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१७वें वर्षसे पहले दिनकर विना जेवो, दिननो देखाव दीसे, शशी विना जेवी रीते, शर्वरी सुहाय छे, प्रजापति विना जेवी, प्रजा पुरतणी पेखो, सुरस विनानी जेवी, कविता कहाय छे; सलिल विहीन जेवी, सरितानी शोभा अने, भर्तार विहीन जेवी, भामिनी भळाय छे; वदे रायचंद वीर, सद्धर्मने धार्या विना, मानवी महान तेम, कुकर्मी कळाय छे ॥३॥ चतुरो चोंपेथी चाही चितामणि चित्त गणे, पंडितो प्रमाणे छे, पारसमणि प्रेमथी; कविओ कल्याणकारी, कल्पतरु कथे जेने, सुधानो सागर कथे, साधु शुभ क्षेमथी; आत्मना उद्धारने उमंगथी अनुसरो जो, निर्मळ थवाने काजे, नमो नीति नेमथी; वदे रायचंद वीर, एवु धर्मरूप जाणी, "धर्मवृत्ति ध्यान धरो, विलखो न वे'मथी" ॥४॥
बोधवचन १ आहार नही करना। २ यदि आहार करना तो पुद्गलके समूहको एकरूप मानकर करना, परंतु लुब्ध नही होना। ३ आत्मश्लाघाका चिन्तन नही करना । ४. त्वरासे निरभिमान होना। ५ स्त्रीका रूप नही देखना। ६ स्त्रीका रूप देखा जाये तो रागयुक्त नही होना, परंतु अनित्यभावका विचार करना। ७ यदि कोई निंदा करे तो उसपर द्वेषबुद्धि नही रखना। ८ मतमतातरमे नही पड़ना।। ९ महावीरके पथका विसर्जन नही करना । १०. त्रिपदके उपयोगका अनुभव करना।
३ इस पद्यका भावार्थ पृष्ठ ३ पर देखें।
४ जिसे चतुर लोग उत्कठासे चाहकर चित्तमे चितामणि मानते हैं, जिसे प्रेमसे पडित लोग पारसमणि मानते है, जिसे कवि कल्याणकारी कल्पतरु कहते हैं, जिसे साधु शुभ क्षेमसे सुधाका सागर कहते हैं-ऐसा धर्मका स्वरूप है। यदि उत्साहपूर्वक आत्माका उद्धार करना चाहते हो तो निर्मल होनेके लिये नियमपूर्वक नीति-धर्मका पालन करें। रायचन्द वीर कहते हैं कि ऐसा धर्मका स्वरूप जानकर धर्मवृत्तिमें ध्यान रखे और भ्रान्त मान्यतासे दुःखी न हो।