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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
बहूइं जोयणसयाई, बहूइं जोयणसहस्साई, बहूइं जोयणसयसहस्साइं, बहूई जोयणकोडीओ, बहूइं जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमारमाहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-च्चुए तिन्नि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे।
तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं मेहस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।
सूत्र १६६. भगवान महावीर ने उत्तर दिया-“हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी मेघ अनगार स्वभाव से भद्र व विनीत था। उसने स्थविरों से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। कठोर तपश्चर्या की और संलेखना ग्रहण कर देह त्याग की (सम्पूर्ण विवरण पूर्व सम)। मृत्यु के बाद ऊर्ध्व दिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूपी ज्योतिष चक्र से और ऊपर अनन्त योजन (सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों, कोडाकोडि आदि संख्यायें) पार कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशक्र, सहनार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोकों को तथा तीन सौ अठारह नवग्रैवेयक विमानों को लाँधकर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ है।
"उस विजय नामक अनुत्तर विमान में कुछ देवों की आयु तेतीस सागरोपम कही है। मेघ की भी देव भव की आयु तेतीस सागरोपम है।" ___166. Shraman Bhagavan Mahavir replied, “Gautam! My disciple ascetic Megh was a good natured and humble person. He had studied all the eleven canons under the guidance of senior ascetics. He did vigorous penance and met his end after taking the ultimate vow (as described above). After his death his soul has gone in the upward direction. Going beyond the moon, sun, planets, constellations and galaxies, crossing infinite Yojans ( a measure of distance) and going beyond the Saudharma. Ishan. Sanatkumar, Mahendra, Brahmalok. Lantak, Mahashakra, Sahasrar, Anat, Pranat, Aran, and Achyut dimensions of gods it has taken birth as a god in the Anuttar dimension of gods.
"In the Anuttar dimension some of the gods are said to have an age of thirty three Sagaropam (a superlative measure of time). Megh too is to have the same life span.”
सूत्र १६७. एस णं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खए णं, ठिइक्खए णं, भवक्खए णं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?
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CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA
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