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षद्रव्य निरूपण
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प्राप्ति किसे होगी? जिस आत्मा ने कल किसी व्यक्ति को देखा था, वह आत्मा. उसी समय समूल नष्ट हो गया तो आज उस व्यक्ति का स्मरण किसे होता है ? विना देखे दूसरे को स्मरण नहीं हो सकता और देखने वाला नष्ट हो गया । ऐसी अवस्था में स्मृति का ही सर्वथा अभाव हो जायगा। अतएव अात्मा को सर्वथा क्षणिक मानना .. लोक विरूद्ध है, अनुभव विरूद्ध है और युक्ति से भी विरूद्ध है।
वास्तव म अत्मा द्रव्यार्थिक नय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है । आत्मा की नित्यता का समर्थन पहले किया जा चुका है और मूल में उसे नित्यप्रातपादन किया गया है सो द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि कर्मों का संयोग होने के कारण आत्मा यद्यपि संसार-भ्रमण करता है, वह कभी. मनुष्य, कभी देव, कभी पशु-पक्षी आदि तिर्यंच और कभी नारकी पर्याय में जाता है, फिर भी श्रात्मा का श्रात्मपन कभी नष्ट नहीं होता । सुवर्ण जैले कड़ा, कुंडल, अंगुठी आदि भिन्न-भिन्न हालतों में बदलते रहन पर भी सुवर्ण बना रहता है उसी प्रकार आत्मा की अवस्थाएं बदलती रहती है पर प्रात्मा द्रव्य सदैव विद्यमान रहता है। ..
श्रात्मा के साथ कमों का बन्ध किस प्रकार और किन कारणों से होता है, . इन सब प्रश्नों का समाधान आगे कर्मों के विवेचन में किया जायगा।
श्रात्मा का कर्तत्व मूल:-अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली ।
अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पा मे नंदणं वणं ॥२॥ अप्पा कता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तमित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिो ॥३॥ छाया:-आत्मा नदी वैतरणी, प्रात्मा में कूटशाल्मली ।
श्रात्मा कामदुधा धनुः, श्रात्मा में नन्दनं वनम् ॥ २॥ अात्मा का विकता च, दुःखानां सुखानाञ्च ।
श्रात्मा मित्र ममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ॥३॥
शब्दार्थः-मेरा आत्मा वैतरणी नदी है, मेरा आत्मा कूट शाल्मली वृक्ष है। मेरा आत्मा कामधेनु है और मेरा ही आत्मा नन्दन बन है । (२)
आत्मा ही सुख-दुःख का जनक है और आत्मा ही उनका विनाशक है । सदाचारी सन्मार्ग पर लगा हुआ आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर लगा हुआ-दुराचारी आत्मा ही अपना शत्रु है । (३)
भाध्यः-श्रात्मा स्वभावतः सिद्ध, वुद्ध, शुद्ध और अनन्त ज्ञानादि गुणों से समृद्ध है, किन्तु अनादि कालीन कर्म-परम्परा से प्राबद्ध होने के कारण वह नाना गर्यायों का अनुभव करता है। पहले बांध हुए कमों का, आवाधाकाल समाप्त होन्डे