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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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सूत्र ११. थावच्चापुत्र भी भगवान की वन्दना के लिये गया। उसे वैराग्य हो आया और वह अपनी माता से आज्ञा लेने गया। माता के बहुत समझाने पर भी जब वह अपने निश्चय से नहीं डिगा तो माता ने आज्ञा दे दी। (यह समस्त घटना उसी प्रकार समझें जैसे मेघकुमार की कथा में वर्णित है।) थावच्चा ने आज्ञा देने के बाद कहा कि वह दीक्षा महोत्सव देखना चाहती है। थावच्चापुत्र ने मौन रहकर माँ की बात मान ली। DETACHMENT OF THAVACCHAPUTRA
11. Thavacchaputra also came for obeisance of the Tirthankar. Filled with the feeling of detachment he went to his mother to seek her permission for renunciation. When all her efforts to dissuade him failed to penetrate his resolve, the mother gave him permission (the details of this incident are same as those in the story of Megh Kumar). She then expressed her desire to be a witness to the Diksha ceremony. In acceptance Thavacchaputra remained silent.
सूत्र १२. तए णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता महत्थं महग्घं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त जाव सद्धिं संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता पडिहारदेसिए णं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल. वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी__ एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इढे जाव से णं संसारभयउव्विग्गे इच्छइ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स जाव पव्वइत्तए। अहं णं निक्खमणसक्कार करेमि। इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउड-चामराओ य विदिन्नाओ।
सूत्र १२. गाथापत्नी थावच्चा अपने आसन से उठी और महापुरुषों तथा राजाओं को भेंट करने के योग्य उत्तम और बहुमूल्य भेंट साथ में ली। अपने स्वजनों के साथ वह कृष्ण वासुदेव के महल के मुख्य द्वार के सामने आई। फिर प्रतिहारों के द्वारा दिखाये मार्ग से कृष्ण वासुदेव के पास गई, हाथ जोड़ 'जय हो, विजय हो' बोलकर उन्हें बधाई दी और अपने साथ लाई भेंट उनके सामने रखकर बोली___ "हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नाम का एक ही पुत्र है। वह मुझे इष्ट, कान्त आदि है। वह संसार के भय से उद्विग्न होकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर अनगार होना चाहता है। मैं उसके अभिनिष्क्रमण पर उसका सत्कार करना चाहती हूँ। अतः हे देवानुप्रिय आप उसके लिये छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें यह मेरी अभिलाषा है।''
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JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA
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