामधेज्जे सेए संखदलउज्जल-विमल-निम्मल-दहिघण-गोखीरफेणरयणियर (दगरय-रययणियर) प्पयासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपट्ठिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी
अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्ठागिइ-विसिट्ठपुढे अल्लीणपमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन-सुचारु-कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-णिरुवहय-विंसतिनहे छइंते सुमेरुप्पभे नामं हत्थिराया होत्था। ___ सूत्र १२३. भगवान ने कहा-“मेघ ! इस से पूर्व तीसरे भव में तुम वैताढ्य पर्वत की तलहटी में एक गजराज थे। वनचरों ने तुम्हारा नाम सुमेरुप्रभ रखा था। उस गजराज का रंग शंख के चूरे, दही, गाय के दूध के फेन और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, निर्मल और विमल था। वह सात हाथ ऊँचा, नौ हाथ लम्बा और मध्य में दस हाथ की परिधि वाला था। उसके सातों अंग सुडौल और सुपुष्ट थे। वह सौम्य और आदर्श अनुपात के अंगों और रूप वाला था। उसका अग्र भाग ऊँचे मस्तक और शुभ स्कन्ध वाला था और पिछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था। उसका उदर बकरी के उदर के जैसा, बिना गढे का
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JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA
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