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अक्खोभणी 22
अखिल अक्खोमणी स्त्री. अक्खोभण से व्यु., अविचलित, शान्त - करने की मनोवृत्ति या अवस्था - तत्थ या संवरसीले अक्खोमणी अपरियन्ता, सागरस्सेव ऊमियो, जा. अट्ठ. अखण्डकारिता, नेत्ति. 38; - पञ्चसील त्रि., कर्म. स., 5.314; अक्खोभणीति खोभेतुं न सक्का, जा. अट्ठ. 5.315. पांच शीलों का पूर्णरूप से पालन या अनुल्लङ्घन करने अक्खोभित त्रि., खोभित का निषे. [अक्षुब्ध], स्थिर, शान्त - वाला - अखण्डपञ्चसीलायेव होति, जा. अट्ठ. 1.60; - अघट्टितो ति अक्खोभो, महानि. अट्ठ. 304.
फुल्ल त्रि., अखण्ड, अटूट, अभग्न, अक्षुण्ण, अक्षत - तथेव अक्खोभिय/अखोभिय त्रि., खोभिय का निषे. [अक्षोभ्य]. सिक्खापदानि पञ्च अखण्डफुल्लानि समादियस्सु. ध. प. अप्रकम्प्य, किसी के द्वारा न कंपाये जाने योग्य, - सागरोव।
:- सागराव अट्ठ. 1.22. अखोभियाति अहि अखोभियो अनालुळितो ... कम्पेतुं अखर त्रि., खर का निषे. [अखर], जो कड़ा न हो, कोमल, असक्कुणेय्या ..., अप. अट्ठ. 1.229.
मृदुल - ... खरेन पासाणेन धोतत्ता .... जा. अट्ठ. 3.247; अक्खोहिणी स्त्री. [अक्षौहिणी, अक्ष + ऊहिणी, अक्ष + ऊह संभवतः यहां अखरेन की जगह खरेन का जो पाठ मिलता + णिनि + ङीप्], 1. एक पूरी चतुरंगिणी सेना जिसमें है, वह अशुद्ध है. 21,870 रथों, 21,870 हांथियों, 65,610 घोड़ों तथा 109,350 अखलित त्रि., खलित का निषे. [अस्खलित], अटल, पैदलों की सेना हो; किन्तु अभि. प. 475 और क. वु. 397 स्खलन से रहित, निष्पाप - अखलितमभयं निरुपतापं. के अनुसार एक संख्या के बाद 42 शून्य देने से अक्षौहिणी थेरीगा. 514; खलितसङ्घातानं दुच्चरितानं अभावेन अखलितं. की संख्या मिलती है (कोटि-पकोटि-कोटिप्पकोटि-नहुत- थेरीगा. अट्ठ. 316... निन्न्हुत अक्खोहिणी); चाईल्डर्स का भी वही मत है, चाईल्डर्स, अखात त्रि., खात का निषे. [अखात], नहीं खोदा हुआ, पृ. 25; तुल. अभि. प. 384; (सद्विवंसकलापेसु पच्चेक नैसर्गिक सरोवर, स्वाभाविक जलाशय- अखातं तु देवखातक सद्विदण्डिसु, धूलिकतेसु सेनाय यन्तियाक्खोहिणीत्थिय), और अभि. प. 680. म. वं. टी. 451 (.. चतुद्दसकोटिसहस्सानि कोटिसतं च अखादन्त त्रि., खाद का वर्त. कृ., निषे. [अखादत्], नहीं एकादसकोटियो चा ति एवं अक्खोहिणीसेनाय पमाणं खा रहा, भोजन नहीं कर रहा -न्तियो स्त्री., प्र. वि., ब. जानितब्ब) - महासेनाघात पु., तत्पु. स., एक अक्षौहिणी व. - यथा ता तिणं अखादन्तियो पानीयं अपिबन्तियो महासेना का विनाश - येन में अक्खोहिणीमहासेनाघातो सयन्ति, जा. अट्ठ. 5.18. कारापितो इति, म. वं. 25.108; - परिवार पु., एक अखादितपुब्ब त्रि., ब. स. [अखादितपूर्व], जो पहले न अक्षौहिणी सेना का समूह - चतुवीसतिअक्खोभणिपरिवारेन खाया गया हो - तुम्हे किञ्चि अखादितपुब्बं खादन्ता ..., सद्धि एकसतराजानो गहेत्वा .... जा. अट्ठ. 5.311; - जा. अट्ठ. 3.173; अखादितपुब्बानि च तिणानि खादेय्यं अ. सङ्ख त्रि., ब. स., अक्षौहिणी संख्या वाली सेना - नि. 3(1).225. अट्ठारस अक्खोभणिसङ्काय सेनाय परिखता, जा. अट्ठ. 6.224; अखारिक क्रि. खारिक का निषे [अक्षारिक], तीखेपन अथवा तुल. चतुरंगिणी; 2. बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा; अभि. प. खट्टापन से रहित - अखारिकम्पि विजानाति... स. नि. 2(1)81. 475; निन्नहतसतसहस्सानं सतं अक्खोहिणी, क. व्या. 397. अखिल त्रि., खिल का निषे., 1.क. खिल अथवा क्लेशों से अखण्ड त्रि., खण्ड का निषे., ब. स. [अखण्ड], जो टूटा रहित, चित्त की अनुर्वरता से रहित, क्लेशरहित, पवित्र - नहीं हो, पूर्ण, निर्दोष - ... बीजानि पतिट्टपेय्य अखण्डानि । अखिलमनिमित्तमकण्टकं इद्धं फीतं खेमं सिवं...दी. नि. अपूतीनि अवातातपहतानि सारदानि सुखसयितानि, दी. नि. 3.108; 1.ख राग, द्वेष एवं मोह नामक तीन अकुशलमूलों 2260; यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि एवं पांच नीवरणों से जनित चित्त की रूक्षता एवं कर्कशता अकम्मासानि ..., म. नि. 1.404; पञ्चसीलानि अखण्डादीनि से रहित अथवा मुक्त - सगा पमुत्तं अखिलं अनासवं ..., कत्वा रक्खाही ति, ध. प. अट्ठ. 1.157; - कारी त्रि. सु. नि. 214; पञ्चचेतोखिलचतुआसवाभावेन अखिलं ..., [अखण्डकारिन्]. पूर्ण रूप से करने वाला, सही ढंग से सु. नि. अट्ट, 1.219; 2. अन्तराल-रहित, जो त्रुटिपूर्ण न हो, कार्य करने वाला - अयमायस्मा अखण्डकारी अच्छिद्दकारी निर्दोष, कुल मिलाकर, समूचे तौर पर - सब् समत्तमखिलं ..., अ. नि. 1(2).217; 278; अखण्डकारिना भवितब्बं .... निखिलं सकलं तथा, अभि. प. 702; ... इति अट्ठारसाखिला, मि. प. 105; - रिता स्त्री., भाव., सम्पूर्ण रूप से कार्य म. वं. 5.10; 23.13.
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