________________ नैषधीयचरिते पश्यावेश + टाप् [ 'पाघ्रा०' 3 / 1 / 13 ] पुरंध्रीः पुरम् गृहस्थजनान् धारयतीति पुर++ खच् + ङीप् / अनुवाद-जिस मार्ग से कुमारों की टोली सघन कपूर की धूल से क्रीडा किये हुए थी, वहाँ उन ( नल ) के पैरों की छापों पर चक्रवर्ती का चिह्न चक्र देखती हुई गृहस्थनियाँ चकित रह जाती थीं / / 39 // टिप्पणी-कपूर की सफेद घुल पर नल के पैरों की स्पष्ट छाप पड़ी हुई थी, जिसे देखकर उस मार्ग से आने-जाने वाली गृहणियां दंग रह जाती थीं कि पैरों पर चक्रवर्ती का चिह्न-चक्र-वाला कौन सा पुरुष यहाँ से गुजरा होगा। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार पैरों के तलवों में चक्र का चिह्न चक्रवर्ती-चिह्न माना जाता है। विद्याधर यहाँ 'चक्र' शब्द में वर्णो की आवृत्ति से छेकानुप्रास कह गये हैं, लेकिन ये भूल गये हैं कि यह एकबार की आवृत्ति में ही हुआ करता है ('छेको व्यञ्जनसंघस्य सकृत साम्यमनेकधा' ) / यहाँ एक से अधिक बार आवृत्ति है, अत वृत्त्यनुप्रास ही है। तारुण्यपुण्यामवलोकयन्त्योरन्योन्यमेणेक्षणयोरभिख्याम् / मध्ये मुहूर्त स बभूव गच्छन्नाकस्मिकाच्छादनविस्मयाय // 40 // अन्वयः-तारुण्येन पुण्याम् अन्योन्यम् अभिख्याम् अवलोकयन्त्योः एणेक्षणयोः मध्ये मुहूर्तम् गच्छन् स आकस्मिकाच्छादनविस्मयाय बभूव / टीका-तारुण्येन यौवनेन पुण्याम् मनोज्ञाम् रम्यामिति यावत् ('पुण्यं मनोज्ञ' इति विश्वः) अन्यस्या अन्यस्या इत्यन्योऽन्यम् परस्परम् पारस्परिकीमिति यावत् अभिल्याम् शोभाम् ( 'अभिख्या नाम-शोभयोः' इत्यमरः ) अवलोकयन्त्योः पश्यन्त्योः एणस्य मृगस्येव ईक्षणे नयने ( उपमान तत्पु० ) ययोः तथाभूतयोः (ब० बी० ) मृगीदृशोः इत्यर्थः मध्ये मध्यस्थाने मुहुर्तम् क्षणम् गच्छन् ब्रजन् स नलः आकस्मिकम् अकस्मात् जातम् यत् आच्छादनम् परस्परतिरोधानम् ( कर्मधा० ) तेन यः विस्मयः आश्चर्यम् तस्मै बभव जातः / सह गच्छन्त्योः द्वयोः युवत्योर्मध्ये सहसा आगत्य क्षणं व्यवधानं च कृत्वा नल आश्चर्यमजी जनदिति भावः // 40 // व्याकरण-तारुण्यम् तरुण्याः भाव इति तरुणी + ष्यन पुंवद्भाव / अन्यो। न्यम् कमव्यतिहारे द्वित्वम् / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) /