Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे टीका--'तएणं से' इत्यादि । 'तएणं से भगवं गोयमे ' ततः खलु स भगवान् गौतमः 'जायसड़े' जातश्रद्धः-जातामागभूता संप्रति सामान्येन प्रवृत्ता श्रद्धा-तत्वनिर्णयविषयिका वाञ्छा यस्य स जातश्रद्धः, वक्ष्यमाणतत्त्वपरिज्ञानेच्छावानित्यर्थः, 'जायसंसए' जातसंशयः-जातः प्रवृत्तः संशयो यस्य स तथोक्तः, " जायसंसए" जातसंशय इति समुत्पन्नसंशयात्मकज्ञानवान् , संशयश्चैकधर्मिकविरुद्धकोटिद्वयप्रकारकज्ञानम् , एतादृशश्च संशयो गौतमस्येत्थमभूत् , तथाहिवे भगवान के साम्हने विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें ललाट पर रखकर (सुस्सूसमाणे नमंसमाणे) उनके वचन को सुनने की इच्छा से नमस्कार और (पज्जुवासमाणे) पर्युपासना करते हुए ( एवं बयासी) इस प्रकार बोले ॥८॥
टीकार्थ-"तएणं” पद से सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जब वे ध्यान से निवृत्त हो चुके तब । " जायसड्डे" पद यह बतलाता है कि तत्त्वनिर्णयविषयकवान्छा उन्हें पहिले नहीं हुई, परन्तु जब वे ध्यान से निवृत्त हो चुके तब इस प्रकार की वाञ्छा उन्हें सामान्यरूप से चित्त में जगी, अर्थात् आगे जो अर्थतत्त्व वर्णन करने में आनेवाला है उसको जानने की इच्छा उन्हें उत्पन्न हुई । इसका कारण यह हुआ कि उन्हें इस विषय में संशय उत्पन्न हो गया था। संशय यह ज्ञान का एक दोष है जिसके कारण पदार्थ का यथार्थ स्वरूप समझने में चित्त की वृत्ति अस्थिर बनी रहती है। किसी भी कोटि में वह स्थिरता को धारण डायनशान भने त मन्न थने ताट ५२ २राभान (सुस्सूसमाणे नमसमाणे) तमना क्यन समजवानी छाथी नभ२४।२ मिने. (पज्जुवासमाणे) पयुपासना ४२॥ २४ (विणएण) विनयपू' ( एवं वयासी) २॥ प्रमाणे मोत्या.(८)
--'तए णं' ५४ा। सूत्रा२ मे मतावेछ न्यारे तेसो ध्यानमाथी निवृत्त थया त्यारे ! वात सनी. “ जायसड्ढे” ५४ को सतावे छ तत्व નિર્ણયવિષયક ઈચ્છા તેમને પહેલાં ન થઈ પણ જ્યારે તેઓ ધ્યાનમાંથી નિવૃત્ત થયા ત્યારે તે પ્રકારની ઈચ્છા સામાન્યરૂપે તેમના ચિત્તમાં જાગી. એટલે કે આગળ જે અર્થતત્વ વર્ણન કરવામાં આવવાનું છે, તેને વિષે જાણવાની ઈચ્છા તેમના મનમાં ઉત્પન્ન થઈ. એમ થવાનું કારણ એ હતું કે તેમને એ વિષયમાં સંશય ઉત્પન્ન થયા હતા. સંશયને જ્ઞાનને એક ષ ગણવામાં આવે છે, જે સંશયને કારણે પદાર્થનું યથાર્થ સ્વરૂપ સમજતી વખતે ચિત્તની વૃત્તિ અસ્થિર બની જાય છે. કઈ પણ કટિમાં તે સ્થિરતા ધારણ કરતી નથી.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧