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प्रथम अध्याय
पर उदय होता है तब आत्मा में तरह-तरह के शुभ-अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं । इन भावों के उदय से फिर नवीन कर्मों का बंध होता है और जब वे उदय में प्राते हैं तब फिर नवीन कर्मों का बंध हो जाता है । इस प्रकार द्रव्य कमों से भाव कर्म
और भाव कर्मों से द्रव्य कर्म की उत्पत्ति होने से इनका परस्पर द्विमुख कार्यकारण आव है। यहां कर्मोदय से अन्तस्करण में होने वाली एरिणति को ही आत्मा कहा गया है ! यह परिणति जब अशुभ होती है तो उस से दुःरन उत्पन्न करने वाले पाप कर्मों का वन्ध होता है और जव परिणति शुभ होती है तो सुख-जनक शुभ कर्मों का
बंध होता है । इसले यह स्पष्ट है कि आत्मा की शुभ अशुभ परिणति ही सुख-दुःख .. का कारण होती है । अतएव श्रात्म-परिणति को प्रात्मा से अभिन्न विवक्षित करके आत्मा को अपने सुख-दुःख का कारण कहा गया हैं।
तात्पर्य यह है कि जैसे वैतरणी नदी और नरक में रहने वाला शाल्मली वृक्ष दुःख का कारण होता है उसी प्रकार अशुभ परिणति बाला श्रात्मा स्वयं अपने दुःख का हेतु है । तथा कामधेनु और नन्दनवन जैसे सुख का कारण होता है उसी प्रकार शुभ परिणति में परिणत आत्मा भी अपने सुस्त का स्वयमेव कारण बन जाता है।
अगली गाथा में इसी विषय का स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया गया है कि आत्मा स्वयं ही अपने सुख-दुःख को उत्पन्न करता है और स्वयं ही सुख-दुःख का विनाश करता है । अतएव प्रशस्त परिणति वाला अात्मा ही आत्मा का मित्र है और अप्रशस्त्र परिणति वाला आत्मा अपना शत्रु है।
शंकाः-आत्मा की शुभ-अशुभ परिणति से यदि सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं तो यहां आत्मा को ही सुख-दुःख का कर्त्ता और नाशक क्यों कहा गया है ? आत्मा. की परिणति और आत्मा अलग-अलग है। यहां दोनों को एक-सेक क्यों कर दिया है? -
समाधान:-जैसे मिट्टी रूप उपादान कारण से बने हुए घट को मिट्टी कह सकते हैं, सुवर्ण के बने हुए कड़े को सुवर्ण कह सकते हैं, उसी प्रकार आत्मा रूप उपादान कारण से उत्पन्न होने वाली परिणति को प्रात्मा कह सकते हैं। जैसे मृत्तिका द्रव्य है और घट उसकी पर्याय है उसी प्रकार प्रात्मा द्रव्य है और उसकी शुभा-शुभ परिणति पर्याय है। द्रव्य और एयाय कथचित् अभिन्न होते हैं। द्रव्य की पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं मालूम होती और पर्यायों से भिन्न द्रव्य. का कभी अनुभव नहीं होता। अतएव द्रव्य-पर्याय के अभेद की विवक्षा कर के यहां आत्मा को ही सुख दुःख का. उत्पादक और विनाशक कहा गया हैं।
जैसे कुत्ता इंट मारने वाले पुरुष को छोड़कर ईंट को ही काटने दौड़ता है उसी प्रकार वास्तविक तत्त्व से अनभिज्ञ अज्ञानी पुरुष, अपने से भिन्न अन्य पुरुषों को छाएने सुख-दुःख का कारण मान बैठता है और उन्हीं पर राग-द्वेश करता है। चह यह नहीं समझता कि मैं स्वयं ही अपने सुख-दुःख का सृष्टा हूं और स्वयं ही' उनका संहारक हूं। वह निमित्त कारणों को ही वास्तविक कारण समझ लेता है और