Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे सर्वेग सर्व कृतम्। नैरयिकाणां भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म कृतम् , हन्त ! कृतम् , यावत् सर्वेण सर्व कृतम् । एवं यावद्वैमानिकानां दण्डको भणितव्यः । सू०१॥
टीका-'जीवाणं भंते !' जीवानां भदन्त ! हे भदन्त ! जीवानां सम्बन्धि यत् 'कंखामोहणिज्जे कम्मे कांक्षामोहनीय कर्म तत् कृतम्? जीवसंबन्धिकांक्षामोहनीयं. कर्म क्रियानिष्पाचं किम् – मोहयति सदसद्विवेकविकलं करोत्यात्मानमिति मोहमोहनीयकर्म न देश से देश कृत है, न देश से सर्व कृत है, न सर्व से देश कृत है, किन्तु सर्व से सर्वकृत है। (नेरइयाणं भंते । कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? ) हे भदन्त ! नैरयिक संबंधी कांक्षामोहनीयकर्म क्या कृत है ? (हंता कडे जाव सव्वेणं सचे कडे एवं जाव वेमाणिया णं दंडओ भाणियव्वो ) हां, नैरयिक संबंधी कांक्षा मोहनीय कर्म कृत है। यावत् वह सर्व से सर्व कृत है। इस तरह यावत् वैमानिकों तक का दंडक कहना चाहिये। ____टीकार्थ-यहां गौतमस्वामो ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! जीवों का जो कांक्षामोहनीय कर्म है वह क्या कृत है ! कृत शब्द का अर्थ है क्रिया द्वारा जो निष्पाद्य होता है वह। अर्थात् जीव सम्बन्धी जो कांक्षामोहनीयकर्म है वह क्या जीवकृत क्रियाद्वारा निष्पादित होता है ? ! जो आत्मा को सत् और असत् के विवेक से विकल बना देता है उसका नाम मोहनीय है। " मोहयति विकलं करोति आत्मानं इति मोहनीयम्" ऐसी मोहनीय शब्द की व्युत्पत्ति है। आत्मा को નથી, દેશથી સર્વ કૃત નથી, સર્વથી દેશ કૃત નથી પણ સર્વથી સર્વકૃત છે. ( नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे १ ) 3 महन्त ! नैरयितुं क्षा. मोनीयम शुत सय छ ? (हंता कडे जाव सव्वेणं सव्वे कडे एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियव्वो) , ना२४नुं क्षामोनीयम त छ. તે સર્વથી સર્વકૃત છે ત્યાં સુધી સમજવું. આ પ્રમાણે જ વૈમાનિક સુધીનું ४.४ ४ नये.
ટીકાર્થ –અહીં ગૌતમસ્વામીએ મહાવીર પ્રભુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! શું જવાનું કાંક્ષાહનીયકર્મ શું જીવકૃત હોય છે? “ કૃત ? એટલે ક્રિયા વડે જેની પ્રાપ્તિ થાય છે તે. એટલે કે જીવનું જેકાંક્ષામહનીયકર્મ છે તે શું છવકૃત કિયા વડે નિપાદિત થાય છે? જે આત્માને સતા मन मसत्ना विवेथी शून्य मनावे छ तेनुं नाम भाडनीय छे. “मोहयति विकलं करोति आत्मानम् इति मोहनीयम् ” मेवी भीडनीय शनी व्युत्पत्ति થાય છે. ચારિત્રમેહનીય કર્મ પણ આત્માને સત્ અને અસના વિવેકથી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧