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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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साधना। थावच्चा-पुत्र तथा शुक परिव्राजक के संवाद में साधु जीवन के मुख्य बिन्दुओं पर 7 संक्षिप्त और सरल किन्तु सारगर्भित विवेचना प्रस्तुत की गई है।
| उपनय गाथा । सिदिलिय संजम कज्जा वि होइउं उज्जमं ति जइ पच्छा।
संवेगाओ तो सेलउव्व आराहया होति। प्रमाद की बहुलता से यदि कोई साधक संयम चर्या में शिथिल हो जाते हैं, परन्तु बाद में संवेग-वैराग्य व ज्ञान के प्रभाव से पुनः संयम में उद्यत हो जाते हैं तो वे शैलक राजर्षि की तरह आराधक माने जाते हैं।
0 CONCLUSION
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This fifth story of Jnata Dharma Katha elaborates the vice of laxity of conduct. An ascetic or the individual who has opted for the path of discipline has to be ever active in the right direction for his spiritual upliftment. He cannot afford to be inactive or static like a rock. Encumbered by a lethargic attitude if he becomes inactive or lax in observance of conduct he spoils not only this life but also the one beyond and remains entrapped in the unending cycle of rebirths. Vigorous and unimpeded practice is the means of attaining liberation The story also includes simple and brief but significant details about the salient features of ascetic life style in the form of the dialogue between Shuk Parivrajak and Thavacchaputra.
THE MESSAGE If some practicer becomes lax in his conduct due to excess of lethargy but amends his ways due to the inherent craving for the goal, he is accepted as a spiritualist like ascetic Shailak.
परिशिष्ट
द्वारका-सौराष्ट्र की मुख्य प्राचीन नगरी (पन्नवणासूत्र)। यह समुद्र तट पर स्थित द्वारका से भिन्न है। महाभारत के अनुसार जरासंध से आक्रान्त मथुरा के यादव, श्रीकृष्ण की सैन्य योजना के अनुसार अपने मूल स्थान को छोड़ रैवतक पर्वत के निकट कुशस्थली में आ गये थे। यहाँ उन्होंने अनेकों द्वार वाली एक नगरी बसाई जिसका नाम द्वारका पड़ गया। द्वार का अर्थ गुजराती में बन्दरगाह भी है। अतः यह
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA
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