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अखीण
अखीण त्रि. खीण का निषे. [अक्षीण], वह, जिसे कोई क्षति
अथवा हानि नहीं हुई है, हानिरहित खीणम्पि अखीणम्पि न तं जहन्ति, जा० अट्ठ. 3.435; वचन त्रि. ब. स. [अक्षीणवचन ], कर्कश वचन न बोलने वाला, मृदुभाषी न अखीणवचनोति अत्यो सु. नि. अड. 1.178 - ब्यप्पथ त्रि. ब. स. उपरिवत् न खीणव्यप्पथो ति (पाठा. नाखीणव्यप्यथो तिपि पाठो) न फरुसवाची सु. नि. अट्ठ. 1.176; णासव त्रि०, ब० स०, वह, जिसके चित्त के आस्रव क्षीण नहीं हुए हैं भिक्खु अखीणासवो कालङ्करोति ग. नि. 3.177. अप, अखील,
अखीलक त्रि. ब. स. [अकीलक], कांटा रहित, कण्टकमुक्त अखीलकानि च अवष्टकानि. किंरुक्खफलानि तानि जा. अट्ठ. 5.193.
अखेत्तत्र खेत का निषे.. ब. स. [अक्षेत्र]. शा. अ. भूमिरहित क्षेत्र-रहित अखेत्तबन्धू अममो निरासो, जा. अट्ठ 4.269; तत्थ अखेत्तबन्धूति अक्खेत्तो अबन्धु, खेत्तवत्थुगामनिगमपरिग्गहेन ... रहितो, जा. अट्ठ 4.270; ला. अ. अविषय, अपात्र, अनुपयुक्त स्थल अखेत्तञ्ञूसि दानस्स. जा. अट्ट, 4.334 ज्ञ त्रि. खेत्ताञ्ञ का निषे. [अक्षेत्रज्ञ ], जो क्षेत्र या भूमि को ठीक से नहीं जानता है अखेतज्ञाय ते महि भविस्सते महब्भय, जा. अड. 7.263 अखेतज्ञायाति अरज्ञभूमिअकुसलताय, जा. अड. 7.264 - ज्जू त्रि. खेत्तञ्जू का निषे [अक्षेत्रज्ञ]. शा. अ. खेत को न जानने वाला गावी पब्बतेय्या बाला अन्यत्ता अखेत्त अकुसला विसमे पब्बते चरितुं, अ. नि. 3 (1). 226; ला. अ. अनुपयुक्त पात्र, उचित अवसर अथवा कुशल कर्मों को करने के लिए उपयुक्त भूमि को न जानने वाला, मूर्ख, अज्ञानी अखेत्तञ्जूसी दानस्स, कोयं धम्मो नमत्थु ते, जा. अड. 4.334 बन्धु त्रि. ब. स. [अक्षेत्रबन्धु] खेतों एवं जाति-बन्धुओं से विहीन, ममता-रहित अखेत्तबन्धू अममो निरासो, जा. अ. 4.269 भाव पु. [अक्षेत्रभाव]. दान आदि शोभन कर्मों के लिए अनुपयुक्त भूमि या पात्र - अधना अभिज्ञालाभीनं पुग्गलानं अखेत्तभावेन.... सा. वं 69. (ना.) अग पु० [अग], शा. अ. अचल, अडिग, ला. अ. वृक्ष एवं पर्वत पादपो विटपी रुक्खो अगो सानो महीरुहो अभि. प.
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अगणित त्रि. गणित का निषे [ अगणित ]. वह जो गणना के अन्दर न आये, अनन्तर्भूत अगणितं अद्वहि हेतूहि मि. प. 121; 148.
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अगथित / अगधित
अगण्हन नपुं०, गण्हन का निषे [ अग्रहण ], न पकड़ना, समझ में न आना, अस्वीकरण उण्हस्स डाहभयेन अगण्हनं दिय अपायभयेन पापरस अकरणं वेदितव्यं ध. स. अड.
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अगत त्रि. गत का निषे [ अगत] अप्राप्त, वह जिसे प्राप्त नहीं किया गया है नहि एतेहि यानेहि, गच्छेय्य अगतं दिसं, ध० प० 323; - ता स्त्री०, प्र. वि., ए. व. अगता दिसा दुच्यति अमतं निब्बानं महानि, 355 पुब्ब त्रि.. ब. स. [ अगतपूर्व], वह स्थान जहां पहले कोई न गया हो ब्बाय स्त्री०, सप्त. वि., ए. व. अगतपुब्बाय वा दिसाय अस्सुतपुब्वाय या नामपञ्ञत्तिया सम्मुव्हेय्याति. मि. प. 41: -ब्बं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. सचित्तमनुरक्खे, पत्थयानों दिसं अगतपुब्बं जा. अड. 1.382 जा. अ. 3.206. अगति स्त्री, गति का निषे. [अगति]. शा. अ. अनागमन, अप्रवेश अगति यत्थ मारस्स, तत्थ मे निरतो मनोति, स. नि. 1 ( 1 ) .157: समुद्र अज्झगाहासि, अगती यत्थ पक्खिन, जा. अट्ठ. 5.245; ला. अ. प्रायः यह चार प्रकार की दुःखद गतियों या पुनर्जन्मों के अर्थ में तथा कुशलकर्मों की अवहेलना करने के अर्थ में भी प्रयुक्त वतस्सो अगतियो वज्जेत्वा, जा. अट्ठ. 1.252; छन्दा दोसा मोहा भया अगतिं गन्तु पारा. अ. 1.7; खु. पा. अट्ठ. 75; छन्दादिवसेन अगतिं गच्छन्ता, जा. अट्ठ. 1.324; किलेस पु०, चार प्रकार की दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाले क्लेश छन्दादीहि अगतिकिलेसेहि अमुच्छितो जा. अड. 3.391; गत त्रि, दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाला, भ्रामक या संदेहास्पद स्थिति में पहुंचा हुआ कोसलराजा एक अगतिगत दुब्बिनिच्छयं अहं विनिच्छिनित्वा जा. अट्ठ. 2.1 गमन नपुं तत्पु, स. [ अगतिगमन] चार दुःखद गतियों की ओर ले जाने वाले अशोभन मार्ग का अनुगमन, जीवन में पापकर्मों का आचरण - पञ्चालो नाम राजा अगतिगमने ठितो अधम्मेन पमत्तो रज्जं कारेसि, जा. अट्ठ 5.93; अगतिगमनं पहाय जा. अड. 3.240 घ. प. अ. 2. 104; छन्दागमनन्ति छन्दादिचतुब्बिधम्पि अगतिगमनं, जा. अड. 5.266; चत्तारिमानि भिक्खवे, अगतिगमनानि., अ. नि. 1 (2).21; स० उ० प० में द्रष्ट छन्दा, छन्दादि, दोसा., भया०, मोहा..
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अगथित / अगधित त्रि. गथित या गधित का निषे [ अग्रथित], शा. अ. जो आपस में बंधा न हो, जो फंसा न हो, ला. अ. लोभ-लालच की जकड़न से मुक्त, सभी तरह के लगावों से
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