Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___भगवतीसूत्रे गरे'-लोकप्रद्योतकरः-लोकशब्देनात्र लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेन यथावस्थिततयेति व्युत्पत्त्या लोकालोकयोरुभयोरपि ग्रहणम् , तेन लोकस्य लोकालोकलक्षणस्य सकलपदार्थस्य प्रद्योतः-लोकप्रद्योतस्तं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकर -सर्वलोकप्रकाशकरणशीलः । ताच्छील्ये कर्तरि ट-प्रत्ययः । 'अभयदए' -अभयदयः-न भयम्-अभयम् , भयानामभावो वा अभयम्-अक्षोभलक्षण आत्मनोऽवस्थाविशेषो मोक्षसाधनभूतमुत्कृष्टधैर्यमिति यावत् , दयते-ददातीति दयः,
क्यों कि प्रभु की देशना उनके अनादिकालीन मिथ्यात्वरूप अंधकार पटल का सर्वथा विनाश कर देती है, इससे उन्हें विशिष्ट आत्मतत्त्व के दर्शन होने लगते हैं। इसी बात को समझाने के लिये प्रदीप का दृष्टान्त सूत्रकारने दिया है । लोकपद से यहाँ सामान्य लोक का ग्रहण न करके भव्यलोक का ग्रहण किया गया हैं। " लोकप्रद्योतकर" पद यद साबित करता है कि प्रभु अपने ज्ञान से लोक और अलोकरूप समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने के स्वभाववाले होते हैं । " लोक्यते इति लोकः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक शब्द से यहाँ लोक और अलोक दोनों का ग्रहण हुआ है, क्यों कि केवलज्ञान से इन दोनों का यथावस्थितरूप से प्रकाश होता है । अभयदय-पद यह प्रकट करता है कि प्रभु किसी को भी भय नहीं देते हैं, इसलिये प्रभु अभयदय हैं । इस पक्ष में यह अर्थ निकलता है कि प्रभु उपसर्ग करने वाले और प्राणों के भी नाश करने में रसिक बने हुए प्राणियों के लिये भी भय नहीं देते हैं । “भयानाम् अभावोऽभयम्” इस पक्ष में अक्षो
વાતને સમજાવવા માટે સૂત્રકારે પ્રદીપનું દષ્ટાંત આપ્યું છે. લેકપદથી અહીં सामान्य अड न ४२ai लव्यतो अडए थयेद छ. "लोकप्रद्योतकर" ५४ એ વાત સિદ્ધ કરે છે કે પ્રભુ પિતાના જ્ઞાનથી લેક અને અલેકરૂપ સમસ્ત पहाथीन प्रशित ४२वाना स्वभाव वा हाय छे. "लोक्यते इति लोकः” 24॥ વ્યક્તિ પ્રમાણે “લેક શબ્દથી અહીં લેક અને અલેક બનેને સમાવેશ કરાય છે. કારણ કે કેવળજ્ઞાન દ્વારા તે બન્નેને યથાર્થ સ્વરૂપને જોઈ શકાય છે.
અભયદય’ પદ એ બતાવે છે કે પ્રભુ કોઈને પણ ભય પમાડતા નથી. પ્રભુ ઉપસર્ગ દેનારને અને પ્રાણેને નાશ કરવામાં આનંદ માનનાર જીવોને પણ भय ५मा नयी तेथी तभने 'समय' वामां माव्या छे. "भयानाम् अभावोऽभयम्" भाक्ष सापामा कृष्ट धैर्य३५ 7 माल सानी आवश्यता
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧