________________
द्वितीय अध्ययन : संघाट
( १९३ )
ORNO
OS
M
40. Jambu ! If any of our ascetics, who has renounced the world, shaved and has been initiated by an Acharya or Upadhyaya, is still allured by plenty of beads, pearls, cash, gold or precious gems, he faces the same consequences.
सूत्र ४१. तेणं कालेणं तेणं समए णं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव पुव्वानुपुट्विं चरमाणा जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव अहापिडरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति। परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ। ___ सूत्र ४१. काल के उस भाग में धर्मघोष नाम के स्थविर भगवन्त जो उच्च मातृपक्ष
और पितृपक्ष तथा बल आदि गुणों वाले थे, गाँव-गाँव विहार करते हुए राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में आकर यथाविधि ठहरे। उनके आने पर नगर में परिषद निकाली गई
और उन्होंने धर्म देशना दी। ____41. During that period of time a senior ascetic named Dharmaghosh, who was a high born (meaning both father and mother belonging to upper caste), strong (etc. ) and virtuous, wandering from one village to another, arrived in Rajagriha and stayed in the Gunashil Chaitya. A delegation of citizens came to him and he gave a discourse. धन्य की दीक्षा व देवलोक गमन
सूत्र ४२. तए णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"एवं खलु भगवंतो जाइसंपन्ना इहमागया, इहं संपत्ता, तं गच्छामि णं थेरे भगवंते वंदामि नमसामि।" ___ एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ण्हाए जाव सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए पायविहार-चारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ। तए णं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति।
सूत्र ४२. धन्य सार्थवाह ने कई लोगों से यह समाचार जाना। उसके मन में विचार उठा-"उत्तम गुण वाले स्थविर भगवन्त यहाँ पधारे हैं। मुझे भी जाकर उनको नमन-नमस्कार करना चाहिये। यह सोचकर वह स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त हुआ और धर्म सभा में जाने योग्य स्वच्छ और मांगलिक वस्त्र पहने। फिर वह पैदल चलकर गुणशील चैत्य में गया और स्थविर भगवन्त के पास पहुँच उन्हें यथाविधि वन्दना की। उन्होंने उसे अपना विशिष्ट धर्मोपदेश दिया।
CEO
SMS T
जब
CHAPTER-2 : SANGHAT
(193)
HA
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org