Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. १७०४ सू० ३ कर्मावेदने मोक्षाभावकथनम् ६९५ तस्य कर्मणः 'अवेयइत्ता' अवेदयित्वा कृतं कर्म अननुभूय, कमणः सकाशात् जीवस्य मोक्षो न भवति किमिति प्रश्नः। भगवानाह-'हंता गोयमा' इत्यादि । 'हंता गोयमा' हन्त गौतम! 'णेरइयस्स वा' नैरयिकस्य वा 'तिरिक्व०मणु देवस्स वा' तिर्यग्मनुष्य देवस्य वा, 'जे कडे पावे कम्मे' यत् कृतं पापं कर्म 'नथि तस्स अवेयइत्ता मोक्खो' नास्ति तस्यावेदयित्वा मोक्षः । नारकजीवेन तिर्यग् मनुष्यदेवैर्वा यत् पापं कर्म स्वात्मप्रदेशेषु बद्धं तस्य कर्मणो वेदनमन्तरेण मोक्षो नास्ति । वेदनमन्तरेण कर्मणो मोक्षाभावे किं कारणमिति प्रश्नयनाह-'से इस लिये “पापकर्म " इस शब्द का अर्थ “ मोक्ष के व्याघातक जो ज्ञानावरणीय आदि कर्म हैं वे ही पापकर्म हैं " ऐसा ही घटित होता है “अशुभ" ऐसा अर्थ घटित नहीं होता । ऐसे पाप कर्म को “अवेयइत्ता" बिना वेदे-अर्थात् अनुभव किये बिना (भोगेबिना) उस कर्म से जीव का मोक्ष नहीं होता है क्या ? अर्थात् कर्म का अनुभव किये पिना-फल भोगे बिना उस कर्म से जीव का छुटकारा रूप मोक्ष नहीं होता है क्या? ऐसा प्रश्न यहां हुआ है। इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं (हंता गोयमा!)हां, गौतम ! (नेरइयस्स वा) नारक जीव का (तिरिक्ख. मणु० देवस्स वा) तियंच योनिवाले जीवका मनुष्य का नथा देव का (जे कडे पावे कम्मे) जो कृत पापकर्म है उसका वेदन किये बिना (नत्थि तस्त. मोक्खो ) उस कर्म से छुटकारा नहीं होता है। अर्थात् नारक आदि जीवों का जो कृत पापकर्म है उसका भोग किये बिना मोक्ष नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि नारक जीवों द्वारा, तथा तिर्यंच, मनुष्य एवं देवों बारा जो पापकर्म अपने आत्मप्रदेशों में बांध लिया गया होता है उस " ५२” पापी मेट “ शुलभ” मेरो मथ घटावी शाय नडी. सेवा पा५ भने। “अवेयइत्ता" अनुभव या विना-साव्या विना शुते भथी જીવને મોક્ષ થતું નથી ? એટલે કે કર્મનું ફળ ભેગવ્યા વિના શું તે કર્મમાંથી છટકારે થવારૂપ મોક્ષ જીવને મળતો નથી શુ ? ગૌતમના તે પ્રશ્નના જવાબમાં महावीर प्रभु ३२भावे छ है (हंता गोयमा ! ) डा गौतम ! (नेरइयस्स वा तिरिक्ख० मणु० देवरस वा ) ना२४७३।, तथा तिय योनिना । तथा मनुष्यो तथा वास (जे कडे पावे कम्मे) ? ५५ म रेस डाय छ तेन वहन ध्या विना (नत्थि तस्स मोक्खो) ते भो भाथी तभनी छुट॥२॥ यतो नथी. તાત્પર્ય એ છે કે-નારક છે તથા તિયચ, મનુષ્ય અને દેવે વડે જે પાપક પિતાના આત્મપ્રદેશ સાથે બંધાયા હોય છે તે કર્મોનું વેદન કર્યા વિના
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧