________________
( १९९)
d
तृतीय अध्ययन : अंडे : आमुख
शीर्षक-अंडे-अंडक-यहाँ सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है यह शब्द। किन्तु एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रतीक रूप दिया गया है इसे। आस्था का प्रतीक। अंडे के भीतर जो जीवन विकास की क्रिया होती है वह सामान्यतया अदृष्ट होती है और उसको सेने वाले पक्षी के मन में उस अदृष्ट क्रिया व उसके प्रति गहरी
और निश्शंक आस्था रहती है। शंका उत्पन्न हुई कि असंयमित व्यवहार आरंभ हुआ और जीवन का विकास अवरुद्ध। इस कथा में इसी आस्था-अनास्था के फल को दर्शाया है।
कथासार-चंपा नगरी के बाहर सुभूमिभाग नामक एक मनोरम उद्यान था। इस उद्यान की एक झाड़ी में एक मोरनी ने सुंदर अंडे दिये थे। दो सार्थवाह पुत्र गणिका देवदत्ता के साथ उद्यान-रमण के लिये आए और उन्होंने वे अंडे देखे। अपने चाकरों से उन्होंने एक-एक अंडा अपने-अपने घर भिजवा दिया जिससे वहाँ रही मुर्गियाँ उन्हें सेकर मयूर-शावक उत्पन्न करें जिनसे उनका मनोरंजन हो। सागरदत्त-पुत्र के मन में अंडे को देख शंका उत्पन्न हो गई और वह उस अंडे को बार-बार हिलाता-डुलाता
और जाँच करता रहा। अंततः वह अंडा सड़ गया। जिनदत्त-पुत्र के मन में कोई शंका उत्पन्न नहीं हुई। उसकी आस्था अटूट बनी रही। समय पाकर उस अंडे में से एक नन्हा मयूर निकला। उसे मयूर-पालकों के पास भेजा और यथोचित विकास तथा कला सिखाने की व्यवस्था की गई। मयूर बड़ा हुआ तो उसके करतब देख जिनदत्त-पुत्र का मनोरंजन तो हुआ ही साथ ही उसके स्पर्धा में जीतने के कारण लाभ भी
हुआ।
Came
AARme
-
(199)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org